म.प्र देश के उन राज्यों में है जहाँ की राजनीति पूरी दो ध्रुवीय हो चुकी है। एक जमाना था जब समाजवादी आंदोलन का जबरदस्त प्रभाव इस राज्य में था। लेकिन 70 के दशक से जनसंघ ने उसे पीछे छोड़कर मुख्य विपक्षी दल के रूप में अपना स्थान बना लिया। बावजूद उसके समाजवादी और वामपंथी कुछ क्षेत्रों में अपना अस्तित्व बनाये रख सके। लेकिन जनता पार्टी के विघटन के बाद ज्योंही भाजपा का उदय हुआ इस प्रदेश में वह कांग्रेस के लिए एकमात्र चुनौती बनती गई। 1989 में उठी रामलहर के बाद तो बाकी गैर कांग्रेसी दल धीरे - धीरे अप्रासंगिक होते गए। सपा - बसपा के कुछ विधायक जीते किंतु वे भी दलबदल के खेल में लिप्त होने के कारण जनता की निगाहों से गिरते गए। 2003 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 10 साल चली दिग्विजय सिंह सरकार को पराजित कर म.प्र में भारी बहुमत से जो सरकार बनाई वह 2018 तक अपराजेय चलती रही। शुरुआती दौर में उमाश्री भारती और बाबूलाल गौर के रूप में जल्दी - जल्दी मुख्यमंत्री बदलने से पार्टी की क्षमता पर सवाल उठे लेकिन शिवराज सिंह चौहान के गद्दी संभालने के बाद म.प्र भी गुजरात जैसा भाजपा का मजबूत गढ़ बन गया। हालांकि 2018 में वह गच्चा खा गई और कुछ सीटों की कमी से सत्ता उसके हाथ से खिसक गई किंतु मात्र 15 महीने बाद ही ज्योतिरादित्य सिंधिया की बगावत के सहारे शिवराज फिर मुख्यमंत्री बन बैठे। कांग्रेस ने उसके बाद के समय में काफी जोर लगाया। मुख्यमंत्री पद गंवाने के बाद कमलनाथ घायल शेर की तरह बेहद आक्रामक रहे और 2023 के चुनाव में वापसी का आत्मविश्वास कांग्रेस कार्यकर्ताओं में भरने में काफी हद तक सफल रहे। अधिकांश सर्वेक्षण म.प्र में नजदीकी मुकाबला बता रहे थे। लेकिन शिवराज ने लाड़ली बहना योजना लाकर बाजी उलट दी। पार्टी के आला नेतृत्व ने 2018 के कटु अनुभव से सबक लेते हुए जबरदस्त मोर्चेबंदी की और कांग्रेस की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। जो कमलनाथ सत्ता में आने का ख्वाब देख रहे थे उनकी स्थिति भी 2003 वाले
दिग्विजय जैसी हो गई। चूंकि टिकिट वितरण से व्यूहरचना तक पूरा अभियान उनके नियंत्रण में रहा इसलिए वही हार के लिए दोषी माने गए। स्थिति यहाँ तक बिगड़ी कि कांग्रेस हाईकमान ने उन्हें बिना कुछ कहे सुने प्रदेश अध्यक्ष के साथ ही नेता प्रतिपक्ष पद पर नये चेहरे बिठा दिये। ये निश्चित रूप से प्रदेश कांग्रेस से कमलनाथ युग की समाप्ति कही जा सकती है। दिग्विजय को तो श्री नाथ ही हाशिये पर धकेल चुके थे। हर पार्टी में ऐसा दौर दस - बीस सालों में आता है। लेकिन कांग्रेस विधानसभा चुनाव की पराजय के बाद जिस तरह से हतोत्साहित हुई उसके कारण उसका पूरा ढांचा चरमराने की स्थिति निर्मित हो गई है। लोकसभा चुनाव में मजबूती से उतरने की बजाय वह पराजयबोध का शिकार है। बड़े नेता चुनाव लड़ने से इंकार कर रहे हैं। वहीं नई पीढी़ के नेता सुनिश्चित हार के कारण मुँह चुराते देखे जा सकते हैं। बड़े नेताओं के साथ दूसरी पंक्ति के नेता - कार्यकर्ता बड़ी संख्या में पार्टी छोड़ते जा रहे हैं। कमलनाथ और उनके सांसद बेटे नकुल नाथ के भाजपा में जाने की बिसात भी लगभग बिछ चुकी थी किंतु 1984 के सिख विरोधी दंगों में श्री नाथ की भागीदारी आड़े आ गई। लेकिन दो - तीन दिन उनकी तरफ से बनाये गए रहस्य के कारण कांग्रेस के भीतर उनकी रही - सही साख और धाक भी मिट्टी में मिल गई। जबलपुर के महापौर जगत बहादुर सिंह अन्नू और सुरेश पचौरी भाजपा में आ गए। विधानसभा चुनाव हारे कुछ कांग्रेस प्रत्याशी भी कांग्रेस को छोड़ चुके हैं। श्री नाथ के अपने गढ़ से कांग्रेस के लोगों का भाजपा में आने का सिलसिला जारी है। इस सबसे लगता है प्रदेश में काँग्रेस दुर्दशा के कगार पर आ गई है। ऐसी भगदड़ तो उसमें 1977 , 1989 और 2003 के बाद भी नहीं दिखाई दी थी। इससे साफ हो जाता है कि म.प्र में उसके पास ऐसा कोई वरिष्ट नेता नहीं है जो कार्यकर्ताओं की नाराजगी और निराशा दूर कर सके। इसी तरह से युवा नेताओं में एक भी इस लायक नहीं है जो हारी हुई सेना में उत्साह का संचार कर उसे नई लड़ाई के लिए तैयार कर सके। ऐसा लगता है भाजपा ने सुनियोजित तरीके से कांग्रेसियों की भर्ती का जो अभियान चला रखा है उसका उद्देश्य उसके मनोबल को पूरी तरह तोड़ना ही है। पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व म.प्र को लेकर जिस तरह से उदासीन है वह भी चौंकाने वाला है। राहुल गाँधी की न्याय यात्रा भी प्रदेश के काँग्रेसजनों में जोश नहीं भर सकी। यही कारण है कि भाजपा इस बार छिंदवाड़ा सहित सभी 29 लोकसभा सीटें जीतने का दावा कर रही है। नकुल नाथ के क्षेत्र में जिस तरह का पलायन कांग्रेस से हो रहा है उसे देखकर यह उम्मीद सही हो जाए तो आश्चर्य नहीं होगा। सही बात तो ये है कि दिग्विजय सिंह और कमलनाथ ने अपने पुत्र प्रेम के चलते कांग्रेस में नई पीढी़ का नेतृत्व पनपने ही नहीं दिया। अब तो आम कांग्रेसी भी कहने लगे हैं कि क्या पता इन दोनों के परिवारजन भी जल्द ही भाजपा में नजर आएं। याद रहे दिग्विजय के भाई लक्ष्मण सिंह 2003 की हार के बाद भाजपा में जाकर सांसद बन गए थे।
-रवीन्द्र वाजपेयी
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