Wednesday 13 March 2019

विपक्ष का बिखराव बन रहा मोदी की ताकत

सत्तर के दशक में स्व. डॉ. राममनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद का नारा देकर विपक्षी एकता का जो सूत्रपात किया था उसी के फलस्वरूप संविद सरकारों जैसा प्रयोग शुरू हुआ। हालांकि अपनी विसंगतियों के चलते वे सरकारें अकाल मृत्यु का शिकार हो गईं और देश को आयाराम-गयाराम जैसी बीमारी भी दे गईं लेकिन ये कहना गलत नहीं होगा कि उसी प्रयोग का चर्मोत्कर्ष 1977 में बनी जनता पार्टी की सरकार के रूप में सामने आया। संयोगवश वह सरकार भी अपने विरोधाभाासों के बोझ से ही भरभरा गई किन्तु उसने भारतीय राजनीति के तमाम स्थापित सिद्धांत बदलकर रख दिये। इनमें सबसे बड़ा है छुआछूत का खात्मा। पिछले चार दशक की राजनीति पर निगाह डालने पर पता चलता है कि लगभग सभी पार्टियों के सिद्धान्त और नीतियां दिल्ली में यमुना की तरह प्रदूषण का शिकार हो चुके हैं। कौन सा दल तथा नेता कब और किसके साथ चला जाएगा ये कोई नहीं बता सकता। 2004 में सीपीएम महासचिव स्व.हरिकिशन सिंह सुरजीत ने जब वामपंथी मोर्चे को डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार के समर्थन के लिए राजी किया तब बहुत लोग चौंके क्योंकि भारत में अमेरिकी मॉडल के आर्थिक सुधार लाने का इल्जाम वामपंथी खेमा डॉ. सिंह पर ही लगाया करता था। हालांकि बाद में उस रिश्ते में खटास भी पड़ी किन्तु कुछ सालों बाद आज स्थिति ये है कि वामपंथी और कांग्रेस बंगाल में गठबंधन कर रहे हैं। 1990 में मंडल और कमंडल के नाम पर राजनीति के दो नए खेमे बने थे। भाजपा की अगुआई वाले कमंडल खेमे का तो लगातार विस्तार होता गया लेकिन मंडल के नाम से पुराने लोहियावादियों के जो गुट थे वे धीरे-धीरे चंद नेताओं और उनके परिवारों तक सिमटकर रह गए। जो इस कुनबेबाजी से दूर रहे उनमें से कुछ ने भाजपा का दामन पकड़ा तो कुछ (शरद यादव) अभी भी वैचारिक भटकाव के शिकार होकर नए-नए ठिकाने तलाशा करते हैं। 2004 से 2014 के बीच का समय भारतीय राजनीति में उदासीनता और वैचारिक अनिश्चितता का कहा जा सकता है। लेकिन नरेन्द्र मोदी के राष्ट्रीय परिदृश्य पर उभरने के साथ ही नया धु्रवीकरण देखने में आया। कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देते हुए उन्होंने कांग्रेस युक्त भाजपा का जो दांव चला उसने किसी भी कीमत पर सत्ता के नए सिद्धांत का प्रतिपादन करते हुए भाजपा को देश की सबसे ताकतवर पार्टी बना दिया। इस प्रक्रिया में दोस्ती और दुश्मनी दोनों के प्रचलित मापदंड रद्दी की टोकरी में रख दिये गए। मोदी-मोदी का आवेग कुछ हद तक तो 1971 वाली इंदिरा जी से भी ज्यादा नजर आने लगा जिसकी प्रतिक्रियास्वरूप पूरी सियासत मोदी समर्थक और मोदी विरोधी में बदल गई। बीते पांच वर्ष में देश ने बहुत से बदलाव देखे। सिद्धांतों, नीतियों और आदर्शों की धज्जियां जिस निर्लज्जता से उड़ाई जाती रहीं वह अत्यंत चिन्ताजनक है। राजनीतिक स्वार्थवश किये जाने वाले काम तो अपनी जगह हैं किंतु देशहित की कीमत पर जैसी सियासत देखने में आई वह चिंताजनक है। स्नानागार में निर्वस्त्र रहने की अवस्था तो स्वाभाविक होती है किंतु अब तो नग्नता का सार्वजानिक प्रदर्शन होने लगा है। इसके लिए किसी एक को कसूरवार ठहराना तो अन्याय होगा क्योंकि कमोबेश राजनीति से जुड़े सभी पक्ष इस स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं। देश में अगली लोकसभा के लिए चुनाव की तारीखें घोषित हो चुकी हैं। और उसी के साथ खेमेबाजी का आखिरी दौर भी चल पड़ा है। लेकिन विडंबना ये है कि कौन, कब, कहां, किसके साथ और किसके विरोध में है ये समझ से परे है। महागठबंधन की मुहिम में इतनी गांठें लग गई हैं कि सुलझने का नाम ही नहीं ले रहीं। मोदी को हटाने के लिए एक स्वर में चिल्लाने वाले एक साथ लडऩे को राजी नहीं हो रहे। देश की सुरक्षा और सेना का पराक्रम तक राजनीतिक बहस से बढ़कर विरोध का जरिया बन गया है। संकुचित सोच रखने वाले चंद नेताओं की महत्वाकांक्षाएँ मर्यादाओं की तमाम लक्ष्मण रेखाएं मिटाने पर आमादा हैं। गैर कांग्रेसवाद पहले ग़ैर भाजपावाद और अब गैर मोदीवाद में तब्दील हो चुका है। लेकिन घोषित उद्देश्य एक समान होने के बाद भी नीयत सही नहीं होने से किसी को किसी पर विश्वास नहीं है। ये भी कहा जा सकता है कि कुछ को अपने समृद्ध अतीत की गर्राहट है तो कुछ नई-नई रईसी का भौंड़ा प्रदर्शन करने पर आमादा हैं। विपक्ष का ये बिखराव कभी कांग्रेस की ताकत हुआ करता था और यही आज भाजपा की उम्मीदों को सहारा दे रहा है। मायावती को भाजपा और कांग्रेस दोनों से परहेज है, वहीं ममता बैनर्जी भी मोदी विरोधी होने के बाद भी राहुल गांधी को चेहरा मानने राजी नहीं हैं। अखिलेश यादव के चाचा शिवपाल तो उनके विरोध में खड़े ही हैं लेकिन पिता मुलायम सिंह भी आशीर्वाद की बजाय उलाहना देने पर उतारू हैं। दूसरी तरफ  भाजपा केवल मोदी मैजिक के आसरे है। हालिया घटनाचक्र ने उसे मानों संजीवनी दे दी किन्तु लंबे चुनाव अभियान में इस माहौल को बनाए रखने की चुनौती उसके सामने भी है। जरा सी खुशफहमी 2004 के इंडिया शाइनिंग वाले कटु अनुभव की पुनरावृत्ति कर सकती है। कांग्रेस के साथ महाराष्ट्र में लड़ रहे शरद पवार ने ये भविष्यवाणी तो कर दी कि श्री मोदी दोबारा प्रधानमंत्री नहीं बनेंगे किन्तु साथ ही वे ये भी स्वीकार कर रहे हैं कि भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरेगी। अब तक के सभी चुनाव पूर्व सर्वेक्षण में कांग्रेस को अधिकतम सौ सीटें मिलने के आकलन के बाद लालू जैसे सहयोगी भी ऐंठने लगे हैं। ये सब देखने के बाद अच्छे-अच्छे राजनीतिक पंडित भी असमंजस में हैं। चुनाव के बाद का परिदृष्य जिस तरह अनिश्चितता का संकेत दे रहा है उसकी वजह से नरेंद्र मोदी को विकल्पहीनता का वह फायदा सहज रूप से मिल सकता है जो इंदिरा जी को 1971 में मिला था। गैर कांग्रेसवाद के कड़वे अनुभव से क्षुब्ध जनता ने तब इंदिरा जी में स्थायित्व और जुझारूपन देखकर उन्हें प्रचंड बहुमत दे दिया। संयोगवश आज देश में भाजपा और उससे भी ज्यादा मोदी का विरोध यद्यपि सर्वोच्च स्तर तक जा पहुँचा है  लेकिन उसमें एकजुटता नहीं होने से चाहे न चाहे नरेंद्र मोदी एकमात्र ऐसे नेता नजर आ रहे हैं जिनमें इंदिरा जी जैसी आक्रामकता भी है और कड़े निर्णय लेने की क्षमता भी। भले ही वे स्व. अटलबिहारी वाजपेयी जैसी निर्विवाद लोकप्रियता और सम्मान नहीं पा सके  किन्तु जनमानस को उन्होंने इस बात के लिए आश्वस्त तो कर दिया है कि वे देश की सुरक्षा के साथ आर्थिक विकास के लिए प्रतिबद्ध हैं। उनकी ईमानदारी भी जनता के मन में घर करती जा रही है। लेकिन इससे ये साबित नहीं होता कि 2014 में जनता से किये वायदों को वे पूरा करने में कामयाब रहे। उनके कुछ बड़े निर्णयों के कारण समाज के हर वर्ग को परेशानियों का सामना करना पड़ा किन्तु उसके बाद भी अगर वे पहली पसन्द बने हुए हैं तो ये विपक्ष की विफलता ही है। भारत का मतदाता अब किसी व्यक्ति और विचारधारा का पिछलग्गू नहीं रहा। तीन राज्यों में भाजपा की हार और बंगाल में वामपंथियों की दुर्गति इस बात का प्रमाण है। ऐसे में भाजपा का ये मान लेना कि मोदी है तो मुमकिन है का नारा मतदाताओं के सिर चढ़कर बोलेगा, भले ही अति आशावाद लगे किन्तु विपक्ष भी आपस में एकता का अभाव होने से जनता को अभी तक तो आकर्षित नहीं कर पा रहा। भाजपा के विकल्प के तौर पर सही मायनों में तो कांग्रेस पर ही निगाहें जाकर टिकती हैं किंतु इसे बिडम्बना ही कहा जा सकता है कि कुछ को छोड़कर बाकी विपक्षी ही जब कांग्रेस को सिर पर बिठाने तैयार नहीं हैं तब मतदाता से भला क्या उम्मीद की जाए।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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