Wednesday 27 March 2019

अव्यवहारिक कानून भी रोजगार में बाधक

लोकसभा चुनाव को लेकर चल रही बहस अचानक गरीब परिवारों  को 72 हजार रु. सालाना देने की उस योजना पर आकर केंद्रित हो गई जिसका वायदा कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने परसों किया था। इसकी उपयोगिता, व्यवहारिकता और उसके लिए आवश्यक संसाधन को लेकर भी पक्ष-विपक्ष में बातें चल पड़ी हैं। सही हितग्राहियों का चयन करने में आने वाली परेशानियों की चर्चा भी होने लगी है। लेकिन सबसे ज्यादा बहस इस बात पर चल रही है कि इससे गरीबों में निठल्ले बैठकर खाने की आदत पड़ जाएगी, वहीं नौकरपेशा और व्यवसायी वर्ग को लग रहा है कि इस योजना पर होने वाले खर्च का भार अप्रत्यक्ष तौर पर उनके कंधों पर ही पड़ेगा। कांग्रेस ने भाजपा को ललकारा है कि वह इस योजना का विरोध करके दिखाए। उधर भाजपा भी इसका तोड़ निकालने की सोच रही है। कांग्रेस को लग रहा है कि राहुल के इस दांव ने एक झटके में बालाकोट  में की गई हवाई कार्रवाई के असर को धो दिया है। इसे राहुल की सर्जिकल स्ट्राइक भी कहा जा रहा है। कांग्रेस अपने घोषणापत्र में इसे प्रमुखता  से  शामिल भी करने वाली है। राजनीतिक टिप्पणीकार योगेंद्र यादव ने न्यूनतम आय सुनिश्चित करने को लेकर चल रहे वैश्विक प्रयासों का उल्लेख भी अपने ताजा लेख में किया है। किसी लोक कल्याणकारी शासन व्यवस्था में जनता की कुशलक्षेम शासक की मूलभूत जिम्मेदारी है। लोकतंत्र में तो ये और बढ़ जाती है किंतु देखने वाली बात ये भी है कि विकसित और विकासशील देशों के लिए एक जैसी नीतियां और व्यवस्थाएं व्यवहारिक नहीं हो सकतीं। उदाहरण के लिए विश्व श्रम संगठन द्वारा सुझाये गए क़ानून हर देश में एक समान स्वीकार्य नहीं हो सकते। विकसित देशों में आबादी के अनुपात में आर्थिक संसाधनों की अधिकता की वजह से वहां जैसा न्यूनतम वेतन एवं उससे जुड़ी अन्य सुविधाएं भारत सदृश देश में जस की तस लागू किया जाना असम्भव है। यहां तक कि चीन जैसे साम्यवादी देश तक में श्रमिकों के लिए वैसे कानून नहीं हैं जैसे भारत में हैं। श्रमिकों को शोषण से बचाने के लिए की गई व्यवस्थाओं ने निजी क्षेत्र में रोजगार सृजन की संभावनाओं को घटाया, ये कहना गलत नहीं होगा। ये कहना भी सही है कि सरकार अपनी जिम्मेदारियों को निजी क्षेत्र के नियोक्ताओं पर थोपकर निकल भागती है। उसका दुष्परिणाम ये हुआ कि बेरोजगारी होने के बावजूद लोग काम करने के प्रति उतने उत्साहित नहीं होते। निर्माण क्षेत्र में ठेकेदारों के यहां काम करने वाले श्रमिकों को भविष्यनिधि के अंतर्गत लाने जैसे नियमों का पालन कितना कठिन और अव्यवहारिक है ये सर्वविदित है। न्यूनतम मजदूरी के निर्धारण की वजह से मजदूर महंगे हुए और उसके कारण मशीनों का उपयोग बढ़ गया। खेती इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। फसल कटाई के मौसम में पहले इस कार्य में हर गांव के सैकड़ों श्रमिकों को रोजगार मिलता था, जो हार्वेस्टर की वजह से छिन गया। सरकार द्वारा तय किये गए वेतनमान अब उसी के गले पड़ रहे हैं। यही वजह है कि तृतीय-चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों की सेवाएं निजी क्षेत्र के माध्यम से ली जाने लगी हैं। सरकारी उपक्रमों में  अपने वाहन रखने की बजाए किराये की टैक्सी का चलन चल पड़ा है। इसके पीछे सोच ये है कि ड्राइवर के वेतन और वाहन के रखरखाव पर होने वाले खर्च की तुलना में किराए का वाहन सस्ता पड़ रहा है। कम्प्यूटर के आगमन के बाद भी देश में हाथ से काम करने वाले लाखों कामगार बेकार हो गए। चीन और भारत दोनों के सामने बड़ी आबादी का पेट भरने की समस्या थी। लेकिन चीन ने व्यवहारिक तरीके अपनाए और अपने देश की जरूरतों के अनुसार अपनी प्राथमिकताएं निर्धारित करते हुए हर हाथ को काम देने की नीति तो लागू की किन्तु उसके लिए वैसे कानून नहीं बनाए जैसे भारत में बनाकर रोजगार देने वाले को निरुत्साहित और प्रताडि़त किया गया। आज की स्थिति ये है कि सरकारी क्षेत्र तो रोजगार देने में लगातार पिछड़ रहा है और निजी क्षेत्र कानूनी झंझटों से परेशान है। बीते कुछ सालों में सरकार ने खुद ही संविदा जैसा फार्मूला निकालकर कम वेतन पर काम करवाने का रास्ता निकाला। शिक्षकों से शुरू होकर विश्वविद्यालयों तक में अतिथि शिक्षकों की प्रथा के पीछे उद्देश्य मोटी तनख्वाह के बोझ से बचना है। सरकारी विभागों में लाखों कर्मचारी दैनिक वेतनभोगी के रूप में दशकों से सेवारत हैं। हजारों ऐसे भी रहे जो बिना पक्के हुए ही सेवा निवृत्त हो गए। राहुल गांधी से यदि पूछा जाए कि इस वर्ग के लिए उनकी पिछली सरकारों ने क्या किया तो वे निरुत्तर होकर रह जाएंगे। हर राजनीतिक दल चुनाव में इस वर्ग को स्थायी करने का वायदा तो करता है किंतु सत्ता में आने के बाद उसे रद्दी की टोकरी में डाल देता है। न्याय योजना के संदर्भ में उठे कई सवालों पर  इस चुनाव में बहस होनी चाहिये। यदि वाकई कांग्रेस चाहती है कि देश के प्रत्येक परिवार की गुजर-बसर अच्छी तरह से हो और वह सम्मान के साथ रह सके तो उसे श्रम कानून में इस तरह के संशोधन करने का मुद्दा भी उठाना चाहिए जो भारतीय संदर्भ में कारगर हों और निजी क्षेत्र को परेशानी से बचाएं। न्यूनतम मजदूरी का सिद्धान्त अपने अपने आप में बहुत ही श्रेष्ठ है जो काम करने वाले को शोषण से बचाने के लिए बनाया गया लेकिन उसके कारण रोजगार यदि घट गया तब सभी दलों को मिल बैठकर इस बात पर विचार करना चाहिए कि इस विसंगति को कैसे दूर किया जाए। भारत में बीते कुछ दशक में बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपने कारखाने इसी वजह से लगाए थे कि यहां उनके देश की अपेक्षा श्रम सस्ता है। चीन में भी इसी कारण बड़े पैमाने पर पूंजी निवेश हुआ। लेकिन कटु सत्य ये भी है कि भारत में उद्योग-व्यापार करना दिन ब दिन कठिन होता जा रहा है। इसकी मुख्य वजह कानूनी पेचीदगियां हैं। न्याय योजना से भले ही तात्कालिक तौर पर 20-25 करोड़ लोग संतुष्ट हो जाएं किन्तु ये समस्या का स्थायी इलाज नहीं है। देश की बड़ी आबादी के कारण श्रमिकों की जो प्रचुरता है उसका उपयोग करने के लिए सरकार को श्रम कानून में यथोचित बदलाव करने होंगे। जिस तरह अधिक पैदावार से चीजें सस्ती होती हैं वही सिद्धान्त श्रम क्षेत्र में भी यदि लागू हो सके तो निजी क्षेत्र बड़ी मात्रा में रोजगार दे सकता है। काम को अधिकार बनाने की बातें तो बहुत होती हैं लेकिन उसे कर्तव्य बनाने की चर्चा कोई नहीं करता। ये बात गलत नहीं है कि हमारे देश में नौकरी का मतलब सरकारी नौकरी समझ लिए जाने से भी समस्या विकट हो गई।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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