Tuesday 19 March 2019

भाजपा को छोड़ कांग्रेस के पीछे पड़ीं बसपा और सपा

इसे महज संयोग कहा जाए या कुछ और कि जिस दिन प्रियंका वाड्रा ने प्रयागराज से वाराणसी तक की चुनावी नाव यात्रा शुरू की उसी दिन उप्र में महागठबंधन के दोनों बड़े धड़े बसपा और सपा ने कांग्रेस को खूब खरी-खोटी सुनाते हुए भ्रम नहीं फैलाने की हिदायत दे डाली। हुआ यूं कि मायावती, अखिलेश यादव और अजीत सिंह के महागठबंधन द्वारा रायबरेली और अमेठी सीट से प्रत्याशी नहीं खड़े करने के एवज में कांग्रेस ने भी महागठबंधन के सात बड़े नेताओं के विरुद्ध प्रत्याशी नहीं उतारने का फैसला लिया। इसके पीछे महज सौजन्यता थी या सियासत ये तो कांग्रेस ही बेहतर जानती होगी किन्तु उसका ये फैसला बसपा और सपा को नागवार गुजरा। उनका मानना था कि ऐसा करते हुए कांग्रेस उप्र में ये भ्रम फैलाना चाहती है कि वह भी अप्रत्यक्ष तौर पर ही सही महागठबंधन का हिस्सा है। सबसे पहले मायावती ने तीखे शब्दों में कांग्रेस को लताड़ते हुए कहा कि वह चाहे तो सभी अस्सी सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार सकती है। उन्होंने यहां तक कह दिया कि उप्र तो क्या पूरे देश में कहीं भी उनकी पार्टी कांग्रेस से किसी भी तरह का गठजोड़ नहीं करेगी। थोड़ी देर बाद ही अखिलेश यादव ने भी कांग्रेस को कड़े शब्दों में चेताया कि वह बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना बनने की कोशिश नहीं करे क्योंकि भाजपा को हराने के लिए बसपा, सपा और रालोद का महागठबंधन सक्षम है। इस अप्रत्याशित सियासी सर्जिकल स्ट्राइक से भौचक कांग्रेस के पास और कोई विकल्प नहीं बचा और उसने बड़े ही नरम शब्दों में अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए बसपा और सपा को स्वाभाविक सहयोगी बताया। इस तू-तू, मैं-मैं से विपक्षी एकता की असलियत तो सामने आई ही सबसे बड़ी बात कांग्रेस की जबर्दस्त किरकिरी के रूप हुई।  वैसे इसमें केवल कांग्रेस को कसूरवार ठहराना गलत होगा क्योंकि मायावती और अखिलेश यादव ने गठजोड़ करते समय कांग्रेस को टटोलने की जरूरत तक नहीं समझी और सोनिया गांधी तथा राहुल की परंपरागत सीट रायबरेली और अमेठी से प्रत्याशी खड़ा नहीं करने की घोषणा कर उसे पूरी तरह से दयनीय साबित करने का प्रयास किया। हालांकि ऐसी मेहरबानी वे दोनों 2014 में भी दिखा चुके थे जबकि उस समय बसपा और सपा के बीच सांप और नेवले जैसे संबंध थे लेकिन बीते कुछ महीनों से मोदी विरोधी गठजोड़ बनाने की जो कोशिशें चल रही थीं उनमें कांग्रेस की सक्रिय भूमिका थी। सोनिया गांधी के बुलावे पर तमाम विपक्षी नेताओं का जमावड़ा भी हुआ। जिन राज्यों के चुनावों में भाजपा पराजित हुई वहां नई सरकार के गठन पर भी विपक्षी एकता का जोरदार प्रदर्शन किया गया। मायावती ने कर्नाटक में भाजपा को रोकने के लिए कांग्रेस और जद (सेकुलर) को बिना शर्त समर्थन दे दिया। सोनिया जी और मायावती के गले मिलते हुए चित्र को भी विपक्षी एकता के फिल्म के पोस्टर के तौर पर प्रचारित किया गया। मप्र में कमलनाथ की अल्पमत सरकार बनवाने में भी बसपा ने बिना ना-नुकुर किये सहायता की। उस सबसे आशा थी कि 80 लोकसभा वाले उप्र में बसपा और सपा के साथ कांग्रेस भी भाजपा को हराने की लिये गठबंधन का हिस्सा बनेगी लेकिन मायावती और अखिलेश ने गठजोड़ करते समय अजीत सिंह का ध्यान तो रखा किन्तु कांग्रेस को पूरी तरह उपेक्षित कर दिया। जैसा पता चला है उसके अनुसार कांग्रेस आपने लिए सम्मानजनक सीटें चाहती थी किन्तु बसपा और सपा ने उसे किसी भी तरह का भाव नहीं दिया और रायबरेली-अमेठी उसके लिए छोड़ी भी तो इस अंदाज में जैसे टुकड़े फैंके जा रहे हों। जाहिर है कांग्रेस को उनका ये व्यवहार नागवार गुजरा क्योंकि 2017 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव ने राहुल गांधी के साथ यूपी के दो लड़के वाला जो माहौल बनाया उसे भविष्य का गठबंधन माना गया था। लेकिन उस चुनाव में मिली ऐतिहासिक पराजय के बाद अखिलेश ने मायावती से निकटता बढ़ाई और धीरे -धीरे कांग्रेस को एक तरह से दूसरे दर्जे की पार्टी बना दिया। इससे कांग्रेस का नाराज होना भी लाजमी था और उसने बिना लिहाज किये सभी 80 सीटों पर प्रत्याशी उतारने का ऐलान कर दिया। हालांकि बाद में उसने सात सीटें छोडऩे का ऐलान किया। इसके पीछे चुनाव बाद के समीकरणों को साधने की रणनीति ही थी लेकिन मायावती और अखिलेश ने इसे लोगों को भ्रमित करने वाला कदम बताकर खूब जली-कटी सुना डाली। हो सकता है ये दोनों कांग्रेस द्वारा प्रियंका वाड्रा और ज्योतिरादित्य सिंधिया को उप्र में बड़ी जिम्मेदारी दिए जाने से खफा हों। प्रियंका द्वारा पूर्वी उप्र से अपना अभियान शुरू किए जाने से भी महागठबंधन को अपने लिए खतरा महसूस हुआ होगा। बहरहाल जो भी हो लेकिन इन तीनों के बीच खिंची तलवारों से भाजपा को काफी राहत मिली जो फूलपुर, गोरखपुर और कैराना संसदीय उपचुनाव की हार से भीतर-भीतर घबराहट में थी। ये बात तो साधारण व्यक्ति भी बता देगा कि उप्र में विपक्षी मतों के विभाजन से भाजपा को सहूलियत रहेगी। दरअसल बसपा-सपा को ये उम्मीद नहीं थी कि कांग्रेस अपनी उपेक्षा से नाराज होकर सभी सीटों पर ताल ठोंकने का दुस्साहस करेगी। लेकिन पूरी तरह से उपेक्षित होने के बाद आखिरकार कांग्रेस को अपने राष्ट्रीय पार्टी होने का एहसास हुआ। कल हुई बयानबाजी से मायावती और अखिलेश के मन में समाया भय सामने आ गया है। अभी तक तो वे मिलकर भाजपा का रास्ता रोकने के लिए उत्साहित थे लेकिन कांग्रेस के रुख ने उनकी राह में कांटे बिछाकर मुसीबत उत्पन्न कर दी। कांग्रेस नेतृत्व को जब ये लगा कि उसके पास उप्र में खोने के लिए कुछ नहीं है तब उसने जो दांव चला वह पूरी तरह सही है। मायावती और अखिलेश का ये बड़बोलापन कि अगला प्रधानमंत्री वे ही तय करेंगे यूँ भी अतिशयोक्तिपूर्ण है। आगे क्या होगा ये फिलहाल तो कहना कठिन है लेकिन मायावती और आखिलेश की ये गलतफहमी जरूर दूर हो गई होगी कि राजनीति की समझ केवल वे ही रखते हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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