Tuesday 5 March 2024

छोटे - छोटे दलों के सामने राष्ट्रीय पार्टियों का झुकना अच्छा संकेत नहीं


लोकसभा चुनाव के कार्यक्रम की घोषणा आगामी सप्ताह होने की उम्मीद है। भाजपा सहित कुछ पार्टियों द्वारा उम्मीदवारों का ऐलान भी किया जाने लगा है। राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर गठबंधन बनाने का सिलसिला जारी है। एक - दूसरे के प्रबल प्रतिद्वंदी नेता गलबहियां करते देखे जा रहे हैं।  दल बदलने का क्रम भी अनवरत जारी है। लेकिन इस समूचे परिदृश्य में जो बात देखने मिल रही है वह है क्षेत्रीय के साथ अति छोटे दलों का दबाव।  दक्षिण भारत के  आंध्र प्रदेश में  वाय.एस.आर कांग्रेस और तेलुगु देशम पार्टी ही प्रमुख हैं। चूंकि दोनों की तासीर कांग्रेस विरोधी होने से भाजपा उनके साथ तालमेल बिठाना चाहती है । तमिलनाडु में कांग्रेस और द्रमुक दोनों इंडिया गठबंधन में शामिल हैं। लेकिन कांग्रेस द्रमुक के रहमो - करम पर निर्भर है। यही हाल भाजपा का है जिसके तेजतर्रार प्रदेश अध्यक्ष अन्ना मलाई की पदयात्रा ने पार्टी की पहिचान  को तमिलनाडु के सुदूर इलाकों तक तो पहुंचा दिया  किंतु इसके बाद भी वह अन्ना द्रमुक पार्टी से अपने गठबंधन को पुनर्जीवित करना चाह रही है। केरल में कांग्रेस , मुस्लिम लीग सहित अनेक स्थानीय दलों के साथ स्थायी तौर पर गठबंधन में है। कर्नाटक में  विधानसभा चुनाव हारने के बाद भाजपा ने पार्टी जनता दल ( सेकुलर ) से हाथ मिलाया। वहीं महाराष्ट्र में शिवसेना और एनसीपी से टूटकर आए धड़े को साथ लेकर चलना उसकी मजबूरी है। जबकि कांग्रेस , उद्धव ठाकरे और शरद पवार के साथ चलने बाध्य है। उ.प्र में भाजपा  सभी 80  सीटें जीतने का विश्वास जता रही है किंतु जाट मतों को आकर्षित करने के लिए उसने  जयंत चौधरी को तोड़ा । इसी तरह  ओमप्रकाश राजभर , संजय निषाद और अनुप्रिया पटेल जैसे एक दो जिलों के नेताओं  के साथ सीटों का बंटवारा करना उसकी मजबूरी है । यही हाल कांग्रेस का है जिसने सपा द्वारा दी गईं 17 सीटों  पर संतोष कर लिया। बिहार में भाजपा ने नीतीश कुमार को अपने पाले में खींचकर भले ही इंडिया गठबंधन को झटका दे दिया लेकिन उपेंद्र कुशवाहा , जीतनराम मांझी और चिराग पासवान उसके लिए सिरदर्द बने हुए हैं। यही हाल कांग्रेस का है जो पूरी तरह तेजस्वी यादव के इशारों पर चलने बाध्य है। इसका उदाहरण तीन दिन पूर्व पटना में हुई रैली थी जिसमें शरीक होने राहुल गांधी ग्वालियर में अपनी न्याय यात्रा  छोड़कर दौड़े - दौड़े गए। प. बंगाल में ममता बैनर्जी किसी को भी उपकृत करने राजी नहीं हैं। उत्तर पूर्वी राज्यों की  राजनीति में तो  क्षेत्रीय दलों का ही वर्चस्व है। हरियाणा में भाजपा की सरकार दुष्यंत चौटाला के सहारे है। वहीं पंजाब में भाजपा और कांग्रेस दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं हैं। जम्मू कश्मीर में भी क्षेत्रीय दल कांग्रेस पर हावी हैं।  दिल्ली में कभी कांग्रेस और भाजपा प्रमुख  प्रतिद्वंदी हुआ करती थीं किंतु आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया। बावजूद उसके वह उसके द्वारा दी गई लोकसभा की 7 में से तीन सीटें लड़ने पर चुपचाप राजी हो गई जबकि पंजाब में  उसने कांग्रेस को ठेंगा दिखा दिया। बारीकी से देखें तो देश के ज्यादातर राज्यों में क्षेत्रीय दल और उनके नेता राष्ट्रीय पार्टियों पर दबाव बनाने की स्थिति में हैं । उनमें से कुछ तो एक - दो सीटों से ज्यादा प्रभाव नहीं रखते। लेकिन उनके नखरे सहना भाजपा और कांग्रेस की मजबूरी हो गई है। भाषायी और सांस्कृतिक विविधता के कारण हमारे देश में इस तरह का राजनीतिक ढांचा चौंकाता तो नहीं है लेकिन इन छोटे दलों का दृष्टिकोण  बहुत ही सीमित और निहित स्वार्थों पर केंद्रित होने से  इनके अनुचित दबाव भी बड़ी पार्टियों को सहन करने पड़ते हैं। हालांकि गठबंधन राजनीति कोई नई बात नहीं है। 1967 के आम चुनाव के बाद संविद सरकारों के रूप में इसकी शुरुआत हुई थी। उसके बाद से राष्ट्रीय और प्रादेशिक स्तर पर गठबंधन बनते बिगड़ते रहे और नब्बे के दशक से इन्होंने स्थायी रूप ले लिया। दूसरी तरफ  क्षेत्रीय दलों से  अलग हुए नेताओं ने जाति आधारित अति छोटे दल बना डाले । जातिवादी राजनीति के उदय के बाद जबसे सोशल इंजीनियरिंग चुनावी व्यूह रचना का हिस्सा बनी तबसे इन अति छोटे दलों के नेताओं की सौदेबाजी और बढ़ने लगी है। इनके दबाव के सामने राष्ट्रीय पार्टियों का झुक जाना चिंतित करने वाला है क्योंकि कोई ईमान - धर्म न होने के कारण ये नेता अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए भी किसी भी स्तर तक गिर जाते हैं। उ.प्र में स्वामीप्रसाद मौर्य इसके नवीनतम उदाहरण हैं। यद्यपि गठबंधन राजनीति देश को एकसूत्र में बांधकर रखने में बेहद उपयोगी है किंतु सीमित प्रभाव वाले गैर जिम्मेदार नेताओं के सामने राष्ट्रीय दलों का झुक जाना अच्छा संकेत नहीं है।


- रवीन्द्र वाजपेयी

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