Saturday 30 March 2019

गनीमत है स्वर्ग की यात्रा का वायदा नहीं है

लोकसभा चुनाव में पहले चरण का मतदान शुरू होने के पहले राजनीतिक सरगर्मियां तेजी पर हैं। विरोधी पक्ष पर आरोप लगाने का प्रयास भी जमकर चल पड़ा है। सत्ता में बैठे लोग अपनी कामयाबियों का बखान करते नहीं थक रहे वहीं विपक्ष उन्हें नाकारा साबित करने पर आमादा है। इस खींचातानी में बहस का स्तर कितना गिर चुका है ये बताने  की बात नहीं है। बड़ी-बड़ी बातें हो रही हैं। वायदों के नये पहाड़ भी खड़े किये जा रहे हैं जिससे जनता अपनी बदहाली को भूलकर फिर सपनों के संसार में भटकने लगे। धरती से अन्तरिक्ष तक की चर्चाएँ हो रही हैं। घर बैठे गुलछर्रे उड़ाने के आश्वासन दिए जा रहे हैं। वो तो ये कहिये कि नेताओं का बस नहीं चल रहा वरना मुफ्त स्वर्ग की यात्रा का वायदा  भी चुनावी घोषणापत्र में शामिल किया जा सकता है। लेकिन इस सबके बीच जो मूलभूत मुद्दे हैं उन पर बात करने से सभी कतरा रहे हैं। सामने वाले को सिर से पाँव तक कसूरवार और असफल साबित करने की प्रतिस्पर्धा तो चल रही है लेकिन खुद सत्ता में रहते हुए जनता की आकांक्षाओं और आवश्यकताओं को पूरा करने में विफल रहने के लिए खेद या क्षमा याचना करने की नैतिकता कोई  नहीं दिखा रहा। और यही वह  बात है जो समूची राजनीतिक प्रक्रिया पर अविश्वास करने को बाध्य कर  देती है। आज़ादी के 70 साल बाद भी देश के हर व्यक्ति को पीने का स्वच्छ पानी उपलब्ध नहीं होना क्या वह मुद्दा नहीं है  जिस पर चुनावी बहस का ध्यान केन्द्रित किया जाना चाहिये।  प्राथमिक शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली राफेल घोटाले और अन्तरिक्ष में हासिल की गई मारक क्षमता से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण विषय हैं। गरीबों को घर बैठे नकद खैरात दे देना और बेरोजगारों के सामने टुकड़े फेंककर वोट बटोरने जैसे तरीके अब उबाऊ लगने लगे हैं। आरक्षण से वंचित जातियों और उपजातियों को लालीपॉप भी झांसे जैसा हो गया है क्योंकि जब नौकरियों का टोटा पड़ा हो तब आरक्षण अर्थहीन  होकर रह जाता है। ये देखते हुए जरूरी है कि चुनाव उन मुद्दों पर लड़ा जावे जो आम जनता की समझ में आते हों। गरीबी हटाना सर्वोच्च  प्राथमिकता होनी चाहिए। बेरोजगारी दूर करना भी बेहद जरूरी है लेकिन पीने का पानी और प्राथमिक शिक्षा तथा स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्तायुक्त  उपलब्धता भी वे विषय हैं जो चुनाव के अवसर पर प्रमुखता से राष्ट्रीय विमर्श में शामिल होने चाहिए। 1945 में परमाणु हमले में बर्बाद हो चुके जापान ने यदि विश्व की अग्रणी देशों में स्थान बना लिया तब बिना किसी बड़ी तबाही  के आजाद हुआ भारत सात दशक बाद भी विकासशील क्यों है इस प्रश्न का उत्तर प्रत्येक राजनीतिक दल से अपेक्षित है क्योंकि लगभग वे सभी किसी न किसी रूप में और कभी न कभी सत्ता से सीधे या परोक्ष तौर पर जुड़े रहे हैं। आश्चर्य की बात है किसी भी राजनीतिक दल की मुख्य कार्यसूची में शिक्षा, स्वास्थ्य, पीने का पानी जैसे मुद्दे नहीं हैं जबकि देश की 90 फीसदी से ज्यादा जनता को सही मायनों में इनकी जरूरत है और इनके बिना आर्थिक प्रगति के तमाम आंकड़े अविश्वसनीय प्रतीत होते हैं। इस्रायल जैसा देश जो हर पल दुश्मनों से जूझता रहता है यदि रेगिस्तान में हरियाली पैदा कर सका लेकिन नदियों के जाल के बावजूद हमारे देश के गाँव तो छोडिय़े महानगर तक पेयजल के संकट से जूझने को मजबूर हैं। एक तरफ  तो शिक्षा के विश्वस्तरीय संस्थान खोलने के दावे हो रहे हैं वहीं दूसरी तरफ  बस्तियों के विद्यालयों को देखकर शर्म और दु:ख होता है। आज देश भर में आलीशान अस्पतालों की बाढ़ आ गई है लेकिन आम जनता  के लिए वे बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर वाली कहावत जैसे ही हैं। इसी तरह बड़े-बड़े धन्ना सेठों और नेताओं के पब्लिक स्कूल भी कोने कोने में खुल गये हैं लेकिन उनमें आम पब्लिक कहे जाने वाले साधारण हैसियत वाले परिवारों के बच्चों को पढऩे तो क्या घुसने तक की सहूलियत नहीं है। ऐसा ही विरोधाभास पीने के पानी को लेकर है। कुछ दशक पहले तक पेयजल का व्यापार इस देश के लिए एक अकल्पनीय विचार था लेकिन आज प्रतिदिन करोड़ों ही नहीं अरबों रु. का बोतलबंद पानी बिक रहा है। कई शहर ऐसे हैं जहां स्थानीय निकाय द्वारा दिया जाने वाला अथवा जमीन के नीचे का पानी पीने योग्य नहीं होने से हर घर को प्रतिदिन पेय जल खरीदना पड़ता है। वहीं शहरी बस्तियों के साथ  ही कस्बों और ग्रामीण इलाकों में पीने और दैनिक उपयोग के पानी की किल्लत दिन ब दिन बढती चली जा रही है। चुनावी घोषणापत्र में किये जाने वाले आसमानी वायदों से अलग हटकर बेहतर है इन जमीन से जुड़े मुद्दों पर कुछ ठोस बातें भी  की जायें तभी सही मायनों में चुनाव का जनता से सरोकार कहलायेगा वरना ये 543 सामंतों के चयन की प्रक्रिया बनकर रह गया। सही कहें तो मतदाता की स्थिति किसी रईसजादे की बरात में सिर पर गैस बत्ती लेकर चलने वाले उन गरीबों जैसी हो गयी है जो बारात लगते ही अँधेरे में अपने ठिकाने को लौट जाते हैं और जिन्हें लाखों रु. खर्च करने वाले एक गिलास पानी तक के लिए नहीं पूछते। अमेरिका के महान कहे जाने वाले राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने लोकतंत्र को जनता की, जनता के द्वारा और जनता के लिए बनी शासन व्यवस्था कहा था किन्तु हमारे देश में इसका अर्थ जनता द्वारा नेताओं की और उन्हीं के लिए चुनी सरकार हो गया है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 29 March 2019

सियासत पहले भी होती थी लेकिन...

किसी एक दल से जुड़ा मुद्दा होता तब दोषारोपण आसान हो जाता लेकिन यहां तो स्नानागार में निर्वस्त्र होने से भी आगे बढ़ते हुए सड़कों पर मर्यादा रूपी वस्त्र त्यागकर निर्लज्जता का प्रदर्शन आम होता जा रहा है। देखने वाले भी आखिर आंखें मूदें तो भी कितनी देर क्योंकि ये सिलसिला रुकने का नाम ही नहीं ले रहा। न कोई सिद्धान्त है न ही नीति। केवल और केवल निजी स्वार्थ और अहं की संतुष्टि के लिए जिस घर के सामने से नहीं निकलने की कसमें खाई जाती रहीं उसी में जाकर बैठने का चलन जोरों पर है। बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि लेय वाली उक्ति से प्रेरित होकर जिस तरह से पाला बदलने की ख़बरें आ रही हैं उन्हें सियासत का व्यवसायीकरण भी कहा जा सकता है। एक पार्टी से टिकिट नहीं मिलने पर दूसरी में प्रवेश और आनन-फानन में उम्मीदवारी हासिल करने का चलन राजनीति की पहिचान बन चुका है। शत्रु पलक झपकते ही मित्र बन जाते हैं और बरसों की दोस्ती एक क्षण में शत्रुता का रूप ले लेती है। शर्म-लिहाज तो मानों गुजरे जमाने की बातें बनकर रह गई हैं। सिद्धान्तों और नीतियों को लेकर मतभेद कोई नई बात नहीं है। 1939 में जबलपुर के निकट त्रिपुरी के कांग्रेस अधिवेशन में महात्मा गांधी और सुभाष चंद्र बोस आमने-सामने आ गए। सुभाष बाबू ने बापू समर्थित पट्टाभि सीतारमैया को अध्यक्ष पद का चुनाव हरा दिया। दोनों के बीच मतभेद इस हद तक बढ़े कि श्री बोस को कांग्रेस छोडऩे पर मजबूर कर दिया गया। लेकिन उन्हीं सुभाष बाबू ने गांधी जी को राष्ट्रपिता जैसा संबोधन देकर साबित किया कि राजनीतिक मतभेदों के बाद भी उन नेताओं की सोच का स्तर कितना ऊंचा था। आज़ादी के बाद भी राजनीतिक मतभेदों के चलते नेताओं द्वारा पार्टी छोड़ी और तोड़ी गईं। कांग्रेस से ही निकलकर समाजवादी पार्टी बनी, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने स्वतंत्र पार्टी और डॉ. श्यामाप्रासाद मुखर्जी द्वारा जनसंघ की स्थापना की गई। इन सबके पीछे सैद्धांतिक मतभेद थे। चुनाव, हारने जीतने की बजाय अपनी नीतियों के प्रचार के उद्देश्य से लड़े जाते थे। डॉ. राममनोहर लोहिया और अटलबिहारी वाजपेयी जैसे नेता चाहते तो पं नेहरू के मन्त्रीमण्डल के सदस्य बनकर युवावस्था में ही सत्ता का सुख लूट सकते थे। सुप्रसिद्ध समाजवादी चिंतक आचार्य नरेन्द्रदेव के विरुद्ध कांग्रेस द्वारा प्रत्याशी उतारे जाने पर नेहरू जी ने नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा था कि उन जैसी विभूति तो निर्विरोध चुनी जानी चाहिए थी। समाजवादी आंदोलन की कई धाराएं बनीं, वामपंथी दल भी कई हिस्सों में बंटे, कांगे्रस भी कई विभाजनों के बाद आज के रूप में है लेकिन उसके बाद भी इतना सस्तापन नहीं दिखता था। लेकिन राजनीति का वह स्वर्णिम युग और संस्कार धीरे-धीरे मौत का शिकार होते चले गए। बीते कुछ समय से राजनीतिक जगत में जिस तरह का नजारा दिखाई देने लगा है वह हर उस व्यक्ति को दुखी कर रहा है जिसे देश और लोकतंत्र की चिंता है। चुनावी टिकिट के लिये अपनी विचारधारा को क्षण भर में त्यागकर पाला बदलने की प्रवृत्ति इतनी आम हो चली है कि समझ में नहीं आता कि निकट भविष्य में देश को चलाने वाले अपने निजी स्वार्थ के लिए किस हद तक गिर जाएंगे। जिस पार्टी और नेताओं के साथ जि़न्दगी का बड़ा हिस्सा गुजार दिया जाता है वही मात्र इस कारण जानी दुश्मन हो जाती है क्योंकि चुनावी टिकिट नहीं मिली। दूसरी पार्टियां भी ऐसे लोगों को बुलाकर सिर पर बिठाने में संकोच करतीं। पार्टी के भीतर मतभेदों से बढ़कर अब बात परिवार के भीतर राजनीति की वजह से टूटन के तौर पर सामने आने लगी है। सिद्धांतों पर सत्ता जिस तरह से हावी होती जा रही है वह देश में लोकतंत्र के बिगड़ते स्वरूप का संकेत है लेकिन उससे भी बढ़कर तो चिंता का कारण है क्योंकि क्षणिक राजनीतिक लाभ की खातिर स्वार्थी तत्वों को महत्व देना और राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा करने जैसी बातें खतरनाक हैं। इसके लिए किसी एक पार्टी या नेता को कठघरे में खड़ा करना न तो संभव है और  न ही उचित क्योंकि चाहे क्षेत्रीय हों या राष्ट्रीय दल, कमोबेश सभी ने किसी भी कीमत पर सत्ता हासिल करने को अपना उद्देश्य बना लिया है और इसके लिए सही-गलत कैसे भी तरीके अपनाने में उन्हें संकोच नहीं रहा। यही वजह है कि नेताओं को अभिनेताओं की जरुरत पडऩे लगी। 2019 का चुनाव भारतीय लोकतंत्र के भविष्य के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण हो चला है। इसलिए नहीं कि कौन सी पार्टी सत्ता में आयेगी और कौन प्रधानमंत्री बनेगा। बल्कि इसलिये कि सत्ता के खेल में लोकतांत्रिक मान-मर्यादा के साथ कैसा व्यवहार होता है? अटल जी ने संसद  में अपने एक प्रसिद्ध भाषण में कहा था कि सरकारें आएंगी-जाएंगी, पार्टियां बनेंगी-टूटेंगी लेकिन ये देश रहना चाहिए और इस देश का लोकतंत्र रहना चाहिए। आज उनके भाषण में व्यक्त चिंताएं अपने वीभत्स रूप में सामने आ गईं है। दुर्भाग्य से देश और लोकतंत्र के बारे में सोचने की फुरसत किसी को नहीं है। येन केन प्रकारेण चुनाव जीतना ही राजनीति का चरम उद्देश्य और जिताने की क्षमता नेतृत्व की कसौटी बन चुकी है। पहले तो कम से कम दिखावे के लिये ही सही सिद्धांतों की दुहाई दी जाती थी। लेकिन अब तो उसकी जरूरत भी नहीं समझी जाती।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 28 March 2019

फिर गलती कर बैठा विपक्ष

यदि विपक्ष हायतौबा नहीं करता तब देश के अधिकतर लोग ये जानने की कोशिश भी नहीं करते कि आखिऱ हुआ क्या था? भारत द्वारा आंतरिक्ष यान का प्रक्षेपण और मिसाइल परीक्षण अब चौंकाने वाली बात नहीं रही। गत दिवस दोपहर प्रधानमंत्री ने देश को सम्बोधित करते हुए बताया कि रक्षा अनुसंधान के क्षेत्र में कार्यरत डीआरडीओ ने अंतरिक्ष में विचरण करने वाले उपग्रह को मार गिराने वाली मिसाइल का सफल परीक्षण कर लिया है। अपने ही देश के एक बेकार उपग्रह को नष्ट करने की यह तकनीक पहले ही परीक्षण में सफल रही। सबसे बड़ी बात ये रही कि इसका निर्माण पूर्णत: देश में ही हुआ। इस सफलता से भारत विश्व का चौथा देश बन गया जिसने अंतरिक्ष में मिसाइल से लक्ष्य को भेदने की क्षमता अर्जित कर ली। रूस, अमेरिका और चीन के बाद भारत ही ऐसा देश है। पहले तीनों को अनेक असफलताओं के बाद कामयाबी मिली लेकिन भारत के वैज्ञानिकों ने पहले प्रयास में ही सफलता के शिखर को छू लिया। प्रधानमंत्री ने देश को ये खुशखबरी देते हुए वैज्ञानिकों के योगदान के लिए पूरे राष्ट्र की तरफ से उन्हें बधाई भी दी। यहां तक तो सब ठीक था लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने वैज्ञानिकों को बधाई देते हुए जो ट्वीट किया उसमें प्रधानमंत्री को विश्व रंगमंच दिवस की बधाई भी दे डाली। राष्ट्रीय गौरव के एक विषय को इस तरह हल्का करने की उनकी कोशिश निश्चित तौर पर राजनीतिक उद्देश्य से की गई थी। देखादेखी अन्य विपक्षी दलों ने भी प्रधानमंत्री द्वारा टीवी पर राष्ट्र को संबोधित किये जाने पर ऐतराज जताया और उसे चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन निरूपित करते हुए चुनाव आयोग से शिकायत भी कर दी। प्राप्त जानकारी के अनुसार आयोग ने सुरक्षा से जुड़ा मामला बताते हुए प्रधानमंत्री के भाषण हेतु पूर्वानुमति की जरूरत को अनावश्यक बताया लेकिन बाद में विपक्ष का ज्यादा दबाव पडऩे के कारण उसने एक जांच समिति बना दी। होना तो ये चाहिये था कि प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में वैज्ञानिकों की सफलता को सभी देशवासियों के लिए गौरव का क्षण बताते हुए उनके अथक परिश्रम की प्रशंसा की तो विपक्ष भी उनके स्वर में स्वर मिलाकर वैज्ञानिकों की जय-जयकार करने लगता। लेकिन कांग्रेस ने बिना देर किए याद दिलाया कि देश के अंतरिक्ष कार्यक्रम और रक्षा अनुसंधान का काम पं नेहरू और इंदिरा जी के कार्यकाल में ही शुरू हो चुका था। इस पर किसी ने कोई आपत्ति व्यक्त नहीं की क्योंकि इसमें असत्य कुछ भी नहीं था। हॉलांकि इसके पीछे उद्देश्य मौजूदा सरकार को श्रेय से वंचित करना था। जब विपक्ष ने हो हल्ला मचाया तब दोनों तरफ  से शब्द बाणों का आदान-प्रदान शुरू हो गया  और इसी बीच ये तथ्य भी सामने आ गया कि 2012 में ही डीआरडीओ ने यह क्षमता हासिल कर ली थी लेकिन तत्कालीन सरकार ने परीक्षण की अनुमति नहीं दी। यदि प्रधानमंत्री के सम्बोधन के बाद विपक्ष व्यर्थ में प्रलाप नहीं करता तब सत्ता पक्ष को भी ज्यादा मुंह चलाने का अवसर नहीं मिलता और पूरी खबर वैज्ञानिक उपलब्धि तक सीमित रह जाती। प्रधानमंत्री को विश्व रंगमंच दिवस की बधाई देने जैसा कृत्य कांग्रेस अध्यक्ष की अपरिपक्वता को ही उजागर कर गया। यहां तक कि गत दिवस बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी तक ने उन्हें बच्चा कह डाला। वहीं असदुद्दीन ओवैसी के मुताबिक राहुल अभी भी राजनीति सीख रहे हैं। कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि अंतरिक्ष में उपग्रहों को मार गिराने वाली मिसाइल के सफल परीक्षण को लेकर कांग्रेस ही नहीं शेष विपक्ष एक बार फिर वही गलती दोहरा गया जो बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक पर सवाल उठाकर की गई थी। प्रधानमंत्री एक राजनीतिक शख्स हैं इसलिये उनके कामकाज में राजनीति झलकना स्वाभाविक है। लेकिन गत दिवस किये गए परीक्षण का संबंध चूंकि सुरक्षा, विशेष रूप से शत्रु के उपग्रहों को नष्ट करने  की क्षमता अर्जित करने से है इसलिए ये जरूरी था कि भारत एक जिम्मेदार देश होने के नाते पूरी  दुनिया को बताए कि ये उपलब्धि आत्मरक्षार्थ है। इससे भी बढ़कर तो अंतरिक्ष में विचरण कर रहे उन भारतीय उपग्रहों को, जिनकी समयावधि पूरी हो जाने के बाद वे वहां निरुद्देश्य भीड़ बढा रहे हों, नष्ट करने के लिए भी इस तकनीक को हासिल करना जरूरी था। आजकल उपग्रह के जरिये जासूसी के अलावा भविष्य में आक्रमण जैसी किसी आशंका के मद्देनजऱ अंतरिक्ष में मार करने वाली मिसाइल एक आवश्यकता थी जिसे प्राप्त करने के बाद भारत विश्व की महाशक्ति बनने की दिशा में एक कदम और आगे बढ़ गया। उस लिहाज से बेहतर होता यदि विपक्ष इस  उपलब्धि पर वैज्ञानिकों की पीठ थपथपाकर राष्ट्रीय गौरव के क्षणों में हिस्सेदार बनता लेकिन कोपभवन में जाकर बैठ जाने की उसकी नीति ने बेवजह सत्ता पक्ष को अवसर प्रदान कर दिया। पं नेहरू और इंदिरा जी को अंतरिक्ष कार्यक्रम की नींव रखने का श्रेय देने वालों को इस बात का जवाब भी देना चाहिए कि पिछली सरकार ने किस वजह से इस परीक्षण की अनुमति नहीं दी। चुनाव के समय सभी राजनीतिक दल मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए तरह-तरह के उपाय करते हैं। लेकिन कुछ विषय ऐसे होते हैं जिनमें देशहित ही देखा जाना चाहिए। प्रधानमंत्री ने अपने सम्बोधन में अपनी सरकार की उपलब्धि की बजाय पूरा श्रेय वैज्ञानिकों के नाम कर दिया था तब विपक्ष को भी समझदारी दिखाते हुए उसी भाषा में बात करनी चाहिए थी। राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री पर किसी और संदर्भ में तंज कसा होता तो उसे साधारण तरीके से लिया जाता लेकिन ऐसा लगता है उनकी सलाहकार मंडली में कुछ ज्यादा ही अक्लमंद (?) बैठे हुए हैं। चुनाव आयोग विपक्ष की शिकायत पर विचार करने के उपरांत जो भी फैसला दे लेकिन विपक्ष ने आलोचना के लिए आलोचना की नीति पर चलते हुए एक गम्भीर विषय पर भी राजनीतिक रागद्वेष का परिचय देकर अपनी छवि खराब कर ली। प्रधानमंत्री और समूचा सत्ता पक्ष इस बात पर प्रसन्न हो रहा होगा कि जिस बात का श्रेय वह खुलकर नहीं लेना चाहता था वह बिना मांगे विपक्ष की गलती से उसके खाते में आ गया।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 27 March 2019

अव्यवहारिक कानून भी रोजगार में बाधक

लोकसभा चुनाव को लेकर चल रही बहस अचानक गरीब परिवारों  को 72 हजार रु. सालाना देने की उस योजना पर आकर केंद्रित हो गई जिसका वायदा कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने परसों किया था। इसकी उपयोगिता, व्यवहारिकता और उसके लिए आवश्यक संसाधन को लेकर भी पक्ष-विपक्ष में बातें चल पड़ी हैं। सही हितग्राहियों का चयन करने में आने वाली परेशानियों की चर्चा भी होने लगी है। लेकिन सबसे ज्यादा बहस इस बात पर चल रही है कि इससे गरीबों में निठल्ले बैठकर खाने की आदत पड़ जाएगी, वहीं नौकरपेशा और व्यवसायी वर्ग को लग रहा है कि इस योजना पर होने वाले खर्च का भार अप्रत्यक्ष तौर पर उनके कंधों पर ही पड़ेगा। कांग्रेस ने भाजपा को ललकारा है कि वह इस योजना का विरोध करके दिखाए। उधर भाजपा भी इसका तोड़ निकालने की सोच रही है। कांग्रेस को लग रहा है कि राहुल के इस दांव ने एक झटके में बालाकोट  में की गई हवाई कार्रवाई के असर को धो दिया है। इसे राहुल की सर्जिकल स्ट्राइक भी कहा जा रहा है। कांग्रेस अपने घोषणापत्र में इसे प्रमुखता  से  शामिल भी करने वाली है। राजनीतिक टिप्पणीकार योगेंद्र यादव ने न्यूनतम आय सुनिश्चित करने को लेकर चल रहे वैश्विक प्रयासों का उल्लेख भी अपने ताजा लेख में किया है। किसी लोक कल्याणकारी शासन व्यवस्था में जनता की कुशलक्षेम शासक की मूलभूत जिम्मेदारी है। लोकतंत्र में तो ये और बढ़ जाती है किंतु देखने वाली बात ये भी है कि विकसित और विकासशील देशों के लिए एक जैसी नीतियां और व्यवस्थाएं व्यवहारिक नहीं हो सकतीं। उदाहरण के लिए विश्व श्रम संगठन द्वारा सुझाये गए क़ानून हर देश में एक समान स्वीकार्य नहीं हो सकते। विकसित देशों में आबादी के अनुपात में आर्थिक संसाधनों की अधिकता की वजह से वहां जैसा न्यूनतम वेतन एवं उससे जुड़ी अन्य सुविधाएं भारत सदृश देश में जस की तस लागू किया जाना असम्भव है। यहां तक कि चीन जैसे साम्यवादी देश तक में श्रमिकों के लिए वैसे कानून नहीं हैं जैसे भारत में हैं। श्रमिकों को शोषण से बचाने के लिए की गई व्यवस्थाओं ने निजी क्षेत्र में रोजगार सृजन की संभावनाओं को घटाया, ये कहना गलत नहीं होगा। ये कहना भी सही है कि सरकार अपनी जिम्मेदारियों को निजी क्षेत्र के नियोक्ताओं पर थोपकर निकल भागती है। उसका दुष्परिणाम ये हुआ कि बेरोजगारी होने के बावजूद लोग काम करने के प्रति उतने उत्साहित नहीं होते। निर्माण क्षेत्र में ठेकेदारों के यहां काम करने वाले श्रमिकों को भविष्यनिधि के अंतर्गत लाने जैसे नियमों का पालन कितना कठिन और अव्यवहारिक है ये सर्वविदित है। न्यूनतम मजदूरी के निर्धारण की वजह से मजदूर महंगे हुए और उसके कारण मशीनों का उपयोग बढ़ गया। खेती इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। फसल कटाई के मौसम में पहले इस कार्य में हर गांव के सैकड़ों श्रमिकों को रोजगार मिलता था, जो हार्वेस्टर की वजह से छिन गया। सरकार द्वारा तय किये गए वेतनमान अब उसी के गले पड़ रहे हैं। यही वजह है कि तृतीय-चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों की सेवाएं निजी क्षेत्र के माध्यम से ली जाने लगी हैं। सरकारी उपक्रमों में  अपने वाहन रखने की बजाए किराये की टैक्सी का चलन चल पड़ा है। इसके पीछे सोच ये है कि ड्राइवर के वेतन और वाहन के रखरखाव पर होने वाले खर्च की तुलना में किराए का वाहन सस्ता पड़ रहा है। कम्प्यूटर के आगमन के बाद भी देश में हाथ से काम करने वाले लाखों कामगार बेकार हो गए। चीन और भारत दोनों के सामने बड़ी आबादी का पेट भरने की समस्या थी। लेकिन चीन ने व्यवहारिक तरीके अपनाए और अपने देश की जरूरतों के अनुसार अपनी प्राथमिकताएं निर्धारित करते हुए हर हाथ को काम देने की नीति तो लागू की किन्तु उसके लिए वैसे कानून नहीं बनाए जैसे भारत में बनाकर रोजगार देने वाले को निरुत्साहित और प्रताडि़त किया गया। आज की स्थिति ये है कि सरकारी क्षेत्र तो रोजगार देने में लगातार पिछड़ रहा है और निजी क्षेत्र कानूनी झंझटों से परेशान है। बीते कुछ सालों में सरकार ने खुद ही संविदा जैसा फार्मूला निकालकर कम वेतन पर काम करवाने का रास्ता निकाला। शिक्षकों से शुरू होकर विश्वविद्यालयों तक में अतिथि शिक्षकों की प्रथा के पीछे उद्देश्य मोटी तनख्वाह के बोझ से बचना है। सरकारी विभागों में लाखों कर्मचारी दैनिक वेतनभोगी के रूप में दशकों से सेवारत हैं। हजारों ऐसे भी रहे जो बिना पक्के हुए ही सेवा निवृत्त हो गए। राहुल गांधी से यदि पूछा जाए कि इस वर्ग के लिए उनकी पिछली सरकारों ने क्या किया तो वे निरुत्तर होकर रह जाएंगे। हर राजनीतिक दल चुनाव में इस वर्ग को स्थायी करने का वायदा तो करता है किंतु सत्ता में आने के बाद उसे रद्दी की टोकरी में डाल देता है। न्याय योजना के संदर्भ में उठे कई सवालों पर  इस चुनाव में बहस होनी चाहिये। यदि वाकई कांग्रेस चाहती है कि देश के प्रत्येक परिवार की गुजर-बसर अच्छी तरह से हो और वह सम्मान के साथ रह सके तो उसे श्रम कानून में इस तरह के संशोधन करने का मुद्दा भी उठाना चाहिए जो भारतीय संदर्भ में कारगर हों और निजी क्षेत्र को परेशानी से बचाएं। न्यूनतम मजदूरी का सिद्धान्त अपने अपने आप में बहुत ही श्रेष्ठ है जो काम करने वाले को शोषण से बचाने के लिए बनाया गया लेकिन उसके कारण रोजगार यदि घट गया तब सभी दलों को मिल बैठकर इस बात पर विचार करना चाहिए कि इस विसंगति को कैसे दूर किया जाए। भारत में बीते कुछ दशक में बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपने कारखाने इसी वजह से लगाए थे कि यहां उनके देश की अपेक्षा श्रम सस्ता है। चीन में भी इसी कारण बड़े पैमाने पर पूंजी निवेश हुआ। लेकिन कटु सत्य ये भी है कि भारत में उद्योग-व्यापार करना दिन ब दिन कठिन होता जा रहा है। इसकी मुख्य वजह कानूनी पेचीदगियां हैं। न्याय योजना से भले ही तात्कालिक तौर पर 20-25 करोड़ लोग संतुष्ट हो जाएं किन्तु ये समस्या का स्थायी इलाज नहीं है। देश की बड़ी आबादी के कारण श्रमिकों की जो प्रचुरता है उसका उपयोग करने के लिए सरकार को श्रम कानून में यथोचित बदलाव करने होंगे। जिस तरह अधिक पैदावार से चीजें सस्ती होती हैं वही सिद्धान्त श्रम क्षेत्र में भी यदि लागू हो सके तो निजी क्षेत्र बड़ी मात्रा में रोजगार दे सकता है। काम को अधिकार बनाने की बातें तो बहुत होती हैं लेकिन उसे कर्तव्य बनाने की चर्चा कोई नहीं करता। ये बात गलत नहीं है कि हमारे देश में नौकरी का मतलब सरकारी नौकरी समझ लिए जाने से भी समस्या विकट हो गई।

-रवीन्द्र वाजपेयी