Friday 29 March 2019

सियासत पहले भी होती थी लेकिन...

किसी एक दल से जुड़ा मुद्दा होता तब दोषारोपण आसान हो जाता लेकिन यहां तो स्नानागार में निर्वस्त्र होने से भी आगे बढ़ते हुए सड़कों पर मर्यादा रूपी वस्त्र त्यागकर निर्लज्जता का प्रदर्शन आम होता जा रहा है। देखने वाले भी आखिर आंखें मूदें तो भी कितनी देर क्योंकि ये सिलसिला रुकने का नाम ही नहीं ले रहा। न कोई सिद्धान्त है न ही नीति। केवल और केवल निजी स्वार्थ और अहं की संतुष्टि के लिए जिस घर के सामने से नहीं निकलने की कसमें खाई जाती रहीं उसी में जाकर बैठने का चलन जोरों पर है। बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि लेय वाली उक्ति से प्रेरित होकर जिस तरह से पाला बदलने की ख़बरें आ रही हैं उन्हें सियासत का व्यवसायीकरण भी कहा जा सकता है। एक पार्टी से टिकिट नहीं मिलने पर दूसरी में प्रवेश और आनन-फानन में उम्मीदवारी हासिल करने का चलन राजनीति की पहिचान बन चुका है। शत्रु पलक झपकते ही मित्र बन जाते हैं और बरसों की दोस्ती एक क्षण में शत्रुता का रूप ले लेती है। शर्म-लिहाज तो मानों गुजरे जमाने की बातें बनकर रह गई हैं। सिद्धान्तों और नीतियों को लेकर मतभेद कोई नई बात नहीं है। 1939 में जबलपुर के निकट त्रिपुरी के कांग्रेस अधिवेशन में महात्मा गांधी और सुभाष चंद्र बोस आमने-सामने आ गए। सुभाष बाबू ने बापू समर्थित पट्टाभि सीतारमैया को अध्यक्ष पद का चुनाव हरा दिया। दोनों के बीच मतभेद इस हद तक बढ़े कि श्री बोस को कांग्रेस छोडऩे पर मजबूर कर दिया गया। लेकिन उन्हीं सुभाष बाबू ने गांधी जी को राष्ट्रपिता जैसा संबोधन देकर साबित किया कि राजनीतिक मतभेदों के बाद भी उन नेताओं की सोच का स्तर कितना ऊंचा था। आज़ादी के बाद भी राजनीतिक मतभेदों के चलते नेताओं द्वारा पार्टी छोड़ी और तोड़ी गईं। कांग्रेस से ही निकलकर समाजवादी पार्टी बनी, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने स्वतंत्र पार्टी और डॉ. श्यामाप्रासाद मुखर्जी द्वारा जनसंघ की स्थापना की गई। इन सबके पीछे सैद्धांतिक मतभेद थे। चुनाव, हारने जीतने की बजाय अपनी नीतियों के प्रचार के उद्देश्य से लड़े जाते थे। डॉ. राममनोहर लोहिया और अटलबिहारी वाजपेयी जैसे नेता चाहते तो पं नेहरू के मन्त्रीमण्डल के सदस्य बनकर युवावस्था में ही सत्ता का सुख लूट सकते थे। सुप्रसिद्ध समाजवादी चिंतक आचार्य नरेन्द्रदेव के विरुद्ध कांग्रेस द्वारा प्रत्याशी उतारे जाने पर नेहरू जी ने नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा था कि उन जैसी विभूति तो निर्विरोध चुनी जानी चाहिए थी। समाजवादी आंदोलन की कई धाराएं बनीं, वामपंथी दल भी कई हिस्सों में बंटे, कांगे्रस भी कई विभाजनों के बाद आज के रूप में है लेकिन उसके बाद भी इतना सस्तापन नहीं दिखता था। लेकिन राजनीति का वह स्वर्णिम युग और संस्कार धीरे-धीरे मौत का शिकार होते चले गए। बीते कुछ समय से राजनीतिक जगत में जिस तरह का नजारा दिखाई देने लगा है वह हर उस व्यक्ति को दुखी कर रहा है जिसे देश और लोकतंत्र की चिंता है। चुनावी टिकिट के लिये अपनी विचारधारा को क्षण भर में त्यागकर पाला बदलने की प्रवृत्ति इतनी आम हो चली है कि समझ में नहीं आता कि निकट भविष्य में देश को चलाने वाले अपने निजी स्वार्थ के लिए किस हद तक गिर जाएंगे। जिस पार्टी और नेताओं के साथ जि़न्दगी का बड़ा हिस्सा गुजार दिया जाता है वही मात्र इस कारण जानी दुश्मन हो जाती है क्योंकि चुनावी टिकिट नहीं मिली। दूसरी पार्टियां भी ऐसे लोगों को बुलाकर सिर पर बिठाने में संकोच करतीं। पार्टी के भीतर मतभेदों से बढ़कर अब बात परिवार के भीतर राजनीति की वजह से टूटन के तौर पर सामने आने लगी है। सिद्धांतों पर सत्ता जिस तरह से हावी होती जा रही है वह देश में लोकतंत्र के बिगड़ते स्वरूप का संकेत है लेकिन उससे भी बढ़कर तो चिंता का कारण है क्योंकि क्षणिक राजनीतिक लाभ की खातिर स्वार्थी तत्वों को महत्व देना और राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा करने जैसी बातें खतरनाक हैं। इसके लिए किसी एक पार्टी या नेता को कठघरे में खड़ा करना न तो संभव है और  न ही उचित क्योंकि चाहे क्षेत्रीय हों या राष्ट्रीय दल, कमोबेश सभी ने किसी भी कीमत पर सत्ता हासिल करने को अपना उद्देश्य बना लिया है और इसके लिए सही-गलत कैसे भी तरीके अपनाने में उन्हें संकोच नहीं रहा। यही वजह है कि नेताओं को अभिनेताओं की जरुरत पडऩे लगी। 2019 का चुनाव भारतीय लोकतंत्र के भविष्य के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण हो चला है। इसलिए नहीं कि कौन सी पार्टी सत्ता में आयेगी और कौन प्रधानमंत्री बनेगा। बल्कि इसलिये कि सत्ता के खेल में लोकतांत्रिक मान-मर्यादा के साथ कैसा व्यवहार होता है? अटल जी ने संसद  में अपने एक प्रसिद्ध भाषण में कहा था कि सरकारें आएंगी-जाएंगी, पार्टियां बनेंगी-टूटेंगी लेकिन ये देश रहना चाहिए और इस देश का लोकतंत्र रहना चाहिए। आज उनके भाषण में व्यक्त चिंताएं अपने वीभत्स रूप में सामने आ गईं है। दुर्भाग्य से देश और लोकतंत्र के बारे में सोचने की फुरसत किसी को नहीं है। येन केन प्रकारेण चुनाव जीतना ही राजनीति का चरम उद्देश्य और जिताने की क्षमता नेतृत्व की कसौटी बन चुकी है। पहले तो कम से कम दिखावे के लिये ही सही सिद्धांतों की दुहाई दी जाती थी। लेकिन अब तो उसकी जरूरत भी नहीं समझी जाती।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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