Sunday 31 March 2024

आम आदमी पार्टी से हिसाब चुकता करने का अवसर गँवा दिया कांग्रेस ने




दिल्ली में आज लोकतंत्र बचाओ रैली हो रही है। राहुल गाँधी की न्याय यात्रा के समापन पर मुंबई में आयोजित रैली के बाद विपक्ष का यह दूसरा बड़ा शक्ति प्रदर्शन है।  इंडिया नामक गठजोड़ में शामिल नेता चुनाव के मौसम में इतनी जल्दी दोबारा एक मंच पर जमा होने राजी न हुए होते किंतु दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल के गिरफ्तार होने और आयकर विभाग द्वारा कांग्रेस को 1800 करोड़ के कर और जुर्माने का भुगतान करने की कारवाई ने उन्हें इस हेतु मजबूर कर दिया।

सही बात ये है कि कानूनी प्रक्रिया को इकतरफा बताकर विपक्ष जनता के मन में ये बात बिठाने का प्रयास कर रहा है कि भाजपा सत्ता का दुरूपयोग करते हुए उसको चुनाव मैदान में निहत्था और साधनविहीन करने में जुटी है। श्री केजरीवाल  की गिरफ्तारी और कांग्रेस के बैंक खातों के संचालन पर लगी रोक पर जिस तरह से अमेरिका, जर्मनी और संरासंघ से प्रतिक्रियाएं आईं उनसे विपक्ष का हौसला मजबूत हुआ किंतु भारत सरकार द्वारा जिस  कड़ाई से उनका जवाब दिया गया उससे ये लगा कि भाजपा को उनसे कोई  तकलीफ नहीं है।

      उक्त दोनों मामले अदालत के समक्ष आ चुके थे ।  दिल्ली के मुख्यमंत्री को अचानक नहीं पकड़ा गया । ईडी लंबे समय से उनको समन भेज रही थी जिनकी उन्होंने कोई परवाह नहीं की। और तो और संभावित गिरफ्तारी से बचने उच्च न्यायालय जा पहुंचे। उनको उम्मीद थी कि ईडी द्वारा भेजे गए समन की वैधानिकता पर सवाल उठाकर वे उसके बुलावे से बचते रहेंगे किंतु उच्च न्यायालय ने गिरफ्तारी पर रोक लगाने से मना करते हुए ईडी का हौसला बुलंद कर दिया। वरना एन चुनाव के समय वह उनको नहीं पकड़ती। इसी तरह काँग्रेस को ये मुगालता था कि आयकर विभाग की कारवाई को वह राजनीतिक प्रतिशोध का नाम देकर चुनाव तक बची रहेगी। पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और राहुल गाँधी ने पत्रकार वार्ता के जरिये ये रोना भी रोया कि  पार्टी के पास खर्च चलाने पैसे नहीं हैं। उसके बाद पार्टी उच्च न्यायालय भी गई किंतु वहाँ से भी राहत नहीं मिली।

     यदि मामला केवल श्री केजरीवाल की गिरफ्तारी तक सीमित रहता तब शायद कांग्रेस इस रैली हेतु राजी न  होती  किंतु आयकर विभाग द्वारा 1800 करोड़ की मांग भेजे जाने के बाद वह मजबूर नजर आई । हालांकि उच्चस्तरीय नेतृत्व भले ही आम आदमी पार्टी के संकट में साथ देने की सौजन्यता दिखा रहा हो किंतु निचले स्तर पर कांग्रेसी श्री केजरीवाल की गिरफ्तारी से मन ही मन प्रसन्न हैं। इसका कारण ये है कि दिल्ली और पंजाब में कांग्रेस  की दुर्गति का कारण यही पार्टी है।

      इन दिनों श्री केजरीवाल के पुराने भाषण का एक  वीडियो जमकर प्रसारित हो रहा है जिसमें वे केंद्र सरकार को ललकारते हुए कहते रहे हैं कि दम है तो सोनिया गाँधी को गिरफ्तार कर पूछताछ करो और  वैसा न करने पर ईडी और सीबीआई को भंग करने का उलाहना भी  दे रहे हैं। कांग्रेस के प्रति आम आदमी पार्टी का रवैया  दरअसल शराब नीति घोटाले के उजागर होने के बाद उदार हुआ। इसका एक कारण ये भी है कि उक्त घोटाला कांग्रेस की शिकायत पर ही चर्चा में आया। जब मनीष सिसौदिया को ईडी ने गिरफ्तार किया तब कांग्रेस उसका स्वागत करने में आगे - आगे रही।

     ऐसी स्थिति में कांग्रेस के लिए आम आदमी से हिसाब चुकता करने का ये सुनहरा अवसर था। पंजाब में कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली और दिल्ली में मात्र तीन। यदि कांग्रेस अकड़ जाती तब दोनों राज्यों में आम आदमी पार्टी को भारी घाटा होना तय था। गाँधी परिवार और स्व. शीला दीक्षित के भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर आम आदमी पार्टी ने दिल्ली पर कब्जा जमाया था। आज भी उसने उन आरोपों को न तो वापस लिया और न ही खेद व्यक्त किया। उसका जो रवैया है उसे देखते हुए यह पार्टी आगे भी कांग्रेस को  बख्श देगी ये सोचना निरी मूर्खता है। कांग्रेस का आयकर का मसला पूरी तरह तकनीकी है जिसमें उसे कर और दंड राशि देनी ही होगी। ऐसे में विपक्ष की रैली से उसे राहत मिलने वाली नहीं है। लेकिन पूरे विपक्ष को साथ लाकर आम आदमी पार्टी अपने भ्रष्टाचार के प्रति सहानुभूति अर्जित करने का दांव खेल रही है।

कांग्रेस के रणनीतिकार श्री केजरीवाल के मकड़जाल में इतनी आसानी से फंस गए ये देखकर आश्चर्य होता है। ऐसा लगता है गाँधी परिवार सहित कांग्रेस के अन्य नेताओं का आत्मविश्वास जवाब दे चुका है। इसीलिए आम आदमी पार्टी, उद्धव ठाकरे, अखिलेश यादव और लालू प्रसाद यादव आदि कांग्रेस पर हावी होने का साहस दिखा सके। ममता बैनर्जी ने तो उसे एक सीट तक नहीं दी। 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 29 March 2024

अर्थव्यवस्था को लेकर दो दिग्गजों के विरोधाभासी निष्कर्ष

भारत की आर्थिक प्रगति को लेकर दो भिन्न दृष्टिकोण सामने आए हैं। पहला रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन का है जिसमें उन्होंने 2047 को लक्ष्य बनाकर  अर्थव्यवस्था के मजबूत होने के मोदी सरकार के दावों को अवास्तविक बताते हुए कहा कि 7 प्रतिशत की विकास दर और रोजगार सृजन दोनों के बारे में मौजूदा केंद्र सरकार की सोच सच्चाई  से दूर है। दूसरी तरफ अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष  ( आई.एम.एफ) में भारत के कार्यकारी निदेशक कृष्णमूर्ति वेंकट सुब्रमण्यम का मानना है कि बीते 10 वर्षों में लागू आर्थिक नीतियों को दोगुना करते हुए आर्थिक  सुधारों में तेजी लाई जाए  तो हमारी अर्थव्यवस्था 2047 तक आठ प्रतिशत की दर से बढ़ सकती है। हालांकि उन्होंने  इसे बेहद महत्वाकांक्षी बताया किंतु श्री राजन की तरह असंभव बताने से भी बचे। जाहिर बात ये है कि श्री राजन घोषित तौर पर नरेंद्र मोदी के विरोधी हैं। ऐसे में उनका आलोचनात्मक होना लाजमी है। लेकिन उन्होंने कुछ बुनियादी मुद्दे उठाये हैं जिनसे भले ही असहमति हो किंतु उन पर विमर्श अवश्य होना चाहिए। मसलन आधी आबादी की आयु 30 वर्ष  से कम है किंतु इतनी बड़ी जनशक्ति को रोजगार नहीं मिल पाने के कारण मानव पूंजी नहीं बनाया जा सका। कोरोना काल के बाद विद्यार्थियों की शिक्षा बीच में छूट जाने का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि सुशिक्षित युवा पीढ़ी के बिना 2047 में विकसित भारत का सपना ख्याली पुलाव जैसा है। यद्यपि ये पहला अवसर नहीं है जब रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर द्वारा केंद्र सरकार की  आर्थिक नीतियों की खिल्ली उड़ाई गई हो। कांग्रेस से उनकी नजदीकी  किसी से छिपी नहीं है। राहुल गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा में शिरकत कर चुके श्री राजन उनको एक होशियार व्यक्ति बताकर उनकी प्रशंसा करने में भी आगे रहे। सितंबर 2013 से अगले तीन साल तक वे रिजर्व बैंक के गवर्नर थे। चूंकि उनका ज्यादातर कार्यकाल मोदी सरकार के साथ बीता इसलिए उस दौरान मिले अनुभवों  के आधार पर वे उसके प्रति दुराग्रहों से भर उठे। तत्कालीन वित्तमंत्री स्व.अरुण जेटली से जब भी  श्री राजन के साथ मतभेद के बारे में पूछा गया तो उन्होंने हँसकर टाल दिया। लेकिन जब उन्हें बतौर गवर्नर दूसरा कार्यकाल नहीं मिला तो उसके बाद से वे इस सरकार की आर्थिक नीतियों के कटु आलोचक के रूप में सामने आ गए ।  और इसी वजह से विपक्ष खास तौर पर कांग्रेस को  रास आने लगे। उन्होंने  खुद भी स्वीकार किया कि एक दशक से वे राहुल से जुड़े हुए हैं। हो सकता है मनमोहन सरकार के अंतिम वर्ष में उन्हें रिजर्व बैंक की गवर्नरी उसी वजह से मिली थी। बहरहाल जबसे वे उस पद से हटे तभी से मोदी सरकार की आर्थिक नीतियां उनके निशाने पर रही हैं और वे सदैव उनको लेकर निराशाजनक निष्कर्ष ही निकालते रहे। विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों एवं रेटिंग एजेंसियों द्वारा देश की विकास दर के बारे में जो उत्साहवर्धक आकलन किया जाता रहा वह भी श्री राजन के गले नहीं उतरा। लोकसभा चुनाव के पहले उन्होंने 2047 तक देश की आर्थिक उड़ान पर जिस तरह का नकारात्मक रवैया दिखाया वह विपक्ष को निश्चित ही रास आयेगा। यद्यपि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष में कार्यकारी निदेशक के तौर पर कार्यरत श्री सुब्रमण्यम ने  श्री राजन के सर्वथा विपरीत 2047 तक 8 प्रतिशत की वार्षिक  दर से विकास होने की बात कहकर उम्मीदों को जिंदा रखा है। इस बारे में विचारणीय बात ये है कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक द्वारा किये गए आकलन  ही विदेशी निवेशकों को आकर्षित करते हैं।  हाल ही में आई एक रिपोर्ट के अनुसार हमारा शेयर बाजार अब विदेशी पूंजी पर पूरी तरह निर्भर नहीं रहा। बीच में कई मर्तबा देखने में आया कि विदेशी निवेशकों ने जब भी बड़ी मात्रा में अपना निवेश निकाला तब घरेलू निवेशकों ने अर्थव्यवस्था में भरोसा जताते हुए शेयर बाजार को गिरने से बचाया।   इसके कारण  भारत के प्रति वैश्विक अवधारणा में जो सकारात्मक बदलाव आया वह श्री राजन के आकलन पर सवाल खड़े करने के लिए पर्याप्त है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष में महत्वपूर्ण दायित्व संभाल रहे श्री सुब्रमण्यम द्वारा जो बात कही गई वह इस लिहाज से काबिले गौर है कि केंद्र सरकार ने अपने दो कार्यकाल में जिन आर्थिक नीतियों को लागू किया उनको दोगुना किये जाने की जरूरत है। प्रधानमंत्री भी  तीसरी बार सत्ता में लौटने पर बड़े और कड़े निर्णय करने की बात कह चुके हैं। यदि लोकसभा चुनाव में उनको फिर जनादेश मिला तो उसमें राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के साथ आर्थिक नीतियों के सफल क्रियान्वयन का भी योगदान होगा। गरीब कल्याण योजनाएं इस बारे में उल्लेखनीय हैं। 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 28 March 2024

गलतियों पर गलतियाँ करते जा रहे केजरीवाल


दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को उच्च न्यायालय से भी राहत न मिलने के बाद वे लंबे समय तक रिहाई से वंचित रहेंगे। गत दिवस श्री केजरीवाल के वकील द्वारा प्रस्तुत याचिका पर जवाब देने के लिए ईडी को 3 अप्रैल तक का समय दिया गया है। आज  रिमांड यदि अदालत ने नहीं बढ़ाया तब उनको जेल जाना पड़ेगा। इस मामले  में अब तक  गिरफ्तार किये गए एक - दो को ही जमानत मिली, वह भी सरकारी गवाह बनने के बाद। मनीष सिसौदिया और संजय सिंह की जमानत अर्जियां लगातार जिस प्रकार से रद्द होती रहीं उसके आधार पर ये कयास लग रहे हैं कि श्री केजरीवाल को जमानत मिलना  आसान नहीं होगा। ऐसे में सवाल उठ रहा है कि दिल्ली की सरकार कैसे चलेगी? अब तक की परंपरानुसार सत्ता में बैठे नेता की गिरफ्तारी होने पर या तो वह स्वयं पद से इस्तीफा दे देता था या उसे बर्खास्त किया जाता रहा। गिरफ्तारी की संभावना होते ही पद त्यागने की परिपाटी का पालन करते हुए ही झारखण्ड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने इस्तीफा दे दिया था। हालांकि दिल्ली सरकार के उपमुख्यमंत्री श्री सिसौदिया और मंत्री सत्येंद्र जैन ने गिरफ्तार होने के बाद लंबे समय तक कुर्सी नहीं छोड़ी। लेकिन जब ये लगा कि अदालत उनको राहत नहीं दे रही तब इस्तीफा दिया ताकि दो नये मंत्री बनाये जा सकें और उनके विभागों का काम चल सके। उल्लेखनीय हैं श्री केजरीवाल ने अपने पास कोई विभाग नहीं रखा और श्री सिसौदिया के पास ज्यादातर बड़े महकमे थे। उक्त दोनों को जेल में रहते  हुए मंत्री के दायित्व निर्वहन की छूट  मुख्यमंत्री द्वारा क्यों नहीं दी गई, ये बड़ा सवाल है। सही बात तो ये है कि श्री केजरीवाल भी इस सच्चाई से अवगत हैं कि जेल से सरकारी कामकाज संभव नहीं क्योंकि वहाँ कार्यालायीन व्यवस्था मुश्किल है। गिरफ्तारी के समय हो सकता है उनको उम्मीद रही होगी कि अगले दिन जमानत मिल जायेगी किंतु ऐसा नहीं हुआ। ऐसे में  जेल से सरकार चलाने की  ज़िद सिवाय हेकड़ी के और कुछ भी नहीं। सही बात ये है कि  आम आदमी पार्टी में कोई ऐसा नेता नहीं है जो सरकार चलाने में सक्षम हो। दूसरा मुख्यमंत्री इस बात के प्रति सशंकित हैं कि  उनके समानांतर कोई और नेता ताकतवर न बन जाए। उनके गिरफ्तार होते ही उनकी पत्नी को मुख्यमंत्री बनाने की चर्चा भी चली किन्तु पार्टी के भीतर बगावत की आशंका को देखते हुए उन्होंने फिलहाल तो उस निर्णय को लंबित कर दिया किंतु जिस तरह से वे पत्नी के जरिये अपने संदेश प्रसारित करवा रहे हैं उनमें भविष्य के संकेत छिपे हुए हैं। उधर उपराज्यपाल ने जेल से सरकार चलाने के श्री केजरीवाल के फैसले की संवैधानिकता पर जो सवाल उठाए हैं उनसे लगता है कि दिल्ली राष्ट्रपति शासन की ओर बढ़ रही है। मुख्यमंत्री भी इस बात को जानते हैं और इसीलिए वे इस्तीफा न देकर सहानुभूति बटोरना चाह रहे हैं ।  लेकिन इस पेचीदा स्थिति  के लिए श्री केजरीवाल ही उत्तरदायी हैं। ईडी के समन को वे जिस प्रकार ठुकराते रहे उससे उनकी गिरफ्तारी का रास्ता पुख्ता होता गया। दिल्ली उच्च न्यायालय ने ईडी द्वारा पेश किये गए प्रमाण देखने के बाद ही उनको गिरफ्तारी से राहत  न देने का निर्णय सुनाया था। ऐसे में आम आदमी पार्टी द्वारा ईडी और केंद्र सरकार के विरुद्ध किए जा रहे आंदोलन का कोई नैतिक आधार नहीं बचा। और जो कांग्रेस इस गिरफ्तारी को लेकर मुखर है वह भूल जाती है कि श्री केजरीवाल को इस हालत तक पहुंचाने में भाजपा के साथ वह भी जिम्मेदार है। जिस शराब नीति को लेकर ये मामला बना उसमें भ्रष्टाचार की शिकायत कांग्रेस ने भी करते हुए श्री केजरीवाल पर जोरदार हमले किये थे। बाद में इंडिया गठबन्धन में उनके शामिल होने के बाद उसने अपना मुँह बंद कर लिया। सही बात ये भी है कि आम आदमी पार्टी कांग्रेस के साथ गठबंधन के लिए राजी भी शराब घोटाले पर चुप रहने की शर्त पर हुई थी। उसके एवज में दिल्ली में तीन लोकसभा सीटें उसके लिए छोड़ दीं। कुल मिलाकर मामला ये है कि श्री केजरीवाल ज्यादा होशियारी के फेर में मूर्खता कर बैठे। ईडी के पहले बुलावे पर वे चले गए होते तो शराब घोटाले की जाँच  अंजाम तक पहुँच जाती ।  और हो सकता है जेल में बंद उनके नेता जमानत पर छूट जाते। गिरफ्तारी के बाद इस्तीफा न देकर वे और भी बड़ी गलती कर रहे हैं। यदि राज्य में राष्ट्रपति शासन लग गया तब श्री केजरीवाल की  वजनदारी भी जाती रहेगी। जो काँग्रेस आज उनके गम में आँसू बहा रही है वह  पल्ला झाड़ने में देर नहीं करेगी क्योंकि मन ही मन वह भी आम आदमी पार्टी से खार खाए बैठी है। पंजाब के एक सांसद और विधायक के पार्टी छोड़ने से श्री केजरीवाल को सतर्क हो जाना चाहिए। 


-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 27 March 2024

महाराष्ट्र में जंग शुरु होने के पहले ही बिखरने लगा विपक्षी खेमा



विपक्षी गठबंधन इंडिया जिन दो राज्यों में सबसे अधिक मजबूत माना जा रहा था वे तमिलनाडु और महाराष्ट्र हैं। तमिलनाडु में तो द्रमुक की सरकार और संगठन दोनों बेहद मजबूत हैं। इसीलिए सभी चुनाव पूर्ण सर्वेक्षण वहाँ इंडिया की जबर्दस्त जीत की भविष्यवाणी कर रहे हैं। शुरुआत में लग रहा था कि महाराष्ट्र  भाजपा की राह में बड़ी बाधा बनेगा। कांग्रेस, एनसीपी और उद्धव ठाकरे गुट की शिवसेना  के अलावा प्रकाश आंबेडकर जैसे कद्दावर दलित नेता के भी गठबंधन के साथ आ जाने से उसकी ताकत बढ़ी हुई नजर आ रही थी। राहुल गाँधी की न्याय यात्रा का समापन मुंबई में जिस विशाल रैली में हुआ उससे पूरा विपक्ष उत्साहित था। गठबंधन के बड़े चेहरे भी इसी राज्य से हैं। शिवसेना और एनसीपी में हुई टूटन और कांग्रेस से अशोक चव्हाण और मिलिंद देवड़ा के निकलने के कारण राजनीतिक खींचातानी काफी बढ़ गई थी। ये बात भी तेजी से उठी कि एकनाथ शिंदे और अजीत पवार को सत्ता में बड़ी हिस्सेदारी देने से भाजपा में अंदरूनी असंतोष है। अशोक चव्हाण को पार्टी में आते ही राज्यसभा सीट मिलने की भी चर्चा रही। विपक्षी गठबंधन भाजपा में आये नेताओं के भ्रष्टाचार में लिप्त होने का मुद्दा भी गरमा रहा था। इंडिया में शामिल पार्टियों में सीटों का बंटवारा भी सौजन्यता के साथ होने की बात प्रचारित की जाती रही। शरद पवार और उद्धव ठाकरे जैसे बड़े नेताओं के रहते किसी भी मतभेद को सुलझाने की उम्मीद भी जताई जा रही थी। लेकिन न्याय यात्रा की समाप्ति के पहले तक इंडिया की जो एकजुटता सतह पर तैरती लग रही थी वह कुछ दिनों में ही बिखरती लगने लगी। जैसे ही चुनाव आयोग ने चुनाव कार्यक्रम घोषित किया और सीटों के चयन का कार्य शुरू हुआ, मतभेद सामने आने लगे। उद्धव ठाकरे की शिवसेना ने बिना कांग्रेस को विश्वास में लिए 17 प्रत्याशी घोषित कर दिये। मुंबई में संजय निरुपम जैसे नेता जिस सीट पर नजरें टिकाए थे वहाँ उद्धव द्वारा अपना उम्मीदवार उतारे जाने से कांग्रेस नाराज है। श्री आंबेडकर की  वंचित बहुजन अगाड़ी ने 8 प्रत्याशी घोषित कर गठबंधन को झटका दे दिया  वहीं स्वाभिमानी शेतकरी संगठन ने भी महा विकास अगाड़ी को ठेंगा दिखा दिया। पार्टी हाथ से चली जाने के बाद शरद पवार बूढ़े शेर की तरह लाचार नजर आने लगे हैं। बारामती में उनकी बेटी सुप्रिया सुले के विरुद्ध अजीत पवार की पत्नी के कूद जाने से श्री पवार को अपनी विरासत के खत्म होने की चिंता सताने लगी है। इसी तरह उद्धव भी अपने परिवार के भविष्य को लेकर परेशान हैं। एकनाथ शिंदे उनके प्रभाव क्षेत्र में निरंतर सेंध लगाते जा रहे हैं। कांग्रेस भी श्री ठाकरे को ज्यादा ताकत देने में झिझक रही है। इस सबके विपरीत  एनडीए में सीटों का बंटवारा अपेक्षाकृत शांति से निपट गया। चूंकि भाजपा दबाव बनाने की स्थिति में है इसलिए उसके सहयोगी दल कड़ी सौदेबाजी से बचते दिखे। बीते दो - तीन दिनों के भीतर ही महाराष्ट्र में इंडिया के घटक दलों में जो खींचातानी देखने मिल रही है वह विपक्ष के लिए अच्छा संकेत नहीं है जहाँ उसके लिए अच्छी संभावनाएं बताई जा रही थीं। समस्या एनडीए में न हों ये कहना गलत होगा किंतु उसके सबसे बड़े दल भाजपा का प्रबंधन, आपसी संवाद और त्वरित निर्णय लेने की क्षमता के कारण छोटी - बड़ी समस्याओं का हल समय रहते हो जाता है। पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने गठबंधन बनाने में इंडिया से पिछड़ने के बाद जिस तेजी से कदम बढ़ाये उसके कारण वह विभिन्न राज्यों में मजबूती के साथ खड़े होने की स्थिति में आ गई। बिहार के बाद महाराष्ट्र में एनडीए की शुरुआत धीमी रही किंतु अब वह आगे है। महाराष्ट्र में यदि इंडिया के सदस्यों में तालमेल बिगड़ा तो उसका प्रभाव अन्य राज्यों में भी दिखाई देगा। संजय निरुपम ने कांग्रेस नेतृत्व से मांग की है कि पार्टी बचाने वह उद्धव ठाकरे के साथ गठबंधन से बाहर आये। कुल मिलाकर विपक्षी गठबंधन के आसार अच्छे नजर नहीं आ रहे। भाजपा ने महाराष्ट्र में जिस प्रकार से विपक्ष में सेंध लगाई उसके कारण इंडिया की एकता खतरे में पड़ रही है। शरद पवार और उद्धव ठाकरे भी अपनी वजनदारी खोते जा रहे हैं। आने वाले दिन महाराष्ट्र की राजनीति में उठापटक भरे होना तय है जिसका असर राष्ट्रीय राजनीति पर पड़े बिना नहीं रहेगा। 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Sunday 24 March 2024

म.प्र में सूपड़ा साफ होने से बचाने में लगी कांग्रेस दिग्विजय को लड़वाकर कमलनाथ को दिया संदेश




    विधानसभा चुनाव में कांग्रेस भाजपा पर ये तंज कसती थी कि उसके पास मजबूत प्रत्याशी नहीं होने से उसने 6 सांसदों को उम्मीदवार बनाया जिनमें 3 तो केंद्र सरकार में मंत्री थे। राष्ट्रीय महामंत्री रहे कैलाश विजयवर्गीय को इंदौर से उतारा गया। कांग्रेस के उस व्यंग्य में कुछ हद तक सच्चाई भी थी क्योंकि सारे विश्लेषण म.प्र में भाजपा और कांग्रेस के बीच करीबी संघर्ष बता रहे थे। लेकिन जब परिणाम आये तब भाजपा हाईकमान की रणनीति सटीक साबित हो गई। हालांकि केंद्रीय मंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते मंडला जिले की निवास और सांसद गणेश सिंह सतना सीट से हार गए किंतु नरेंद्र सिंह तोमर - दिमनी, प्रहलाद सिंह पटेल- नरसिंहपुर, कैलाश विजयवर्गीय - इंदौर, रीति पाठक - सिंगरौली और उदय प्रताप सिंह गाडरवारा से बड़े अंतर से जीते।
      भाजपा ने उक्त प्रयोग अन्य राज्यों में भी अपनाया और उसे अपेक्षित सफलता मिली।  ये बात सही है कि बड़े चेहरों को छोटे चुनाव में उतारने से एक तो पार्टी कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ा वहीं दूसरी तरफ विपक्षी उम्मीदवार और उसकी पार्टी मनोवैज्ञानिक दबाव में आ गई। उस प्रयोग की सफलता ने कांग्रेस को भी उसका अनुसरण करने प्रेरित किया जिसका प्रमाण उसके द्वारा पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को राजगढ़ और पूर्व केंद्रीय मंत्री कांतिलाल भूरिया को रतलाम से प्रत्याशी बनाए जाने से मिला।   विधानसभा चुनाव में मिली करारी पराजय के बाद  मनोबल पूरी तरह टूटने से  उसके पास प्रत्याशियों का टोटा हो चला था। बड़े नेता सुनिश्चित पराजय की वजह से  मुँह चुराते फिर रहे थे। मुख्यमंत्री बनने की दौड़ में मात खाने के बाद कमलनाथ के जबलपुर से लड़ने की चर्चा चली तो उन्होंने छिंदवाड़ा से बाहर जाने की बात को नकार दिया। वैसे भी भाजपा में उनके और बेटे के आने की अटकलबाजियों ने उनकी साख पार्टी के भीतर काफी कम कर दी। यहाँ तक कि छिंदवाड़ा में उनके अति विश्वस्त दीपक सक्सेना तक ने उनका साथ छोड़ दिया। कांग्रेस से जिस बड़ी संख्या में नेताओं की भगदड़ मची हुई है उसने भी  हौसले ठंडे कर रखे हैं।

    सबसे बड़ी बात ये देखने मिल रही है कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष जीतू पटवारी और नेता प्रतिपक्ष उमंग सिंगार को नियुक्त किये जाने के हायकमान के फैसले को भी कांग्रेसजन  पचा नहीं पा रहे। कमलनाथ भी उन्हें हटाये जाने के तरीके से अपमानित महसूस कर रहे हैं। ऐसे में प्रदेश कांग्रेस में बड़ा शून्य पैदा हो गया था। इसीलिए दिग्विजय सिंह और कांतिलाल भूरिया को मैदान में उतारा गया है। दरअसल पार्टी ये संदेश देना चाहती है कि उसके पास अभी भी कुछ योद्धा शेष हैं। इसके अलावा  कमलनाथ को भी ये एहसास करवाया जा रहा है कि उनके छिंदवाड़ा में बैठ जाने के बावजूद कांग्रेस पूरे प्रदेश में लड़ने का माद्दा रखती है।

       राजगढ़ दिग्विजय सिंह की पुरानी सीट है। हालांकि उनकी जीत सुनिश्चित नहीं है क्योंकि ज्यादातर विधायक भाजपा के हैं। लेकिन उनके पास खोने को कुछ नहीं है। हारने पर  भी राज्यसभा सदस्य तो वे रहेंगे ही। इस दांव से वे फिर से कांग्रेस हायकमान के चहेते हो गए।सही बात तो ये है कि उनको अपने पुत्र जयवर्धन की फिक्र सता रही है। उसी वजह से उनका भाई लक्षमण सिंह नाराज हो उठे हैं।
      कांग्रेस द्वारा दो दिग्गजों को लोकसभा चुनाव लड़वाने का क्या लाभ होगा ये तो परिणाम के दिन ही पता चलेगा किंतु इस कदम के जरिये हायकमान ने दिग्विजय को विवादास्पद बयान देने से भी रोक दिया है जिनकी वजह  से उसको जबर्दस्त नुकसान उठाना पड़ता है। चूंकि वे खुद उम्मीदवार बन गए इसलिए जुबान पर नियंत्रण रखेंगे।

     हालांकि दो वरिष्टों को लड़वाने के बाद भी कांग्रेस चुनौती देती नहीं दिख रही। उसके कुछ प्रत्याशी दबाववश तो कुछ प्रचारित होने के लिए लड़ रहे हैं। सही बात तो ये है कि कांग्रेस का लक्ष्य भाजपा को सभी 29 सीटें जीतने से रोकना मात्र रह गया है। छिंदवाड़ा में नकुलनाथ बुरी तरह घिर चुके हैं जिस वजह से उनके पिताश्री वहीं फंसे हैं। खुद कांग्रेसी कह रहे हैं कि यदि पांच सीटें भी मिल गईं तो वह बड़ी उपलब्धि होगी। 


रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 23 March 2024

केजरीवाल का बचाव कर अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मार रही कांग्रेस



 दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को ईडी द्वारा गिरफ़्तार करने के बाद 6 दिन के रिमांड पर ले लिया गया।  चर्चित शराब घोटाले के सिलसिले में दिल्ली के पूर्व उपमुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया और राज्यसभा सदस्य संजय सिंह पहले से जेल में हैं।  तेलंगाना के पूर्व मुख्यमंत्री के.सी. राव की बेटी भी गिरफ्त में है । उक्त घोटाले में कुछ और लोग भी जेल की हवा खा रहे हैं। ये प्रकरण इतना उलझ जाएगा ये अनुमान किसी को न था। दिल्ली की  नई शराब नीति पर जब कांग्रेस और भाजपा ने बवाल मचाया तब दिल्ली सरकार के एक अधिकारी ने उपराज्यपाल से उसमें भ्रष्टाचार  की शिकायत की। जिसके बाद श्री केजरीवाल  समझ गए कि वे लपेटे में आ जाएंगे तो वह नीति रद्द कर दी गई। लेकिन कांग्रेस और भाजपा द्वारा की गई  शिकायतें और अधिकारी की रिपोर्ट पर सीबीआई और ईडी सक्रिय हुईं और फिर  कुछ व्यापारियों सहित  श्री सिसौदिया और श्री सिंह पकड़े गए। जाँच में उजागर हुआ कि शराब नीति में मिली घूस का उपयोग आम आदमी पार्टी ने गोवा विधानसभा चुनाव में किया और श्री केजरीवाल भी घोटाले  से जुड़े हुए थे। इस पर उन्हें पूछताछ हेतु समन भेजे जाते रहे किंतु वे किसी न किसी बहाने से उनको अनदेखा करते गए। 9 समन भेजने के बाद भी पूछताछ हेतु न आना उन्हें संदिग्ध बनाने के लिए पर्याप्त था। दो दिन पहले उन्होंने अपनी संभावित गिरफ्तारी रोकने  उच्च न्यायालय की शरण ली किंतु उसने उनकी अर्जी ठुकरा दी जिसके बाद ईडी ने  उनको गिरफ्तार कर लिया। चूंकि लोकसभा चुनाव सिर पर हैं इसलिए आम आदमी पार्टी सहित अधिकांश विपक्ष भाजपा और केंद्र सरकार पर चढ़ बैठा। गत दिवस अदालत ने रिमांड अर्जी मंजूर करते हुए श्री  केजरीवाल की दिक्कतें बढ़ा दीं।   उसके बाद सवाल उठा कि दिल्ली सरकार कैसे चलेगी क्योंकि श्री केजरीवाल ने इस्तीफा देने से इंकार करते हुए जेल से हुकूमत चलाने की बात कही। इसके संवैधानिक पहलू पर बहस चल रही है क्योंकि मुख्यमंत्री रहते हुए किसी की  ये पहली गिरफ्तारी है। हाल ही में झारखण्ड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने भी गिरफ्तारी के पहले इस्तीफा दे दिया था। इस बारे में संविधान चूंकि मौन है इसलिए क्या होगा ये जल्द सामने आ जायेगा। कुछ लोगों का कहना है यदि मुख्यमंत्री इस्तीफा नहीं देंगे तो राष्ट्रपति शासन की संभावना उत्पन्न हो सकती है। आश्चर्य ये है कि यही केजरीवाल ईडी को ललकारते हुए सोनिया गांधी को गिरफ्तार करने कहते थे । शराब नीति के विरोध में कांग्रेस नेताओं के पुराने साक्षात्कार भी चर्चा का विषय बने हुए हैं। जहाँ तक सवाल  श्री केजरीवाल को गिरफ्तार किये जाने के औचित्य का है तो ईडी के 9 समन  रद्दी में फेंकने का दुस्साहस निश्चित तौर पर अक्षम्य है। मुख्यमंत्री किसी जाँच एजेंसी के बुलाये जाने पर एक दो बार तो व्यस्तता का बहाना बना सकता है किंतु वह न जाने की ज़िद पकड़ ले तो उसका नैतिक और कानूनी पक्ष स्वाभविक रूप से कमजोर हो जाता है। पूछताछ के लिए ईडी दफ्तर में न आकर श्री केजरीवाल ने चोर की दाढ़ी में तिनका की कहावत को चरितार्थ कर दिया। उनको  पता था कि अंततः वे गिरफ्तार होंगे। ऐसे में उनकी गिरफ्तारी पर ईडी और केंद्र सरकार पर आरोप लगाने से विपक्ष अपनी खुद की कमजोरी उजागर कर रहा है। जो कांग्रेस इस मामले में केजरीवाल सरकार का बचाव कर रही है वह खुद शराब नीति में भ्रष्टाचार को उजागर करने में अग्रणी रही। इसीलिए दिल्ली और पंजाब के उसके तमाम नेता लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी के साथ गठबन्धन के विरुद्ध थे। लेकिन  आलाकमान ने उस विरोध को नजरंदाज कर दिया।  श्री केजरीवाल की गिरफ्तारी का विरोध कर रहे  गाँधी परिवार को अपने नेताओं के उन बयानों को निकालकर सुनना चाहिए जिनमें श्री सिसौदिया की गिरफ्तारी का स्वागत करते हुए इस बात का ढोल पीटा गया था कि शराब घोटाला उसने ही उजागर किया था। ऐसा लगता है कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने गलतियों से सबक नहीं लेने की कसम खाई है। इसीलिये जिस आम आदमी पार्टी ने उसकी लुटिया डुबोई उसी के नेता के बचाव में वह आगे - आगे हो रही है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 22 March 2024

लॉटरी किंग द्वारा द्रमुक और तृणमूल को दिये बड़े चंदे को क्या नाम देंगे राहुल


सर्वोच्च न्यायालय की सख्ती के बाद आखिरकार स्टेट बैंक ने इलेक्टोरल बॉण्ड के वे सभी विवरण सार्वजनिक कर दिये जिनसे ये पता चल सकेगा कि बॉण्ड  किसने खरीदा और किस पार्टी ने उसे भुनाया। जो मोटी - मोटी जानकारी आई है उसके अनुसार लॉटरी का व्यवसाय करने वाली फ्यूचर गेमिंग नामक कंपनी ने सबसे अधिक 1300 करोड़ के बॉण्ड खरीदे थे। जब यह बात उजागर हुई तभी से राजनीतिक क्षेत्रों में बवाल मचा हुआ है। इसका कारण उस कंपनी के कारोबार और  मुनाफे को देखते हुए चंदे की राशि का गैर अनुपातिक होना है। उस पर छापे और संपत्ति जप्ती की कार्रवाई भी हो चुकी थी। ऐसे में भाजपा सबसे ज्यादा निशाने पर थी। चूंकि उसे बॉण्ड के जरिये सबसे अधिक चंदा हासिल हुआ इसलिए माना जा रहा था कि उक्त लॉटरी कंपनी ने भाजपा को ही सबसे अधिक उपकृत किया होगा। लेकिन जब द्रमुक ने उसे मिले बॉण्ड का विवरण जारी किया तब ये बात सामने आई कि उसे मिले कुल 656 करोड़ के बॉण्ड में 503 करोड़ के बॉण्ड फ्यूचर गेमिंग द्वारा दिये गए। वहीं तृणमूल कांग्रेस को उसने 542 करोड़ रु. के बॉण्ड देकर उपकृत किया। भाजपा को उससे 100 करोड़ मिले तो कांग्रेस को भी लॉटरी कंपनी ने 50 करोड़ की मदद दी। दूसरे सबसे बड़े दानदाता मेघा समूह ने 1192 करोड़ के बॉण्ड खरीदे जिनमें 584 करोड़ भाजपा और 110 करोड़ कांग्रेस के खाते में गए। इन आंकड़ों के अलावा अन्य जिन कंपनियों ने इलेक्टोरल बॉण्ड खरीदे उनमें ज्यादातर ने बड़ा हिस्सा भाजपा को देने के साथ ही कुछ न कुछ कांग्रेस को भी दिया। फ्यूचर गेमिंग और मेघा समूह द्वारा दिये चंदे को लेकर सबसे अधिक सवाल उठ रहे थे। एक छापे के बाद बॉण्ड खरीदने तो दूसरा उसे मिले बड़े ठेकों के कारण चर्चा में आया। कांग्रेस नेता राहुल गाँधी बॉण्ड से मिले चंदे को मोदी सरकार द्वारा की गई हफ्ता वसूली बताते फिर रहे हैं। इसे उन्होंने आजादी के बाद का सबसे बड़ा घोटाला भी बताया। चूंकि भाजपा को कुल खरीदे गए बॉण्ड का सबसे अधिक हिस्सा मिला इसलिए उसको कठघरे में खड़ा किया जाना सबसे आसान था। ये आशंका भी राजनीतिक जगत में जताई जाने लगी थी कि जैसे ही स्टेट बैंक बॉण्ड के नंबरों के साथ लाभार्थी का नाम उजागर करेगा त्योंही मोदी सरकार पर आसमान टूट पड़ेगा। और लोकसभा चुनाव में यह मुद्दा भाजपा के साथ वैसे ही चिपक जायेगा जैसा 1989 में बोफोर्स स्व. राजीव गाँधी के साथ जुड़ गया था। लेकिन गत दिवस पूरी जानकारी आने के बाद अब श्री गाँधी हफ्ता वसूली के आरोप को किस मुँह से दोहराएंगे क्योंकि चाहे फ्यूचर गेमिंग हो या मेघा समूह, दोनों ने कांग्रेस को भी बॉण्ड के जरिये चन्दा तो दिया ही। रही बात कम ज्यादा की तो जाहिर है पार्टी को जब भरपूर  वोट  मिलते  थे तब उस पर नोटों की भी जमकर बरसात होती थी। लेकिन जैसे - जैसे उसे मिलने वाले वोट घटते गए वैसे - वैसे चंदा बाजार में भी उसका भाव गिरता गया। राहुल यदि इस मामले में निष्पक्ष हैं तब उनको इंडिया समूह के सबसे ताकतवर घटकों क्रमशः द्रमुक और तृणमूल को फ्यूचर गेमिंग से मिले  भारी - भरकम चंदे पर भी सवाल उठाना चाहिए। जिसने कुल 1300 करोड़ के बॉण्ड का तीन चौथाई हिस्सा उक्त दोनों पार्टियों को देने के साथ ही कांग्रेस को भी 50 करोड़ से नवाजा। लॉटरी का व्यवसाय करने वाली कंपनी द्वारा द्रमुक और तृणमूल को किस दबाव में तकरीबन 1000 करोड़ दिये ये सवाल कांग्रेस को अपने सहयोगियों से पूछना चाहिए। राहुल गाँधी विपक्ष के सबसे प्रमुख नेता हैं। सरकार को कठघरे में खड़ा करना उनका मुख्य कार्य है किंतु   आरोप लगाने के पहले उनको ये देखना चाहिए कि वे कहीं उन्हीं के गले न पड़ जाएं। इस मामले में  जल्दबाजी में वे भूल गए कि उनकी पार्टी भी चंदे के खेल में शामिल रही जिसे वे हफ्ता वसूली बताते रहे। जानकार लोग पहले से ही ये मानकर चल रहे थे कि बॉण्ड विवाद का अंत हवाला कांड जैसा होगा। चूंकि कांग्रेस सहित अनेक विपक्षी पार्टियों ने भी बॉण्ड से चंदा लिया इसलिए वे किसी और पर आरोप लगाने का अधिकार खो चुकी हैं। द्रमुक और तृणमूल को लॉटरी किंग से मिली बड़ी रकम भी विपक्ष को संदेह के घेरे में लाती है। देखना ये है कि श्री गाँधी अपने सहयोगी दलों को मिले बड़े  चंदे को क्या नाम देते हैं? 


-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 21 March 2024

म.प्र कांग्रेस में ऐसी भगदड़ पहले कभी नहीं दिखी

म.प्र देश के उन राज्यों में है जहाँ की राजनीति पूरी दो ध्रुवीय हो चुकी है। एक जमाना था जब समाजवादी आंदोलन का जबरदस्त प्रभाव  इस राज्य में  था। लेकिन 70 के दशक से जनसंघ ने उसे पीछे छोड़कर मुख्य विपक्षी दल के रूप में अपना स्थान बना लिया। बावजूद उसके समाजवादी और वामपंथी कुछ क्षेत्रों में अपना अस्तित्व बनाये रख सके। लेकिन जनता पार्टी के विघटन के बाद ज्योंही भाजपा का उदय हुआ इस प्रदेश में वह कांग्रेस के लिए एकमात्र  चुनौती बनती गई। 1989 में उठी रामलहर के बाद तो बाकी गैर कांग्रेसी दल धीरे - धीरे अप्रासंगिक होते गए। सपा - बसपा के कुछ विधायक जीते किंतु वे भी दलबदल के खेल में लिप्त होने  के कारण जनता की निगाहों से गिरते गए। 2003 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 10 साल चली दिग्विजय सिंह सरकार को पराजित कर म.प्र में भारी बहुमत से जो सरकार बनाई वह 2018 तक अपराजेय चलती रही। शुरुआती दौर में उमाश्री भारती और बाबूलाल गौर के रूप में जल्दी - जल्दी मुख्यमंत्री बदलने से पार्टी की क्षमता पर सवाल उठे लेकिन शिवराज सिंह चौहान के गद्दी संभालने के बाद म.प्र भी गुजरात जैसा भाजपा का मजबूत गढ़ बन गया। हालांकि 2018 में वह गच्चा खा गई और कुछ सीटों की कमी से सत्ता उसके हाथ से खिसक गई किंतु मात्र 15 महीने बाद ही ज्योतिरादित्य सिंधिया की बगावत के सहारे शिवराज फिर मुख्यमंत्री बन बैठे। कांग्रेस ने उसके बाद के समय में काफी जोर लगाया। मुख्यमंत्री पद गंवाने के बाद कमलनाथ घायल शेर की तरह बेहद आक्रामक रहे और 2023 के चुनाव में वापसी का आत्मविश्वास कांग्रेस कार्यकर्ताओं में भरने  में  काफी हद तक सफल रहे। अधिकांश सर्वेक्षण म.प्र में नजदीकी मुकाबला बता रहे थे। लेकिन शिवराज ने लाड़ली बहना योजना लाकर बाजी उलट दी। पार्टी के आला नेतृत्व ने 2018 के कटु अनुभव से सबक लेते हुए जबरदस्त मोर्चेबंदी की और कांग्रेस की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। जो कमलनाथ सत्ता में आने का ख्वाब देख रहे थे उनकी स्थिति भी 2003 वाले

दिग्विजय जैसी हो गई। चूंकि टिकिट वितरण से व्यूहरचना तक पूरा अभियान उनके नियंत्रण में रहा इसलिए वही हार के लिए दोषी माने गए। स्थिति यहाँ तक बिगड़ी कि कांग्रेस हाईकमान ने उन्हें  बिना कुछ कहे सुने प्रदेश अध्यक्ष के साथ ही नेता प्रतिपक्ष  पद पर नये चेहरे बिठा दिये। ये निश्चित रूप से प्रदेश कांग्रेस से  कमलनाथ युग की समाप्ति कही जा सकती है। दिग्विजय को तो श्री नाथ  ही हाशिये पर धकेल चुके थे। हर पार्टी में ऐसा दौर दस - बीस सालों में आता है। लेकिन कांग्रेस विधानसभा चुनाव की पराजय के बाद जिस तरह से हतोत्साहित हुई उसके कारण उसका पूरा ढांचा चरमराने की स्थिति निर्मित हो गई है। लोकसभा चुनाव में मजबूती से उतरने की बजाय वह पराजयबोध का शिकार है। बड़े नेता चुनाव लड़ने से इंकार कर रहे हैं। वहीं नई पीढी़ के नेता सुनिश्चित हार के कारण मुँह चुराते देखे जा सकते हैं। बड़े नेताओं के साथ दूसरी पंक्ति के नेता - कार्यकर्ता बड़ी संख्या में पार्टी छोड़ते जा रहे हैं। कमलनाथ और उनके सांसद बेटे नकुल नाथ के भाजपा में जाने की बिसात भी लगभग बिछ चुकी थी किंतु 1984 के सिख विरोधी दंगों में श्री नाथ की भागीदारी आड़े आ गई। लेकिन दो - तीन दिन उनकी तरफ से बनाये गए रहस्य के कारण कांग्रेस के भीतर  उनकी रही - सही साख और धाक भी मिट्टी में मिल गई। जबलपुर के महापौर जगत बहादुर सिंह अन्नू और सुरेश पचौरी भाजपा में आ गए।  विधानसभा चुनाव हारे कुछ कांग्रेस प्रत्याशी भी कांग्रेस को छोड़ चुके हैं। श्री नाथ के अपने गढ़ से कांग्रेस के लोगों का भाजपा में आने का सिलसिला जारी है। इस सबसे लगता है प्रदेश में काँग्रेस दुर्दशा के कगार पर आ गई है। ऐसी भगदड़ तो उसमें 1977 , 1989 और 2003 के बाद भी नहीं दिखाई दी थी। इससे साफ हो जाता है कि म.प्र में उसके पास ऐसा कोई वरिष्ट नेता नहीं है जो कार्यकर्ताओं की नाराजगी और निराशा दूर कर सके। इसी तरह से युवा नेताओं में एक भी इस लायक नहीं है जो हारी हुई सेना में उत्साह का संचार कर उसे नई लड़ाई के लिए तैयार कर सके। ऐसा लगता है भाजपा ने सुनियोजित तरीके से कांग्रेसियों की भर्ती का जो अभियान चला रखा है उसका उद्देश्य उसके मनोबल को पूरी तरह तोड़ना ही है।  पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व म.प्र को लेकर जिस तरह से उदासीन है वह भी चौंकाने वाला है। राहुल गाँधी की न्याय यात्रा भी प्रदेश के काँग्रेसजनों में जोश नहीं भर सकी। यही कारण है कि भाजपा इस  बार  छिंदवाड़ा सहित सभी 29 लोकसभा सीटें जीतने का दावा कर रही है। नकुल नाथ के क्षेत्र में जिस तरह का पलायन कांग्रेस से हो रहा है उसे देखकर यह उम्मीद सही हो जाए तो आश्चर्य नहीं होगा। सही बात तो ये है कि दिग्विजय सिंह और कमलनाथ ने अपने पुत्र प्रेम के चलते कांग्रेस  में नई पीढी़ का नेतृत्व पनपने ही नहीं दिया। अब तो आम कांग्रेसी भी कहने लगे हैं कि क्या पता इन दोनों के परिवारजन भी जल्द ही भाजपा में नजर आएं। याद रहे दिग्विजय के भाई लक्ष्मण सिंह 2003 की हार के बाद भाजपा में जाकर सांसद बन गए थे। 


-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 20 March 2024

शुद्ध हवा की गारंटी भी चुनावी मुद्दा होना चाहिए

लोकसभा चुनाव का शंखनाद हो चुका है। राजनीतिक दलों द्वारा वायदों की झड़ी लगाई जा रही है। आजकल इनको गारंटियां कहा जाने लगा है। हर नेता अपनी गारंटी पूरी होने की गारंटी देता फिर रहा है। कोई नगद बांटने की बात कह रहा है तो कोई नौकरी का आश्वासन देकर मतदाताओं को लुभाने में जुटा है। जो माँगोगे उससे ज्यादा मिलेगा वाला माहौल है। ऐसे में मतदाता उसी तरह भ्रमित हैं जैसे किसी शापिंग मॉल में चारों तरफ लगे डिस्काउंट सेल के इश्तहार देखकर होता है। लेकिन आसमान से तारे तोड़कर लाने के वायदों के इस मौसम में आई एक खबर ने हर उस व्यक्ति को परेशान कर दिया जिसे अपने साथ -साथ अपनी संतानों के भविष्य की भी चिंता है। दुनिया की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के बाद अब ये दावा किया जा रहा है कि भारत जल्द ही तीसरे क्रमांक पर आने वाला है। इसके संकेत भी मिलने लगे हैं किंतु यह गौरव हासिल होने के पहले भारत को दुनिया का तीसरे सबसे प्रदूषित देश घोषित हो गया  । विश्व के सबसे प्रदूषित 50 शहरों में से 42 हमारे यहाँ के हैं । सबसे अधिक शर्मिंदगी की बात ये है कि जी -20 जैसे प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन की मेजबानी करने वाली दिल्ली सबसे प्रदूषित राजधानी घोषित हुई है। हालांकि प्रदूषण के मापदंडों पर पाकिस्तान  पहले और बांग्लादेश दूसरे स्थान पर है।  सबसे दुखदायी आंकड़ा ये है कि भारत की 96 फीसदी आबादी की साँसों में प्रदूषित हवा प्रवाहित हो रही है। प्रधानमंत्री बनने के बाद ही नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान का शुभारंभ किया था।। इसके अंतर्गत शहरों के बीच स्वच्छता प्रतिस्पर्धा रखी जाने लगी। प्रतिवर्ष  सर्वेक्षण के उपरांत परिणाम घोषित किये जाते हैं। शुरुआत में इस अभियान को लेकर प्रधानमंत्री का उपहास भी उड़ाया गया। राहुल गाँधी ने तो यहाँ तक कहा कि जिन युवाओं के हाथों को काम देना था उनको प्रधानमंत्री ने झाड़ू पकड़ा दी। यद्यपि उस अभियान से जन - जागरूकता बढ़ी है किंतु ये कहना भी गलत नहीं होगा कि स्वच्छता और पर्यावरण संरक्षण के प्रति अपेक्षित गंभीरता का अभाव है। ऐसे में ये प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि ऐसे मुद्दे राजनीतिक विमर्श में शामिल क्यों नहीं होते ? पंजाब के किसान जो पराली जलाते हैं उसकी वजह से दिल्ली सहित समीपवर्ती बड़े इलाके पर धुएं की चादर बिछ जाती है। सर्वोच्च न्यायालय तक इस मामले में सख्ती दिखा चुका है। आम  आदमी पार्टी जब दिल्ली की सत्ता में आई तब वह पराली के लिए पंजाब को कसूरवार ठहराया करती थी किंतु जैसे ही वहाँ सरकार बनी उसकी शिकायत खत्म हो गई। आजकल चुनाव में सभी पार्टियां मुफ्त बिजली, पानी , इलाज़ जैसे वायदे करती हैं। इनके बल पर चुनाव जीते भी जाते हैं। लेकिन कोई भी पार्टी प्रदूषण को पूरी तरह समाप्त करने की गारंटी नहीं देती जबकि यह भी विकास का पैमाना होना चाहिए। दरअसल शुद्ध हवा और शुद्ध पानी जैसे विषय चुनाव घोषणापत्र में इसलिए शामिल नहीं होते क्योंकि जनता इन्हें लेकर उदासीन है। इसी के चलते प्रतिदिन अरबों रुपयों का बोतल बंद पानी बिकता है। इसके अलावा पानी के पाउच एवं जार का कारोबार भी आसमान छू रहा है। हालांकि इस पानी की गुणवत्ता भी संदिग्ध रहती है। प्रदूषण दूर करने के लिए सरकार अपने स्तर पर कुछ - कुछ करती  है। न्यायपालिका भी समय - समय पर सख्ती दिखाया करती है किंतु जब तक आम जनता  जागरूक नहीं होगी , हालात सुधरने की उम्मीद करना व्यर्थ है। आदर्श स्थिति तो वह होगी जब जनता की तरफ से शुद्ध हवा की मांग उठे, साथ ही  इस दिशा में जो भी नियम - कानून बनें उनका पालन करने की स्वप्रेरित इच्छा समाज में जाग्रत हो। आर्थिक विकास के साथ औद्योगिकीकरण भी आता  है जो प्रदूषण का सबसे बड़ा स्रोत है। इसी तरह अधो - संरचना के कार्यों में पर्यावरण को क्षति पहुंचाई जाती है। समय की मांग है इस बारे में नई सोच विकसित की जाए ताकि दुनिया के विकसित देशों की कतार में शामिल होने के साथ ही भारत एक स्वच्छ और प्रदूषण रहित देश के रूप में भी जाना जाए। जिस तरह विकास दर के मामले में हम चीन को अपना प्रतिद्वंदी मानते हैं वैसी ही प्रतिस्पर्धा प्रदूषण मुक्त होने के लिए न्यूजीलैंड और फिनलैंड जैसे देशों से की जानी चाहिए। देखना ये है कि कोई पार्टी इसे अपने घोषणापत्र या गारंटी में शामिल करती है या नहीं? 


- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 19 March 2024

राजनीतिक चंदे को पारदर्शी बनाना भ्रष्टाचार मिटाने जैसा ही असंभव कार्य

र्वोच्च न्यायालय की सख्ती के कारण इलेक्टोरल बॉण्ड संबंधी जानकारी धीरे - धीरे  सामने आ रही है। 21 मार्च तक स्टेट बैंक को बॉन्ड के नम्बर बताने  के साथ ही ये शपथ पत्र देने कहा गया है कि  कोई भी जानकारी छिपाई नहीं गई। इस मामले में रोचक मोड़ तब आ गया जब उद्योग-  व्यापार जगत की शीर्ष संस्था एसोचेम और फिक्की की ओर से बॉण्ड के नम्बरों को उजागर करने के आदेश को रद्द करने का आवेदन दिया गया। हालांकि अदालत ने उसे तत्काल नहीं सुना किंतु उनका कहना है कि जिस कानून के अंतर्गत  बॉण्ड खरीदकर चंदा दिया गया उसमें  नाम गोपनीय रखने का प्रावधान था। बॉण्ड शुरू करते समय स्व. अरुण जेटली ने संसद में उसका उद्देश्य राजनीतिक चन्दे में काले धन की भूमिका को कम करना बताया था। जिस मात्रा में बॉण्ड के जरिये चंदा मिला उससे उनकी बात सही साबित हो गई। इसके पहले राजनीतिक दलों को सफेद धन से इतना चंदा कभी नहीं मिला। ये बात तो सर्वविदित है कि पहले आम चुनाव से ही उद्योग - व्यापार जगत राजनीतिक दलों को चंदा देता आया है। चूँकि उसका हिसाब - किताब सार्वजनिक करना जरूरी नहीं था इसलिए काले धन से आये चंदे पर पर्दा पड़ा रहता था। ये भी जगजाहिर है कि उसके बदले उद्योगपतियों को व्यावसायिक लाभ पहुंचाया जाता था। लाइसेंस प्रणाली इसका सबसे बड़ा उदाहरण था जिसके जरिये उन्हें एकाधिकार मिला हुआ था। कार  ट्रक और स्कूटर के गिने चुने ब्रांड होने से उनकी कालाबाजारी होती थी। सीमेंट, इस्पात, दवाइयाँ सभी कुछ चंद उद्योगपतियों के नियंत्रण में था।  बॉण्ड के बदले उपकृत किये जाने पर सवाल उठाने वाले उस दौर को भूल जाते हैं जब किस राजनीतिक दल को कितना धन मिला ये पूछने - बताने की कोई जरूरत ही नहीं थी। इलेक्टोरल बॉण्ड उस दृष्टि से एक अच्छा प्रयोग था किंतु सर्वोच्च न्यायालय ने जिस आधार पर उसे रद्द कर दिया उसे भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता । इस प्रणाली में फर्जी कंपनियों के जरिये चंदा दिये जाने का अंदेशा  कुछ हद तक सही साबित हो गया जब नाममात्र का मुनाफा दिखाने वाली कंपनी द्वारा करोड़ों के बॉण्ड खरीदकर बांटने की जानकारी मिली। कुछ राजनीतिक दलों द्वारा सफाई दी गई कि कोई अनजान उनके दफ़्तर में करोड़ों के बॉण्ड बंद लिफ़ाफ़े में फेंककर चला गया। किसी ने डाक से प्राप्ति की बात कही। जहाँ तक बात उपकृत करने की है तो वह स्वाभाविक है। ज्यादातर लोकतांत्रिक देशों में चंदा देने वालों को लाभ पहुंचाने का चलन है। लेकिन इस मामले में सत्ताधारी दल भाजपा पर जाँच एजेंसियों का दुरूपयोग करने का आरोप भी लग रहा है। छापे पड़ने के बाद बॉण्ड खरीदे जाने पर भी सवाल उठ रहे हैं। फ्यूचर गेमिंग नामक एक कंपनी इस बारे में सबसे ज्यादा चर्चा में आई किंतु उसके द्वारा तमिलनाडु की सत्ताधारी पार्टी द्रमुक को 509 करोड़ के बॉण्ड दिये जाने की बात खुद द्रमुक द्वारा सार्वजनिक किये जाने के बाद अब विपक्ष भी घेरे में आ गया है। चंदा देने वालों को ठेके दिये जाने का मुद्दा भी उछल रहा है। इस बारे में तृणमूल कांग्रेस, द्रमुक, बीजद  और बीआरएस जैसे क्षेत्रीय दलों को अरबों के बॉण्ड मिलना उक्त आशंका की पुष्टि कर रहा है। भाजपा उसे मिले भारी - भरकम चंदे को अपने सांसदों और विधायकों की संख्या से जोड़ रही है। लेकिन व्यवहारिक दृष्टि से देखें तो उद्योग - व्यवसाय चलाने वाले ज्यादातर लोग चूंकि किसी  राजनीतिक पार्टी से बुराई नहीं लेना चाहते इसलिए वे चंदे की गोपनीयता बनाये रखना चाहेंगे और उसके लिए घूम -  फिरकर बात फिर काले धन तक पहुँच जाती है। राजनीतिक दलों के  लिए अपना  खर्च चलाने को चंदा ही रास्ता होता है। बसपा जैसी पार्टी अपने कार्यकर्ताओं  से प्राप्त छोटे - छोटे चंदे को आय का स्रोत बताती है जो  गले नहीं उतरता। वामपंथी दलों ने इलेक्टोरल बॉण्ड से चंदा नहीं लेने की जानकारी दी किंतु उनका काम किस प्रकार चलता है ये जिज्ञासा भी उत्पन्न होती है।    ऐन लोकसभा चुनाव के समय इलेक्टोरल बॉण्ड पर रोक लगने के साथ ही उन्हें  खरीदने और प्राप्त करने वालों की जानकारी सार्वजनिक हो जाने के बाद भी यह चुनावी मुद्दा नहीं बन सकेगा क्योंकि कुछ को छोड़  सभी  पार्टियों ने उनको मिले बॉण्ड भुनाए हैं। उनके बदले यदि केंद्र की भाजपा सरकार ने चंदा दाताओं को उपकृत किया तो दूसरे दलों की राज्य सरकारें भी इस आरोप से बच नहीं सकेंगी। उद्योग जगत के अनेक दिग्गजों का इसीलिए कहना है कि सर्वोच्च न्यायालय को बॉण्ड व्यवस्था पर रोक लगाने के बावजूद उसके साथ जुड़े गोपनीयता प्रावधान को मान्य करना था जिससे चंदा देने वाले को राजनीतिक प्रतिशोध का सामना नहीं करना पड़े। एसोचेम और फिक्की का पक्ष न्यायालय सुने या नहीं ये उसकी मर्जी पर निर्भर है किंतु राजनीतिक चंदे को पूरी तरह पारदर्शी बनाना उसी तरह असंभव है जैसे न्यायपालिका सहित सरकारी तंत्र को भ्रष्टाचार मुक्त करना। 

-रवीन्द्र वाजपेयी


Monday 18 March 2024

प्रधानमंत्री का चेहरा घोषित करने का अवसर गँवा दिया विपक्ष ने


कांग्रेस नेता राहुल गाँधी की न्याय यात्रा कल मुंबई में  समाप्त हो गई। इस अवसर पर आयोजित रैली में इंडिया गठजोड़ के अनेक नेताओं ने मंच साझा किया। जिनमें शरद पवार, उद्धव ठाकरे, स्टालिन , तेजस्वी यादव, फारुख अब्दुल्ला , महबूबा मुफ्ती, चंपाई सोरेन प्रमुख रहे। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और प्रियंका वाड्रा की मौजूदगी तो रहना ही थी। इस रैली में समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव, तृणमूल प्रमुख ममता बैनर्जी और आम आदमी पार्टी संयोजक अरविंद केजरीवाल ने  अपने किसी अन्य नेता को भेज दिया। रैली में काफी बड़ी संख्या में श्रोता उपस्थित थे जिसका श्रेय मुख्य रूप से उद्धव ठाकरे की पार्टी को जाता है। इंडिया बनने के बाद उसकी एक भी रैली अब तक नहीं होना राजनीतिक विश्लेषकों में चर्चा का विषय रहा है। हाल ही में तेजस्वी यादव द्वारा बिहार में आयोजित रैली में भी गठबंधन के काफी नेता मौजूद थे। लेकिन वह राजद  और  कल की रैली कांग्रेस द्वारा आयोजित थी। शायद इसीलिए ममता और श्री केजरीवाल इन रैलियों से दूर रहे। मंचासीन नेताओं ने अपनी - अपनी तरह से भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमला किया किंतु मुख्य आकर्षण का केंद्र थे श्री गाँधी। लोकसभा चुनाव  घोषित होने के बाद विपक्ष का यह पहला मैदानी प्रदर्शन था। भले ही उसमें ढेर सारे नेताओं ने भाषण भी दिये किंतु क्षेत्रीय  होने के कारण वे राष्ट्रीय स्तर पर प्रभाव नहीं छोड़ पाते। आम आदमी पार्टी कहने को तो राष्ट्रीय पार्टी है किंतु उसका प्रभाव क्षेत्र दिल्ली और पंजाब तक ही है। ऐसे में  राहुल पर ही सभी की निगाहें लगी थीं। लेकिन न्याय यात्रा के दौरान लोगों से संवाद करते हुए वे जो कुछ बोलते रहे वही उन्होंने कल दोहरा दिया। नरेंद्र मोदी उनसे डरते हैं क्योंकि उनको पता है कि राहुल गाँधी उनको हरा सकता है, जैसी बातें कहकर उन्होंने जता दिया कि वे गलतियों से सीखने के बजाय उनको दोहराने में विश्वास रखते हैं। राजनीतिक विश्लेषक ये कहते रहे हैं कि न्याय यात्रा यदि कांग्रेस की बजाय इंडिया की होती तब  उसे उन राज्यों में भी भरपूर तवज्जो मिलती जिनमें क्षेत्रीय पार्टियां भाजपा का मुकाबला कर रही हैं। ये भी कहा गया कि कांग्रेस , इस यात्रा के बहाने राहुल को प्रधानमंत्री के चेहरे के तौर पेश करना चाह रही है। यही वजह रही कि ममता बैनर्जी यात्रा से पूरी तरह दूर रहीं। वहीं अखिलेश ने आगरा में उपस्थित होकर रस्म अदायगी मात्र कर दी।  रैली में होना तो ये चाहिए था कि लोकसभा चुनाव के मद्देनजर गठबंधन की ओर से बड़ी नीतिगत घोषणाएं की जातीं जिनसे उसकी दिशा स्पष्ट होती। लेकिन श्री गांधी के अतिरिक्त भी जिन नेताओं ने भाषण दिया वे सब मोदी विरोध का राग अलापते रहे। कांग्रेस और गठबंधन के उसके साथियों को  समझना चाहिए  कि एनडीए की ओर से श्री मोदी को निर्विवाद रूप से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार स्वीकार कर लिया गया है। वहीं इंडिया की समस्या ये है कि कांग्रेस भले उसका नेतृत्व करती हो किंतु उसके लिये अपनी 50 सीटें बचाना ही मुश्किल हो रहा है। उ.प्र और बिहार में उसे क्रमशः 17 और 8 सीटें सहयोगी दल दे रहे हैं। तमिलनाडु में मात्र 6 सीटें  मिलेंगी। केरल में वामपंथियों ने ठेंगा दिखा दिया। यहाँ तक कि वायनाड तक पर उम्मीदवार अड़ा दिया। 2019 में इस राज्य में उसे अच्छी सीटें मिल गई थीं किंतु त्रिपुरा और प. बंगाल से साफ हो जाने के बाद वामपंथी अपने आखिरी किले को बचाने में जुटे हुए हैं जिसकी वजह से कांग्रेस की राह मुश्किल हो गई है। ले - देकर उसके पास तेलंगाना ही उम्मीद की किरण है क्योंकि कर्नाटक में भाजपा उसे ज्यादा कुछ नहीं मिलने देगी। उत्तर और पश्चिमी राज्यों में भी कांग्रेस को इतनी सीटें मिलने की स्थिति नहीं है कि वह केंद्र में सत्ता बनाने की सोच सके। ऐसे में इंडिया के बाकी घटक दल उसका उपयोग तो कर रहे हैं किंतु उसकी सर्वोच्चता को स्वीकार करने राजी नहीं हैं। लालू प्रसाद यादव को छोड़कर अन्य किसी  ने भी श्री गाँधी को प्रधानमंत्री का चेहरा नहीं बताया। मुंबई रैली एक अवसर था किंतु राहुल द्वारा खुद को महिमामंडित किये जाने के बाद भी गठबंधन इस बारे में अनिश्चितता का शिकार नजर आया। कांग्रेस और उसके साथियों को ये समझना चाहिए कि भाजपा 2004 वाले अति आत्मविश्वास से बचते हुए चल रही है। ये भी सर्वविदित है कि उसने चुनाव को पार्टी से ऊपर व्यक्ति केंद्रित कर दिया है और प्रधानमंत्री की छवि और व्यक्तित्व उस दृष्टि से सब पर भारी है। 


- रवीन्द्र वाजपेयी

Sunday 17 March 2024

इंडिया , सारथी विहीन रथ बनकर रह गया




     आखिरकार चुनाव की तिथियाँ घोषित हो गईं। सात चरणों में लोकसभा के साथ ही कुछ राज्यों के  विधानसभा चुनाव और उपचुनाव करवाने का कार्यक्रम भी चुनाव आयोग ने घोषित कर दिया। 19 अप्रैल को पहले और 1 जून को आखिरी चरण के मत पड़ेंगे। मतगणना 4 जून को होगी। इस प्रकार नई सरकार के लिए ढाई महीने से भी अधिक प्रतीक्षा करनी होगी। 

     यह चुनाव कई मायनों में रोचक हो गया है। यदि वर्तमान सरकार वापस आती है तब पंडित नेहरू के बाद नरेंद्र मोदी पहले ऐसे प्रधानमंत्री होंगे जो लगातार तीन चुनाव जीते हों। उससे भी बड़ी बात होगी विशुद्ध गैर कांग्रेसी व्यक्ति को इस पद पर लगातार तीसरे कार्यकाल के लिए जनादेश हासिल होना। भाजपा को 370 और एनडीए को 400 से ज्यादा सीटें मिलने के नारे को प्रधानमंत्री ने जिस कुशलता से राष्ट्रीय विमर्श का विषय बनाया उसकी वजह से विपक्ष पर  मनोवैज्ञानिक दबाव बन गया। आम जनता के मन में भी भाजपा यह बात बिठाने में जुटी है कि उसकी विजय सुनिश्चित है। किसी भी बड़ी लड़ाई में जीत के लिए अपनी सेना में आत्मविश्वास के साथ प्रतिद्वंदी पर मानसिक दबाव बनाना कारगर साबित होता है। प्रधानमंत्री  और भाजपा के रणनीतिकार इसी तरीके का इस्तेमाल कर रहे हैं। 

     दूसरी तरफ काँग्रेस के नेतृत्व में गठित इंडिया नामक गठजोड़ में अभी तक सामंजस्य नहीं बन सका। नीतीश कुमार ने भाजपा का साथ पकड़ लिया। अखिलेश यादव ने भी इकतरफा फैसला करते हुए काँग्रेस को मात्र 17 सीटें दे दीं। प. बंगाल में ममता बैनर्जी ने तो काँग्रेस के साथ निर्मम व्यवहार करते हुए उसे एक भी सीट नहीं दी। वहीं केरल में कांग्रेस के साथ यही व्यवहार वामपंथियों ने किया और राहुल गाँधी तक के विरुद्ध प्रत्याशी उतार दिया। उधर आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस को पंजाब में ठेंगा दिखा दिया। अन्य राज्यों से भी जो खबरें मिल रही हैं उनसे ये स्पष्ट हो रहा है कि जिस उत्साह के साथ इंडिया गठबंधन बना था वह कायम नहीं रह सका। 

         मोदी सरकार की वापसी को रोकने के लिए विपक्षी पार्टियां साझा उम्मीदवार खड़ा करने की तैयारी से साथ आई थीं। शुरुआत में ऐसा लगा भी कि उनकी रणनीति काम कर जायेगी। लेकिन विश्वास का संकट यथावत रहा जिसके चलते एकता के ढोल में पोल साफ नजर आ रही है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किये जाने से मिला। एनडीए के खेमे में इस मामले में कोई मतभेद नहीं है। श्री मोदी के नेतृत्व को नीतीश कुमार तक ने स्वीकार कर लिया। भाजपा में तो इस विषय पर किसी भी प्रकार की अनिश्चितता न पहले थी और न ही आगे होने की गुंजाइश है। ऐसे में मुकाबला मोदी विरुद्ध अनिश्चितता का हो गया है। 

       विपक्ष में व्याप्त अंतर्द्वंद के बीच प्रधानमंत्री तो अपनी दस वर्षीय उपलब्धियां जनता के सामने पेश कर रहे हैं किंतु विपक्ष में  कोई ऐसा नहीं है जो पूरे आत्मविश्वास के साथ कह सके कि प्रधानमंत्री बनने के बाद वह कौन से कार्य करेगा। और यही शून्यता विपक्ष की सबसे बड़ी कमजोरी बनकर सामने आई है। राहुल गाँधी की न्याय यात्रा में व्यस्त कांग्रेस नेतृत्व पार्टी में धधक रहे असंतोष के ज्वालामुखी को शांत करने में जिस तरह नाकामयाब रहा उसका दुष्परिणाम देश भर से उसके नेताओं और पदाधिकारियों के पार्टी छोड़ने से मिल रहा है। 
      इंडिया गठबंधन के घटक दलों के मन में ये बात घर कर चुकी है कि कांग्रेस के भरोसे उनकी नैया पार नहीं हो सकेगी। इसीलिए वे अब अपनी अलग रणनीति बना रहे हैं जिसका प्रमाण प. बंगाल, केरल और पंजाब में नजर आ रहा है। सात चरणों के इस चुनाव में भाजपा जहाँ पूरे आत्मविश्वास और पेशेवर प्रबंधन के साथ उतर चुकी है वहीं विपक्षी रथ के घोड़े सारथी के अभाव में बिदकने लगे हैं। 

हालांकि परिणाम को लेकर दावा करना उचित नहीं होगा किंतु अभी तक के हालात में एनडीए का पलड़ा भारी है। 370 और  400 पार के उसके नारे के शोर में विपक्ष की वह आवाज कहीं गुम होकर रह गई है कि वह भाजपा को 272 से नीचे रोककर नरेंद्र मोदी को सत्ता में आने से रोक देगा। 

    
- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 16 March 2024

इलेक्टोरल बॉण्ड पर रोक के बाद राजनीतिक चंदे में काले धन की मात्रा बढ़ेगी


किसने कितने मूल्य के  इलेक्टोरल बॉण्ड खरीदे और किस राजनीतिक दल को उनमें से कितने का चंदा मिला ये तो सामने आ गया। हालांकि , समूचा लेन - देन सफेद धन से हुआ इसलिए देने और लेने वाले ने उसे अपने आय - व्ययक में दर्शाया भी। चुनाव आयोग को राजनीतिक दलों से मिली अधिकृत जानकारी में उनको मिलने वाले चन्दे के साथ ही उसका जरिया अर्थात बॉण्ड ,  चेक या नगद का भी उल्लेख होता है। इसी तरह जो भी व्यक्ति, संस्था , व्यवसायिक या औद्योगिक प्रतिष्ठान राजनीतिक दल को सफेद धन से चंदा देते हैं , वे उसे खाते - बही में बाकायदा दर्ज करते हैं। टाटा समूह  चंदा देने का काम एक न्यास के जरिये करता है। जब इलेक्टोरल बॉण्ड का मसला उठा तब एक बात तो तय थी कि दिये और लिये गए चन्दे का हिसाब - किताब दोनों पक्षों द्वारा रखा गया है। जिस भारतीय स्टेट बैंक को इलेक्टोरल बॉण्ड बेचने अधिकृत किया गया उसने भी बॉण्ड खरीदने वाले की पहिचान के दस्तावेज हासिल करने के बाद ही उनको जारी किया। इसके बाद हुए लेन - देन में दोनों पक्षों की पहचान उजागर नहीं हुई और यही विवाद का कारण है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसी आधार पर बॉण्ड को असंवैधानिक निरूपित करते हुए रद्द किया कि चंदा देने वाले का नाम गोपनीय रखना लोकतंत्र को कमजोर करना है।  सर्वोच्च न्यायालय के दबाव के बाद स्टेट बैंक ने ये तो बता दिया कि  किसने, कितने बॉण्ड खरीदे। ये जानकारी भी आ गई कि किस राजनीतिक दल को  कितना चंदा प्राप्त हुआ किंतु यह जानकारी बैंक ने नहीं दी कि बॉण्ड खरीदने वाले ने किस राजनीतिक दल को कितना चंदा दिया ? विपक्ष का आरोप है कि केंद्र सरकार ने सीबीआई और ईडी का डर दिखाकर भाजपा को खूब चंदा दिलवाया। बॉण्ड खरीदने  और उक्त एजेंसियों द्वारा छापे  की तारीख के आधार पर उक्त आरोप प्रथम दृष्ट्या सही भी लगता है किंतु जब तक बैंक द्वारा ये नहीं बताया जायेगा कि कौन सा बॉण्ड किसके हिस्से में आया, तब तक कयासों का दौर चलता रहेगा। समूचे विवाद की असली वजह कुल खरीदे गए बॉण्ड से अधिकतर चंदा भाजपा को मिलना है। कांग्रेस दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है किंतु उसको तृणमूल कांग्रेस से कम चंदा मिलना भी चर्चा का विषय बना हुआ है। बॉण्ड का समूचा विवरण सार्वजनिक किये  जाने के बाद कौतूहल का विषय ये रह जायेगा कि जिस राजनीतिक दल को बॉण्ड के माध्यम से करोड़ों रुपये मिले, उसने या उसकी सरकार ने चन्दा देने वाले को किस प्रकार से लाभ पहुंचाया? बॉण्ड खरीदने के फौरन बाद कुछ लोगों को मिले ठेके एवं अन्य फायदों से इस तरह के अनेकानेक सवाल उठ खड़े हुए हैं जिनका समुचित और सही उत्तर मिलना जरूरी है। जहाँ तक  भाजपा को बॉण्ड के जरिये मिले चंदे का सवाल है तो उसमें हैरत की बात नहीं है। जब तृणमूल, बीजद, द्रमुक और बीआरएस जैसे क्षेत्रीय दलों को अरबों रुपये मिले तब केंद्र के साथ ही देश के अनेक राज्यों में सत्तारूढ़ होने से भाजपा को बड़ा हिस्सा मिलना अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता । वैसे भी  बॉण्ड  से चंदा देने वाले ने या तो फायदे के लिए वैसा किया होगा अथवा नुकसान से बचने। स्टेट बैंक से समूचा ब्यौरा मिलने के बाद ही सभी पार्टियों की स्थिति स्पष्ट होगी और देने वाले की मंशा भी। लेकिन एक बात तो तय है कि  चन्दे का धन्धा कभी रुकने वाला नहीं है।  हवाला कांड में आरोपी बनने के बाद स्व. शरद यादव ने खुलकर कहा था कि उन्होंने पार्टी के लिए पैसे लिए थे और आगे भी कोई देगा तो निःसंकोच लेंगे। उनकी वह स्वीकारोक्ति भारतीय राजनीति का वह सच है जिससे जानते तो सब हैं किंतु स्वीकार करने का साहस नहीं बटोर पाते। चूंकि इलेक्टोरल बॉण्ड के मुद्दे से आम जनता को कुछ भी लेना - देना नहीं है इसलिए कुछ समय बाद ये हवाला कांड की तरह हवा - हवाई होकर रह जाए तो आश्चर्य नहीं होगा क्योंकि जैसे ही स्टेट बैंक बची हुई जानकारी देगा त्योंही चन्दा लेने वाली सभी पार्टियां कठघरे में नजर आयेंगी। बॉण्ड खरीदने वाली कुछ कंपनियों के नाम अवश्य चौंकाने वाले हैं जिन्होंने अपने कारोबार के आकार और मुनाफे से कई गुना ज्यादा के बॉण्ड खरीदकर चन्दे में दिये। ये भी कहा जा रहा है कि काले धन को वैध बनाने के लिए फर्जी कंपनियां बनाकर बॉण्ड खरीदे गए। यद्यपि स्टेट बैंक से बाकी जानकारी मिलने के बाद भी पूरा सच सामने आयेगा ये कहना मुश्किल है क्योंकि बॉण्ड का विरोध करने वाली किसी भी पार्टी ने उससे मिला चंदा स्वीकार करने से इंकार नहीं किया। चिंता का विषय तो ये भी है कि अब जो भी चंदा आयेगा उसमें काले धन की हिस्सेदारी सबसे अधिक रहेगी और उसे न चुनाव आयोग रोक सकेगा और न ही सर्वोच्च न्यायालय। 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Friday 15 March 2024

पेट्रोल - डीजल के दामों में और कमी होनी चाहिए थी


गत सप्ताह महिला दिवस पर रसोई गैस सिलेंडर के दाम 100 रुपये घटाकर केंद्र सरकार ने महिला मतदाताओं को खुश करने का दांव चला। हालांकि  उसका कितना लाभ चुनाव में मिलेगा ये  अभी कह पाना कठिन है । उसके बाद बाद से ही ये माना जा रहा था   कि पेट्रोल - डीजल की कीमतों में भी कुछ न कुछ राहत मोदी सरकार प्रदान करेगी जिससे आम जनता के साथ ही उद्योग - व्यापार जगत को भी प्रसन्नता का अनुभव हो। गत दिवस वह उम्मीद पूरी हो गई जब पता चला कि केंद्र सरकार ने पेट्रोल - डीजल के दाम  2 रुपये प्रति लीटर घटा दिये हैं। गत दिवस चुनाव आयोग में दो आयुक्तों की नियुक्ति हो जाने के बाद लोकसभा चुनाव की घोषणा  किसी भी समय हो सकती है । उसके बाद आचार संहिता लग जाने के कारण सरकार इस तरह की किसी भी राहत की घोषणा नहीं कर सकेगी इसलिए उसने आनन - फानन में 2 रुपये प्रति लीटर दाम घटा दिये। यद्यपि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में वृद्धि होने पर भी भारतीय तेल कंपनियां  मूल्यों को स्थिर रखे रहीं किंतु बीते काफी समय से वैश्विक बाजार में कीमतें कम होने के कारण उनको भरपूर लाभ हो रहा था। तभी से ये अपेक्षा थी कि आम उपभोक्ता को भी उसका लाभ मिलेगा । लेकिन सरकार और तेल कंपनियां इस बारे में मौन साधे बैठी रहीं। विपक्ष सहित आर्थिक विशेषज्ञ भी इसे लेकर सरकार की आलोचना करते रहे। ये आरोप भी लगता रहा कि निजी क्षेत्र की पेट्रोलियम कंपनियों को मुनाफाखोरी का मौका देने सरकार दाम नहीं घटा रही। बहरहाल, अब जब चुनाव की घोषणा होने को है तब जाकर केंद्र सरकार ने मेहरबानी की। इसे चुनावी दांव कहने में कुछ भी गलत नहीं है किंतु जो आंकड़े आ रहे थे उनके आधार पर कीमतें  कम से कम 10 रुपये प्रति लीटर कम होनी चाहिए थीं। हो सकता है सरकार ने वैश्विक हालातों का आकलन करते हुए मामूली कमी की किंतु जब पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों को सीधे बाजार से जोड़ दिया गया तब सरकार को उसमें दखलन्दाजी बंद कर देना चाहिए।  हमारे देश में उदारवादी अर्थव्यवस्था लागू होने के बाद भी सरकार पेट्रोल -डीजल की कीमतों पर अपना नियंत्रण नहीं छोड़ना चाहती। प्रधानमंत्री को टीवी पर आकर कीमतें कम करने का ऐलान करना पड़े ये अटपटा लगता है। भले ही लम्बे समय तक कीमतें स्थिर रहीं किंतु इस दौरान पेट्रोलियम कंपनियों ने जितना मुनाफा कमाया उसे देखते हुए कीमतों में ज्यादा कटौती होनी चाहिए थी। पेट्रोल - डीजल और रसोई गैस जैसी चीजों के दामों को यदि राजनीतिक नफे - नुकसान से परे रखा जाए तो फिर उनमें बदलाव होते समय न तो चुनाव की चिंता रहेगी न ही जनता की नाराजगी अथवा खुशी की। वैसे भी इस तरह के फैसले बाजार द्वारा निर्धारित होने से चुनाव आचार संहिता से मुक्त होना चाहिए किंतु उसके लिए केंद्र और राज्य सरकारों को उससे अलग होना पड़ेगा। कीमतों के अलावा जो अन्य कर लगते हैं वे भी तदनुसार घटते - बढ़ते रहें तो फिर राजनीतिक श्रेय और आरोपों  का सिलसिला थम जायेगा। कुछ लोग ये तर्क भी देते हैं कि कीमतों को कम करने से खपत बढ़ती है जिससे कच्चे तेल का आयात करने पर विदेशी मुद्रा खर्च होती है । सरकार इसीलिए इलेक्ट्रानिक वाहनों को प्रोत्साहित कर रही है किंतु उनके पूरी तरह उपयोग में आने में समय लगेगा। तब तक पेट्रोल - डीजल से ही चूंकि गुजारा होना है इसलिये इनकी कीमतों को जनता की पहुँच में बनाये रखने के लिए सरकार अपने कर ढांचे में अपेक्षित सुधार करे ये जन अपेक्षा है। उस दृष्टि से गत दिवस कीमतों में जो कमी की गई वह बहुत कम है। इस बारे में सबसे कारगर उपाय तो पेट्रोल - डीजल को जीएसटी के दायरे में लाने का है जिससे उनकी कीमतों में  एकरूपता आयेगी और जनता के साथ ही उद्योग जगत भी राहत का अनुभव करेगा। चुनाव घोषणा पत्र में भाजपा इसका वायदा कर सकती है। 


- रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 14 March 2024

एक देश एक चुनाव के मुद्दे पर इस लोकसभा चुनाव में भी बहस होना चाहिए


एक देश एक चुनाव के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में गठित समिति ने आज राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को 18000 पृष्ठों  की अपनी रिपोर्ट सौंप दी। गत वर्ष सितंबर में बनाई इस समिति ने 191 दिनों के भीतर विभिन्न वर्गों से चर्चा उपरांत यह रिपोर्ट तैयार की। इसमें पूरे देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ करवाने  का तरीका सुझाया गया है।  समिति में श्री कोविंद के अलावा गृहमंत्री अमित शाह, कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी , पूर्व केंद्रीय मंत्री गुलाम नबी आजाद राजनेता के तौर पर थे। उनके  अलावा वित्त आयोग के पूर्व अध्यक्ष एन. के. सिंह, लोकसभा के पूर्व महासचिव सुभाष काश्यप  और पूर्व मुख्य आयुक्त सतर्कता संजय कोठारी सदस्य थे। कानूनविद हरीश साल्वे ने विधि विशेषज्ञ के रूप में अपनी सेवा प्रदान की। यह रिपोर्ट लोकसभा चुनाव के बाद बनने वाली सरकार के सामने पेश होगी। यदि सब कुछ ठीक - ठाक रहा तब बात , संविधान संशोधन के जरिये इस  दिशा में आगे बढ़ेगी। वर्तमान में भाजपा , बीजद और अन्ना द्रमुक एक साथ चुनाव के पक्षधर हैं जबकि कांग्रेस, तृणमूल और द्रमुक विरोध में। जब यह रिपोर्ट अगली संसद में विचारार्थ पेश होगी तब बाकी पार्टियों की मंशा जाहिर होगी। इसलिए बेहतर होगा यदि भाजपा इस लोकसभा चुनाव में ही एक देश एक चुनाव को मुद्दा बनाये।  इस व्यवस्था का सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि इससे न सिर्फ सरकार अपितु राजनीतिक दलों का भी खर्च बचेगा। चुनावी चंदे के नाम पर जो भ्रष्टाचार होता है उसे कम करने के लिए भी लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ करवाया जाना देश और लोकतंत्र दोनों के हित में होगा। इलेक्टोरल बॉण्ड को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रतिबंधित किये जाने के बाद से राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे का मामला सुर्खियों में है। कांग्रेस इन दिनों अपनी खस्ता आर्थिक हालत का रोना रो रही है। अलग - अलग चुनाव होने के कारण पूरे पांच साल चुनाव का मौसम बना रहता है।  एक राज्य से फुर्सत मिले तो दूसरे का चुनाव आ धमकता है। लोकसभा चुनाव के कुछ माह बाद अनेक राज्यों के चुनाव होने वाले हैं। इसके कारण राष्ट्रीय राजनीति का क्षेत्रीयकरण हो गया है। मुफ्तखोरी को बढ़ावा देने वाली योजनाओं के बल पर चुनाव जीतने का फॉर्मूला अर्थतंत्र को तबाह किये दे रहा है। वोटों की मंडी सजी है। मतदाता ग्राहक बना दिया गया है। संघीय ढांचे के लिए भी हमेशा चलने वाले चुनाव नुक्सानदेह हो चले हैं। केंद्र में बैठी सरकार के लिए अलग - अलग होने वाले चुनाव नीतिगत गतिरोध का कारण बनता जा रहा है। कुल मिलाकर चुनाव की कभी न टूटने वाली श्रृंखला देश के विकास के साथ ही केंद्र - राज्य संबन्धों में दरार पैदा करने की वजह बन रही है। ऐसे में एक देश एक चुनाव के सुझाव का सभी राजनीतिक दलों द्वारा समर्थन किया जाना देश हित में होगा। भाजपा और उसके सहयोगी दलों को चाहिए 2024 के लोकसभा चुनाव में अपने चुनावी वायदे में 2029 के आम चुनाव में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ  करवाने की बात शामिल करते हुए मतदाताओं को इसकी आवश्यकता बताएं। देश में एक बड़ा वर्ग है जो रोज - रोज की चुनाव चर्चा से ऊब चुका है। यदि इस मुद्दे को राष्ट्रीय बहस का विषय बनाएं तो समाज में सकारात्मक सोच रखने वाले लोग मुखर होकर अपनी राय व्यक्त करेंगे। वैसे भी चुनाव में इस तरह के विषय जनता में जागरूकता पैदा करने में कारगर होते हैं क्योंकि इनसे देश का भविष्य तय होता है? समिति द्वारा पेश की गई रिपोर्ट के बाद अब इस विषय पर सामाजिक स्तर पर भी विमर्श होना जरूरी है क्योंकि चुनाव पर होने वाले बेतहाशा खर्च का बोझ अंततः जनता पर ही पड़ता है। भ्रष्टाचार पर नकेल कसना हो तो चुनाव की मौजूदा व्यवस्था को बदलकर एक देश एक चुनाव को स्वीकार करना फायदेमंद होगा। इससे राष्ट्रीय एकता को बल मिलने के साथ ही राजनीति की दिशा और दशा दोनों में सुधार होगा।


 - रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 13 March 2024

सीएए का विरोध कर राम मन्दिर वाली गलती दोहरा बैठा विपक्ष

सीएए ( नागरिकता संशोधन अधिनियम) की अधिसूचना जारी होते ही राजनीतिक जगत में बवाल मच गया। हालांकि यह अधिनियम संसद द्वारा 11 दिसंबर 2019 पारित किये जाने के बाद अगले ही दिन राष्ट्रपति के हस्ताक्षर उपरांत कानून की शक्ल ले चुका था किंतु केंद्र सरकार  कतिपय कारणों से उसे लागू करने से बचती रही। शायद शुरुआत में हुए विरोध के  ठंडा पड़ने का इंतजार करना इसके पीछे की रणनीति रही होगी। ये भी कहा जा सकता है कि उसके बाद  कुछ राज्यों में भाजपा को मिली पराजय ने सरकार के बढ़ते कदम रोक दिये हों। एक कारण असम सहित कुछ पूर्वोत्तर राज्यों में इस कानून के प्रति लोगों की नाराजगी को भी माना जा सकता है जहाँ भाजपा का अच्छा खासा प्रभाव रहा है। लेकिन गत वर्ष उत्तर भारत के कुछ राज्यों में भाजपा को मिली जोरदार जीत के बाद से केंद्र सरकार का भय दूर हुआ। सनातन को लेकर लोगों में आई जागरूकता और फिर राम मंदिर में प्राण - प्रतिष्ठा के बाद से देश भर में हिंदुत्व का  अभूतपूर्व  वातावरण निर्मित होने से भी सरकार को महसूस हुआ कि सीएए को प्रभावशील करने का ये सबसे सही समय है।  इसमें पाकिस्तान, अफगनिस्तान और बांग्लादेश से आये गैर मुस्लिम शरणार्थियों को भारत की नागरिकता प्रदान करने के लिए सम्बन्धित कानून में कुछ रियायत दी गई। इसलिये मुसलमानों के बीच ये दुष्प्रचार किया जाने लगा कि यह उनको भारत से निकाल बाहर करने बनाया गया है। चूंकि मुस्लिमों के मन में मोदी सरकार को लेकर काफी ज़हर भर दिया गया है इसलिए वे भी बहकावे में  आ गए। सही बात तो ये है कि इस कानून के बारे  में जितनी भी भ्रांतियां मुसलमानों के मन में हैं उनके पीछे कट्टरपंथी मुस्लिम धर्मगुरुओं के साथ ही उन विपक्षी दलों का भी हाथ है जो मुसलमानों का वोट हासिल करने के लिए उन्हें मुख्य धारा से अलग - थलग रखने में लगे रहते हैं। जहाँ तक बात मुसलमानों को सीएए से बाहर रखे जाने की है तो उक्त तीनों  चूंकि इस्लामिक देश हैं इसलिए वहाँ से मुसलमानों का पलायन आपवादस्वरूप ही होता है। ऐसे शरणार्थियों को  भारत की नागरिकता दी भी गई है। विख्यात पाकिस्तानी गायक अदनान सामी इसका उदाहरण हैं जिन्होंने भारत की नागरिकता हेतु आवेदन किया और वह उन्हें प्रदान भी की गई। दूसरी तरफ जो हिन्दू उक्त देशों में रह रहे हैं , धार्मिक आधार पर उत्पीड़न होने से उनके पास और किसी देश की नागरिकता लेने का अवसर ही नहीं है।  उनके धर्मस्थल तोड़े जा रहे हैं, लड़कियों को जबरन मुस्लिम युवकों से निकाह हेतु बाध्य किया जाता है और धर्म परिवर्तन हेतु भी दबाव बनाया जाता है। यही कारण है कि वहाँ  उनकी जनसंख्या लगातार घटती जा  रही है। ये वर्ग अपनी अस्मिता के अलावा जान बचाने भारत तो आ गया किंतु बरसों से  शरणार्थियों के लिए बने शिविरों में बदहाली की ज़िंदगी जी रहा है। इनमें सिख, जैन, बौद्ध और ईसाई भी हैं  जिनकी स्थिति उन  देशों में धार्मिक अल्पसंख्यकों की है। इसके साथ ही उनकी जड़ें कहीं न कहीं अविभाजित भारत से जुड़ी रहीं। सीएए को लेकर ममता बैनर्जी जैसी नेता ये अफवाह  फैला रही हैं कि इसके लागू होते ही बांग्ला देश के जो घुसपैठिये अवैध रूप से भारत में रह रहे हैं उनको वापस भेजा जाएगा। एक भ्रम ये भी फैलाया जा रहा है कि सीएए के अंतर्गत जिन लोगों को नागरिकता मिलेगी उनको उन क्षेत्रों में बसाया जाएगा जहाँ भाजपा कमजोर है। प. बंगाल, तमिलनाडु और केरल के मुख्यमंत्री इसीलिए सीएए के विरोध में आसमान सिर पर उठाने आमादा हैं। आज दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद कीजरीवाल भी मैदान में कूद पड़े। कोई इस कानून को विभाजनकारी बता रहा है तो किसी को यह भाजपा का चुनावी दांव लग रहा है जिसके जरिये वह धार्मिक आधार पर मतदाताओं को गोलबंद करना चाह रही है। हालांकि सीएए के विरोधी भी जानते हैं कि उसकी अधिसूचना जारी होने के बाद भी हजारों लोगों को नागरिकता चुटकी बजाकर नहीं दी जा सकेगी क्योंकि प्रक्रिया बेहद जटिल है। और फिर केंद्र सरकार का पूरा अमला लोकसभा चुनाव की व्यवस्थाओं में व्यस्त है। ये देखते हुए विपक्ष एक बार फिर वही गलती दोहरा बैठा जो राम मन्दिर में प्राण -  प्रतिष्ठा के बहिष्कार के रूप में की थी। वह सीएए का विरोध न करता तब भी  भाजपा विरोधी दलों को मुस्लिम मत थोक में मिलना निश्चित था। लेकिन उनके जबरदस्त विरोध की प्रतिक्रिया  स्वरूप हिन्दू मतदाता और भी अधिक संख्या में भाजपा के साथ आ सकते हैं। हो सकता है भाजपा के रणनीतिकार भी यही चाहते हों। जो भी हो लेकिन सीएए का विरोध करने वालों ने हिन्दू  जनमानस को  भाजपा के और नजदीक करने का काम किया है। वरना यह एक साधारण कानून ही है। 


- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 12 March 2024

इलेक्टोरल बॉण्ड का ब्यौरा : छिपाने से संदेह और बढ़ेगा



 सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भारतीय स्टेट बैंक को इलेक्टोरल बॉण्ड के विवरण का आज शाम तक खुलासा करने और उसके बाद उन्हें वेब साइट के जरिये सार्वजनिक करने संबंधी जो आदेश दिया गया वह  निश्चित तौर पर देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका का प्रमाण है। उल्लेखनीय है 15 फरवरी को न्यायालय ने इलेक्टोरल बॉण्ड की बिक्री पर रोक लगाकर उसका विवरण गोपनीय रखे जाने को गलत बताते हुए कहा था कि लोकतंत्र में जनता को यह जानने का अधिकार है कि राजनीतिक  दलों को किन स्रोतों से चंदा प्राप्त होता है। यद्यपि उक्त फैसले पर एक प्रतिक्रिया ये भी आई कि सर्वोच्च न्यायालय ने इलेक्टोरल बॉण्ड की व्यवस्था तो रोक दी किंतु चुनाव आयोग और सरकार को इस बारे में सुझाव नहीं दिया कि राजनीतिक चंदे का पारदर्शी वैकल्पिक तरीका क्या होना चाहिए ? बहरहाल उस बारे में अलग से बहस की जा सकती है किंतु इलेक्टोरल बॉण्ड का विवरण देने के लिए भारतीय स्टेट बैंक द्वारा 30 जून तक का समय मांगा जाना ही अनेक संदेहों को जन्म देने वाला था। सामान्य स्थिति में तो संभवतः न्यायालय उसके अनुरोध को स्वीकार करते  कुछ महीनों बाद तक का समय प्रदान कर देता । लेकिन लोकसभा चुनाव करीब होने से उस पर भी मानसिक दबाव था क्योंकि जिस उद्देश्य से इलेक्टोरल बॉण्ड पर रोक लगाई गई  , बैंक को मोहलत देने से वह अधूरा रह जाता। विपक्ष का आरोप है कि  बॉण्ड व्यवस्था में चंदा देने वाले की पहचान गोपनीय रखे जाने का सबसे अधिक लाभ भाजपा ने उठाया जिसे कुल राशि का आधे से ज्यादा चंदा मिला। लेकिन उससे भी बड़ी जो बात विपक्ष उजागर करना चाह रहा है वह उन उद्योगपतियों के नाम हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्हें केंद्र में भाजपा की सरकार आने के बाद विशेष तौर पर उपकृत किया गया। हालांकि इलेक्टोरेल बॉण्ड के जरिये विभिन्न राजनीतिक दलों को मिले चन्दे का ब्यौरा उजागर होने से तृणमूल, द्रमुक और बीआरएस जैसे क्षेत्रीय दल भी सवालों के घेरे में आएंगे जिन्हें सीमित प्रभाव क्षेत्र के बाद भी  असाधारण रूप से बड़ी राशि प्राप्त हुई। यद्यपि  इस बारे में ये कहा जा सकता है कि जिसके पास सत्ता है उसे ज़ाहिर तौर पर दूसरों से अधिक धनराशि मिलती है। जिस प्रकार उद्योगपति केंद्र सरकार से व्यावसायिक लाभ उठाने के लिए सत्तारूढ़ दल को ज्यादा चंदा देते हैं वैसी ही रणनीति उनकी राज्य में होती है। राहुल गाँधी के निशाने पर रहने वाले उद्योगपति गौतम अडानी को छत्तीसगढ़ और राजस्थान की पिछली सरकारों ने भी दिल खोलकर ठेके दिये। ऐसे में उन्होंने वहाँ कांग्रेस को भी प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष तौर पर सहायता की होगी। ये देखते हुए स्टेट बैंक द्वारा बॉण्ड के माध्यम से आये चंदे का ब्यौरा देने से बचने का कोई अर्थ नहीं था। यदि उस पर ऐसा करने का सरकारी दबाव रहा तो उसे भी औचित्यहीन ही कहा जाएगा। अर्थात सर्वोच्च न्यायालय यदि स्टेट बैंक को 30 जून तक का समय दे भी देता तो उससे जो जानकारी आज आने वाली है वह चुनाव के बाद आयेगी। यदि उसमें कुछ अनुचित होगा तो जितना हल्ला आज मचेगा उतना ही उस वक्त होगा। इलेक्टोरल बॉण्ड लागू करने के पीछे जो कारण बताया गया वह राजनीतिक चन्दे में काले धन के उपयोग को रोकना था। चन्दा देने वाले की पहचान इस आधार पर जाहिर न करने का तर्क दिया जाता है कि जिन दलों को वह सहयोग नहीं देगा वे नाराज होकर उसके व्यवसायिक हितों पर चोट पहुंचायेंगे। ये आशंका निराधार भी नहीं है क्योंकि राजनेता अपनों पे करम, गैरों पे सितम की भावना से ऊपर नहीं हैं। लेकिन  लोकतंत्र को पारदर्शी बनाना है तो चन्दा सम्बन्धी विवरण को गोपनीय रखे जाने से बचना होगा। ये देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने गत दिवस जो फैसला दिया उसका राजनीतिक पार्टियों की छवि पर क्या असर होगा ये उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना  यह कि इससे आये दिन उड़ने वाली आधारहीन खबरों पर  विराम लगने के साथ ही नेताओं और उद्योगपतियों की संगामित्ती का पता चल जायेगा। यदि चंदे का एहसान नियम विरुद्ध फायदा देकर चुकाया गया हो तो यह बात जनता के संज्ञान में आना जरूरी है। इस डर से कि यह चुनावी मुद्दा बन जायेगा किसी जानकारी पर परदा डालने से संदेह और बढ़ता है। सर्वोच्च न्यायालय ने स्टेट बैंक पर जो दबाव बनाया उससे यदि किसी राजनेता या पार्टी को  असहज स्थिति का सामना करना पड़े तो ये उसका सिर दर्द है।

-रवीन्द्र वाजपेयी


Monday 11 March 2024

ममता की एकला चलो नीति गठबंधन की मजबूती के लिए नुकसानदेह



      आख़िरकार तृणमूल कांग्रेस ने प.बंगाल में एकला चलो की नीति को अपनाते हुए सभी 42 सीटों पर अपने उम्मीदवार की घोषणा कर ही दी। शुरुआती चर्चाओं के मुताबिक ममता बैनर्जी ने कांग्रेस को 2019 में अधीररंजन चौधरी द्वारा जीती सीट के अतिरिक्त एक सीट और देने का प्रस्ताव दिया था। जबकि कांग्रेस 6 सीटें मांग रही थी। ताकि एक - दो अपने सहयोगी वामपन्थियों को दे सके। लेकिन ममता चूंकि वामपंथी खेमे को सबसे बड़ा दुश्मन मानती हैं इसलिये उन्होंने कांग्रेस की मांग को ठुकरा दिया।  

     हालांकि राहुल गाँधी सहित अन्य कांग्रेस नेता ये दोहराते रहे कि सीट बंटवारे पर उनकी तृणमूल से चर्चा जारी है किंतु  कल एक साथ सभी 42 उमीदवारों की घोषणा करने के साथ सुश्री बैनर्जी ने कांग्रेस के आशावाद पर पानी फेर दिया। यद्यपि वे प. बंगाल में सीटों के बंटवारे के प्रति अपनी अनिच्छा अनेक मर्तबा व्यक्त कर चुकी थीं फिर भी इंडिया गठबंधन के लिहाज से एक - दो सीट की उम्मीद कांग्रेस को उनसे थी। लेकिन अधीर रंजन द्वारा छोड़े गए शब्दबाणों ने खेल खराब कर दिया। उल्लेखनीय है वे खुलकर आरोप लगाते रहे कि दीदी (ममता) और मोदी के बीच गुप्त समझौता है। आग में घी का काम किया संदेशखाली कांड पर श्री चौधरी द्वारा ममता सरकार पर किये गए हमलों ने। 

     वैसे कांग्रेस के प्रति तृणमूल अध्यक्ष की नाराजगी तब ही बढ़ गई थी जब प. बंगाल में  न्याय यात्रा के प्रवेश के पूर्व उनके द्वारा किये फोन का जवाब देने की सौजन्यता तक राहुल गाँधी ने नहीं दिखाई। जब उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे से शिकायत की तब ईमेल से आमंत्रण आया। ममता को ये अपना अपमान लगा और वे उस यात्रा से दूर ही रहीं। राहुल ने भी उस बात को गम्भीरता से नहीँ लिया और न ही किसी कांग्रेस नेता ने भी उनका गुस्सा ठण्डा करने की कोशिश  की। 

इस तरह मतभेदों की खाई चौड़ी होती गई। ममता का हौसला तब और बुलन्द हो गया जब अरविंद केजरीवाल ने कांग्रेस को पंजाब में एक भी सीट देने से इंकार कर दिया। जबकि कांग्रेस से आम आदमी पार्टी ने दिल्ली की 4 , हरियाणा की  1 और गुजरात की 2 लोकसभा सीटें झटक लीं। इस तरह पंजाब के बाद प. बंगाल दूसरा राज्य बन गया जिसमें सत्तारूढ़ पार्टी ने इंडिया गठबंधन में शामिल रहते हुए कांग्रेस को एक भी सीट देने से इंकार कर दिया। और इसका जो कारण बताया वह ये कि कांग्रेस जीतने की स्थिति में नहीं है। उ.प्र में अखिलेश यादव ने केवल 20 फीसदी सीटें कांग्रेस को देकर 80 फीसदी अपने पास रखीं। बिहार में भी कांग्रेस , लालू प्रसाद यादव की राजद की मोहताज है। तमिलनाडु में भी कमोबेश यही हालात हैं। ऐसे में केवल महाराष्ट्र ही वह बड़ा राज्य है जहाँ कांग्रेस सहयोगी दलों से ज्यादा सीटें लड़ेगी। 

  कर्नाटक  , हिमाचल, तेलंगाना,म.प्र , राजस्थान, छत्तीसगढ़ , हरियाणा और गुजरात में कांग्रेस भाजपा की  प्रमुख प्रतिद्वंदी है लेकिन इन सभी में केवल कर्नाटक और तेलंगाना में ही पार्टी को अच्छी सीटें मिलने की आशा है। बाकी में भाजपा बहुत मजबूत स्थिति में है। ये स्थिति  कांग्रेस के लिए चिंता का विषय होना चाहिए क्योंकि इंडिया का सबसे प्रमुख सदस्य होने के बावजूद क्षेत्रीय दल उसे बड़ा भाई मानने को राजी नहीं हैं। पहले आम आदमी पार्टी और अब तृणमूल कांग्रेस ने कांग्रेस के साथ जो व्यवहार किया वह गठबंधन की मूल भावना के विरुद्ध है। 

ममता और अरविंद उन नेताओं में से हैं जो राहुल गाँधी को प्रधानमन्त्री बनाये जाने का खुलकर विरोध करते आये हैं। लेकिन कांग्रेस को पूरी तरह कमजोर करने की उनकी नीति गठबंधन के भविष्य के लिए खतरे का संकेत है। अब तक प्रधानमन्त्री का चेहरा सामने नहीं ला पाने के कारण वैसे भी इंडिया को अपेक्षित प्रतिसाद नहीं मिल पा रहा। ऐसे में यदि सहयोगी दल एक दूसरे को निपटाने में जुट गए तो फिर चुनाव आते - आते गठबंधन में विश्वास का संकट और गहरा होता जाएगा।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Sunday 10 March 2024

कांग्रेस : जात पर न पाँत पर से जातिगत जनगणना तक



गत दिवस म.प्र के वरिष्ट कांग्रेस नेता सुरेश पचौरी ने भाजपा में प्रवेश करते समय जो बातें कहीं उनमें से एक ये भी थी कि जो कांग्रेस पहले जात पर न पांत पर का नारा लगाती थी , वही अब जाति का मसला उठा रही है जिससे जातीय तनाव में वृद्धि हो रही है। उनका इशारा राहुल गाँधी द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर जातिगत जनगणना करवाए जाने के वायदे की तरफ था। उल्लेखनीय है गत वर्ष नवम्बर में जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए उनमें भी  राहुल ने उक्त वायदा पार्टी के घोषणापत्र में रखवाया था किंतु उसका विशेष लाभ उसे नहीं मिल सका। तेलंगाना में मिली जीत का कारण भी चंद्रशेखर राव सरकार के विरोध में बने माहौल के अलावा भाजपा द्वारा त्रिकोणीय संघर्ष की स्थिति बना देना रहा।

     बिहार में जिन नीतीश कुमार ने जातिगत जनगणना करवाई वे खुद भाजपा के साथ आ गए। हालांकि इंडिया गठबंधन के अनेक सदस्य इसके समर्थक हैं। लेकिन ममता बैनर्जी ने अपने राज्य में जातिगत जनगणना करवाने से साफ इंकार कर दिया। श्री पचौरी जैसी सोच रखने वाले काफी लोग कांग्रेस में हैं किंतु उनमें श्री गाँधी का विरोध करने की हिम्मत नहीं है। एक जमाना था जब दलितों और अल्पसंख्यकों के साथ ही उच्च जातियों के मत भी कांग्रेस को थोक के भाव मिला करते थे। लेकिन नीतिगत अस्पष्टता के कारण वे बिखरते चले गए। सवर्णों में भाजपा की पैठ बढ़ी तो अन्य पिछड़ी जातियाँ मंडलवादी पार्टियों के साथ चली गईं। बाबरी ढांचा गिरने के बाद मुसलमान भी लालू, मुलायम जैसे नेताओं के पक्ष में लामबंद हो गए। सोशल इंजीनियरिंग का बेहतर उपयोग करते हुए भाजपा ने अति पिछड़ी जातियों में सेंध लगा दी। कुल मिलाकर कांग्रेस का जातिगत जनाधार बुरी तरह डगमगा गया। धार्मिक ध्रुवीकरण भी उसके विपरीत जाने लगा। परिणामस्वरूप कुछ राज्यों को छोड़कर वह बाकी में क्षेत्रीय दलों की पिछलग्गू  बनने मजबूर हो चुकी है।

     ऐसे में अचानक श्री गाँधी को लगा कि जाति की राजनीति कांग्रेस को इस दुरावस्था से उबार लेगी।  इसलिए वे जाति के आधार पर अधिकारियों की संख्या और उनके विभागों के बजट जैसे मुद्दे उठाने लगे। उसी के साथ ही उन्होंने जातिगत जनगणना का राग छेड़ दिया। लेकिन वे भूल जाते हैं कि ऐसा करने से कांग्रेस का रहा - सहा आधार भी खिसक जायेगा। जिन राज्यों में आज भी वह मुख्य मुकाबले में है वहाँ उच्च जातियों का अच्छा- खासा वोट बैंक उसके साथ खड़ा नजर आता है। लेकिन वे जबसे जातिगत जनगणना का राग अलापने लगे हैं तभी से यह वर्ग भी उससे छिटकने लगा। विशेष रूप से राम मन्दिर में प्राण - प्रतिष्ठा के समारोह का बहिष्कार करने के बाद से उच्च और मध्यम वर्ग के हिन्दू मतदाताओं की बड़ी संख्या कांग्रेस से विमुख हो गई है। हाल ही में कांग्रेस छोड़ने वाले ज्यादातर नेताओं ने राम मन्दिर मुद्दे पर पार्टी के रवैये से नाराज होने की बात स्वीकार की। हाल ही में जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भी बिना राहुल का नाम लिए टिप्पणी की कि अम्बानी  , अडानी, चौकीदार चोर है जैसे मुद्दे असरहीन हो चुके हैं। उन्होंनें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर किये जाने वाले व्यक्तिगत हमलों को भी आत्मघाती बताते हुए कहा कि इनसे विपक्ष का नुकसान होता है।

     लेकिन राहुल ऐसी सलाहों पर कोई ध्यान देते होते तो कांग्रेस बीते पांच साल में उबर सकती थी किंतु वह कमजोर होती जा रही है। 2019  के चुनाव में श्री गाँधी ने चौकीदार चोर और अंबानी का मुद्दा जोरशोर से उठाया था किंतु जनता ने उन्हें भाव नहीं दिया। लेकिन उसके बाद भी वे श्री मोदी और अंबानी पर निजी हमले करने से बाज नहीं आये और अब जाति के जाल में उलझकर कांग्रेस के मूल सिद्धांत को तिलांजलि देने में जुटे हुए हैं।

     उन्हें इस बात की चिंता करनी चाहिए कि न्याय यात्रा जिस राज्य से गुजरी है उसमें या तो काँग्रेस के कुछ नेताओं ने पार्टी छोड़ दी या इंडिया गठबंधन के साथियों ने उनसे दूरी बना ली। यदि अभी भी श्री गाँधी ने अपना रवैया नहीं बदला और तात्कालिक फायदे के लिए कांग्रेस के मूल चरित्र को नष्ट करने में जुटे रहे तो पार्टी की स्थिति में सुधार होने की उम्मीद छोड़ देनी चाहिए। 


-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 9 March 2024

चुनाव पूर्व ही विपक्ष के हौसले पस्त करने की रणनीति पर चल रही भाजपा


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राजनीति के बेहद चतुर खिलाड़ी हैं। रास्वसंघ के प्रचारक के बाद भाजपा में संगठन का काम करते हुए वे जब गुजरात के मुख्यमंत्री बने तब वे विधायक तक नहीं थे। इसलिए सत्ता  संचालन की उनकी क्षमता को लेकर सवाल उठते रहे। लेकिन जल्द ही उन्होंने साबित कर दिखाया कि वे कुशल प्रशासक भी हैं। मुख्यमंत्री रहते हुए ही वे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आकर्षण का केंद्र बन गए थे। इसीलिए जब भाजपा ने उन्हें प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाया तब जनता में उसकी अनुकूल प्रतिक्रिया हुई जिसका प्रमाण 2014 के लोकसभा चुनाव में मिला। प्रधानमंत्री के तौर पर उनकी कार्यशैली ने देश और दुनिया को प्रभावित किया और वे 2019 में और भी ज्यादा बहुमत के साथ सत्ता में लौटे। बीते पांच वर्ष में उन्होंने अनेक ऐसे काम कर डाले जिनकी वजह से वे एक मजबूत नेता के तौर पर छाए हुए हैं। ये कहना कतई गलत न होगा कि वे  समकालीन विश्व के सबसे लोकप्रिय और प्रभावशाली नेताओं में से हैं। ऐसे में 2024 के लोकसभा चुनाव में उनकी जीत में  किसी को संदेह नहीं है। अब तक  सभी चुनाव पूर्व सर्वेक्षण सत्ता में उनकी वापसी की  संभावना व्यक्त कर रहे हैं। राजनीतिक विश्लेषकों के बीच भी बहस का मुद्दा  यह है कि भाजपा को 370 और एनडीए को 400 सीटें मिलेंगी अथवा नहीं ? स्मरणीय है खुद प्रधानमंत्री ने इस आंकड़े को सार्वजनिक विमर्श का विषय बनवा दिया। लेकिन ये सवाल भी पूछा जा रहा है कि जब प्रधानमंत्री 370 और 400 पार का नारा बुलंद करते हुए आत्मविश्वास से भरे हुए हैं तब भाजपा दूसरे दलों के नेताओं को क्यों शामिल कर रही है? और  छोटे - छोटे दलों से गठबंधन की उसे क्या जरूरत है ? उल्लेखनीय है नीतीश कुमार के साथ ही भाजपा ने जयंत चौधरी को भी एनडीए में  शामिल कर  इंडिया गठबंधन को जबरदस्त धक्का दिया। उसके बाद भी भाजपा  सहयोगियों की संख्या बढ़ाने में जुटी हुई है । ओडीसा में बीजद और आंध्र प्रदेश में तेलुगु देशम से बातचीत इसका प्रमाण है। तमिलनाडु में अन्ना द्रमुक को दोबारा साथ लाने के प्रयास भी चल रहे हैं। ऐसे ही पंजाब में अकालियों से गठजोड़ की बिसात बिछ गई है।  दूसरे दलों से नेताओं को भी भाजपा में लाने का अभियान चल रहा है। आज म.प्र में पूर्व केंद्रीय मंत्री सुरेश पचौरी, पूर्व विधायक संजय शुक्ला और पूर्व सांसद गजेंद्र सिंह राजूखेड़ी सहित अनेक छोटे बड़े नेताओं ने भाजपा की सदस्यता ले ली। ऐसी ही खबरें अन्य राज्यों से भी लगातार आ रही हैं। ये तंज भी सुनने में आ रहा है कि कांग्रेस मुक्त भारत का नारा लगाते - लगाते पार्टी कांग्रेस युक्त भाजपा हुई जा रही है। लेकिन क्या अन्य पार्टियां अपने यहां आने वाले को अपनी सदस्यता देने से इंकार कर रही  रही हैं ? कर्नाटक विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा से पूर्व मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार कांग्रेस में आ गए जिन्हें टिकिट भी मिला। हाल ही में वे भाजपा में लौट आये। म.प्र में भी भाजपा के सस्थापक सदस्य पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी के पुत्र दीपक  कांग्रेस में आकर चुनाव लड़े। कहने का आशय ये कि विचारधारा तो कोई मुद्दा रहा नहीं।  आजादी के बाद नेहरु जी ने भी प्रजा समाजवादी पार्टी सहित अन्य विपक्षी दलों के नेताओं को कांग्रेस में शामिल करने का अभियान चलाया था। प्रधानमंत्री चूंकि चुनावी लड़ाई के सिद्धहस्त खिलाड़ी हैं इसलिये  वे कांग्रेस सहित अन्य विपक्षियों का मनोबल कमजोर करने की नीति पर चल रहे हैं। इसी के अंतर्गत शिवसेना और एनसीपी में विभाजन हुआ। इंडिया गठबंधन में भी कांग्रेस  आम आदमी पार्टी जैसे दल के साथ है जो दिल्ली और पंजाब में उसकी बर्बादी का कारण बनी। महाराष्ट्र में भी घोर हिंदूवादी नेता उद्धव ठाकरे को उसने साथ रखा है। इसी तरह श्री ठाकरे उस कांग्रेस की गोद में बैठे हुए हैं जो वीर सावरकर की देशभक्ति  पर सवाल उठाती है। अरविंद केजरीवाल से जब एक पत्रकार ने सवाल किया कि देश के जिन भ्रष्टतम नेताओं की सूची उनके द्वारा जारी की गई थी उनमें से अनेक इंडिया गठबंधन में उनके साथ हैं। तब वे बोले कि मोदी और शाह को सत्ता से हटाने ऐसा करना आवश्यक है। उनका यह उत्तर वर्तमान राजनीतिक शैली और संस्कृति का सही चित्र है। सही बात ये है कि इंडिया गठबंधन का मकसद केवल केंद्र की सत्ता से भाजपा को बेदखल करना है। शुरुआती दौर में वह भाजपा पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने में सफल भी दिखाई दिया। मोदी विरोधी मीडिया को भी उसकी जीत सुनिश्चित लगने लगी किंतु भाजपा ने उस संभावना को कमजोर करते हुए उल्टा दबाव बना दिया। एनडीए का कुनबा  बढ़ाकर और कांग्रेस में लगातार सेंध लगाकर वह विपक्ष के हौसले पस्त करने में जुटी हुई है। और उसका प्रयास कामयाब होता भी दिख रहा है। 


- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 8 March 2024

श्रीनगर की सभा में डा.मुखर्जी का उल्लेख 370 के बाद हुए बदलाव का प्रमाण


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहले भी कश्मीर घाटी की यात्रा कर चुके हैं किंतु गत दिवस उनका श्रीनगर प्रवास विशेष था । श्रीनगर के बख्शी स्टेडियम में  उनकी जनसभा में लोगों की उपस्थिति  पिछली रैली के मुकाबले कई गुना ज्यादा थी। जिससे लगा कि घाटी में उनका आकर्षण बढ़ा है ।  सभा के दौरान आतंकवादी घटना की आशंका के बावजूद बड़ी संख्या में श्रोता आए । 370 समर्थक पार्टियों ने भी बंद या हड़ताल जैसा कोई प्रयास नहीं किया जो  घाटी के बदले  हुए माहौल का  प्रमाण है जहां कुछ साल पहले तक जुमे की नमाज के बाद मस्जिदों से निकलती भीड़ पाकिस्तान के झंडे लहराती थी ।सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकने वालों में लड़कों के साथ लड़कियां भी नजर आती थीं। किसी आतंकवादी को भागने में मदद करने के लिए लोगों की भीड़ सुरक्षा बलों के विरोध में खड़ी होना आम बात थी। जनजीवन बुरी तरह अस्त - व्यस्त था। पर्यटन  व्यवसाय चौपट था। शैक्षणिक संस्थानों में ताले पड़े थे। ऐसा लगने लगा था कि घाटी पूरी तरह भारत से अलग होने की ओर बढ़ रही है। हालांकि धारा 370 हटाए जाने के बाद भी लंबे समय तक  स्थितियां सामान्य नहीं थीं। सुरक्षा बलों पर हमलों के अलावा निर्दोष नागरिकों की  हत्या कर आतंक फैलाने का प्रयास होता रहा। पुलिस और सेना में कार्यरत अनेक नौजवानों की  हत्या से दहशत फैलाई जाती रही। लेकिन केंद्र सरकार की दृढ़ता और सुरक्षा बलों की मुस्तैदी के कारण  स्थितियां सुधरने लगीं। अलगाववादी नेताओं की गिरफ्तारी और नजरबंदी के भी सकारात्मक परिणाम दिखे। शिक्षण संस्थानों और खेल के मैदानों में चहल - पहल लौटी। पुलिस जैसी सरकारी नौकरियों में भर्ती के लिए  घाटी के नौजवानों ने जिस उत्साह का प्रदर्शन किया उससे अलगाववाद के शिकंजे में फंसे इस  राज्य में सामान्य स्थिति लौटने के संकेत मिलने लगे। सबसे बड़ा लाभ ये हुआ कि  अर्थव्यवस्था की रीढ़ पर्यटन उद्योग ने सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर दिए। हालांकि अमरनाथ यात्रा सुरक्षा बलों के संरक्षण में आतंकवाद के दौर में भी होती रही किंतु 370 हटने के बाद  यात्री अन्य दर्शनीय स्थलों पर भी जाने लगे।  डल झील में खड़ी हाउस बोटों में बरसों बाद रौनक लौट आई। गुलमर्ग के शीतकालीन खेलों में भाग लेने वालों में भी आशातीत वृद्धि हुई। हालांकि 1990 में  जान बचाकर भागे कश्मीरी पंडितों की वापसी का सपना अभी भी अधूरा है । लेकिन उनके साथ हुए अमानवीय व्यवहार की दास्तां से पूरी दुनिया अवगत होने लगी। हुर्रियत जैसे संगठनों की कमर टूट गई। आतंकवादियों को मिलने वाली विदेशी सहायता पर रोक लगने के साथ ही सीमा पार से होने वाली घुसपैठ भी कम हुई। कुल मिलाकर जिस कुशलता के साथ मोदी सरकार ने जम्मू कश्मीर में अलगाववाद को प्रश्रय देने वाली धारा 370 को हटाया उसने पहली बार कश्मीर घाटी के मुख्य धारा में शामिल होने का एहसास करवाया। गत दिवस श्री मोदी ने जनसभा में जनसंघ के संस्थापक डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का उल्लेख करते हुए घाटी को अपनी जागीर समझने वाले अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार को साफ शब्दों में संकेत दे दिया कि  वहां राष्ट्रवादी राजनीति का पदार्पण हो चुका है। प्राप्त संकेतों  के अनुसार घाटी के युवाओं में ये भावना तेजी से स्थापित हो रही है कि उनका भविष्य भारत के साथ ही जुड़ा हुआ है। आगामी लोकसभा चुनाव में घाटी की सीटों पर भाजपा जीत दर्ज करेगी ये कहना तो जल्दबाजी होगी किंतु 370 हटने के बाद अलगाववादी मानसिकता का एकाधिकार  कम होता जा रहा है। विधानसभा सीटों के परिसीमन के बाद वैसे भी अब जम्मू की राजनीतिक वजनदारी घाटी के बराबर हो गई है। प्रधानमंत्री की कश्मीर यात्रा का समय इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि पाकिस्तान की सत्ता  दोबारा संभालने के बाद नेशनल असेंबली में प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ ने कश्मीर की तुलना फिलीस्तीन और गाजा से करते हुए भारत विरोधी रवैया दिखाया। दूसरी ओर पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में हाल ही में इस्लामाबाद के विरोध में जबर्दस्त प्रदर्शन हुए।प्रधानमंत्री ने अपनी श्रीनगर यात्रा से पाकिस्तान और उसके द्वारा पाले जाने वाले अलगाववादियों को संकेत दे दिया है कि कश्मीर घाटी में उनके लिए कोई गुंजाइश नहीं है। ये भी उल्लेखनीय है कि श्री मोदी , सर्वोच्च न्यायालय द्वारा धारा 370 को  हटाए जाने के निर्णय को सही ठहराए जाने के बाद ही घाटी की यात्रा पर गए जिसका आशय ये है कि उस धारा की वापसी अब संभव नहीं। 


- रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 7 March 2024

शाहजहां को बचाने के फेर में अपना नुकसान कर बैठीं ममता


प.बंगाल का संदेशखाली बीते कुछ समय से राष्ट्रीय स्तर चर्चाओं में बना हुआ है। 24 परगना जिले में स्थित उक्त कस्बे में शाहजहां शेख नामक नेता के यहां राशन घोटाले को लेकर जनवरी माह में ईडी की जिस टीम ने छापा मारा उस पर घातक हमला किया गया। और उसी बीच वह फरार हो गया। बाद में स्थानीय महिलाओं ने शेख़ और उसके साथियों द्वारा उनका यौन शोषण किए जाने की जानकारी सार्वजनिक की  । लोगों की जमीनें जबरन कब्जाने की शिकायतें भी आईं। जब विरोधी दलों ने ममता सरकार को कठघरे में खड़ा किया तो कुछ लोगों की गिरफ्तारी तो कर ली गई लेकिन शाहजहां फरार ही रहा। अंततः जब उच्च न्यायालय ने 7 दिनों में उसे पकड़कर पेश करने कहा तब  बड़ी ही आसानी से पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया।  ये भी सुनने में आया कि राज्य  सरकार को इस बात का डर था कि वह ईडी या सीबीआई की पकड़ में न आ जाए ।उच्च न्यायालय की फटकार के बाद जिस आसानी से शाहजहां  को गिरफ्तार किया गया उस पर  सामान्य प्रतिक्रिया यही रही कि 55 दिनों तक वह कहां रहा इसकी जानकारी पुलिस को थी। मामले में रोचक मोड़ तब आया जब दो दिन पूर्व उच्च न्यायालय ने उसे सीबीआई को सौंपने के साथ उसके विरुद्ध दर्ज  सभी 42 मामलों के दस्तावेज भी जांच एजेंसी के हवाले करने का आदेश दिया। लेकिन प.बंगाल सरकार ने आदेश का पालन करने के बजाय सर्वोच्च न्यायालय में अपील कर दी । लेकिन वहां भी तुरंत सुनवाई नहीं हुई । और जब ममता सरकार के पास कोई विकल्प नहीं बचा तो मजबूरन  शाहजहां को सीबीआई के हवाले किया।  सर्वोच्च न्यायालय राज्य सरकार की अपील पर क्या फैसला लेता है ये अभी तय नहीं है किंतु उच्च न्यायालय ने  शाहजहां की गिरफ्तारी के लिए राज्य की पुलिस के अलावा ईडी और सीबीआई को भी अधिकार दिया था । समूचे घटनाक्रम में जो सबसे बड़ा मुद्दा उठ खड़ा हुआ वह है प.बंगाल सरकार द्वारा शाहजहां को सीबीआई के सुपुर्द करने में की गई अड़ंगेबाजी । उच्च न्यायालय के स्पष्ट आदेश के बावजूद शाहजहां को केंद्रीय जांच एजेंसी के हवाले करने में ममता बैनर्जी को संभवतः यही डर होगा कि वह उसे प्राप्त संरक्षण का भंडाफोड़ न कर दे । यद्यपि तृणमूल कांग्रेस ने उसकी सदस्यता निलंबित कर दी परंतु उसे सीबीआई को सौंपने के  आदेश के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अर्जी लगाने से ये बात उजागर हो गई है कि उसे बचाने के लिए राज्य सरकार कोई कसर नहीं छोड़ रही। बड़ी संख्या में मामले दर्ज होने के बाद भी वह कानून की पकड़ से बाहर रहकर काले - कारनामों को अंजाम देता रहा जिससे  उसकी राजनीतिक पहुंच स्पष्ट हो जाती है। इस प्रकरण से ममता बैनर्जी की छवि को जबर्दस्त नुकसान हुआ है। हालांकि उनकी तरफ से  ये भी कहा जा रहा है कि भाजपा , शाहजहां के मुस्लिम होने के कारण मामले को तूल दे रही है किंतु संदेशखाली की महिलाओं ने जिस साहस के साथ उन पर हुए अत्याचार के लिए शाहजहां और उसके साथियों पर आरोप लगाए उसके बाद ममता को चाहिए था कि वे खुद उन पीड़ित महिलाओं और अन्य लोगों से मिलकर उनके घावों पर मरहम लगातीं किंतु उसके उलट वे शाहजहां को बचाने के लिए पूरी ताकत लगाती रहीं। यदि न्यायपालिका ने सख्ती न दिखाई होती तो उक्त आरोपी अब तक फरार ही रहता। लोकसभा चुनाव के पहले उठा ये मामला तृणमूल के गले की हड्डी बन गया है।  राजनीतिक विश्लेषक भी ये कहने लगे हैं कि जिस तरह वामपंथी सरकार के लिए नंदीग्राम और सिंगुर प्रकरण नुकसानदेह साबित हुए थे ठीक वैसे ही संदेशखाली में शाहजहां शेख और उसके गुर्गों के जंगलराज को ममता सरकार का संरक्षण तृणमूल की जड़ें उखाड़ने का कारण बन सकता है। 2021 का विधानसभा चुनाव जीतने के बाद अपने विरोधियों पर जबरदस्त तरीके से हावी हुई ममता पहली बार दबाव में  हैं। इंडिया गठबंधन के किसी भी घटक के उनके बचाव में नहीं आने से वे अकेली नजर आ रही हैं। कांग्रेस और वामपंथी दोनों संदेशखाली कांड में तृणमूल सरकार का विरोध कर चुके हैं। अब चूंकि शाहजहां केंद्रीय एजेंसी के सुपुर्द हो चुका है इसलिए अब ये उम्मीद की जा सकती है कि उसके अपराधों की सजा उसे मिलकर रहेगी। ममता को यही भय सता रहा है।


-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 6 March 2024

द्रमुक नेताओं के बयान तमिलनाडु में अलगाववाद के उदय का संकेत


द्रमुक सांसद ए. राजा ने एक बार फिर सनातन और देश विरोधी बयान दिया है। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन के जन्मदिवस पर  आयोजित समारोह में बोलते हुए उन्होंने भारत को देश मानने से इंकार करते हुए कहा कि वह एक उपमहाद्वीप है। उनके अनुसार देश की एक भाषा और एक संस्कृति होती है। उस लिहाज से तमिलनाडु , केरल , उड़ीसा आदि देश हैं और ऐसे ही  अनेक देशों से भारत बना है। इसके साथ ही  उन्होंने  भारत माता की जय और जय श्री राम के नारे का विरोध करते हुए कहा कि वे इन्हें ईश्वर नहीं मानते तथा राम और रामायण के भी  विरोधी हैं । उन्होंने हनुमान जी की तुलना वानर से करते हुए जय श्री राम नारे को घृणित बताया। पूर्व केंद्रीय मंत्री श्री राजा की गणना द्रमुक के वरिष्ट नेताओं में होती है। गत वर्ष हिन्दी का विरोध करते हुए उन्होंने कहा था कि यदि उसे थोपा गया तो तमिलनाडु अलग देश बन जाएगा। उल्लेखनीय है अलग तमिल राष्ट्र द्रमुक की वह इच्छा है जो समय - समय पर प्रकट होती रही है। स्वर्गीय करुणानिधि ने उत्तरी श्रीलंका के तमिल बहुल क्षेत्रों को मिलाकर  पृथक  तमिल देश बनाने की बात कई मर्तबा कही भी थी। लिट्टे नामक उग्रवादी संगठन के प्रति भी उनकी सहानुभूति रही। उसी वजह से राजीव गांधी की हत्या के बाद उनकी सरकार बर्खास्त की गई थी। यद्यपि बाद में द्रमुक का केंद्र की विभिन्न सरकारों के साथ गठजोड़ रहा । डा.मनमोहन सिंह की सरकार में श्री राजा भी मंत्री थे। इंडिया गठबंधन की द्रमुक प्रमुख सदस्य है। कुछ महीनों पहले मुख्यमंत्री स्टालिन के बेटे उदयनिधि ने जो उनकी सरकार में ही मंत्री भी हैं, सनातन को लेकर बेहद आपत्तिजनक बयान देते हुए उसे समाप्त करने की बात तक कह डाली। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के पुत्र ने भी  उस बयान का समर्थन किया था। अनेक स्थानों पर उदयनिधि के विरुद्ध प्रकरण दर्ज हुए। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने भी उस बयान को लेकर उनको लताड़ लगाई । लेकिन वह विवाद ठंडा हो पाता उसके पहले ही श्री राजा ने भारत माता , भगवान राम और रामायण को लेकर जहर उगल दिया। संसद  सदस्य और  केंद्रीय मंत्री के रूप में उन्होंने भारत की एकता और अखंडता बनाए रखने की शपथ ली थी। ऐसे में उनके द्वारा राज्यों को देश  बताना उस शपथ का उल्लंघन तो है ही , देश और सनातन के अनुयायियों की धार्मिक भावनाओं को आहत करने वाला भी है। कांग्रेस ने उनके बयान से असहमति व्यक्त करते हुए उसकी निंदा तो की किंतु उसे द्रमुक को चेतावनी भी देनी चाहिए कि यदि उसके नेताओं द्वारा सनातन और भारत माता के विरुद्ध आपत्तिजनक बयान दिए जाते रहे तब उसके साथ रहना नामुमकिन हो जाएगा। इंडिया गठबंधन के अन्य सदस्यों को भी स्टालिन को समझाना चाहिए कि भारत की एकता और अखंडता पर इस तरह की टिप्पणी असहनीय है। गत वर्ष हुए  म.प्र , छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा के चुनाव में सनातन का मुद्दा गर्म होने का कारण उदयनिधि का बयान ही बना था। राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के समय भी पूरे देश में जो वातावरण नजर आया वह उन बयानों की ही प्रतिक्रिया थी । ऐसे में श्री राजा का  संदर्भित बयान आगामी लोकसभा चुनाव में  इंडिया गठबंधन के विरुद्ध मुद्दा बने तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए । भारत को उपमहाद्वीप और विभिन्न प्रांतों को देश मानने की जो बात द्रमुक सांसद ने कही वह तमिलनाडु की मौजूदा सरकार के संरक्षण में पनप रही अलगाववादी भावना का परिचायक है। स्मरणीय है आजादी के बाद से ही कश्मीर घाटी में  शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में  अलगाववादी भावनाओं की जो अभिव्यक्ति होती रही उसे हल्के में लिए जाने का दुष्परिणाम  कालांतर में आतंकवाद के रूप में सामने आया । ऐसा ही  पंजाब में हुआ जहां पंजाबी सूबे की मांग के पीछे  खालिस्तान की योजना फलती - फूलती रही। ऐसा लगता है तमिलनाडु अलगाववाद के नए केंद्र के रूप में विकसित होने की राह पर है। आजादी के पहले से ही रामास्वामी पेरियार के नेतृत्व में प्रारंभ हुआ आंदोलन सनातन और उत्तर भारत के प्रति घृणा के तौर पर सामने आया जिसे बाद में  हिन्दी विरोध की शक्ल दी गई।  तमिलनाडु की मौजूदा राजनीति में चुनौतीविहीन होने से द्रमुक  , खुलकर भारत से अलग होने के  सपने को साकार करने आगे बढ़ रही है। बीते कुछ महीनों में आए बयानों से उसकी देश विरोधी मानसिकता का खुलासा हो रहा है। ऐसे में  राष्ट्रीय पार्टियों को एकजुट होकर आगे आना चाहिए।  द्रमुक नेताओं के देश विरोधी बयानों को अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर नजरंदाज किया जाता रहा तो देश के दक्षिणी छोर पर नए  आतंकवाद का उदय होना निश्चित है जिसे  तटवर्ती राज्य होने से विदेशी सहायता की आशंका से भी इंकार नहीं किया जा सकता। जहां देश की अखंडता  खतरे में हो वहां राजनीतिक नफे - नुकसान की सोच को किनारे रखना ज्यादा जरूरी है।


- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 5 March 2024

छोटे - छोटे दलों के सामने राष्ट्रीय पार्टियों का झुकना अच्छा संकेत नहीं


लोकसभा चुनाव के कार्यक्रम की घोषणा आगामी सप्ताह होने की उम्मीद है। भाजपा सहित कुछ पार्टियों द्वारा उम्मीदवारों का ऐलान भी किया जाने लगा है। राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर गठबंधन बनाने का सिलसिला जारी है। एक - दूसरे के प्रबल प्रतिद्वंदी नेता गलबहियां करते देखे जा रहे हैं।  दल बदलने का क्रम भी अनवरत जारी है। लेकिन इस समूचे परिदृश्य में जो बात देखने मिल रही है वह है क्षेत्रीय के साथ अति छोटे दलों का दबाव।  दक्षिण भारत के  आंध्र प्रदेश में  वाय.एस.आर कांग्रेस और तेलुगु देशम पार्टी ही प्रमुख हैं। चूंकि दोनों की तासीर कांग्रेस विरोधी होने से भाजपा उनके साथ तालमेल बिठाना चाहती है । तमिलनाडु में कांग्रेस और द्रमुक दोनों इंडिया गठबंधन में शामिल हैं। लेकिन कांग्रेस द्रमुक के रहमो - करम पर निर्भर है। यही हाल भाजपा का है जिसके तेजतर्रार प्रदेश अध्यक्ष अन्ना मलाई की पदयात्रा ने पार्टी की पहिचान  को तमिलनाडु के सुदूर इलाकों तक तो पहुंचा दिया  किंतु इसके बाद भी वह अन्ना द्रमुक पार्टी से अपने गठबंधन को पुनर्जीवित करना चाह रही है। केरल में कांग्रेस , मुस्लिम लीग सहित अनेक स्थानीय दलों के साथ स्थायी तौर पर गठबंधन में है। कर्नाटक में  विधानसभा चुनाव हारने के बाद भाजपा ने पार्टी जनता दल ( सेकुलर ) से हाथ मिलाया। वहीं महाराष्ट्र में शिवसेना और एनसीपी से टूटकर आए धड़े को साथ लेकर चलना उसकी मजबूरी है। जबकि कांग्रेस , उद्धव ठाकरे और शरद पवार के साथ चलने बाध्य है। उ.प्र में भाजपा  सभी 80  सीटें जीतने का विश्वास जता रही है किंतु जाट मतों को आकर्षित करने के लिए उसने  जयंत चौधरी को तोड़ा । इसी तरह  ओमप्रकाश राजभर , संजय निषाद और अनुप्रिया पटेल जैसे एक दो जिलों के नेताओं  के साथ सीटों का बंटवारा करना उसकी मजबूरी है । यही हाल कांग्रेस का है जिसने सपा द्वारा दी गईं 17 सीटों  पर संतोष कर लिया। बिहार में भाजपा ने नीतीश कुमार को अपने पाले में खींचकर भले ही इंडिया गठबंधन को झटका दे दिया लेकिन उपेंद्र कुशवाहा , जीतनराम मांझी और चिराग पासवान उसके लिए सिरदर्द बने हुए हैं। यही हाल कांग्रेस का है जो पूरी तरह तेजस्वी यादव के इशारों पर चलने बाध्य है। इसका उदाहरण तीन दिन पूर्व पटना में हुई रैली थी जिसमें शरीक होने राहुल गांधी ग्वालियर में अपनी न्याय यात्रा  छोड़कर दौड़े - दौड़े गए। प. बंगाल में ममता बैनर्जी किसी को भी उपकृत करने राजी नहीं हैं। उत्तर पूर्वी राज्यों की  राजनीति में तो  क्षेत्रीय दलों का ही वर्चस्व है। हरियाणा में भाजपा की सरकार दुष्यंत चौटाला के सहारे है। वहीं पंजाब में भाजपा और कांग्रेस दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं हैं। जम्मू कश्मीर में भी क्षेत्रीय दल कांग्रेस पर हावी हैं।  दिल्ली में कभी कांग्रेस और भाजपा प्रमुख  प्रतिद्वंदी हुआ करती थीं किंतु आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया। बावजूद उसके वह उसके द्वारा दी गई लोकसभा की 7 में से तीन सीटें लड़ने पर चुपचाप राजी हो गई जबकि पंजाब में  उसने कांग्रेस को ठेंगा दिखा दिया। बारीकी से देखें तो देश के ज्यादातर राज्यों में क्षेत्रीय दल और उनके नेता राष्ट्रीय पार्टियों पर दबाव बनाने की स्थिति में हैं । उनमें से कुछ तो एक - दो सीटों से ज्यादा प्रभाव नहीं रखते। लेकिन उनके नखरे सहना भाजपा और कांग्रेस की मजबूरी हो गई है। भाषायी और सांस्कृतिक विविधता के कारण हमारे देश में इस तरह का राजनीतिक ढांचा चौंकाता तो नहीं है लेकिन इन छोटे दलों का दृष्टिकोण  बहुत ही सीमित और निहित स्वार्थों पर केंद्रित होने से  इनके अनुचित दबाव भी बड़ी पार्टियों को सहन करने पड़ते हैं। हालांकि गठबंधन राजनीति कोई नई बात नहीं है। 1967 के आम चुनाव के बाद संविद सरकारों के रूप में इसकी शुरुआत हुई थी। उसके बाद से राष्ट्रीय और प्रादेशिक स्तर पर गठबंधन बनते बिगड़ते रहे और नब्बे के दशक से इन्होंने स्थायी रूप ले लिया। दूसरी तरफ  क्षेत्रीय दलों से  अलग हुए नेताओं ने जाति आधारित अति छोटे दल बना डाले । जातिवादी राजनीति के उदय के बाद जबसे सोशल इंजीनियरिंग चुनावी व्यूह रचना का हिस्सा बनी तबसे इन अति छोटे दलों के नेताओं की सौदेबाजी और बढ़ने लगी है। इनके दबाव के सामने राष्ट्रीय पार्टियों का झुक जाना चिंतित करने वाला है क्योंकि कोई ईमान - धर्म न होने के कारण ये नेता अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए भी किसी भी स्तर तक गिर जाते हैं। उ.प्र में स्वामीप्रसाद मौर्य इसके नवीनतम उदाहरण हैं। यद्यपि गठबंधन राजनीति देश को एकसूत्र में बांधकर रखने में बेहद उपयोगी है किंतु सीमित प्रभाव वाले गैर जिम्मेदार नेताओं के सामने राष्ट्रीय दलों का झुक जाना अच्छा संकेत नहीं है।


- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 4 March 2024

सांसदों - विधायकों की घूसखोरी रोकने सर्वोच्च न्यायालय का साहसिक फैसला


सर्वोच्च न्यायालय ने आज ऐतिहासिक निर्णय सुनाते हुए सांसदों और विधायकों को पैसा लेकर सवाल पूछने और मत देने पर अपराधिक प्रकरण से छूट दिए जाने के 1998 के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को पलटते हुए स्पष्ट कर दिया कि सांसद या विधायक द्वारा सदन में किए गए किसी भी कार्य के लिए ली गई घूस को अभियोजन से मुक्त रखने का फैसला गलत था क्योंकि यह  सार्वजनिक जीवन में  ईमानदारी को नष्ट कर देता है। मुख्य न्यायाधीश डी. वाय. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता  वाली 7 सदस्यों की संविधान पीठ ने 1998 में न्यायमूर्ति  पी. वी. नरसिम्हा राव वाली 5 सदस्यों की संविधान सभा द्वारा 3 : 2 से दिए उस फैसले को पलट दिया जिसके अनुसार सांसदों और विधायकों को सदन में भाषण देने , प्रश्न पूछने अथवा मत देने के लिए मिली घूस अपराध की श्रेणी में नहीं आती। श्री चंद्रचूड़ ने स्पष्ट तौर पर कहा कि ऐसा कृत्य जनप्रिधिनिधियों को मिले विशेषाधिकार की श्रेणी में नहीं आता और उस पर मुकदमा चलाया जा सकता है। सांसदों और विधायकों को सदन के भीतर  किसी कृत्य या कथन के लिए अपराधिक प्रकरण से मिली छूट उनके विशिष्ट कर्तव्यों की दृष्टि से उचित थी। आजादी के बाद के कुछ दशकों तक जनप्रतिनिधि अपने विशेषाधिकार के साथ जुड़े सम्मान के प्रति जिम्मेदार रहे । इस कारण इस बारे में कभी कोई समस्या उत्पन्न नहीं हई। लेकिन सत्तर और अस्सी के दशक से जनप्रतिनिधियों के आचरण में अनेक प्रकार की विकृति दिखाई देने लगी। दलबदल नामक  बीमारी का प्रकोप जैसे - जैसे बढ़ता गया वैसे - वैसे पैसे का प्रवाह संसदीय प्रणाली में तेज होने लगा। राज्यसभा में मतदान के समय निर्दलीय विधायकों की खरीद - फरोख्त आम हो चली। सदन में मत देने , प्रश्न पूछने और किसी निहित उद्देश्य से  भाषण देने के लिए जनप्रतिनिधियों के घूस दिए जाने की घटनाएं भी चर्चा का विषय बनने लगीं। स्व.नरसिम्हा राव की सरकार के बहुमत को साबित करने के लिए झारखंड मुक्ति मोर्चे के सांसदों को दी गई घूस  प्रकरण से जबरदस्त राजनीतिक बवाल पैदा हुआ था। 1998 में   सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए  निर्णय में झारखंड से उक्त पार्टी की विधायक सीता सोरेन द्वारा राज्यसभा चुनाव हेतु मिली घूस को अपराध योग्य नहीं माना गया था। आज सुनाए गए फैसले ने उसे निरस्त करते हुए जो व्यवस्था दी वह संसदीय जीवन में आई विकृतियों को कितना दूर कर पाएगी ये तत्काल कह पाना तो कठिन है किंतु जब विशेषधिकारों के गलत उपयोग को मिले कानूनी संरक्षण को समाप्त करने की शुरुआत हो ही गई है तब जनप्रतिनिधियों को मिलने वाली सामंती सुविधाओं पर उठने वाले सवालों पर भी विमर्श होना चाहिए। बेहतर हो सर्वोच्च न्यायालय इन मामलों में स्वतः संज्ञान लेकर अपना अभिमत सार्वजनिक करे। ऐसे अनेक विषयों पर वह अक्सर वह  कहकर पल्ला झाड़ लेता है कि ये काम संसद अथवा चुनाव आयोग का है। प्रजातंत्र सुचारू रूप से चले उसके लिए जिस नियंत्रण और संतुलन की बात सोची जाती है उसमें न्यायपालिका की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है। उसके ऊपर न तो राजनीतिक दबाव होता है और न ही नौकरशाही का । संविधान संबंधी किसी भी पेचीदगी के समय राष्ट्रपति तक सर्वोच्च न्यायालय की सलाह लेते हैं। यद्यपि कार्यपालिका , विधायिका और न्यायपालिका तीनों अपने - अपने स्तर पर स्वायत्त हैं किंतु किसी भी विवाद का अंतिम हल करने का अधिकार न्यायपालिका का ही है। और ऐसे में यदि उसे लगता है कि शेष दोनों स्तंभ उन्हें प्राप्त विशेषाधिकारों का अनुचित लाभ ले रहे हैं तब सलाह या नाराजगी के तौर पर बिना निर्णय सुनाए भी न्यायपालिका अपनी मंशा जाहिर कर सकती है । अनेक मामलों में उसने ऐसा किया भी । हालांकि विधायिका को ये लगता है कि जरूरत से ज्यादा न्यायिक सक्रियता उसके क्षेत्राधिकार में हस्तक्षेप है और इसीलिए दोनों पक्ष इस बारे में तीखी टिप्पणियां करते रहते हैं। लेकिन  न्यायपालिका निर्विकार भाव से लोकतांत्रिक व्यवस्था की बेहतरी के लिए सुझाव दे तो उन्हें सकारात्मक भाव से लिया जाना चाहिए। हो सकता है आज का फैसला भी सांसदों - विधायकों को नागवार गुजरे और जवाबी तौर पर वे भी न्यायाधीशों को मिले  विशेषाधिकारों पर उंगली उठाएं किंतु इस बात को भला कौन सही मानेगा कि संसद और विधानसभा में सवाल पूछने या मत देने के लिए ली गई घूस अपराध की श्रेणी में न मानी  जाए। श्री चंद्रचूड़ और उनके साथ पीठ में शामिल अन्य न्यायाधीश बधाई के पात्र हैं जो उन्होंने 26 वर्ष  हुए फैसले को गलत ठहराने का साहस दिखाया। 


- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 2 March 2024

पेट्रोल ,डीजल और रसोई गैस तो सस्ते किए ही जा सकते हैं


2023 की आखिरी तिमाही में भारत की जीडीपी द्वारा 8 फीसदी का आंकड़ा पार करने की खबर आते ही शेयर बाजार ने सर्वकालिक उच्च स्तर को छू लिया । उसी के साथ ये जानकारी भी सार्वजनिक हुई कि फरवरी में जीएसटी से 1.68 लाख करोड़ रु. की प्राप्ति हुई। जो अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियां भारत की विकास दर को लेकर संशय में थीं वे भी अनुमान बदलने मजबूर हो रही हैं । आर्थिक जगत में चल पड़ी चर्चाओं से पता चलता है कि इस वित्तीय वर्ष में भारत की जीडीपी वृद्धि 8 फीसदी तक होने की संभावना है जो बड़ी सफलता कही जाएगी । ऐसे समय जब दुनिया रूस - यूक्रेन और इजरायल - हमास युद्ध की विभीषिका से गुजर रही हो तथा अनेक विकसित देशों का अर्थतंत्र लड़खड़ाने की स्थिति में आ गया तब भारतीय अर्थव्यवस्था की ऊंची छलांग निश्चित तौर पर सुखद है। चीन की प्रगति में गिरावट आने से भारत को लेकर भी आशंकाएं व्यक्त की जाने लगी थीं। सबसे चौंकाने वाली बात ये है कि जापान जैसी ठोस अर्थव्यवस्था तक डगमगाने लगी है। ब्रिटेन , जर्मनी , फ्रांस सभी संकट से गुज़र रहे हैं। ऐसे में भारत का आर्थिक मोर्चे पर शानदार प्रदर्शन आशान्वित कर रहा है। अर्थव्यवस्था के जो स्थापित मानदंड हैं वे सभी बेहतर भविष्य का इशारा कर रहे हैं। उपभोक्ता बाजार में अच्छी मांग से उत्पादन इकाइयों का उत्साह बढ़ा है। निर्यात में भी निरंतर सफलता मिल रही है। गृह निर्माण के अलावा , सड़कों और फ्लायओवर का काम तेजी से चलने के कारण उद्योग - व्यवसाय को सहारा मिलने के साथ ही श्रमिकों को काम भी मिल रहा है। सड़क , रेल और वायु मार्ग से परिवहन वृद्धि की ओर है। घरेलू पर्यटन में आशातीत परिणाम बेहद सुखद संकेत हैं। प्रत्यक्ष करों का संग्रह बढ़ना आर्थिक स्थिति के ठोस होने का प्रमाण है। इसीलिए सरकार जनहित की योजनाओं पर मुक्तहस्त से खर्च करने की स्थिति में है। मुफ्त अनाज योजना को पांच साल तक के लिए बढ़ा देना ये साबित करता है कि कृषि क्षेत्र अपने निर्धारित लक्ष्य को हासिल करने में सक्षम है। इसी माहौल के कारण भारत दुनिया भर के निवेशकों के लिए आकर्षण का केंद्र बन गया है और दिग्गज बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत में इकाई लगाने तत्पर हैं। आर्थिक सुधारों ने उद्योगों के लिए जो अनुकूल वातावरण बनाया उसके सुपरिणाम सामने हैं। वहीं कच्चे तेल के आयात से अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले बोझ को कम करने की दिशा में किए गए प्रयास फलीभूत होने लगे हैं। बैटरी चलित वाहनों की बढ़ती बिक्री इसका सबूत है। वैकल्पिक ऊर्जा के तौर पर सौर ऊर्जा का बढ़ता उत्पादन अर्थव्यवस्था के लिए संजीवनी का काम करेगा। इतनी सारी उपलब्धियां देखकर प्रत्येक नागरिक को गौरव की अनुभूति होती है। इसकी वजह से वैश्विक स्तर पर भी भारत की प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता बढ़ी है। लेकिन इसके बावजूद आम जनता के बड़े वर्ग के चेहरे पर मुस्कान नहीं दिखाई दे रही क्योंकि उत्साहवर्धक आंकड़ों के बावजूद उसकी जेब खाली है। जीएसटी का मासिक आंकड़ा बीते साल भर से 1.5 लाख करोड़ से ऊपर बना हुआ है। इसी तरह प्रत्यक्ष करों की आय भी उम्मीद से ज्यादा है ।लेकिन जीएसटी की दरों के साथ ही पेट्रोल - डीजल और रसोई गैस की ऊंची कीमतें विरोधाभासी तस्वीर पेश करती हैं। सरकार में बैठे लोगों का कहना है कि गरीब कल्याण की योजनाएं और कार्यक्रमों तो पर वह दिल खोलकर खर्च कर रही है। उसकी इस नीति पर किसी को एतराज नहीं है किंतु अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करने वाले नौकरपेशा, मध्यम श्रेणी व्यापारी , लघु उद्योग संचालक और स्वरोजगार से आजीविका चलाने वालों की अपेक्षाओं और आवश्यकताओं का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। यदि अर्थव्यवस्था की स्थिति मजबूत है तब जीएसटी की दरों को कम करने के साथ ही उसके केवल दो स्तर अर्थात 5 और 12 प्रतिशत ही रखे जाएं। रही बात पेट्रोल - डीजल की तो इनकी कीमतें बेशक वैश्विक स्तर पर तय होती हैं । लेकिन पेट्रोलियम कंपनियों द्वारा बीते कुछ समय से अनाप - शनाप मुनाफा अर्जित किए जाने के बाद भी दाम नहीं घटाए जाने से आम जनता नाखुश है। यद्यपि लोकसभा चुनाव नजदीक होने के कारण केंद्र सरकार जीएसटी संबंधी नीतिगत फैसले नहीं ले सकती क्योंकि उसकी कौंसिल में राज्य भी हैं जो अपनी आय का हवाला देते हुए न तो दरें कम करने राजी होते हैं और न ही पेट्रोलियम पदार्थों को उसके अंतर्गत लाने पर सहमति देते हैं । फिर भी पेट्रोल - डीजल और रसोई गैस सस्ते करना तो सरकार के अधिकार क्षेत्र में ही है। और लोकसभा चुनाव की आचार संहिता लागू होने के पहले तो ऐसा किया ही जा सकता है। 

 -रवीन्द्र वाजपेयी