भारत की आर्थिक प्रगति को लेकर दो भिन्न दृष्टिकोण सामने आए हैं। पहला रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन का है जिसमें उन्होंने 2047 को लक्ष्य बनाकर अर्थव्यवस्था के मजबूत होने के मोदी सरकार के दावों को अवास्तविक बताते हुए कहा कि 7 प्रतिशत की विकास दर और रोजगार सृजन दोनों के बारे में मौजूदा केंद्र सरकार की सोच सच्चाई से दूर है। दूसरी तरफ अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ( आई.एम.एफ) में भारत के कार्यकारी निदेशक कृष्णमूर्ति वेंकट सुब्रमण्यम का मानना है कि बीते 10 वर्षों में लागू आर्थिक नीतियों को दोगुना करते हुए आर्थिक सुधारों में तेजी लाई जाए तो हमारी अर्थव्यवस्था 2047 तक आठ प्रतिशत की दर से बढ़ सकती है। हालांकि उन्होंने इसे बेहद महत्वाकांक्षी बताया किंतु श्री राजन की तरह असंभव बताने से भी बचे। जाहिर बात ये है कि श्री राजन घोषित तौर पर नरेंद्र मोदी के विरोधी हैं। ऐसे में उनका आलोचनात्मक होना लाजमी है। लेकिन उन्होंने कुछ बुनियादी मुद्दे उठाये हैं जिनसे भले ही असहमति हो किंतु उन पर विमर्श अवश्य होना चाहिए। मसलन आधी आबादी की आयु 30 वर्ष से कम है किंतु इतनी बड़ी जनशक्ति को रोजगार नहीं मिल पाने के कारण मानव पूंजी नहीं बनाया जा सका। कोरोना काल के बाद विद्यार्थियों की शिक्षा बीच में छूट जाने का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि सुशिक्षित युवा पीढ़ी के बिना 2047 में विकसित भारत का सपना ख्याली पुलाव जैसा है। यद्यपि ये पहला अवसर नहीं है जब रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर द्वारा केंद्र सरकार की आर्थिक नीतियों की खिल्ली उड़ाई गई हो। कांग्रेस से उनकी नजदीकी किसी से छिपी नहीं है। राहुल गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा में शिरकत कर चुके श्री राजन उनको एक होशियार व्यक्ति बताकर उनकी प्रशंसा करने में भी आगे रहे। सितंबर 2013 से अगले तीन साल तक वे रिजर्व बैंक के गवर्नर थे। चूंकि उनका ज्यादातर कार्यकाल मोदी सरकार के साथ बीता इसलिए उस दौरान मिले अनुभवों के आधार पर वे उसके प्रति दुराग्रहों से भर उठे। तत्कालीन वित्तमंत्री स्व.अरुण जेटली से जब भी श्री राजन के साथ मतभेद के बारे में पूछा गया तो उन्होंने हँसकर टाल दिया। लेकिन जब उन्हें बतौर गवर्नर दूसरा कार्यकाल नहीं मिला तो उसके बाद से वे इस सरकार की आर्थिक नीतियों के कटु आलोचक के रूप में सामने आ गए । और इसी वजह से विपक्ष खास तौर पर कांग्रेस को रास आने लगे। उन्होंने खुद भी स्वीकार किया कि एक दशक से वे राहुल से जुड़े हुए हैं। हो सकता है मनमोहन सरकार के अंतिम वर्ष में उन्हें रिजर्व बैंक की गवर्नरी उसी वजह से मिली थी। बहरहाल जबसे वे उस पद से हटे तभी से मोदी सरकार की आर्थिक नीतियां उनके निशाने पर रही हैं और वे सदैव उनको लेकर निराशाजनक निष्कर्ष ही निकालते रहे। विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों एवं रेटिंग एजेंसियों द्वारा देश की विकास दर के बारे में जो उत्साहवर्धक आकलन किया जाता रहा वह भी श्री राजन के गले नहीं उतरा। लोकसभा चुनाव के पहले उन्होंने 2047 तक देश की आर्थिक उड़ान पर जिस तरह का नकारात्मक रवैया दिखाया वह विपक्ष को निश्चित ही रास आयेगा। यद्यपि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष में कार्यकारी निदेशक के तौर पर कार्यरत श्री सुब्रमण्यम ने श्री राजन के सर्वथा विपरीत 2047 तक 8 प्रतिशत की वार्षिक दर से विकास होने की बात कहकर उम्मीदों को जिंदा रखा है। इस बारे में विचारणीय बात ये है कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक द्वारा किये गए आकलन ही विदेशी निवेशकों को आकर्षित करते हैं। हाल ही में आई एक रिपोर्ट के अनुसार हमारा शेयर बाजार अब विदेशी पूंजी पर पूरी तरह निर्भर नहीं रहा। बीच में कई मर्तबा देखने में आया कि विदेशी निवेशकों ने जब भी बड़ी मात्रा में अपना निवेश निकाला तब घरेलू निवेशकों ने अर्थव्यवस्था में भरोसा जताते हुए शेयर बाजार को गिरने से बचाया। इसके कारण भारत के प्रति वैश्विक अवधारणा में जो सकारात्मक बदलाव आया वह श्री राजन के आकलन पर सवाल खड़े करने के लिए पर्याप्त है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष में महत्वपूर्ण दायित्व संभाल रहे श्री सुब्रमण्यम द्वारा जो बात कही गई वह इस लिहाज से काबिले गौर है कि केंद्र सरकार ने अपने दो कार्यकाल में जिन आर्थिक नीतियों को लागू किया उनको दोगुना किये जाने की जरूरत है। प्रधानमंत्री भी तीसरी बार सत्ता में लौटने पर बड़े और कड़े निर्णय करने की बात कह चुके हैं। यदि लोकसभा चुनाव में उनको फिर जनादेश मिला तो उसमें राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के साथ आर्थिक नीतियों के सफल क्रियान्वयन का भी योगदान होगा। गरीब कल्याण योजनाएं इस बारे में उल्लेखनीय हैं।
- रवीन्द्र वाजपेयी
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