Tuesday 12 March 2024

इलेक्टोरल बॉण्ड का ब्यौरा : छिपाने से संदेह और बढ़ेगा



 सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भारतीय स्टेट बैंक को इलेक्टोरल बॉण्ड के विवरण का आज शाम तक खुलासा करने और उसके बाद उन्हें वेब साइट के जरिये सार्वजनिक करने संबंधी जो आदेश दिया गया वह  निश्चित तौर पर देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका का प्रमाण है। उल्लेखनीय है 15 फरवरी को न्यायालय ने इलेक्टोरल बॉण्ड की बिक्री पर रोक लगाकर उसका विवरण गोपनीय रखे जाने को गलत बताते हुए कहा था कि लोकतंत्र में जनता को यह जानने का अधिकार है कि राजनीतिक  दलों को किन स्रोतों से चंदा प्राप्त होता है। यद्यपि उक्त फैसले पर एक प्रतिक्रिया ये भी आई कि सर्वोच्च न्यायालय ने इलेक्टोरल बॉण्ड की व्यवस्था तो रोक दी किंतु चुनाव आयोग और सरकार को इस बारे में सुझाव नहीं दिया कि राजनीतिक चंदे का पारदर्शी वैकल्पिक तरीका क्या होना चाहिए ? बहरहाल उस बारे में अलग से बहस की जा सकती है किंतु इलेक्टोरल बॉण्ड का विवरण देने के लिए भारतीय स्टेट बैंक द्वारा 30 जून तक का समय मांगा जाना ही अनेक संदेहों को जन्म देने वाला था। सामान्य स्थिति में तो संभवतः न्यायालय उसके अनुरोध को स्वीकार करते  कुछ महीनों बाद तक का समय प्रदान कर देता । लेकिन लोकसभा चुनाव करीब होने से उस पर भी मानसिक दबाव था क्योंकि जिस उद्देश्य से इलेक्टोरल बॉण्ड पर रोक लगाई गई  , बैंक को मोहलत देने से वह अधूरा रह जाता। विपक्ष का आरोप है कि  बॉण्ड व्यवस्था में चंदा देने वाले की पहचान गोपनीय रखे जाने का सबसे अधिक लाभ भाजपा ने उठाया जिसे कुल राशि का आधे से ज्यादा चंदा मिला। लेकिन उससे भी बड़ी जो बात विपक्ष उजागर करना चाह रहा है वह उन उद्योगपतियों के नाम हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्हें केंद्र में भाजपा की सरकार आने के बाद विशेष तौर पर उपकृत किया गया। हालांकि इलेक्टोरेल बॉण्ड के जरिये विभिन्न राजनीतिक दलों को मिले चन्दे का ब्यौरा उजागर होने से तृणमूल, द्रमुक और बीआरएस जैसे क्षेत्रीय दल भी सवालों के घेरे में आएंगे जिन्हें सीमित प्रभाव क्षेत्र के बाद भी  असाधारण रूप से बड़ी राशि प्राप्त हुई। यद्यपि  इस बारे में ये कहा जा सकता है कि जिसके पास सत्ता है उसे ज़ाहिर तौर पर दूसरों से अधिक धनराशि मिलती है। जिस प्रकार उद्योगपति केंद्र सरकार से व्यावसायिक लाभ उठाने के लिए सत्तारूढ़ दल को ज्यादा चंदा देते हैं वैसी ही रणनीति उनकी राज्य में होती है। राहुल गाँधी के निशाने पर रहने वाले उद्योगपति गौतम अडानी को छत्तीसगढ़ और राजस्थान की पिछली सरकारों ने भी दिल खोलकर ठेके दिये। ऐसे में उन्होंने वहाँ कांग्रेस को भी प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष तौर पर सहायता की होगी। ये देखते हुए स्टेट बैंक द्वारा बॉण्ड के माध्यम से आये चंदे का ब्यौरा देने से बचने का कोई अर्थ नहीं था। यदि उस पर ऐसा करने का सरकारी दबाव रहा तो उसे भी औचित्यहीन ही कहा जाएगा। अर्थात सर्वोच्च न्यायालय यदि स्टेट बैंक को 30 जून तक का समय दे भी देता तो उससे जो जानकारी आज आने वाली है वह चुनाव के बाद आयेगी। यदि उसमें कुछ अनुचित होगा तो जितना हल्ला आज मचेगा उतना ही उस वक्त होगा। इलेक्टोरल बॉण्ड लागू करने के पीछे जो कारण बताया गया वह राजनीतिक चन्दे में काले धन के उपयोग को रोकना था। चन्दा देने वाले की पहचान इस आधार पर जाहिर न करने का तर्क दिया जाता है कि जिन दलों को वह सहयोग नहीं देगा वे नाराज होकर उसके व्यवसायिक हितों पर चोट पहुंचायेंगे। ये आशंका निराधार भी नहीं है क्योंकि राजनेता अपनों पे करम, गैरों पे सितम की भावना से ऊपर नहीं हैं। लेकिन  लोकतंत्र को पारदर्शी बनाना है तो चन्दा सम्बन्धी विवरण को गोपनीय रखे जाने से बचना होगा। ये देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने गत दिवस जो फैसला दिया उसका राजनीतिक पार्टियों की छवि पर क्या असर होगा ये उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना  यह कि इससे आये दिन उड़ने वाली आधारहीन खबरों पर  विराम लगने के साथ ही नेताओं और उद्योगपतियों की संगामित्ती का पता चल जायेगा। यदि चंदे का एहसान नियम विरुद्ध फायदा देकर चुकाया गया हो तो यह बात जनता के संज्ञान में आना जरूरी है। इस डर से कि यह चुनावी मुद्दा बन जायेगा किसी जानकारी पर परदा डालने से संदेह और बढ़ता है। सर्वोच्च न्यायालय ने स्टेट बैंक पर जो दबाव बनाया उससे यदि किसी राजनेता या पार्टी को  असहज स्थिति का सामना करना पड़े तो ये उसका सिर दर्द है।

-रवीन्द्र वाजपेयी


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