Friday 15 March 2019

तो राहुल ही निडरता दिखा देते

संरासंघ सुरक्षा परिषद में पाकिस्तान के कुख्यात मसूद अजहर को अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवादी घोषित करने सम्बन्धी प्रस्ताव को एक को छोड़कर सभी स्थायी और अस्थायी सदस्यों का समर्थन मिलना छोटी बात नहीं थी । हालांकि चीन के वीटो की वजह से वह पारित नहीं हो सका किन्तु इससे भारत को जबरदस्त ताकत मिली। आतंकवाद के विरुद्ध भारत के पक्ष को इतना अभूतपूर्व समर्थन इसके पहले शायद ही कभी मिला होगा । चीन के वीटो पर अमेरिका सहित अन्य देशों ने जो प्रतिक्रिया व्यक्त की वह भी उत्साहवर्धक है । भारत में भी चीन के रवैये के विरुद्ध जन आक्रोश खुलकर सामने आया है। लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने जिस तरह से ट्विटर पर प्रधानमंत्री के चीन  से डर जाने जैसी टिप्पणी के जरिये वहां के राष्ट्रपति के साथ नरेंद्र मोदी की पिछली मुलाकातों का जिक्र करते हुए जैसे कटाक्ष किये वे केवल विरोध के लिए विरोध ही कहे जाएंगे। विपक्ष के नेता होने की वजह से श्री गांधी की तरफ  से सरकार की विफलता पर आलोचनात्मक टिप्पणी अस्वाभाविक तो नहीं कही जा सकती और फिर चुनाव के मौसम में विरोधी दल सरकार पर चढ़ बैठने का कोई अवसर वैसे भी नहीं गंवाते। लेकिन श्री गांधी ने जिस बात पर प्रधानमंत्री को घेरा वह न केवल अनावश्यक अपितु अनुचित भी थी। कूटनीतिक मामलों में कोई भी टिप्पणी करने के पहले बहुत सोच - विचार किया जाता है क्योंकि उसके परिणाम केवल दो देशों तक सीमित न रहते हुए वैश्विक स्तर की राजनीति पर असर डालते हैं। भारत की तरफ से जो कहा जाना चाहिए था वह अपेक्षित तरीके से कह दिया गया। चूंकि चीन ने भी तकनीकी कारण बताकऱ अजहर पर प्रतिबंध लगाने में अड़ंगा लगाया इसलिए भारत द्वारा आगे भी प्रयास जारी रखे जाने की बात कही गई जबकि प्रस्तावक देशों ने तो चीन को एक तरह से चेतावनी तक दे डाली। रही बात श्री मोदी के चीन से डरकर कोई बयान नहीं  देने की तो श्री गांधी भूल गए होंगे कि डोकलाम  विवाद के समय भी उनकी पार्टी ने संसद के बाहर और भीतर ऐसी ही बातें कही थीं किन्तु पूरी दुनिया ने देखा कि चीन की तरफ  से की गई भड़काऊ कार्रवाई के बावजूद भारत ने धैर्य के साथ परिस्थितियों के अनुकूल व्यवहार किया तथा सैन्य दृष्टि से भी पूरी मुस्तैदी दिखाते हुए चीनी दबाव को बेअसर कर दिया। उसके बावजूद बीजिंग के साथ संबंधों में तनाव पैदा नहीं हुआ। स्मरणीय है डोकलाम में जब दोनों देशों के बीच जबर्दस्त रस्साकशी चल रही थी तब श्री गांधी अचानक नई दिल्ली स्थित चीन के दूतावास गए और वहां के राजदूत से मिलकर स्थिति की जानकारी भी ली। विदेशी राजनयिकों से राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि मिलते रहते हैं। दूतावासों में आयोजित कार्यक्रमों में भी शिरकत करते हैं। ऐसे मौकों पर पत्रकार, अभिनेता, कलाकार, उद्योगपति वगैरह को भी बुलाया जाता है। उस दृष्टि से श्री गांधी का चीन के राजदूत से मिलना सामान्य बात थी किन्तु उसका समय चूंकि असामान्य था इसलिए ये अपेक्षित था कि वे उस मुलाकात के बारे में सरकार को जानकारी देते जो एक सामान्य शिष्टाचार ही नहीं अपितु दायित्वबोध का भी परिचायक होता है। लेकिन श्री गांधी ने ऐसा कुछ भी नहीं किया। उनकी पार्टी केंद्र सरकार पर तरह-तरह के आरोप लगाती रही लेकिन न श्री गाँधी और न ही किसी अन्य कांग्रेसी नेता ने डोकलाम में चीन द्वारा की गई हरकत की आलोचना करने का साहस दिखाया। मौजूदा विवाद में श्री गांधी ने प्रधानमंत्री पर डर के मारे चुप रहने का आरोप तो लगा दिया किन्तु उनने या अन्य किसी कांग्रेस नेता ने क्या चीन द्वारा अजहर पर प्रतिबंध के प्रस्ताव को वीटो करने के लिए चीन की आलोचना की? पता नहीं श्री गांधी को स्मरण भी है या नहीं कि उनके सांसद बनने के बहुत पहले भारत की संसद एकमत से चीन के कब्जे वाली हजारों वर्ग किलोमीटर जमीन खाली करवाने का संकल्प पारित कर चुकी थी। 2004 से 2014 तक केंद्र में  यूपीए की जो सरकार रही उसमें प्रधानमंत्री से लेकर सारे प्रमुख विभाग कांग्रेस के पास थे। ये कहना भी गलत नहीं होगा कि गांधी परिवार एक तरह से उस सरकार का अभिभावक जैसा था। श्री गांधी को इस बात का खुलासा करना चाहिए कि उस दौरान चीन से कितनी बार ऊंची आवाज में बात करने का साहस दिखाया गया। 1962 के युद्ध में गंवाई गई जमीन वापिस लेने के लिए किए गए कूटनीतिक या सैनिक प्रयासों के बारे में भी उन्हें देश को बताना चाहिये। लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया और न ही करने की स्थिति में हैं क्योंकि चीन के साथ भारत के जो रिश्ते पंडित नेहरू के जमाने में बिगड़े वे वैसे ही चले आ रहे हैं। पकिस्तान के दो टुकड़े करवाने जैसा दुस्साहस करने वाली इंदिरा गांधी ने भी चीन से टकराने की हिम्मत नहीं दिखाई लेकिन इसे लेकर तत्कालीन विपक्ष ने कभी कांग्रेस के प्रधानमंत्री या सरकार को कठघरे में नहीं खड़ा किया क्योंकि ये बात किसी से छिपी नहीं है कि चीन से अपनी जमीन वापिस लेना फिलहाल तो असम्भव ही है। सैन्य दृष्टि से मनमोहन सरकार ने देश को कितने पीछे कर दिया ये सर्वविदित है। मोदी सरकार के आने के बाद सैन्य सामग्री खरीदने की प्रक्रिया तेज होने के अलावा चीन से सटी सीमा पर सड़कें और हवाई पट्टी बनाने के काम में तेजी आई। मिसाइलें और आधुनिक अस्त्र शस्त्र भी सेना को उपलब्ध करवाए जा चुके हैं। यही वजह रही कि डोकलाम विवाद के दौरान चीन की धमकियों के सामने भारत ने घुटने टेकने की बजाय दो - दो हाथ करने की हिम्मत दिखाई जिससे चीन का आक्रामक रुख कमजोर पड़ गया। जहाँ तक मौजूदा हालात में चीन के रवैये का सवाल है तो श्री गांधी को इस बात की प्रशंसा करना चाहिये कि पुलवामा के बाद जब भारत ने बालाकोट में हवाई सर्जिकल स्ट्राइक की तब चीन ने बजाय पाकिस्तान की तरफदारी करने के तटस्थता दिखाई और दोनों देशों से शांति की अपील की। पाकिस्तान चाह रहा था कि चीन उसके साथ खड़ा हो लेकिन उसे निराशा हाथ लगी। ऐसे में ये कह देना कि प्रधानमंत्री डर गए पूरी तरह से बचकाना बयान है। श्री गांधी चुनावी मूड में  होने से प्रधानमंत्री की जी भरकर आलोचना करें किन्तु जहां देश की प्रतिष्ठा का सवाल हो वहां उन्हें क्षणिक राजनीतिक लाभ से परहेज करना चाहिए। और बात साहस दिखाने की है तो यदि श्री गांधी जनभावनाओं के अनुरूप सरकार से चीनी सामान के आयात पर मान्य तरीकों से रोक लगाने की मांग करते तब उनका पूरा देश स्वागत करता। बालाकोट के सबूत मांगने से हुए नुकसान के बाद भी यदि श्री गांधी को समझ नहीं आई तो फिर कोई कर ही क्या सकता है लेकिन उनके इस तरह के बयानों से कांग्रेस को कोई फायदा नहीं होता ये उन्हें जानना जरूरी है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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