Saturday 29 April 2023




सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य सरकारों को निर्देश दिया है कि वे घृणा फ़ैलाने वाले भाषणों (हेट स्पीच) के विरुद्ध बिना किसी शिकायत के ही मामला दर्ज करें , जिसमें देरी करने को अदालत की अवमानना समझा जायेगा | न्यायालय ने धर्म के नाम पर होने वाली जहरीली बयानबाजी पर चिंता भी जताई | घृणा फैलाने वाले भाषण किसी भी सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं हो सकते | विशेष रूप से भारत जैसे देश में जहां सभी धर्मों को बराबरी से फलने – फूलने का अधिकार है और हर व्यक्ति अपनी पसंद की पूजा पद्धति अपना सकता है | दरअसल बीते कुछ वर्षों से ये देखने में आया है कि राजनीतिक और धार्मिक मंचों से इस तरह के भाषण दिए जाने लगे हैं जिनमें अन्य किसी धर्म के बारे में आपत्तिजनक और उत्तेजना फ़ैलाने वाली बातें कही जाती हैं | उस दृष्टि से सर्वोच्च न्यायालय का निर्देश समयानुकूल है किन्तु उसका पालन करते समय ये देखना भी जरूरी है कि सम्बंधित राज्य सरकार घृणा फैलाने का आधार क्या तय करती है ?  चूंकि हमारे देश में धर्म निरपेक्षता भी राजनीतिक लिहाज से परिभाषित होती है इसलिए एक भाषण जो राजस्थान में घृणा फ़ैलाने वाला माना जाए उसे म.प्र की सरकार सामान्य माने तब क्या होगा ? और फिर सर्वोच्च न्यायालय का निर्देश केवल सार्वजनिक मंचों से दिये जाने वाले भाषणों के इर्द गिर्द ही सीमित रहेगा जबकि असली घृणा तो उन धर्मस्थलों में होने वाले भाषणों से फैलती है जो न समाचार माध्यमों की नजर में आते हैं ,  न ही पुलिस और प्रशासन के | उसके बावजूद भी उसके निर्देश स्वागत  योग्य हैं  क्योंकि सार्वजनिक तौर पर कतिपय नेता और धर्मगुरु जिस तरह की शब्दावली का इस्तेमाल करते हैं वह निश्चित रूप से तनाव और विवाद का कारण बनती है | सर्वोच्च न्यायालय ने इस बारे में स्व. जवाहर लाल नेहरु और स्व. अटल बिहारी वाजपेयी का उल्लेख किया जिनका भाषण सुनने दूर – दूर से जनता आती थी और कभी भी उन्होंने ऐसी कोई बात नहीं कही जिसमें शालीनता का अभाव हो या  किसी अन्य की भावनाओं को ठेस पहुँची | राजनेता तो घृणा फ़ैलाने वाले भाषण देकर चुनावी लाभ ले लेते हैं किन्तु धार्मिक विभूतियों द्वारा अन्य धर्म के बारे में जहरीली टिप्पणी करना शोभा नहीं देता | लेकिन इस बारे में  ध्यान देने वाली बात ये है कि कुछ  धर्माचार्य परकोटे के भीतर अपने कुनबे को जमा कर जो जहर फैलाते हैं वह चूंकि सार्वजनिक तौर पर अनसुना  रह जाता है इसलिए उस पर कार्रवाई करना असंभव है | और असली समस्या यही है | चूंकि राजनीतिक विमर्श में भी अब पहले जैसी सौजन्यता नहीं रही इसलिए भाषणों और वार्तालाप का स्तर लगातार गिरता चला जा रहा है | ये कहना गलत न  होगा कि देश की संसद से ये बुराई फ़ैल रही है जहां अब सत्ता पक्ष और विपक्ष के किसी भी सदस्य का भाषण प्रभावित नहीं करता | इसीलिये अदालत ने पंडित नेहरु और अटल जी के नाम का उल्लेख कर ये जताने की कोशिश की है कि सार्वजानिक मंचों से कही जाने वाली बातों में गरिमा होनी चाहिये | देश में अनेक धर्मगुरु भी ऐसे हैं जो आक्रामक शैली का प्रवचन देकर अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा व्यक्त  करते रहते हैं | उनकी उपयोगिता उनके आध्यात्मिक ज्ञान से अधिक उनके उत्तेजक प्रवचनों पर तय होती है | हालांकि  सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के बाद भी घृणा फ़ैलाने वाली तक़रीर के विरुद्ध मामला दर्ज करने में राजनीतिक भेदभाव होने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता | मसलन प. बंगाल और केरल की सरकारों का जो रवैया है उसे देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश का दुरूपयोग होना तय है | आजकल राजनीति में बदले की भावना जिस तेजी से बढ़ती जा रही है  उसके मद्देनजर घृणा फैलाने वाले भाषण पर कार्रवाई  विद्वेष से प्रभावित होने की सम्भावना बनी रहेगी | उस दृष्टि से सर्वोच्च  न्यायालय का निर्देश नई समस्या भी पैदा कर सकता है | ये देखते हुए  घृणा फ़ैलाने वाले भाषण और प्रवचन रोकने के लिए राजनीतिक दलों और धर्माचार्यों को अपनी तरफ से आचार संहिता बनानी चाहिए | यदि किसी दल का नेता सार्वजनिक मंच से घृणा  फ़ैलाने वाली बात कहे तो दलीय स्तर पर ही उसके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई होनी चाहिए क्योंकि उन बातों से अंततः उस दल की छवि भी खराब होती है | इसी तरह धार्मिक मंचों से उत्तेजना फ़ैलाने वाले प्रवचन देने वालों की संत समाज को आगे आकर  निंदा करनी चाहिए क्योंकि समाज में सौहार्द्र का वातावरण अकेले कानून के बल पर नहीं बनाया जा सकता | उसके लिए आत्मानुशासन की जरूरत है जो दुर्भाग्य से आजकल कम ही नजर आता है | इसके लिए हमारी राजनीतिक संस्कृति भी काफी हद तक जिम्मेदार है | हाल ही में उ.प्र और बिहार में कुछ राजनेताओं ने रामचरित मानस पर जो विवाद पैदा किया उसके पीछे भी विशुद्ध राजनीतिक लाभ लेने की मंशा थी | एक ज़माने में बसपा की ओर से सवर्ण जातियों के प्रति जिस तरह के नारे दीवारों पर लिखे जाते थे उनका उद्देश्य भी दलित मतों का ध्रुवीकरण करना था | इसी तरह मनुस्मृति को जलाने जैसी हरकतों का मकसद  भी घृणा फैलाकर अपना राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध करना है | कुल मिलाकर बात ये है कि राजनीतिक पार्टियाँ अपने नेताओं और धर्माचार्य अपने धर्म के बारे में जितने सम्वेदनशील होते हैं उतना ही सम्मान दूसरे नेताओं और धार्मिक विभूतियों का भी होना चाहिए | किसी सिरफिरे की आपत्तिजनक बातों पर सिर तन से जुदा जैसी बातें करने वाले मानसिक रोगी होते हैं इसलिए उनकी बातों को किसी धर्म विशेष से जोड़ने की बजाय देश विरोधी मानसिकता मानकर सामूहिक तौर पर उसका विरोध किया जाना चाहिए | इसी तरह किसी राजनेता द्वारा अन्य नेता या पार्टी के प्रति अशोभनीय बात कही जाने पर उसकी पार्टी ही उसकी खिंचाई करे तो राजनीतिक वातावरण शुद्ध हो सकता है | इसलिए सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के अलावा ये समाज का भी दायित्व है कि वह घृणा  फ़ैलाने के किसी भी प्रयास की राजनीतिक और धार्मिक सीमाओं से ऊपर उठकर निंदा करते हुए दोषी व्यक्ति का बहिष्कार करे क्योंकि मुट्ठी भर लोगों को देश का माहौल खराब करने की छूट नहीं दी जा सकती |

-रवीन्द्र वाजपेयी 


Friday 28 April 2023

चुनाव के नाम पर चल रही डिस्काऊंट सेल



कर्नाटक में विधानसभा चुनाव के लिए दो सप्ताह से भी कम समय बचा है | मुख्य मुकाबला भाजपा , कांग्रेस और जनता दल (से) के बीच है | बचे हुए समय में इन दलों के बड़े – बड़े महारथी मैदान में कूद पड़े हैं  और मतदाताओं को लुभाने के लिए वायदों की झालर जगह – जगह लटकी  दिखाई दे रही है |  कोई एक रुपया देने की बात करता है तो दूसरा सवा रुपैया लेकर खड़ा हो जाता है | राष्ट्रवाद और  धर्म निरपेक्षता जैसे मूलभूत मुद्दे पृष्ठभूमि में जा चुके हैं  | भ्रष्टाचार के आरोपों से भी मतदाता प्रभावित नहीं होते क्योंकि जिस पार्टी को बेईमान कहकर लांछित किया जाता है उसी के नेता को अपने कुनबे में शामिल करने में किसी को परहेज नहीं है | जाति जरूर चुनाव दर चुनाव महत्वपूर्ण औजार बनने लगी है जिसके आगे धार्मिक ध्रुवीकरण भी कमजोर पड़ जाता है | लेकिन सबसे ज्यादा धूम रहती है मुफ्त उपहारों की | कर्नाटक के चुनाव तो सिर पर आ चुके हैं लेकिन तेलंगाना , राजस्थान , छत्तीसगढ़ और म.प्र जैसे राज्यों में महीनों बाद होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर अभी से चुनावी  डिस्काऊंट सेल सजने लगी हैं | पहले से कर्ज के बोझ में दबे राज्यों की सरकार में बैठे लोग ऐसे – ऐसे वायदे किये जा रहे हैं जिनको पूरा करने में समूचे अर्थतंत्र की कमर टूट जायेगी | लेकिन मतदाता को इससे कोई ऐतराज नहीं है | वह तो बाजार में खड़े उपभोक्ता की तरह होकर रह गया है | उसे जिस  दुकान के  डिस्काऊंट सेल के में ज्यादा फायदा नजर आता है वह उसी की तरफ आकर्षित हो जाता है | और हो भी क्यों न , क्योंकि जब राजनेताओं का एकमात्र मकसद येन केन प्रकारेण सत्ता हासिल कर अपना घर भरना रह गया है तब बेचारे मतदाता से ही क्यों लोभ – लालच से ऊपर उठकर फैसला करने की उम्मीद की जाए | ये सिलसिला भारतीय राजनीति का स्थायी गुण बनता जा रहा है | किसी पार्टी और उसके नेता की नीतियाँ और कार्यप्रणाली उतनी महत्वपूर्ण नहीं रही जितनी चुनाव जीतने के क्षमता है | यही वजह है की अतीक अहमद और मुख्तार अंसारी जैसे लोग विधायक और सांसद बनने में कामयाब होते रहे हैं | प्रश्न ये है कि चुनाव के समय ही गाँव , गरीब , दलित , पिछड़े , किसान और मजदूर क्यों याद आते हैं | इसी समय ये ध्यान आता है कि महिलाओं के पास हाथ खर्च के लिए पैसे की किल्लत रहती है | विद्यालय जाने वाले छात्र – छात्राओं को सायकिल और स्कूटी की दरकार है |युवाओं को  मोबाइल , टैबलेट और लेपटॉप की जरूरत भी सबसे ज्यादा चुनाव के दौरान ही महसूस की जाती है | बीते पांच साल में घरेलू महिलाओं को रसोई गैस महंगी मिलने जैसे एहसास भी सत्ताधारियों को तभी होते हैं जब चुनाव की घंटी बज उठती है | कहने का आशय ये है कि बाजारवाद और उपभोक्तावाद ने केवल आर्थिक गतिविधियों को ही नहीं वरन समूची राजनीतिक संस्कृति पर कब्जा जमा लिया है | और इस वजह से राजनीतिक दलों की सैद्धांतिक पहिचान नष्ट हो गयी है | पहले किसी नेता का व्यक्तित्व उसकी विचारधारा से प्रेरित और प्रभावित होता था | लेकिन अब जाति और मुफ्त उपहार उसकी छवि से जुड़ गए हैं | जिन राजनीतिक दलों ने जाति प्रथा मिटाकर समतामूलक समाज की स्थापना का बीड़ा उठाया था , आज वे ही नई – नई जातियों की खोज करने में जुटे हैं | नेताओं के दलबदल के पीछे भी अब जातीय उपेक्षा को कारण बताया जाता है | सवाल ये है कि यह विकृति किस कारण से आई और इसका सीधा जवाब है देश में कभी न खत्म होने वाले चुनाव | पूरे पांच साल तक कहीं न कहीं चुनाव होने से न सिर्फ राजनीतिक दल और  सम्बन्धित राज्य की सरकार , बल्कि केंद्र सरकार भी सब काम छोड़कर उसमें उलझ जाती है | इस कारण नीतिगत ठहराव की समस्या उत्पन्न होने लगी गई | मसलन एक राजनीतिक दल अलग – अलग राज्यों में भिन्न आर्थिक और नीतियां और कार्यक्रम अपनाने बाध्य होता है | उदाहरण के लिये गुजरात में शराब बंदी होने के बाद भी भाजपा शसित बाकी राज्य इससे बचते हैं क्योंकि शराब उनकी कमाई का मुख्य स्रोत है | अन्य विषयों में भी ये बात देखने मिलती है | इसके चलते क्षेत्रीय दल भी लगातार  ताकतवर होते जा रहे हैं क्योंकि उनकी दृष्टि केवल उनके राज्य तक ही सीमित है | और उनके दबाव की वजह से राष्ट्रीय दलों को भी ऐसे फैसले लेने पड़ते हैं जिनका दूरगामी  असर राष्ट्रहित में नहीं है | इस बारे में चिंता का विषय ये है कि राजनीतिक दल , चुनाव आयोग और सर्वोच्च न्यायालय समय – समय पर चुनव सुधार की बात तो करते हैं लेकिन एक देश एक चुनाव जैसे अति महत्वपूर्ण मुद्दे पर बात कारने की फुर्सत किसी को नहीं है | हालाँकि इस बारे में किसी भी निर्णय  पर पहुँचने के पहले ढेर सारी व्यावहारिक और वैधानिक परेशानियाँ सामने आयेंगीं किन्तु कभी न कभी तो ऐसा करना ही होगा | अन्यथा चुनाव प्रणाली में  जटिलता बढ़ने के साथ ही संघीय ढांचे को भी नुकसान होने की आशंका है जिसके संकेत काफी कुछ तो सामने आने भी लगे हैं | लेकिन इस बारे में दुर्भाग्यपूर्ण बात ये है कि  राष्ट्रीय दलों के बीच ही इस बारे में सहमति नहीं है | चुनाव आयोग भी ऐसे मुद्दों से पल्ला झाड़कर गेंद संसद और सर्वोच्च न्यायालय के पाले में सरका देता है | लेकिन सर्वोच्च न्यायालय और संसद की प्राथमिकतायें भी उनकी अपनी पसंद की होने से राष्ट्रीय महत्व  का ये विषय उपेक्षित रह जाता है |सही बात तो ये है कि पूरे पांच साल चलने वाले चुनाव बेमौसम बरसात की तरह है जिससे फायदा कम नुकसान ज्यादा होता है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Thursday 27 April 2023

नक्सलियों द्वारा की जाने वाली हत्याओं पर हाय तौबा क्यों नहीं मचती



गत दिवस छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में माओवादियों या नक्सलियों ने सुरक्षा बलों के एक वाहन को विस्फोटक से उड़ा दिया जिसमें 10 जवान और वाहन  चालक मारे गए | ये पहला मौका नहीं है जब चीन की शह पर भारत को अंदर से कमजोर करने और देश में गृहयुद्ध के हालात बनाने की मंशा पालकर बैठे माओवादियों ने इस तरह निर्दोष जवानों की नृशंस हत्या की हो | समय – समय पर इस तरह से वे खून की होली खेलते रहते हैं | प्रत्येक घटना के बाद राज्य और केंद्र सरकार के बयान आते हैं जिनमें देश के इन दुश्मनों के विरुद्ध निर्णायक लड़ाई छेड़ने की डीगें हांकी जाती है और फिर अगली घटना तक सब शांत हो जाता है | माओवादी केवल सुरक्षा बलों को ही निशाना नहीं बनाते बल्कि हर उस व्यक्ति की निर्दयतापूर्वक हत्या कर डालते हैं जो इनकी नजर में सरकार का वफादार है | चूंकि इनका कार्यक्षेत्र घने जंगल होते हैं इसलिए इनको पकड़ना कठिन होता है | और फिर छत्तीसगढ़ के जिस इलाके में इनकी गतिविधियां हैं वह उड़ीसा , झारखंड , महाराष्ट्र और तेलंगाना से सटा होने से ये वारदात के बाद उन राज्यों में चले जाते हैं | लेकिन ये तभी संभव हो पाता है जब स्थानीय आदिवासी जनता इनको संरक्षण और सहयोग देती है | और ऐसा करना उनकी मजबूरी है क्योंकि जिस किसी पर भी इन्हें शक हो जाये कि वह इनके बारे में पुलिस या अन्य किसी सरकारी एजेंसी को खबर कर सकता है , उसकी जान ये सबके सामने लेकर आतंक का माहौल बना देते हैं | हत्या करने के लिए केवल बन्दूक का प्रयोग ही ये नहीं करते अपितु गर्दन काटने की हद तक चले जाते हैं | चूंकि आदिवासी समुदाय के पास इनसे बचाव के साधन नहीं हैं और पुलिस तथा अन्य सुरक्षा बल भी हर समय और हर जगह उनकी हिफाजत के लिए मौजूद नहीं रह सकते इसलिए उन्हें मजबूरन नक्सलियों से डरकर रहना होता है | ये भी कहा जा सकता है कि नक्सल प्रभावित इलाकों में रहने वाले ग्रामीण जन दोहरे दबाव में रहते हैं | माओवादी और सुरक्षा बल दोनों को उन्हें संतुष्ट रखना होता है | इसमें दो मत नहीं है कि नक्सलवाद के नाम पर भारत में खूनी क्रांति के जरिये साम्यवादी सत्ता कायम करने की  जो कार्ययोजना चीन ने सत्तर के दशक में बनाई थी उसका विस्तार प.बंगाल से बाहर भी अनेक राज्यों तक किया जा चुका  है,  जिनमें छत्तीसगढ़ का बस्तर काफ़ी मह्त्वपूर्ण है | इस बारे में ध्यान देने वाली बात ये है कि नक्सली ज्यादतर उन इलाकों में सक्रिय रहते हैं जहां खनिज हैं | इन क्षेत्रों में खनन का व्यवसाय करने वालों से वसूली इनकी आय का साधन होता है | आजकल महिलाएं भी माओवादी गुटों में शामिल हो रही हैं और देश के अनेक राज्यों के कुछ इलाकों में इनकी समानांतर सत्ता कायम है | लेकिन इसके आलावा भी एक वर्ग है जो न तो जंगलों में छिपा रहता है और न हथियार उठाता है | लेकिन माओवादी सोच को वैचारिक आधार देने के लिए ये समाज के विभिन्न वर्गों में रहकर व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह की भावना  फ़ैलाने का काम करता है | खुद को जनवादी कहने वाले ये लोग बुद्धिजीवी की शक्ल में वामपंथी विचारधारा के प्रसार के लिए सक्रिय रहते हैं | और इसीलिये इनके विरुद्ध शहरी नक्सली जैसा शब्द उपयोग किया जाता है | इनमें से अनेक माओवादियों की सहायता करने के आरोप में पकड़े भी जाते हैं | लेकिन उनमें से ज्यादतार सबूतों के अभाव में छूट जाते हैं | देश में माओवाद की जड़ें सींचने का काम यही शहरी वर्ग करता है जो साहित्यकार , शिक्षक , चित्रकार और पत्रकार की भूमिका में रहते हुए परोक्ष रूप से नक्सलवादियों के प्रति सहानुभूति उत्पन्न करने के काम में लगा है | यही वजह है कि माओवादी हिंसा की बड़ी – बड़ी घटनाओं पर भी उतना हल्ला नहीं मचता जितना असद और अतीक जैसे अपराधियों के मारे जाने पर सुनाई देता है | बीते कुछ दिनों  से देश के तमाम राजनेता , सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक , पत्रकार और विधि जगत से जुड़े चर्चित लोग अतीक और उसके परिजनों की मौत का मातम मानते हुए ये माहौल बना रहे हैं कि देश में संविधान खत्म हो गया है और किसी की भी जान सुरक्षित नहीं है | सरकार पर अपराधियों को दण्डित करने के अदालत के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण करने का आरोप भी चारों  तरफ सुनाई दे रहा है | लेकिन जब भी नक्सली इस तरह का नरसंहार करते हैं तब उनकी आलोचना करने वालों में ये वर्ग नजर नहीं आता जिसे दिन रात संविधान और उससे जुड़ी संस्थाओं की चिंता सताया करती है। होना तो ये चाहिए था कि पूरे देश में पक्ष - विपक्ष से ये आवाज आती कि देश को अस्थिर करने वाले इन माओवादियों को समूल नष्ट करने हेतु सुरक्षा बलों को खुली छूट दी जाए। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और न होने की उम्मीद है क्योंकि सहिष्णुता की राग अलापने वाले ज्यादातर लोगों की संवेदना तभी जागृत होती है जब कोई आतंकवादी या अपराधी मारा जाता है। देश के साथ गद्दारी करने वालों की फांसी रुकवाने के लिए जो तबका आधी रात को सर्वोच्च न्यायालय खुलवा देता है उसे माओवादी हिंसा की आलोचना करने की याद नहीं रहती। सीताराम येचुरी जैसे वामपंथी नेता नेपाल में माओवादी हिंसा से उत्पन्न स्थितियों में मध्यस्थता करवाने भागे - भागे जाते हैं लेकिन नक्सलियों को समझाकर समाज की मुख्य धारा में वापस आने के लिए प्रेरित करने का वक्त उनके पास नहीं है। ऐसा लगता है माओवादियों को जड़ से उखाड़ने का समय आ गया है। केंद्र और नक्सल प्रभावित राज्यों की सरकारों को  संयुक्त अभियान छेड़कर  हिंसा के जरिए देश को तोड़ने वाले चीन द्वारा पालित - पोषित इन माओवादियों को उन्हीं की भाषा में समझाना समय की मांग है। जब भी ये अभियान शुरू होगा तब सड़क से संसद और सर्वोच्च न्यायालय तक रूदाली गैंग छाती पीटेगी किंतु ऐसे मामलों में चुनावी राजनीति से ऊपर उठकर सोचने और कदम उठाने की जरूरत है। 

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Wednesday 26 April 2023

तीर्थयात्रा को मौज मस्ती बनने से रोकने धर्माचार्य आगे आयें



उत्तराखंड में सनातन धर्म से जुड़े अनेकानेक पवित्र धार्मिक स्थल हैं , जिनका सम्बन्ध पौराणिक काल से है | इसीलिये इसे देवभूमि भी कहा जाता है | गंगा और यमुना जैसी पवित्र नदियों का उद्गम होने से यह अंचल विश्व भर में बसे सनातनी लोगों की श्रृद्धा का केंद्र है | गढ़वाल नामक इस क्षेत्र का हर स्थान अपने आप में किसी न किसी विशिष्टता को समेटे हुए है | लेकिन बद्रीनाथ , केदारनाथ , गंगोत्री और यमुनोत्री रूपी चार धाम सदियों से तीर्थयात्रियों को आकर्षित करते रहे हैं | सर्दियों में बर्फबारी के कारण इन धामों को यात्रियों के लिए बंद कर दिया जाता है और फिर गर्मियों की शुरुआत में अक्षय तृतीया से इनके कपाट दीपावली तक खुले रहते हैं  | इस दौरान लाखों तीर्थयात्री चार धाम यात्रा पर आते हैं | एक समय था जब ऋषिकेश से पैदल जाने के कारण यात्रा बेहद कठिन  होती थी | उसमें जाने वाले अधिकतर लोग अपनी सांसारिक जिम्मेदारिययों को पूरा करने के बाद पुण्य लाभ हेतु आते थे | पूरे रास्ते में ठहरने के लिए स्थानीय जनों के लकड़ी से बने घर होते थे | पूरा सफर बेहद  कष्टसाध्य था किन्तु आस्था के वशीभूत लोग फिर भी आते थे | पहले बद्रीनाथ और केदारनाथ ही सबसे पसंदीदा धाम थे | लेकिन धीरे – धीरे गंगोत्री और यमुनोत्री भी तीर्थयात्रियों की पसंद बनते गए | यह यात्रा गढ़वाल इलाके की अर्थव्यवस्था का आधार है | इसलिए राज्य और केंद्र सरकार ने इसे सरल और सुगम बनाने के लिये काफी काम किये | सबसे बड़ा तो सड़कों का विकास है | आज चार धाम यात्रा के लिए लोग अपने निजी वाहनों से भी आसानी से चले जाते हैं | टैक्सी भी बड़ी संख्या में उपलब्ध हैं | इसके अलावा ठहरने के लिए रास्ते भर होटल और  गेस्ट हाउस आदि हैं | गढ़वाल विकास मंडल ने भी पर्यटकों  के लिए आकर्षक पैकेज निकाले हुए हैं | हालाँकि 1962 के चीनी  हमले के बाद से ही इस इलाके में सड़कों  का निर्माण  शुरू हो गया था किन्तु बीते एक दशक में तो जिस तरह से यहाँ अधो संरचना का विकास हुआ उसकी वजह से यातायात बेहद सुलभ हो गया | इसके कारण अब तो सर्दियों तक में यात्री यहाँ प्रकृति के साक्षात्कार के साथ रोमांच का अनुभव करने आने लगे हैं | लेकिन इसकी वजह से प्राकृतिक संरचना को जो नुकसान हुआ वह खतरनाक स्तर तक जा पहुंचा है | भूस्खलन , भूकंप , हिमनदों का पिघलना जैसी आपदाएं जल्दी – जल्दी आने लगीं | कुछ समय पहले जोशीमठ में जिस तरह जमीन धसकी उसने नए खतरों की चेतावनी दे डाली | इन सबके पीछे मुख्य कारण  प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ना ही है | इसके बारे में पर्यावरणविद लंबे समय से चेताते रहे लेकिन किसी ने नहीं सुनी | वृक्षों का कत्ले आम होते रहा और पहाड़ों का सीना चीरकर सड़कें , पुल , पन बिजली योजनाएं जैसे कार्य हुए | टिहरी बाँध को भी पर्यावरण के लिए नुकसानदेह माना जाता है | लेकिन सरकार और जनता सभी ने इस बारे में अव्वल दर्जे की लापरवाही दिखाई , जिसका दुष्परिणाम सामने है | इस चर्चा का संदर्भ गत दिवस केदारनाथ मंदिर के कपाट खुलने के समय उपस्थित श्रृद्धालुओं की भीड़ से है | बारिश और बर्फबारी के बावजूद मंदिर प्रांगण में सात से आठ हजार दर्शनार्थी मौजूद थे | ये संख्या अब लगातार बढ़ती जायेगी और मई – जून में तो यात्रा मार्ग में लोग ही लोग नजर आयेंगे  | इसके चलते वहां यातायात जाम होने के अलावा पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचता है | खच्चरों से यात्रियों की आवाजाही समूचे मार्ग में गंदगी फैला देती है | साल दर साल इस बारे में बातें होती हैं किन्तु सुधार के नाम पर ले देकर शून्य ही रहता है | केदारनाथ में कुछ साल पहले हुए  जल प्रलय  के कारण  जन धन की  बड़ी क्षति हुई किन्तु जैसे ही हालात सामान्य हुए यात्रियों की आवाजाही पूर्ववत हो गयी | धर्म के प्रति आस्था के अलावा तीर्थ यात्राएं देशाटन और राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से काफ़ी महत्वपूर्ण हैं | इस दौरान भाषा और प्रांत के भेदभाव मिट जाते हैं | कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है के नारे की  सार्थकता सिद्ध करने में इन यात्राओं का योगदान किसी से छिपा नहीं है | लेकिन बीते कुछ दशकों में  बाजारवाद की छाया पड़ने से इनके साथ जुड़ीं भावनाएं भी बदलने लगी हैं | जिसके कारण इन्होंने धार्मिक पर्यटन का रूप ले लिया है | हालाँकि  इनके कारण  स्थानीय व्यापार भी बढ़ा है | लेकिन ज्यादा भीड़ की वजह से अव्यवस्था के साथ ही पर्यावरण को  क्षति होने के साथ ही वातावरण की पवित्रता पर भी आंच आती है | गत दिवस इस बारे में देश के प्रसिद्ध धर्माचार्य स्वामी अवधेशानंद जी ने भी आगाह करते हुए अपील की है कि इन तीर्थस्थानों को पर्यटन केंद्र बनाने की प्रवृत्ति से  बचा जावे | सही बात है कि यहाँ आकर मौज - मस्ती करना उन तमाम तीर्थयात्रियों को पीड़ा देता है जो विशुद्ध  श्रृद्धा भाव से आते हैं | वैसे इस बारे में उत्तराखंड सरकार को  भी सोचना चाहिए | अरसे से ये मांग उठ रही है कि चार धाम की ग्रीष्मकालीन यात्रा में यात्रियों की संख्या पर नियंत्रण लगाया जाए क्योंकि  साधनों की बढ़ती उपलब्धता और नव धनाड्य संस्कृति के विकास ने इन यात्राओं के मौलिक स्वरूप को बदल दिया है जिससे  इनकी पवित्रता और पर्यावरण दोनों नष्ट हो रहे हैं | स्वामी अवधेशानंद जी ने जो विषय उठाया वह सामयिक भी है और संवेदनशील भी | इसलिए अन्य धर्माचार्यों को भी उनकी  तरह ही लोगों को समझाइश देनी चाहिए जिससे वे तीर्थयात्रा को आमोद - प्रमोद हेतु किये जाने वाला पर्यटन बनाने से बचाएं | यदि देश भर  के धर्माचार्य अपने अनुयायियों को ये सीख दें कि न सिर्फ उत्तराखंड स्थित चार धाम , अपितु देश भर में  फैले सनातन धर्मियों के तीर्थ  स्थलों की पवित्रता की रक्षा करना भी किसी पुण्य से कम नहीं है तब उसका कुछ न कुछ असर तो होगा ही | वरना प्रकृति और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाकर बजाय पुण्य के लोग उस पाप के भागीदार बनेंगे जिसकी सजा उनकी संतानों को मिलेगी |


- रवीन्द्र वाजपेयी 


Tuesday 25 April 2023

यही हाल रहा तो हर जाति की अपनी पार्टी होगी



राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के सजातीय माली समाज के लोग राजमार्ग घेरकर बैठे है | उनकी मांग 12 प्रतिशत आरक्षण की है | गत दिवस एक आन्दोलनकारी ने पेड़ से लटक कर आत्महत्या भी कर ली | कहा जा रहा है आन्दोलन में फूट पड़ने से  कुछ लोगों ने राजमार्ग से हटने का निर्णय कर लिया जबकि बाकी के अभी भी रास्ता घेरकर बैठे हैं | जिन भी राज्यों में चुनाव निकट हैं वहां  जातियों के भीतर से उपजातियां निकलकर आ रही हैं | सभी के मन में असंतोष है | बात बढ़ते - बढ़ते उच्च जातियों तक आ पहुँची है | इसीलिये  आर्थिक आधार पर उनको भी 10 फीसदी आरक्षण का झुनझुना पकड़ा दिया गया | राजस्थान के मुख्यमंत्री अपनी जाति के लोगों को ही संतुष्ट नहीं कर सके तो जाहिर हैं बाकी भी असंतुष्ट होंगे ही  | हो सकता है श्री गहलोत आन्दोलनकारियों को आश्वासन देकर शांत कराने में सफल हो जाएँ किन्तु बात इतने से ही खत्म होने वाले नहीं है | आरक्षण के अंतर्गत  शिक्षण संस्थानों में प्रवेश हेतु प्राथमिकता  और छात्रवृत्ति जैसी सुविधाएं तो तकरीबन सभी राज्य सरकारें दे रही हैं | लेकिन जिन राजनीतिक दलों ने जातिवादी राजनीति का ज़हर बोया अब वे भी उसका दुष्परिणाम झेल रहे हैं | आम्बेडकर जयन्ती पर सवर्ण  और पिछड़ी जातियों के नेता बाबा साहेब की मूर्ति के सामने दंडवत करते दिखे | अखिलेश  यादव तो उनकी मूर्ति अनावरण करने तक जा पहुंचे | दलित मतों की खातिर उनकी बस्तियों में जाकर सामाजिक समरसता का राग भी अलापा गया | उसके बाद आई परशुराम जयंती में ब्राहमणों के आयोजनों में ऐसे सियासी चेहरे भी नजर आये जो मनुवादियों को गरियाने में कोई संकोच नहीं करते | कहने का  आशय ये है कि चाहे आरक्षण हो या अन्य कल्याणकारी कार्यक्रम , उन सभी के पीछे वोट बैंक का लालच ही है | जिन राज्यों में ब्राह्मणों को आरक्षण नहीं दिया जा रहा वहां पुजारियों को भत्ता देने जैसी घोषणाएं हो  रही हैं | और तो और जाति के नाम पर राजनीतिक धौंस भी दी जाने लगी है जिसका ताजा उदाहरण पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक हैं जिन्होंने हाल ही में दिए एक चर्चित साक्षात्कार के दौरान बिना नाम लिये प्रधानमंत्री को चुनौती दी कि उनको छेड़ा गया तो सजातीय जन सरकार हिला देंगे | राज्यपाल पद से हटने के बाद जिस तरह से वे प्रधानमंत्री पर हमले कर रहे हैं और उनके समर्थन में जाट समुदाय की खाप पंचायतें आ रही हैं उसकी वजह से खुद  को लोहियावादी कहने वाले श्री मलिक अचानक जाट नेता बन बैठे | जबकि  जाटों के सबसे बड़े गढ़ बागपत में वे स्व. अजीत सिंह से बुरी तरह हार चुके थे | अब  ज्योंही राजभवन से वे बाहर आये त्योंही उन्हें समझ में आने लगा कि जाति के खूंटे से बंधकर ही वे शेष ज़िन्दगी गुजार सकेंगे | निश्चित तौर पर ये दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है | इसी का  विस्तृत रूप  है धर्म के नाम पर अपराधियों को समर्थन और संरक्षण | प्रयागराज में उमेश पाल नामक व्यक्ति की बीच सड़क पर हत्या हुई | लेकिन किसी ने उसकी जाति और धर्म का मसला नहीं उठाया | लेकिन उसके बाद के घटनाक्रम में असद , अतीक और अशरफ की मौत पर जिस तरह की राजनीति की जा रही है वह इस बात का परिचायक है कि समस्या की जड़ों को उखाड़ फेंकने के बजाय उनको सींचने का प्रयास चल पड़ा है | कर्नाटक के चुनाव में लिंगायत और वोक्कालिंगा समुदाय के समर्थन के लिए राजनेता सब कुछ करने तैयार हैं | यही वजह है कि भाजपा , कांग्रेस और जनता दल ( सेकुलर ) नामक तीनों प्रतिद्वंदियों के जो बड़े नेता हैं उनकी योग्यता और अनुभव से ज्यादा उनके उक्त समुदाय से जुड़े होने की बात  कही जा रही है | उ.प्र में एक नेता ने रामचरित मानस की एक चौपाई को लेकर अनाप – शनाप बयान दिए और उसकी प्रतियाँ भी जलवाईं | लेकिन अखिलेश यादव ने उनको अपना राष्ट्रीय पदाधिकारी बना दिया क्योंकि उनके हाथ में उनकी जाति के वोट हैं | हालांकि वे खुद पिछला चुनाव हार चुके थे | राजनीति ने अपने   स्वार्थ के लिए जातिगत ध्रुवीकरण का जो खेल खेला वह उसके ही गले पड़ने  लगा है | किसी नेता की पहिचान उसकी विचारधारा से नहीं बल्कि उसकी जाति से होना लोकतंत्र के लिए कितना नुकसानदेह है ये किसी से छिपा नहीं हैं | बीते कुछ दशक में ये  बीमारी बढ़ती ही जा रही है | कुछ समय पहले राजस्थान में ब्राह्मणों का बड़ा सम्मलेन हुआ जिसमें आरक्षण की मांग तेजी से उछली | अन्य राज्यों में भी उच्च जातियां अब आर्थिक आधार पर आरक्षण के  लिए दबाव बनाने लगी हैं | चुनावी मौसम में ये चलन कुछ ज्यादा ही बढ़ जाता है | सवाल ये है कि मौजूदा हालातों में आरक्षण से लाभान्वित वर्ग को हासिल क्या हो रहा है ? जिस तरह से सरकारी नौकरियां घटती चली जा रही हैं उसे देखते हुए आने वाले एक दशक के भीतर तो सरकार का आकार और छोटा होगा जिसकी शुरुआत डा. मनमोहन सिंह के कार्यकाल से होने लगी थी | ऐसे में आरक्षित वर्ग के शिक्षित लड़के – लड़कियों के लिये भी सरकारी नौकरी के अवसर निरन्तर कम हो रहे हैं | लेकिन कोई भी राजनीतिक दल जाति समूहों को ये बता पाने का साहस नहीं कर पा रहा कि आरक्षण के जरिए सरकारी नौकरी हासिल करने के अवसर पूर्ववत नहीं रहे इसलिए योग्यता ही काम आयेगी | आज भी दलित और पिछड़ी जातियों के अनेक युवक – युवतियां सरकारी नौकरी की मृग – मारीचिका में फंसने के बजाय स्वरोजगार के जरिये आजीविका चला रहे हैं | अब तो दलित चेंबर ऑफ कामर्स जैसे संगठन भी बन गये हैं जो इस बात का प्रमाण है कि यदि व्यक्ति में उद्यमशीलता हो तो वह  किसी का मोहताज नहीं रहेगा | सत्ता  में आने के लिए आसमानी ख्वाब दिखाने वाले नेता दोबारा सत्ता हासिल करने के लिए नए – नए वायदों की झड़ी लगा देते हैं | जबकि  पिछली बार किये वायदों को ही  ईमानदारी से पूरा किया जाए तब इनकी जरूरत ही न पड़े | समय आ गया है जब राजनीतिक दलों द्वारा  जनता को भुलावे में रखने की बजाय असलियत से वाकिफ कराया जाए | देश के सामने आज आर्थिक और सामाजिक जितनी भी समस्याएँ हैं उनका सबसे बड़ा कारण  चुनाव जीतने के लिए किए जाने वाले अव्यवहारिक वायदे हैं  | आरक्षण का  दायरा जिस प्रकार बढ़ता जा रहा है उसे देखते हुए ये समस्या दिन ब दिन गंभीर होती जायेगी  | आर्थिक  आधार पर आरक्षण की मांग जिस तरह से बढ़ रही ही उसे देखते हुए ये कहा जा सकता है कि समाज में जातिगत भेदभाव मिटाने की बजाय  ईर्ष्या और वैमनस्यता बढ़ती चली जा रही है |  हर बार आश्वासन देकर बात टाल दी जाती है | लेकिन असंतोष के बीज कुछ समय बाद फिर अंकुरित होने लगते हैं | जिन राज्यों में चुनावी माहौल है उनमें इसी तरह के आन्दोलन जोर पकड़ रहे हैं जिससे सामाजिक सद्भाव भी प्रभावित होता है | इस प्रवृत्ति को यदि नहीं रोका जाता तो बड़ी बात नहीं हर जाति अपनी  राजनीतिक पार्टी  बना ले क्योंकि आजकल एक – दो विधायक और सांसद भी सरकार बनाने और गिराने के काम आ जाते हैं |

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Monday 24 April 2023

ममता और नीतीश की मुलाकात में विपक्षी एकता की गुत्थी नहीं सुलझने वाली



बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार  विपक्षी एकता के सबसे बड़े पैरोकार बनकर उभर रहे हैं। हालांकि संसद के बजट सत्र के दौरान अडानी मामले में जेपीसी के गठन को लेकर हुए गतिरोध के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे द्वारा विपक्ष को एकजुट करने के अनेक प्रयास हुए । बाद में राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता खत्म होने का मुद्दा भी इस कोशिश में जुड़ गया। लेकिन  वह मुहिम संसद का सत्र समाप्त होते ही ठंडी पड़ गई। इसका सबसे बड़ा कारण राकांपा प्रमुख शरद पवार का रवैया है।जिन्होंने सावरकर और अडानी दोनों मामलों में कांग्रेस को पिछले पैरों पर खड़े होने मजबूर कर दिया। उसके बाद से श्री पवार की अपनी पार्टी के भीतर भी खींचातानी चल पड़ी और भतीजे अजीत के भाजपा के साथ जुड़कर महाराष्ट्र की सत्ता में भागीदारी करने की खबरें जोर पकड़ने लगीं । बात तो यहां तक चली कि श्री पवार की बेटी सुप्रिया सुले केंद्र की मोदी सरकार में मंत्री बन जायेंगी । हालांकि इस बारे में पवार परिवार के बयानों से स्पष्ट तो कुछ नहीं झलक रहा लेकिन इतना जरूर है कि बीते कुछ दिनों से उसकी तरफ से विपक्षी मोर्चा बनाए जाने के बारे में कोई बात नहीं हो रही। उल्टे अजीत तो नरेंद्र मोदी की तारीफ करते सुनाई दे रहे हैं। ऐसे में नीतीश कुमार के आज प.बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी से मिलने से क्या हासिल होगा ये बड़ा सवाल है क्योंकि विपक्ष की वे सबसे पहली ऐसी नेता हैं जिन्होंने कांग्रेस और राहुल गांधी के नेतृत्व को पूरी तरह से नकार दिया और अपनी पार्टी तृणमूल को भाजपा का विकल्प बनने में सक्षम बताया। हाल ही में उन्होंने सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव से मुलाकात कर कांग्रेस से अलग विपक्षी मोर्चे की जमीन तैयार की जिसमें तेलंगाना के मुख्यमंत्री के.सी. राव भी शामिल माने जाते हैं । हालांकि हाल ही में नीतीश ,  दिल्ली में राहुल गांधी के अलावा आम आदमी पार्टी  के मुखिया अरविंद केजरीवाल से भी मुलाकात कर चुके हैं  परंतु  विपक्ष का नेता कौन होगा इस बारे में जो अनिश्चितता है उसके कारण गठबंधन का ठोस स्वरूप सामने नहीं आ पा रहा। ऐसा लगता है ममता , अखिलेश और केसीआर जैसे विपक्षी नेता कांग्रेस से सीधे बात नहीं करना चाहते क्योंकि अपने प्रभाव वाले राज्य में वे उसको पनपने का अवसर देने के इच्छुक नहीं हैं । संभवतः इसीलिए नीतीश को आगे किया जा रहा है क्योंकि उनके सभी नेताओं से अच्छे रिश्ते हैं ।इस बारे में आम आदमी पार्टी का रवैया भी ढुलमुल है क्योंकि जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा  रहे हैं उन सभी में वह उम्मीदवार उतारने की तैयारी में है । जिसका सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस को होगा। ऐसे में नीतीश और ममता की मुलाकात में मोदी विरोध पर तो सहमति हो भी जाए किंतु कांग्रेस के समर्थन पर बात बनेगी ये कठिन लगता है। वैसे भी कांग्रेस द्वारा वामपंथियों के साथ किए गए गठबंधन से ममता का पारा बेहद गर्म है। ये सब देखने से तो लगता है कि आगामी कुछ दिनों में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा  महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे  और उनके साथ शिवसेना छोड़कर आए विधायकों के भविष्य का फैसला होने तक विपक्षी एकता की गुत्थी उलझी ही रहेगी। यदि उन विधायकों की सदस्यता बच गई तब भी श्री पवार की पार्टी भाजपा के साथ आयेगी या नहीं , ये भी बड़ा सवाल है। और कहीं सदस्यता चली गई तब तो राकांपा की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जायेगी क्योंकि तब अजीत पवार मुख्यमंत्री बनने की अपनी इच्छा पूरी करने मोदी शरणम् हो सकते हैं। विपक्षी एकता का भविष्य कर्नाटक विधानसभा चुनाव के परिणाम पर भी टिका है। यदि वहां कांग्रेस को निर्णायक जीत मिली तब निश्चित रूप से उसके साथ ही राहुल गांधी की वजनदारी बढ़ेगी और वे अपनी शर्तों पर गठबंधन को स्वरूप देने की स्थिति होंगे। लेकिन चुनाव नतीजा उसके विपरीत हुआ तब ममता , अखिलेश , केसीआर और केजरीवाल  टेढ़े चलते दिखेंगे। इसलिए नीतीश भले ही  ममता से मिलने की औपचारिकता पूरी कर लें क्योंकि वे काफी समय पहले इसका ऐलान कर चुके थे किंतु  उन्हें हासिल कुछ नहीं होगा। कल ही श्री पवार ने महाराष्ट्र में महा विकास अघाड़ी के भविष्य पर जिस तरह सवाल लगाया वह भी काबिले गौर है। दरअसल विपक्ष में जब तक प्रधानमंत्री के उम्मीदवार पर सर्वसम्मत फैसला नहीं हो जाता तब तक इस बारे में की जाने वाली कोशिशें हवा - हवाई साबित होती रहेंगी। और फिर नीतीश कुमार खुद कितने विश्वसनीय हैं ये कहना कठिन है। इसके अलावा राहुल गांधी की सजा पर अदालत के फैसले पर भी बाकी विपक्षी दलों की निगाहें लगी हैं क्योंकि यदि उच्च न्यायालय से भी उनको राहत न मिली तब विपक्षी दलों के बीच नए सिरे से गठबंधन उभरेंगे और तीसरे मोर्चे के पुनरोदय की संभावना प्रबल हो जाएगी।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Saturday 22 April 2023

राष्ट्र की राजनीति पर असर डालेगा महाराष्ट्र




रांकापा अध्यक्ष शरद पवार मौजूदा भारतीय राजनीति में सबसे चालाक और अविश्वसनीय व्यक्ति हैं | उनके राजनीतिक उद्भव की शुरुआत अपने गुरु वसंत दादा पाटिल को धोखा देने के साथ हुई थी | उसके बाद भी वे राजनीतिक चातुर्य के बल पर पहले महाराष्ट्र और बाद में राष्ट्रीय राजनीति में अपने पैर जमाये रहे | बीते अनेक वर्षों से स्वास्थ्य अच्छा नहीं होने के बाद भी वे जिस तरह से सकिय हैं , वह आसान नहीं है | उनकी सबसे बड़ी खासियत ये है कि वे अपने राजनीतिक शत्रु से भी मित्रता बनाये रखते हैं | इसका सबसे बड़ा उदाहरण शिवसेना संस्थापक स्व. बाल ठाकरे के साथ उनके करीबी सम्बन्ध थे  , जबकि वैचारिक दृष्टि से दोनों विपरीत ध्रुव कहे जाते थे | सोनिया गांधी के विदेशी मूल का विवाद खड़ा करने के बाद कांग्रेस छोड़कर राकांपा ( राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ) बनाने का उनका पैंतरा कांग्रेस को न सिर्फ महाराष्ट्र अपितु राष्ट्रीय स्तर पर कितना नुकसानदेह साबित हुआ , ये सर्वविदित है | लेकिन कुछ साल बाद वे कांग्रेस के साथ मिलकर राजनीति करने लगे और अनेक नाजुक अवसरों पर गांधी परिवार के सलाहकार बनकर उभरे | बीते अनेक सालों से वे गैर भाजपाई विपक्ष के प्रमुख स्तम्भ बने हुए हैं | लेकिन इस मराठा नेता के अपने घर में भी उत्तराधिकार की लड़ाई  अंदर – अंदर चल रही है | जिस तरह स्व. बाल ठाकरे ने भतीजे राज ठाकरे को पीछे धकेलते हुए बेटे उद्धव को उत्तराधिकार सौंप दिया , ठीक उसी तरह श्री पवार ने भी  भतीजे अजीत जो कि उनके अघोषित सियासी वारिस समझे जाते थे , की जगह अपनी बेटी सुप्रिया सुले को  बारामती सीट से लोकसभा के लिए जितवाकर ये संकेत दे दिया कि उनके बाद पार्टी की कमान किसके पास रहेगी ? इसे लेकर परिवार में विवाद की स्थिति पहले भी बनी |  लेकिन 2019 के विधान सभा चुनाव के बाद जब शिवसेना और भाजपा के बीच मुख्यमंत्री पद को लेकर गाँठ बंधी तब अचानक अजीत ने सुबह – सुबह बगावत करते हुए देवेन्द्र फड़नवीस के साथ मिलकर सरकार बनाली जिससे न सिर्फ पवार परिवार अपितु समूचा राजनीतिक जगत हतप्रभ रह गया किन्तु शाम होते – होते तक चाचा ने बाजी पलट दी और परिवार की दुहाई देकर अजीत को  वापस ले आये तथा उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री बनवाकर उन्हें उपमुख्यमंत्री बनवा दिया | बाद में शिवसेना में हुई बगावत की वजह से वह सरकार भी चलती बनी | साथ ही  अजीत सहित पवार कुनबे पर अनेक मामलों में जांच की तलवार लटकने लगी | ज्यों – ज्यों लोकसभा चुनाव करीब आ रहे हैं देश में भाजपा विरोधी विपक्षी मोर्चा बनाये जाने की मुहिम तेज  है | अपनी वरिष्टता की वजह से श्री पवार इसके केंद्र बिंदु बने रहने के बाद भी अपनी मंशा जाहिर नहीं  होने दे रहे | यद्यपि विपक्षी गठबंधन के लिए प्रयासरत सभी नेतागण उनसे सम्पर्क और सलाह करते रहे किन्तु संसद में अडानी समूह की जाँच हेतु जेपीसी के गठन की मांग को लेकर चल रहे गतिरोध के बीच पहले तो श्री पवार ने राहुल गांधी द्वारा वीर सावरकर पर की जाने वाली आलोचनात्मक टिप्पणियों के लिए कांग्रेस को चेतावनी दी  और उसी के बाद अडानी मामले में जेपीसी की मांग को अर्थहीन बताते हुए विपक्षी एकता के प्रयासों को पलीता लगाने की शुरुआत कर दी | उसी समय से ये कयास लगाया जाने लगा कि वे नया खेल रचने वाले हैं ,  जिसका अंत बजाय मोदी विरोधी मोर्चा बनाने के , भाजपा के साथ गठबंधन करते हुए महाराष्ट्र और केंद्र की सत्ता में हिस्सेदारी के रूप में सामने आयेगा | उल्लेखनीय है कुछ दिन पूर्व नागपुर में केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी के निवास पर भी श्री पवार गये थे और उसके बाद ही प्रेस क्लब में उन्होंने अडानी के बचाव में बयान दिया | और फिर  उनकी बेटी सुप्रिया ने ये कहकर सबको  चौंका दिया कि अगले 15 दिनों में दो धमाके होंगे , पहला दिल्ली और दूसरा महाराष्ट्र में | इसके पहले कि लोग इसका निहितार्थ समझ पाते अजीत ने प्रधानमंत्री की डिग्री के बारे में चल रहे विवाद की आलोचना  कर डाली | इस पर उद्धव ठाकरे गुट के मुखपत्र सामना में संजय राउत द्वारा लिखी गयी टिप्पणी पर अजीत और उनके बीच तीखी बयानबाजी हुई | लेकिन श्री पवार  अभी तक कुछ भी नहीं बोले  | हालाँकि अजीत ने जोर देकर कहा कि वे रांकापा नहीं छोड़ रहे और अंत तक उसी में रहेंगे लेकिन अपने ट्विटर हैंडिल से पार्टी का चिन्ह और झंडा हटाकर  संशय का माहौल बना दिया | राजनीतिक प्रेक्षक ये मान  रहे हैं कि एकनाथ शिंदे के साथ शिवसेना छोड़कर आये विधायकों की सदस्यता पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय प्रतिकूल आ सकता है | लिहाजा भाजपा ने अभी से आपातकालीन व्यवस्था के अंतर्गत अजीत की महत्वाकांक्षाएँ फिर जगा दी हैं | ये भी कहा जा रहा है कि उन्हें मुख्यमंत्री तक बनाया जा सकता है | गत दिवस अजीत ने प्रधानमन्त्री श्री मोदी की शान में जिस तरह कसीदे पढ़े उसके बाद ये लगने लगा है कि अजीत और भाजपा के बीच जुगलबंदी तय  है और सही समय पर उसका ऐलान किया जावेगा | लेकिन एक सवाल अभी तक अनुत्तरित है कि यदि ऐसा हुआ तब क्या ये श्री पवार की मर्जी से होगा या उनको हाशिये पर धकेलते हुए भतीजा इस बार अचूक वार करेगा | कुछ लोगों का मानना है कि श्री पवार ही इस घटनाक्रम के पीछे हैं और वे अजीत की ताकत का आकलन करने के बाद ही अंतिम फैसला करेंगे | कुछ दिन पहले ही गौतम अडानी के साथ उनकी अकेले में हुई मुलाकात के बाद कांग्रेस सकते में है | हालाँकि श्री पवार ने अब तक भाजपा और श्री मोदी की तारीफ़ में कुछ भी नहीं कहा किन्तु अपने भतीजे द्वारा दिए जाने वाले बयानों के बारे में  भी वे मौन हैं | बेटी सुप्रिया की उस टिप्पणी पर भी वे कुछ नहीं बोले कि अगले 15 दिनों में दो धमाके होंगे  | बहरहाल संसद के  बजट सत्र का अधिकांश समय  हंगामे में नष्ट होने पर श्री पवार ने जिस तरह विपक्ष पर निशाना साधा और फिर सावरकर तथा अडानी को लेकर कांग्रेस के विरुद्ध नीति अपनाई , उससे उनके भावी क़दमों को लेकर अनिश्चितता और उत्सुकता दोनों हैं | ये भी हो सकता है कि दूसरों को धोखा देकर राजनीति के शिखर पर पहुँचने  वाले श्री पवार अपने भतीजे के हाथों मात खा जाएँ | लेकिन  पैंतरेबाजी में माहिर श्री पवार वक्त की नजाकत को भांपकर भतीजे और बेटी दोनों के लिए सुरक्षित राजनीतिक भविष्य की व्यवस्था करने के लिए भाजपा से हाथ मिला लें तो आश्चर्य नहीं होगा क्योंकि वे जानते हैं कि कांग्रेस में उनके लिए जगह होगी नहीं और ये भी कि अजीत पर ज्यादा  दबाव बनाये रखने पर यदि वह बगावत कर गए तब फिर श्री पवार की दशा भी वही हो जायेगी जो आखिर – आखिर में स्व. मुलायम सिंह यादव की हुई थी | ऐसे में ये कहना गलत नहीं होगा कि आने वाले कुछ दिन तक राष्ट्र की राजनीति महाराष्ट्र से चलेगी |

Friday 21 April 2023

सेना के ट्रक पर हमला सुरक्षा एजेंसियों को चुनौती




वैसे तो जम्मू - कश्मीर में शांति है | पर्यटकों की रिकॉर्ड संख्या इसका सबसे बड़ा प्रमाण है | आतंकवाद से सबसे ज्यादा प्रभावित कश्मीर घाटी में भी अब इक्का – दुक्का घटनाओं को छोड़कर अमन बना हुआ है | पत्थरबाजी और बात – बात में सुरक्षा बलों का रास्ता रोकने जैसी घटनाएँ भी अतीत बन गयी हैं | जुमे की नमाज के बाद पाकिस्तान का झंडा फहराते हुए भारत विरोधी नारे लगाता जुलूस भी बरसों से नहीं निकला और न ही श्रीनगर के हृदयस्थल कहे जाने वाले लाल चौक पर अब कोई तिरंगा उतारने का दुस्साहस कर पा रहा है | हुर्रियत कांफ्रेंस जैसे संगठनों की बोलती बंद है | वहीं फारुख अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती की पूरी राजनीति भड़ास व्यक्त करने तक सीमित रह गयी है | घाटी के युवक – युवतियां भी इस बात को समझने लगे हैं कि धारा 370 हटने के पूर्व की स्थिति का वापस आना असम्भव है और उनका भविष्य अलगाववादियों के बहकावे में आकर पत्थरबाजी करने में नहीं अपितु पढ़ लिखकर आगे बढ़ने में है | कुल मिलाकर स्थिति में जबरदस्त सुधार हुआ है | विकास कार्य भी जिस तेजी से चल रहे हैं उसका भी जनमानस पर सकारात्मक असर है | लेकिन ये मानकर बैठ जाना आत्मघाती होगा कि कश्मीर घाटी में पाकिस्तान प्रवर्तित अलगाववाद की जड़ें पूरी तरह से उखड़ चुकी हैं | 370 की समाप्ति के बाद भी कश्मीर में एक वर्ग ऐसा हैं जो भारत में रहते हुए भी मन से भारतीय नहीं है | और यही लोग बीच – बीच में ऐसा कुछ करवा देते हैं जिससे भय का माहौल फिर कायम हो जाए | कभी पुलिस या सेना के जवान तो कभी कस्बों में बचे -  खुचे कश्मीरी पंडितों की हत्या जैसी वारदातों के जरिये तनाव जारी  रखने का षडयंत्र रचा जाता है | लेकिन इससे इतर सेना के काफिलों पर हमला करने की वारदातें भी  होती रहती हैं जिनसे ये प्रमाणित होता है कि तमाम चौकसी के बावजूद सीमा पार से आने वाले आतंकी कश्मीर घाटी में घुसने में कामयाब हो जाते हैं | इसका ताजा उदाहरण गत दिवस राजौरी के पास सेना के एक ट्रक पर हुआ हमला है जिसमें पांच सैनिक मारे गए और अनेक घायल हैं | पहले – पहल ये समाचार आया था कि ट्रक में आग लगने से उक्त हादसा हुआ | ये भी सुनने में आया कि आसमानी बिजली गिरने से आग लगी | लेकिन जल्द ही घटनास्थल पर पहुंचे सैन्य दस्तों ने इस बात की पुष्टि की  कि ट्रक पर हथगोला फेंका गया जिसकी वजह से उसमें आग लगी और पांच जवान जलने की वजह से जान गँवा बैठे | वहीं ट्रक में सवार अनेक जवान घायल हैं | सेना के विशेषज्ञ जांच में जुटे हैं और हमलावरों की तलाश भी जारी है किन्तु इस वारदात से एक बात स्पष्ट हो गयी कि  भले ही पर्यटकों को परेशान  न किया जाता हो क्योंकि ऐसा करने से स्थानीय लोगों की रोजी - रोटी पर असर पड़ता है , इसीलिये सैन्य ठिकानों के अलावा सेना के काफिलों पर घात लगाकर  हमले करने की रणनीति पर अमल हो रहा है | हालाँकि सेना काफी सतर्क रहती है लेकिन पहाड़ी इलाकों में आतंकवादियों के छिपने की ऐसी तमाम जगहें होती हैं जहां से वे इस तरह के हमले करने के बाद भाग निकलने में सफल हो जाते हैं | कल हुआ हादसा भी उसी शैली  का लगता है | इससे ये बात भी साबित होती है कि सीमा पार से आने वाले भारत विरोधी तत्वों को घाटी में अभी भी पनाह मिलती है | हाल ही में प्रयागराज में मारे गए अतीक अहमद नामक अपराधी ने भी पुलिस द्वारा की गई पूछताछ में बताया था कि पाकिस्तान से ड्रोन के जरिये पंजाब में हथियार भेजे जाते हैं | बीते एक – डेढ़ साल में जिस तरह से खालिस्तानी गतिविधियां बढ़ीं उनसे ये साफ़ हो गया कि 370 खत्म होने के बाद से पाकिस्तान  ने कश्मीर के समानांतर आतंकवाद के पुराने ठिकाने को आबाद करने की कार्ययोजना पर अमल शुरू कर दिया है | वैसे बीते चार दशक के घटनाक्रम पर निगाह डालें तो ये बात साफ़ हो जाती है कि पंजाब में अस्सी – नब्बे के दशक में खालिस्तानी आतंक ज्योंही  ढलान  पर आया त्योंही पाकिस्तान ने अपना जोर कश्मीर में बढ़ा दिया | और जब वहां उसके पैर उखड़ने की स्थिति बनी त्योंही पंजाब में फिर से खालिस्तानी आन्दोलन के नाम पर अमृतपाल जैसे तत्वों के जरिये भारत विरोधी गतिविधियाँ शुरू करने का तानाबाना बुना जाने लगा | गत दिवस राजौरी में सेना के ट्रक पर हुए हमले का भले ही खालिस्तानियों से कोई सम्बन्ध  न हो लेकिन उसमें पाकिस्तान की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता | सेना का जाँच दल घटना के दोषियों का पता लगाने में जुटा है | हो सकता है हमलावर जल्द पकड़ में भी आ जाएँ किन्तु यह घटना इस बात की चेतावनी है कि घाटी को आतंकवाद मुक्त मान लेना आत्मघाती होगा | ये भी कहा जा रहा है कि कश्मीर घाटी में जी – 20 की बैठक न होने पाए इसलिए पाकिस्तान भय के माहौल को पुनर्जीवित करना चाह रहा है | ये देखते हुए सुरक्षा एजेंसियों के साथ ही ख़ुफ़िया तंत्र को भी अतिरिक्त सतर्कता बरतनी पड़ेगी जिससे अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के सामने कश्मीर की गलत तस्वीर पेश किये जाने का  षडयंत्र सफल न हो सके | कूटनीतिक मंचों पर भारत की स्थिति इस समय बेहद मजबूत है इसलिए पाकिस्तान कुछ न कुछ ऐसा कर सकता है जिससे जी – 20 के आयोजन में विघ्न उत्पन्न हो और भारत को शर्मिन्दगी झेलनी पड़े |


- रवीन्द्र वाजपेयी 

Thursday 20 April 2023

जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाने का इंतजार आखिर कब तक



चूंकि भारत में 2011 के बाद जनगणना नहीं हुई इसलिए  गत दिवस जब संरासंघ के जनसँख्या कोष के जरिये ये जानकारी प्रसारित हुई कि भारत की जनसँख्या चीन से 30 लाख ज्यादा अर्थात 142 . 86 करोड़ हो गयी , तब ये सवाल स्वाभाविक तौर पर उठा कि विश्व संस्था द्वारा दिए इस आंकड़े की प्रामाणिकता क्या है ? हालांकि सूचना क्रांति के सूत्रपात के बाद किसी भी विषय की  जानकारी हासिल करना आसान हो गया है | इस आधार पर ये माना जा सकता है कि भारत और चीन में आबादी की वृध्दि की औसत दर सहित सरकारी आंकड़ों के विश्लेषण से जनसंख्या कोष ने उक्त निष्कर्ष निकाला होगा | जन्म और मृत्यु के पंजीयन से भी काफी कुछ पता चल जाता है | इस बारे में एक बात तो बिलकुल साफ़ है कि बीते दो साल में चीन में जन्मदर घटने से भारत की जनसंख्या का आंकड़ा उससे ज्यादा होने में संशय नहीं होना चाहिए | दूसरी तरफ हमारे देश  में लम्बे समय से जनसँख्या नियंत्रण के लिए चलाया जाने वाला परिवार कल्याण जिसे शुरू में परिवार नियोजन कार्यक्रम कहा जाता था , एक तरह से ठप्प पड़ गया है | अब तो दीवारों पर दो या तीन बच्चे होते हैं घर में अच्छे और उस जैसे अन्य नारे भी नजर नहीं आते | यद्यपि एक बड़ा तबका ऐसा है जिसने छोटे परिवार की सलाह को पूरी तरह आत्मसात कर लिया | अनेक नव दंपत्ति ऐसे भी हैं जो एक ही बच्चे को जन्म देना पसंद कर रहे हैं | यद्यपि इसके पीछे बच्चों के लालन - पालन की समस्या और फिर उसकी शिक्षा पर होने वाला खर्च भी कारण है | कामकाजी महिला के लिए तो एक ही बच्चे की देखभाल कठिन होती है | संयुक्त परिवारों के टूटते जाने से भी कम बच्चे पैदा करने का चलन बढ़ा है | लेकिन चिंता  का विषय ये है कि आर्थिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े लोगों में अभी भी परिवार को छोटा रखने के प्रति अपेक्षित गंभीरता नहीं आई है | बेटे की चाहत में तो अनेक पढ़े लिखे दंपत्ति तक तीन – चार संतानों को जन्म दे देते हैं | इसका अलावा मुस्लिम समाज में परिवार को सीमित रखने के विरोध में जो मानसिकता है उसकी वजह से उनके बीच छोटे परिवारों की कल्पना साकार नहीं हो पाती | हालाँकि शिक्षित होने के बाद अनेक मुस्लिम परिवारों ने परिवार को नियोजित करने  की बुद्धिमत्ता दिखाई है । लेकिन धर्मगुरुओं द्वारा इस बारे में जिस तरह की दकियानूसी सोच फैलाई जाती है उसकी वजह से एक कदम आगे और चार कदम पीछे वाली स्थिति मुसलमानों के बीच है | हालाँकि भारत विश्व में सर्वाधिक युवा आबादी वाला देश है लेकिन इतनी बड़ी युवा शक्ति को मानव संसाधन में परिवर्तित करने का वह कारनामा हम नहीं कर सके जो  चीन ने दशकों पूर्व कर दिखाया | यहाँ तक कि जनसँख्या वृद्धि पर नियंत्रण करने के लिए एक बच्चा वाला नियम भी वहां सख्ती से लागू किया गया | यद्यपि साम्यवादी व्यवस्था होने से उसके लिए  वैसा कर पाना संभव हो सका | जबकि हमारे देश में नसबंदी का मुद्दा भी 1977 के लोकसभा  चुनाव में इंदिरा गांधी की  पराजय का एक कारण बना |  उस चुनाव के बाद बनी केंद्र सरकार ने ही परिवार नियोजन विभाग का  नाम परिवार कल्याण कर दिया | कालान्तर में  सरकार भी इसके प्रति उदासीन सी हो चली और उसने छोटे परिवार रखने या न रखने का फैसला लोगों पर ही छोड़ दिया | उदारीकरण के बाद देश का माहौल जिस तरह बदला उसमें जमीन से जुड़े बहुत से ऐसे सवाल हाशिये पर सरका दिए गए जिनका देश के विकास और भविष्य से सीधा रिश्ता है , जिनमें छोटा परिवार भी कहा जा सकता है | यद्यपि इस समस्या के इलाज हेतु जनसंख्या नियंत्रण  कानून बनाये जाने की बात भी लम्बे समय से सुनाई दे रही है किन्तु वोट बैंक की राजनीति का दबाव इतना जबरदस्त है कि सत्ता में बैठे लोग चाहते हुए भी कुछ कर नहीं पाए | 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से इस कानून की चर्चा काफी तेजी से चली | तीन तलाक संबंधी फैसले के बाद तो ऐसा लगने लगा कि केंद्र सरकार जल्द ही जनसंख्या वृद्धि रोकने के लिए संसद में कानून पेश करेगी | लेकिन कोरोना आ जाने से सरकार के कदम रुक गए | और फिर नागरिकता संशोधन और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के प्रावधानों का जिस तरह से मुस्लिम समाज के साथ विपक्ष ने विरोध किया उससे भी केंद्र सरकार के कदम ठिठक गए | ऐसे में भले ही गत दिवस संरासंघ के जनसँख्या कोष द्वारा जारी आंकड़े को पूरी तरह सही न मानें किन्तु इतना तो हर कोई जानता है कि भारत में लगातार बढ़ती जा रही जनसँख्या के कारण समूचा आर्थिक नियोजन गड़बड़ा रहा है | केंद्र सरकार द्वारा 80 करोड़ लोगों को खाद्यान्न  सुरक्षा के अंतर्गत मुफ्त अनाज के अलावा करोड़ों लोगों को आवास हेतु धनराशि दी जा रही है | हालांकि विकसित देशों में भी जमकर अनुदान दिया जाता है किन्तु उनकी आबादी कम  और प्रति व्यक्ति उत्पादकता ज्यादा होने से वे उसका बोझ आसानी से वहन कर लेते हैं | वहीं हमारे देश में करोड़ों लोग निठल्ले बैठे  हैं | इस बारे में रोचक बात ये है कि एक तरफ तो बेरोजगारी के सर्वकालिक उच्च आंकड़ों की बात कही जाती है वहीं दूसरी तरफ उत्पादन से जुड़े हर क्षेत्र में श्रमिकों के अभाव का रोना सुनाई देता है | इस विसंगति को दूर किये बिना विशाल  जनसंख्या को मानव संसाधन बनाकर उत्पादकता से जोड़ना  संभव नहीं होगा तथा मुफ्त में सरकारी अनाज खाने वालों की संख्या साल दर साल बढ़ती जायेगी | सरकार जनसँख्या नियन्त्रण कानून लाए या फिर और कोई उपाय  करे ,  परंतु  इस बारे में वोट बैंक की सोच से बाहर निकलना होगा | इस देश में रहने वाले प्रत्येक स्वस्थ व्यक्ति को जब तक उत्पादन की प्रक्रिया से नहीं जोड़ा जाता तब तक योजनाएं और आंकड़े कितने भी आकर्षक हों लेकिन नतीजा अपेक्षानुरूप नहीं रहेगा | समय आ गया है जब  आबादी को  बोझ की बजाय शक्ति बनाया जावे | जनसँख्या वृद्धि को नियंत्रित करना चूंकि देश हित में है इसलिए कुछ लोगों की नाराजगी की चिंता छोड़नी होगी क्योंकि 142 .86 करोड़ का आंकड़ा खुशी मनाने की बजाय चिंता को बढ़ाने वाला है |


- रवीन्द्र वाजपेयी 

Wednesday 19 April 2023

मानसिक विकृति को कानूनी स्वीकृति से समाज पर थोपना अनुचित



सर्वोच्च न्यायालय में समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने के साथ ही  लैंगिक सूचक पति – पत्नी शब्द की बजाय जीवनसाथी कहे जाने के प्रावधान की मांग को लेकर दायर याचिका पर सुनवाई चल रही है | याचिकाकर्ता की ओर से कहा जा रहा है कि वे किसी सार्वजनिक स्थल पर जाएँ तो उन्हें लांछन या कलंक से बचाने के लिये इसे विवाह घोषित किया जाए । पुरुष और महिला के स्थान पर व्यक्ति शब्द का उपयोग करने की गुजारिश भी की गयी है | मुख्य न्यायाधीश डी.वाय चंद्रचूड के अलावा चार अन्य न्यायाधीशों की संवैधानिक बेंच इस याचिका पर सुनवाई कर रही है | सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता तो इस बात पर अड़े हैं कि सर्वोच्च न्यायालय को इसकी सुनवाई ही नहीं करनी चाहिए क्योंकि कानून बनाने का अधिकार उसका नहीं बल्कि संसद का है | इसे लेकर श्री चंद्रचूड से उनकी नोकझोक भी हुई | इसी के साथ श्री मेहता ने ये भी कहा कि पांच विद्वान और कुछ लोग अदालत में बैठकर इतने महत्वपूर्ण मामले में फैसला ले लें ये सही नहीं होगा और इसके लिए देश के सभी राज्यों की राय पूछी जाने चाहिए | याचिकाकर्ता ने समानता का मुद्दा उठाते हुए कहा कि विवाह और उत्तराधिकार संबंधी  कानून में पहले भी बदलाव हुए हैं। अतः समाज की मानसिकता को बदलने के लिए समलैंगिक विवाह की अनुमति मौलिक अधिकार होनी चाहिए। देश में स्वतंत्र न्यायपालिका है इसलिए सामाजिक तौर पर किसी प्रथा या प्रवृत्ति को अच्छा या बुरा मानने की समीक्षा करने का उसका अधिकार भी है और कर्तव्य भी । लेकिन सरकार की ओर से ये कहा जाना भी गलत नहीं  है कि चूंकि इस विषय में कानून बनाने की आवश्यकता पड़ेगी लिहाजा अव्वल तो इसका निपटारा संसद पर छोड़ा जाए और फिर विविधताओं से भरे देश में चंद लोगों की इच्छा को पूरे समाज पर थोपना अनुचित है। इसलिए सभी राज्यों से उनका अभिमत लेना जरूरी है। मामला सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन होने के बावजूद  इतना जरूर कहा जा सकता है कि विवाह के जिस स्वरूप को याचिकाकर्ता गढ़ना चाहते हैं वह न तो प्राकृतिक दृष्टि से उचित कहा जायेगा और न ही व्यवहारिक तौर पर। दो पुरुष या दो स्त्रियां मित्र के तौर पर साथ रहें तो वह स्वाभाविक है । उस दौरान उनके बीच आपसी सहमति से यौन संबंध विकसित हों तो उसे 2018 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए निर्णय ने  कानूनी मान्यता दे दी। उसी के बाद से समलैंगिक विवाह की मांग शुरू हुई और बात सर्वोच्च न्यायालय तक आ पहुंची । समलैंगिक यौन संबंधों को वैधानिक मानने के लिए देश भर में आंदोलन भी हुए  जिसमें तमाम चर्चित हस्तियां भी शामिल हुईं थीं।  लेकिन यथार्थ ये है कि भले ही उसके बाद से बहुत से समलैंगिक युगल एक साथ पति - पत्नी के रूप में रहने लगे हों लेकिन आज भी समलैंगिकता के प्रति समाज में अच्छी धारणा नहीं है। अभी हाल ही में  एक न्यायाधीश की नियुक्ति हेतु कालेजियम की अनुशंसा के बाद भी केवल इस वजह से केंद्र सरकार ने रोके रखी  क्योंकि संबंधित व्यक्ति समलैंगिक है। इस पर श्री चंद्रचूड़ ने टिप्पणी भी की थी कि इससे बौद्धिक क्षमता और पेशेवर योग्यता का कोई संबंध नहीं है। दरअसल जिस पीठ ने 2018 में सहमति के आधार पर समलैंगिक यौन संबंधों को कानूनी स्वीकृति दी उसके एक सदस्य श्री चंद्रचूड़ भी रहे। इस विषय पर उनकी टिप्पणियों से सरकार को ये अंदेशा है कि वे संदर्भित मामले में भी याचिकाकर्ता के पक्ष में फैसला कर सकते हैं। इसी कारण सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय से सुनवाई न करने के अनुरोध के अलावा राज्यों की राय लेने भी कहा है। वैसे भी ये मामला दो व्यक्तियों की निजी अभिरुचि या स्वतंत्रता का नहीं अपितु समाज में विवाह नामक व्यवस्था के समानांतर परिपाटी खड़ी करने का प्रयास है।  बिना विवाह किए लिव इन रिलेशनशिप में अनेक पुरुष और महिला  संतानोत्पत्ति भी कर लेते हैं । उनके अलग हो जाने पर संपत्ति के बंटवारे और बच्चों की सामाजिक स्थिति को लेकर भी विमर्श चल पड़ा है। शहरों में अनेक विधवा महिलाएं और विधुर पुरुष अकेलेपन के कारण लिव इन में रहते हुए शेष जीवन काटने लगे हैं । कुछ मामलों में तो औलादों ने भी अपनी विधवा मां को किसी विधुर के साथ रहने के लिए राजी किया। ये एक तरह का समझौता  है,  एकाकीपन दूर करने का । लेकिन समलैंगिक विवाह करने वाले युगल यदि गोद लेकर बच्चे की कमी भी पूरी कर लें तब उस बच्चे को या तो मां का सुख नहीं मिलेगा या फिर पिता की  छाया। आजकल अभिजात्य वर्ग की  महिलाओं में किराए की कोख से संतान उत्पन्न करने का चलन है। कुछ अविवाहित नामी गिरामी हस्तियों में भी इसी तरह मां या पिता बनने की औपचारिकता पूरी कर ली जाती है। लेकिन इस सबसे हटकर भारतीय संस्कृति में सामाजिक व्यवस्था जिस परिवार नामक व्यवस्था पर टिकी है वह लिव इन या समलैंगिक विवाह के जरिए कायम नहीं रह सकेगी । और तब सामाजिक विघटन की वह त्रासदी हमारे साथ भी जुड़ती जायेगी जिससे आज पश्चिम के वे देश गुजर रहे हैं जो अपने को आधुनिक मानते रहे। इस बारे में ये कहना गलत नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय का काम मानव और मौलिक अधिकारों की रक्षा करने के साथ - साथ सामाजिक ताने- बाने को भी बनाए रखना है। कल को कुछ लोग पशुओं के साथ शारीरिक संबंध बनाने की अनुमति मांगने खड़े हो जाएं तब क्या उनको भी सुना जायेगा ? 2018 के फैसले के बाद यदि कोई समलैंगिक जोड़ा  साथ - साथ रहते हुए सहमति से  यौन संबंध बनाए तो उसे रोकना  कानूनन संभव नहीं है।  लेकिन वह ये चाहे कि समाज उनकी इस जीवनशैली को सम्मान प्रदान करे,  यह बात निरर्थक लगती है। सर्वोच्च न्यायालय क्या फैसला करता है और उसके बाद सरकार की क्या भूमिका होती है ये देखने के लिए तो प्रतीक्षा करनी होगी किंतु ऐसा लगता है चंद लोग अपनी मानसिक विकृति को कानून से अनुमति लेकर समाज पर थोपना चाहते हैं । उनकी बात पर विचार करते समय सर्वोच्च न्यायालय को ये ध्यान रखना चाहिए कि हर देश की अपनी  संस्कृति और संस्कार होते हैं जो संविधान में वर्णित निर्देशक सिद्धांतों से कहीं ज्यादा प्रभावशाली हैं जिनको मुट्ठी भर लोगों के लिए उपेक्षित करना न्यायोचित नहीं होगा।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 18 April 2023

केजरीवाल बन रहे कांग्रेस के गले का काँटा



विपक्षी एकता के लिए हाथ - पैर मार रही कांग्रेस अपनी गृह कलह में ही उलझ रही है | राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट का झगड़ा बजाय सुलझने के और बढ़ता जा रहा है | बीते  सप्ताह पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के भ्रष्टाचार की जाँच की मांग को लेकर श्री पायलट द्वारा किये गए अनशन को पार्टी के  प्रदेश प्रभारी ने  पार्टी विरोधी कृत्य मानकर कार्रवाई की बात की थी | लेकिन पार्टी आलाकमान आज तक उस दिशा में कोई कदम नहीं उठा सका | सुनने में आया है कि प्रियंका वाड्रा इस बार भी श्री  पायलट के बचाव में आ गईं | बहरहाल , इस विवाद के कारण राजस्थान में कांग्रेस को आगामी विधानसभा चुनाव में नुकसान होना अवश्यंभावी है | दूसरी तरफ दिल्ली में पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे द्वारा  विपक्षी दलों के मोर्चे  में आम आदमी पार्टी  को शामिल किये जाने के विरोध में भी स्वर उठने लगे हैं | एक समय था जब कांग्रेस और आम आदमी पार्टी एक दूसरे को देखना तक पसंद नहीं करते थे | 2014 में दिल्ली  विधानसभा चुनाव के बाद जब त्रिशंकु विधानसभा बनी तब कांग्रेस ने भाजपा को रोकने के लिए आम आदमी पार्टी को समर्थन देकर अरविन्द केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनवा दिया | लेकिन जल्द ही समर्थन वापस लेकर उस सरकार को  गिरवा दिया | उसके बाद हुए चुनाव में कांग्रेस का सफाया हो गया | तबसे आज तक दिल्ली में वह उठ नहीं पाई | दो विधानसभा  और लोकसभा चुनाव के बाद हालिया दिल्ली नगर निगम चुनाव में भी उसकी दयनीय स्थिति बनी रही | लेकिन हाल ही में जब राहुल गांधी सूरत की अदालत से दंडित हुए और उनकी सांसदी चली  गयी तब श्री केजरीवाल ने उनके समर्थन  का दांव चला | हालाँकि उसका कारण मनीष सिसौदिया की गिरफ्तारी भी थी | उसके बाद दोनों पार्टियों के बीच नजदीकी बढ़ने लगी और श्री खरगे द्वारा बुलाई गयी विपक्षी दलों की  बैठकों में भी श्री केजरीवाल   दिखाई देने लगे  | बीते सप्ताह जब सीबीआई ने उन्हें समन भेजकर बुलाया तब श्री खरगे ने फोन पर  समर्थन का आश्वासन देते हुए केंद्र सरकार की आलोचना कर डाली | वैसे विपक्षी दलों के बीच ईडी और सीबीआई से पीड़ित होने पर इस तरह की सौजन्यता का आदान - प्रदान इन दिनों सामान्य हो चला है किन्तु श्री केजरीवाल के प्रति अपनी  पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष द्वारा प्रदर्शित सहानुभूति दिल्ली के ही कांग्रेसजनों को रास नहीं आई | और उनकी भावनाओं को शब्द दिए पूर्व केन्द्रीय मंत्री अजय माकन और दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं स्व. शीला दीक्षित के बेटे पूर्व सांसद संदीप दीक्षित ने | इन दोनों नेताओं ने श्री खरगे द्वारा दिल्ली  के मुख्यमंत्री के विरुद्ध सीबीआई द्वारा की जा रही जांच को सही बताते हुए कहा कि शराब घोटाले को सबसे पहले कांग्रेस ने ही उठाया और जांच की मांग की | ऐसे में भ्रष्ट मुख्यमंत्री का समर्थन करना और विपक्षी एकता के लिए आम आदमी पार्टी को साथ रखना कांग्रेस के लिए आत्मघाती होगा | इसके साथ ही पंजाब के अनेक कांग्रेस नेताओं ने भी श्री खरगे द्वारा श्री केजरीवाल के प्रति हमदर्दी दिखाने का विरोध किया है | गुजरात के कांग्रेस नेता तक  आम आदमी पार्टी को गले लगाने के सर्वथा खिलाफ हैं | इन दोनों राज्यों के कांग्रेसी नेता मानते हैं कि आम आदमी पार्टी के कारण कांग्रेस का जबरदस्त नुकसान हुआ | पंजाब में सत्ता चली गयी और गुजरात में कांग्रेस अपने सबसे निचले स्तर पर आ गई | यही नहीं तो भगवंत मान सरकार ने कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री सहित अनेक नेताओं के विरुद्ध कार्रवाई भी शुरू की है | इन सबके कारण ही श्री माकन ने तो पार्टी से जुड़े अधिवक्ताओं से आम आदमी पार्टी का बचाव  न करने   की अपील तक कर डाली | उल्लेखनीय है श्री सिसौदिया की पैरवी करने अभिषेक मनु सिंघवी सर्वोच्च न्यायालय गए थे | हालांकि श्री माकन और श्री दीक्षित द्वारा आम आदमी पार्टी और श्री केजरीवाल के विरुद्ध खोले गए मोर्चे पर श्री खरगे की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है किन्तु ऐसा लगता है कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति में अब विरोध के स्वर उठने लगे हैं | स्मरणीय है गत वर्ष श्री माकन और श्री खरगे को  पार्टी आलाकमान ने अशोक गहलोत की जगह विधायक दल का नया नेता चुनने जयपुर भेजा था क्योंकि श्री गहलोत को पार्टी का अध्यक्ष बनाने का फैसला गांधी परिवार कर चुका था | लेकिन जयपुर में गहलोत खेमे के विधायकों ने दोनों पर्यवेक्षकों की जमकर उपेक्षा की और उनके द्वारा बुलाई बैठक में जाने की जगह विधानसभा अध्यक्ष को इस्तीफा सौंपकर आलाकमान पर दबाव बना दिया | दिल्ली लौटकर दोनों ने विस्तृत रिपोर्ट आलाकमान को देते हुए अनुशासन की कारवाई करने की सिफारिश भी की | हालाँकि उसके बाद श्री खरगे अध्यक्ष बन गए किन्तु उन विधायकों और उनके संरक्षक बने रहे श्री गहलोत का कुछ नहीं बिगड़ा | इससे नाराज होकर श्री माकन ने पार्टी संगठन के सभी पदों से इस्तीफा दे दिया | काफी समय से वे शांत थे किन्तु आम आदमी पार्टी के साथ कांग्रेस की नजदीकी देख वे मुखर हो उठे | लेकिन आश्चर्य तब  हुआ जब दिल्ली की कांग्रेसी राजनीति में उनके घोर विरोधी रहे संदीप दीक्षित ने भी उनके सुर में सुर मिला दिया | दोनों ने पार्टी आलाकमान से कहा है कि शराब घोटाले से अर्जित धन का उपयोग आम आदमी पार्टी ने अन्य राज्यों में कांग्रेस को हरवाने में खर्च किया | इसलिए इस प्रकरण में उसके साथ किसी भी तरह की सहानुभूति या गठबंधन कांग्रेस के भविष्य के लिये खतरों से भरा होगा | इस बारे में रोचक बात ये है कि श्री केजरीवाल द्वारा अतीत में गांधी परिवार के बारे में जिस तरह की आलोचनात्मक टिप्पणियां की गईं उन्हें श्री खरगे ने पूरी तरह भुला दिया | ऐसे में राजस्थान के बाद अब दिल्ली में भी कांग्रेस के भीतर उथलपुथल शुरू हो गयी है | देर सवेर इसे पंजाब के कांग्रेस नेताओं का भी समर्थन मिल सकता है | लेकिन  इसका असर श्री खरगे द्वारा चलाई जा रही मुहिम पर भी पड़ेगा | कांग्रेस छोड़ गए कपिल सिब्बल ने इस बारे में कहा भी है कि दिल्ली की  लोकसभा सीटों पर भाजपा का वर्चस्व तोड़ने के लिए आम आदमी पार्टी के साथ कांग्रेस का गठजोड़ कामयाब हो सकता है | लेकिन उसके बाद जब श्री केजरीवाल अन्य राज्यों में कांग्रेस से सीटें मांगेगे तब वह मुश्किल में पड़ जायेगी |

-रवीन्द्र वाजपेयी 

Monday 17 April 2023

भ्रष्टाचार और राजनीति का अपराधीकरण सबसे बड़ी समस्या



बीते सप्ताह की अंतिम रात प्रयागराज में अपराधी सरगना अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ की जिस तरह से हत्या हुई उससे पूरा देश सन्न रह गया |  पत्रकार बनकर आये तीन युवकों ने बेहद निकट से दोनों को गोली मार दी जिससे वे कुछ क्षणों के भीतर ही चल बसे | समूचा घटनाक्रम महज 15 से 20 सेकेण्ड में खत्म हो गया और हत्यारों ने ब आत्म समर्पण कर दिया | सनसनीखेज बात ये है कि दर्जन भर से ज्यादा जो पुलिस कर्मी अपराधियों के साथ तैनाती में थे ,  गोलियाँ  चलते समय पीछे हट गए | अर्थात किसी ने भी हमलवारों पर पलटवार करने का  साहस नहीं दिखाया | हो सकता है पुलिसवाले कुछ समझ पाते उसके पहले ही हत्यारों ने  अपना काम  करने के बाद खुद को उनके हवाले कर दिया हो | लेकिन ज्यादातर लोग इस बात के प्रति आशंकित हैं कि पुलिस की निष्क्रियता किसी  षडयंत्र का हिस्सा थी | जिसका खुलासा उच्च स्तरीय जो जाँच बिठाई गयी , उसमें हो सकता है | बहरहाल इस काण्ड से बहुत सी वे बातें सामने आते – आते रह गईं जिनके कारण उ.प्र ही नहीं अपितु उसके बाहर के भी कुछ ऐसे लोग लपेटे में आते जिन्होंने प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष तौर पर अतीक को तांगे वाले के बेटे से संसद तक पहुँचने में मदद की और जिनके संरक्षण के कारण ही उसके ऊपर चल रहे 100 अपराधिक प्रकरणों का निपटारा नहीं हो सका | अतीक के आतंक का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि तकरीबन 10 न्यायाधीशों ने उसके मामलों की सुनवाई से अपने को अलग कर लिया था | समाजवादी पार्टी के संस्थापक स्व. मुलायम सिंह यादव और उनके दाहिने हाथ कहे जाने वाले अनुज शिवपाल के अतीक से कितने निकट सम्बन्ध थे ये उ.प्र की राजनीति को जानने  वाले प्रत्येक व्यक्ति को ज्ञात है | हालाँकि बीते कुछ समय से अतीक और सपा के बीच खुन्नस हो गयी थी | हाल ही में ये सुनने मिल  रहा था कि बसपा प्रमुख मायावती अतीक की पत्नी शाइस्ता को प्रयागराज से महापौर प्रत्याशी बनाने जा रही थीं किन्तु उसी बीच उमेश पाल हत्याकांड हो जाने से समूचा परिदृश्य बदल गया और शाइस्ता फरार हो गयी जिनका आज तक पता नहीं चल सका | अपना दल से भी अतीक का रिश्ता रहा | बीते कुछ समय से उसके असदुद्दीन ओवैसी के निकट आने की चर्चा थी | यही वजह है कि उसकी हत्या पर राजनीतिक नेता अपनी फसल काटने में जुटे हैं | दरअसल अतीक का पांच बार विधायक और एक बार लोकसभा सदस्य बनना उस लोकतंत्र के माथे पर धब्बा है जिसके बारे में आजकल कुछ ज्यादा ही छाती पीटी जा रही है | लेकिन केवल अतीक ही क्यों , उ.प्र और बिहार के अलावा भी अपराधियों के राजनीति में आकर ताकतवर बनने की लंबी सूची है | और कोई भी राजनीतिक दल यहाँ तक कि कांग्रेस और भाजपा जैसे मुख्य धारा के राष्ट्रीय दल भी अपराधियों को सत्ता के गलियारों में प्रतिष्ठित करने में किसी से पीछे नहीं हैं | जेल में बंद आपराधिक पृष्ठभूमि का कोई विधायक या सांसद जब राष्ट्रपति के चुनाव में मतदान करने लाया जाता है तब संविधान की पवित्रता को होने वाले नुकसान की कल्पना आसानी से की जा सकती है | डा. मनमोहन सिंह की सरकार द्वारा अमेरिका से की गई संधि के विरोध में वामपंथियों द्वारा समर्थन वापस लिये जाने  के बाद संसद में अविश्वास प्रस्ताव पर हुए मतदान में हिस्सा लेने अतीक अहमद को जेल से संसद तक लाया गया था | अर्थात जिस व्यक्ति को कानून ने समाज के लिए खतरा मानकर जेल में रखने की व्यवस्था की , वह केंद्र सरकार के बहुमत का फैसला करने  ससम्मान लाया गया | पराकाष्ठा तो तब हुई जब जेल में रहते हुए अपराधी सरगना शहाबुद्दीन  चुनाव जीत गया | सवाल ये है कि अपराधियों के सिर पर हाथ रखकर उन्हें फर्श से उठाकर अर्श तक पहुँचाने और फिर उनके लिए संसद और विधानसभा तक पहुंचने का रास्ता तैयार करने वाले राजनेता आखिर कब तक बचे रहेंगे ? पूर्व प्रधानमंत्री स्व. चंद्रशेखर की इस बात के लिए सदैव तारीफ़ होती रही कि बिहार के चर्चित माफिया सरगनाओं से अपने रिश्तों को उन्होंने कभी नहीं छिपाया | इसी तरह स्व. मुलायम सिंह यादव ने अतीक सहित अन्य अपराधियों को राजनीति में आगे बढ़ने में जिस तरह सहायता और संरक्षण प्रदान किया वह सर्वविदित है | हाल ही में मोदी सरकार ने उन्हें पद्म विभूषण देकर अलंकृत किया |  खुद भाजपाई भी राममंदिर के लिए आंदोलनरत कारसेवकों को गोलियों से भुनवा देने वाले शख्स को देश का दूसरा सबसे बड़ा नागरिक सम्मान देने के औचित्य को स्वीकार नहीं कर पा रहे | इसी तरह फूलन देवी को सांसद बनाना यदि सोशल इंजीनियरिंग का हिस्सा था तब कहने को कुछ बचता ही कहाँ है ? कुख्यात अपराधियों के अलावा दौलत के बल पर राजनीतिक दलों के ज़मीर को खरीद लेने के उदाहरण तो आज की संसद और विधानसभाओं में थोक के भाव देखे जा सकते हैं | कुल मिलाकर ये कहना गलत नहीं है कि भ्रष्टाचार के साथ ही राजनीति का अपराधीकरण बहुत बड़ी समस्या बन चुकी है | चुनाव आयोग इस बारे में सर्वोच्च न्यायालय के पाले में गेंद सरका देता है और वहां से सुनने मिलता है कि कानून बनाना उसका नहीं अपितु संसद का काम है | दुर्भाग्य से संसद के पास इस विषय में सोचने की फुर्सत नहीं है | ऐसे में लोकतंत्र और  संविधान जैसे शब्दों की परिभाषा ही बदलती जा रही है | अतीक को पहले मामले में सजा होने के पहले तक वह महज आरोपी था और चाहता तो चुनाव लड़कर मंत्री भी बन सकता था क्योंकि अब आरोप लगने  पर गद्दी छोड़ने का रिवाज नहीं रहा और जेल में  बंद होने के बाद भी मंत्री पद पर बने रहने की नई परम्परा कायम हो चुकी है | ये सब देखते हुए जनता को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी क्योंकि लोकतंत्र उसके लिए  , उसके द्वारा और उसी की अपनी व्यवस्था है | यदि वह अतीक और शहाबुद्दीन जैसे बाहुबलियों को सांसद और विधायक बनाती रहेगी तो फिर दूसरों पर उंगली उठाने का अधिकार भी  खो बैठेगी |


- रवीन्द्र वाजपेयी 

Sunday 16 April 2023

उन सफेदपोशों का पर्दाफाश भी जरूरी जो इन सांपों को पालते -पोसते हैं



माफिया अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ की कल रात प्रयागराज में हुई हत्या ने राजनीतिक हलचल के अलावा योगी प्रशासन की भी नींद उड़ा दी है। इस संबंध में गुप्तचर एजेंसियों के साथ ही प्रयागराज पुलिस की भूमिका भी जांच का विषय है। मौके पर मौजूद 17 पुलिसकर्मियों को तो निलंबित कर दिया गया किंतु सवाल ये है कि हत्यारे युवकों ने जिस आसानी से अपना काम किया उससे लगता है कि अतीक और अशरफ के साथ चल रहे पुलिस वाले या तो पूरी तरह बेफिक्र थे या फिर उनमें से कुछ की भूमिका  संदिग्ध थी। हत्यारे साधारण अपराधी बताए जा रहे हैं , ये देखते हुए उन्होंने महज प्रसिद्ध होने के लिए माफिया सरगना की हत्या जैसा जोखिम उठाया और वह भी कैमरों के सामने , ये बात गले नहीं उतरती। ऐसा लगता है वे तीनों किसी अन्य के लिए काम कर रहे थे। अतीक का पुलिस रिमांड मिलते ही ये खबरें आने लगीं कि उसने उमेश पाल की हत्या की योजना का खुलासा कर दिया है। यही नहीं तो अनेक ऐसे लोगों के नाम भी उगल दिए जिनसे उसका लेन - देन था। पूछताछ के तत्काल बाद की  गई छापेमारी में अनेक बिल्डर , चार्टर्ड एकाउंटेंट  और राजनीतिक नेता जांच एजेंसी के राडार पर आ गए थे। ये आशंका भी गलत नहीं है कि अभी भी पुलिस महकमे में अतीक के टुकड़ों पर पलने वाले लोग बैठे हों जो पूरी जानकारी संबंधित लोगों तक पहुंचाते रहे। अपराधों की दुनिया में बड़े काम के लिए छोटे लोगों को औजार बनाया जाना आम है। ऐसे में ये आशंका प्रबल है कि ज्योंही  अतीक को संरक्षण देने और उसके साथ आर्थिक रिश्ते रखने वालों के नाम उजागर होने का समय आया त्योंही उसका काम तमाम कर दिया गया। इस तरह उसकी हत्या से  अनेक ऐसे पन्ने अधखुले रह सकते हैं जो राजनीति के अनेक चमकदार चेहरों को काला करने के साथ ही उनको जेल भिजवा सकते थे । 2017 के विधानसभा चुनाव में अतीक की टिकिट काटने को लेकर अखिलेश यादव की  चाचा शिवपाल से तकरार हो गई थी। जिसके बाद शिवपाल ने  सपा छोड़ नया दल बना लिया था। आज चाचा - भतीजे दोनों अतीक की हत्या पर एक साथ योगी सरकार पर आरोपों की झड़ी लगा रहे हैं। लेकिन उसके आपराधिक कारनामों के विरोध में उनके मुंह से एक शब्द नहीं फूट रहा। यही हाल मायावती का भी है। कांग्रेस इस मुद्दे पर बंटी हुई है। जबकि ओवैसी का मातम तो कम होने का नाम ही नहीं ले रहा। दरअसल उ.प्र में स्थानीय निकाय चुनाव की प्रक्रिया चल रही है। ऐसे में सभी दलों में मुस्लिम मतों को खींचने की होड़ मची है। यही वजह है कि सपा ,बसपा और ओवैसी झांसी में हुए असद के  एनकाउंटर के बाद से ही मुसलमानों की मिजाजपुर्सी में जुटे हुए थे। कल रात हुए हत्याकांड के बाद से तो मुसलमानों के बीच अतीक को शहीद बनाकर उनके मन में ये बात बिठाने की कोशिश शुरू हो गई है कि योगी सरकार अपराधियों के सफाए के नाम पर केवल उनकी जमात पर ही निशाना साध रही है। बहरहाल , अतीक और अशरफ के एक साथ मारे जाने के बाद हत्यारे युवकों से पुलिस क्या और कितना उगलवा पाती है ये जिज्ञासा का विषय है। उनके पास हथियार मिलने से एक बात तो तय है कि वे साधारण अपराधी नहीं थे । जिस आत्मविश्वास के साथ उन्होंने अतीक और अशरफ को ढेर करते ही पिस्तौलें फेंक हाथ उठाकर सरेंडर - सरेंडर की आवाजें लगाना शुरू कर दिया और एक तो जमीन पर ही लेट गया , उससे उनके पेशेवर होने का सन्देह गलत नहीं है। अगर उनका उद्देश्य केवल शोहरत हासिल करना था तो वे अतीक और अशरफ को चांटा मारकर भी चर्चित हो जाते , जिसकी सजा भी मामूली थी।लेकिन हत्या जिस तरह की गई उसके बाद उनकी जिंदगी जेल के सीखचों के पीछे  कट जायेगी। अब ये पुलिस सहित अन्य जांच एजेंसियों पर निर्भर है कि उनसे हत्या के पीछे की असली वजह उगलवा पाती हैं या नहीं ? उन तीनों युवकों की पीठ पर किसी नेता , व्यवसायी अथवा विदेशी संगठन का हाथ होने की आशंका के चलते सच्चाई सामने आना जरूरी है ताकि अतीक को प्यादे से वजीर बनवाने के बाद सस्ते में निपटाने वालों के चेहरे बेनकाब कर राजनीति और अपराध जगत का याराना उजागर किया जा सके। योगी सरकार ने अपराधियों के विरुद्ध जो अभियान चला रखा है उसकी देश भर में बेहद अनुकूल प्रतिक्रिया है । लेकिन  इस कांड के बाद बात अब केवल अपराधियों तक ही नहीं अपितु उन सफेदपोशों तक भी पहुंच गई है जो अपने स्वार्थों के लिए इन जहरीले सांपों को पालते - पोसते हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 15 April 2023

कर्नाटक का नाटक भारी पड़ेगा भाजपा को



कर्नाटक में विधानसभा चुनाव के लिए एक महीने से भी कम समय बचा है | विभिन्न राजनीतिक दल अपने – अपने उम्मीदवारों की सूची जारी कर रहे हैं | जिन विधायकों की टिकिट काट दी गयी अथवा जिन लोगों को उम्मीदवारी नहीं दी गयी उनमें से अनेक नाराजगी दिखा रहे हैं | पार्टी से त्यागपत्र देने के अलावा आनन – फानन दूसरी पार्टी में चले जाना या फिर निर्दलीय मैदान में उतरने की घोषणा खबरों में हैं |  सबसे ज्यादा बवाल मचा है भाजपा में | जिसके तमाम वरिष्ट नेता कोप भवन में जा बैठे हैं | इनमें पूर्व मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री स्तर के लोग भी हैं | हालाँकि भाजपा ने आसन्न खतरे को भांपते हुए पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा को चुनाव अभियान की कमान सौंप दी है परन्तु ऐसा लगता है सत्ता  विरोधी रुझान से ज्यादा पार्टी को अपनी अंतर्कलह से खतरा है | आलाकमान मान - मनौवल  में जुटा हुआ है | लेकिन अनेक बुजुर्ग नेताओं द्वारा  टिकिट वितरण पर खुलकर रोष व्यक्त किये जाने से पार्टी के सामने जबरदस्त संकट उत्पन्न हो गया है | कुछ वरिष्ट नेताओं ने खुले  विरोध का रास्ता नहीं पकड़ा किन्तु राजनीति से सन्यास लेकर  दबाव बढ़ा दिया | आयु को उम्मीदवारी का मापदंड बनाकर जिन लोगों की टिकिटें काटी गईं वे दिल्ली जाकर गृहमंत्री अमित शाह के अलावा पार्टी अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के सामने  विरोध व्यक्त करने से भी नहीं चूके | इस असाधारण स्थिति की वजह से भाजपा आलाकमान काफी परेशानी में है क्योंकि दक्षिण के इस प्रवेश द्वार में यदि पराजय मिली तब निकट भविष्य में होने वाले राजस्थान , म.प्र , छत्तीसगढ़ और तेलंगाना विधानसभा के चुनाव में उसके सामने परेशानी पैदा हो जायेगी | हालाँकि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस की स्थिति भी कुछ ख़ास अच्छी नहीं है किन्तु कर्नाटक के ही मल्लिकार्जुन खरगे के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन जाने के बाद से वह मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने  में जुटी है | प्रदेश सरकार छवि के मामले में वैसे ही काफी बदनाम है जिस वजह से येदियुरप्पा को हटाकर बसवराज बोम्मई को मुख्यमंत्री बनाये जाने का लाभ फ़िलहाल तो नजर नहीं आ रहा | अब तक जितने भी चुनाव पूर्व सर्वेक्षण आये उनमें भी भाजपा कांग्रेस से पिछड़ती दिखाई गयी है | ऐसे में अब उसकी उम्मीदें जनता दल ( एस ) के प्रदर्शन पर टिकी हैं जो भाजपा  विरोधी मतों में बंटवारा करते हुए कांग्रेस का नुकसान कर सकता है | हालाँकि 2018 में भी ऐसा हो चुका है जब  भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर भी बहुमत से थोड़ी सी दूर रह गई | येदियुरप्पा ने शपथ भी ले ली किन्तु इस्तीफा देना पड़ा | बाद में जनता दल ( एस ) के कुमार स्वामी को समर्थन देकर कांग्रेस  ने मिली जुली सरकार भी बना ली जिसे कुछ समय बाद दलबदल करवाकर भाजपा ने गिरवा दिया और सत्ता हासिल कर ली | यही खेल बाद में म.प्र में भी  दोहराया गया | लेकिन चुनाव के ठीक पहले भाजपा में जिस तरह का नाटक कर्नाटक में चल रहा है वह उसके लिए खतरे  का संकेत है | दरअसल दूसरी पार्टी से आये लोगों के जरिये तात्कालिक लाभ अर्जित करने की नीति कालान्तर में नुकसानदेह साबित होती है | इन बाहरी लोगों की मिजाजपुर्सी में पार्टी के अपने भरोसेमंद कार्यकर्ताओं और तपे – तपाए नेताओं की उपेक्षा होती है | ये कहानी पूरे देश में चल रही है | राजस्थान में भाजपा की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के भ्रष्टाचार की जांच को  लेकर अनशन  करने वाले सचिन पायलट को गत दिवस केन्द्रीय मंत्री गजेन्द्र शेखावत ने पार्टी  में आने का न्यौता दे डाला | ऐसा नहीं है कि अन्य दलों से आये सभी लोगों का विरोध होता हो क्योंकि उनमें से कुछ ऐसे लोग भी हैं जो वैचारिक तौर पर काफी मूल्यवान साबित होते हैं | असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा और केरल के राज्यपाल आरिफ मो. खान उन लोगों में से हैं जिन्होंने पार्टी को अपने कार्य और विचार से मजबूती प्रदान की | लेकिन सतपाल मलिक जैसे भी हैं जो राज्यपाल रहते हुए भी प्रधानमंत्री की आलोचना करते रहे | प.बंगाल में तो भाजपा को इन दलबदलुओं का बेहद कड़वा अनुभव हुआ | पार्टी  अपने विस्तार के लिए नए लोगों को  जोड़े ये तो ज्ररूरी है लेकिन ऐसा करते समय उसे ये भी देखना चाहिए उनकी वजह से कहीं अपने घर में तो दरार नहीं पड़ रही | दूसरी बात ये कि एक कैडर आधारित पार्टी में जो नीति और सिद्धांतों की राजनीति करने का दावा करती है अनुशासन की डोर इतनी कमजोर कैसे होने लगी कि उसे अपंने खून पसीने से सींचने वाले भी सत्ता के मोहपाश में जकड़ गए | कर्नाटक जैसी  समस्या आने वाले समय में म.प्र में भी  आ सकती है क्योंकि यहाँ भी कांग्रेस से आये  दर्जन भर से ज्यादा नेता सत्ता में हिस्सेदार हैं जिनको लेकर विधानसभा चुनाव  के समय नाराजगी के हालात बन सकते हैं | यद्यपि कर्नाटक में भाजपा के लिये राहत की खबर ये है कि शरद पवार ने भी राकंपा के लगभग 50 प्रत्याशी उतारने का ऐलान कर दिया है | लेकिन भाजपा अपने दम पर बहुमत का आंकड़ा छू सकेगी इसमें आज के हालात में तो संदेह है | हालाँकि उसे उम्मीद है कि प्रधानमंत्री की छवि के कारण उत्तराखंड और गोवा की तरह कर्नाटक में भी उसकी नैया किनारे लग जायेगी किन्तु यही आशावाद उसे हिमाचल प्रदेश में ले डूबा था जो संयोग से भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष का गृह राज्य है | सही बात ये है कि सत्ता के सुखद सान्निध्य में रहकर भाजपा के नेताओं और कार्यकर्ताओं के मनोभाव भी बदल गए हैं और नई भर्ती के तहत जो लोग पार्टी में आ रहे हैं उनके लिये राजनीति सेवा के बजाय एक पेशा है दौलत और शोहरत कमाने का जिनकी देखासीखी पार्टी का कथित देव - दुर्लभ कार्यकर्ता भी सत्ताभिमुखी होता जा रहा है |

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Friday 14 April 2023

एनकाउंटर : अपराधी से सहानुभूति रखना भी अपराध है



उ.प्र के कुख्यात माफिया अतीक अहमद के बेटे असद और उसके एक साथी को राज्य पुलिस के विशेष कार्यदल ने कल झांसी के पास मुठभेड़ में मार गिराया | ये दोनों उमेश पाल हत्याकांड में आरोपी थे और लम्बे समय से फरार थे |  उनके मारे  जाने की  खबर पर  उ.प्र सहित देश भर से आई ज्यादातर प्रतिक्रियाओं में कार्रवाई का समर्थन करते हुए  योगी सरकार की इस बात के लिए प्रशंसा की गयी कि वह प्रदेश से माफिया राज खत्म करने की अपनी प्रतिबद्धता पर मुस्तैदी से डटी है | उल्लेखनीय है  अनेक दशकों से 100 से अधिक अपराधों का आरोपी अतीक अपने राजनीतिक संपर्कों के कारण बचता आ रहा था | लेकिन योगी सरकार के आने के बाद उसका संरक्षण बंद हो गया और हाल ही में उसे हत्या के पहले मामले में आजीवन कारावास हुआ | लेकिन इसके पहले ही एक हत्याकांड के चश्मदीद गवाह की प्रयागराज में जिस तरह बीच सड़क पर हत्या की गई उससे ये जाहिर हुआ कि उसका आपराधिक जाल अभी  भी कायम  है | उस हत्याकांड में असद को भी साफ़ देखा गया जो गिरफ्तारी से बचने के लिए  फरार हो गया और अंततः गत दिवस पुलिस के साथ हुई  मुठभेड़ में मारा गया | योगी सरकार के राज में अब तक 100 से ज्यादा अपराधियों के एन्काउंटर हो चुके हैं | इनमें सबसे ज्यादा चर्चित विकास दुबे का रहा | जिसके बाद योगी आदित्यनाथ को ब्राह्मणों का विरोधी प्रचारित किया गया | जो भी अपराधी मारा गया उसकी जाति और धर्म का हवाला देकर राजनीति की गयी | लेकिन 2022 के विधानसभा चुनाव में योगी सरकार की वापसी ने साबित कर दिया कि अपराधियों के विरुद्ध की गयी आक्रामक कार्रवाई को जनता ने पसंद किया | ये बात तो आम जन भी मानने लगे हैं कि इस राज्य की कानून व्यवस्था में आश्चर्यजनक सुधार हुआ है | हालाँकि अभी भी अनेक माफिया सकिय हैं लेकिन मुख्यमंत्री योगी ने  आर्थिक ढांचे को तहस - नहस करते हुए उनकी कमर तोड़ने का जो अभियान छेड़ रखा है उसके अनुकूल परिणाम  सतह पर दिखाई देने लगे हैं | लेकिन दूसरी तरफ राजनीतिक जमात में कुछ ऐसे लोग भी हैं जिन्हें माफिया के सफाए के तरीके पर ऐतराज है | और इसीलिये गत दिवस असद की मौत के बाद सपा , बसपा , कांग्रेस और तृणमूल सहित असदुद्दीन ओवैसी ने एनकाउंटर को फ़र्जी बताते हुए उसकी उच्च स्तरीय जाँच कराये जाने की मांग कर डाली | अखिलेश यादव को इस बात पर आपत्ति है कि योगी सरकार अदालत को नजरंदाज करते हुए दंड प्रक्रिया में हस्तक्षेप कर रही है | जाति और धर्म विशेष को निशाना बनाये जाने की बात भी वे ऐसी हर घटना के बाद कहते ही  हैं | मायावती भी उन्हीं के अंदाज में बोलती दिखीं  |  ऐसी ही टिप्पणियां करते हुए कांग्रेस और तृणमूल ने  योगी सरकार पर कानून हाथ में लेने के साथ ही धार्मिक भेदभाव करने का आरोप लगाया। सबसे गुस्से में नजर आए असदुद्दीन ओवैसी जिनके अनुसार ये असद का नहीं संविधान का एनकाउंटर था। इन सब प्रतिक्रियाओं में पुलिस और योगी सरकार को कठघरे में खड़ा किया गया जो नई बात नहीं है किंतु किसी ने भी ये कहने का साहस नहीं दिखाया कि असद ने बीच सड़क पर एक आदमी की हत्या की थी जिसका पूरा दृश्य सीसी कैमरे में कैद है। उक्त में किसी ने भी उसे आत्मसमर्पण की सलाह पहले दी हो ये सुनने में नहीं आया।  उल्लेखनीय है कि खालिस्तान समर्थक उग्रवादी अमृतपाल सिंह भी लंबे समय से फरार है ।लेकिन अनेक सिख नेताओं और संगठनों द्वारा उससे आत्मसमर्पण के अपील की जा चुकी है । लेकिन ऐसा अनुरोध  असद से किसी ने नहीं किया । उसके पिता अतीक भी  संवाददाताओं से बात करते हुए अपनी जान को खतरा होने का रोना तो रोते रहे परंतु फरार बेटे को आत्मसमर्पण का संदेशा देने की समझदारी नहीं सिखाई।और शायद इसी  पश्चताप की अभिव्यक्ति उनकी उस टिप्पणी से हुई जिसमें बेटे की मौत का जिम्मेदार खुद को माना गया। बहरहाल , जिस तरह असद और उसके पहले हुए एनकाउंटरों का विरोध कतिपय राजनेताओं द्वारा किया जाता रहा , उसे देखकर कश्मीर घाटी के उन दिनों की याद ताजा हो उठती है जब किसी आतंकवादी के मारे जाने पर उसे शहीद घोषित करते हुए उसके जनाजे में जनसैलाब उमड़ पड़ता था। दुख की  बात ये है कि अतीक अहमद और मुख्तार अंसारी जैसे माफिया सरगनाओं को सपा और बसपा जैसे दलों का संरक्षण मिलता रहा। ये बात भी काफी तेजी से उछाली जा रही  है कि योगी सरकार केवल उन्हीं अपराधी तत्वों पर कार्रवाई कर रही है जो विपक्षी पार्टियों से जुड़े हुए हैं । जाति और धर्म के आधार पर एनकाउंटर का आरोप तो पुराना है । लेकिन इस आधार पर  विकास दुबे अतीक , मुख्तार और असद जैसे लोगों के प्रति सहानुभूति रखना क्या अपराधों को संरक्षण देना नहीं है ? रोचक बात ये है अतीक से जुड़े तमाम मामलों में सपा और बसपा भी जुड़े नजर आते हैं । ऐसे दुर्दांत अपराधियों को विधायक और सांसद बनाकर मजबूती प्रदान करने में इन दोनों दलों का हाथ किसी से छिपा नहीं है। लेकिन जिस उमेश पाल की नृशंस हत्या की गई  उसके परिवार के प्रति संवेदना प्रगट करने  अखिलेश , मायावती और ओवैसी में से कौन गया ? अतीक 100 से  ज्यादा मामलों में आरोपी है लेकिन उसे सजा तो अब जाकर मिली और वह भी पहले मामले में । अब सोचिए बाकी के प्रकरणों का निपटारा होने में कितने साल या दशक लगेंगे? अतीक और मुख्तार द्वारा अवैध तरीकों से अर्जित अचल संपत्ति पर बुलडोजर चलाए जाने का भी विरोध किया जाता है। वैसे किसी भी एनकाउंटर की जांच होनी ही चाहिए क्योंकि  किसी व्यक्ति को गलत तरीके  से मारा गया तब  दोषियों को दंडित किया जाना जरूरी है , किंतु क्या अपराधी की निंदा करने का साहस उन नेताओं में है जो एनकाउंटर को फर्जी बताकर पुलिस को ही हत्यारा साबित करने में जुट जाते हैं । उल्लेखनीय है उमेश पाल की हत्या के बाद अतीक की पत्नी भी फरार है। यदि उन्हें  पुलिस से डर  है तो वे सीधे अदालत या किसी अन्य राज्य में आत्मसमर्पण कर सकते थे । ऐसे में हत्या के आरोपी का पुलिस से बचकर भागना ही उसके अपराध को प्रमाणित कर देता है और ऐसे लोगों की मौत पर आंसू बहाने वाले भी चोर - चोर , मौसेरे भाई की कहावत को चरितार्थ कर रहे  है। उ. प्र की पुलिस और योगी सरकार पर आरोप लगाने वाले नेताओं और समाचार माध्यमों में बैठे कथित मानवाधिकारवादियों को इस बात का जवाब देना चाहिए कि ऐसे माफिया सरगनाओं को सांसद और विधायक बनवाने का पाप जिनके हाथों से हुआ , क्या उनको उसका पश्चाताप है ? यदि हां , तो वे अतीक और उनके कुनबे द्वारा किए गए  अपराधों को संरक्षण दिए जाने के लिए सार्वजनिक तौर पर क्षमा याचना करें । लेकिन बजाय ऐसा करने के वे अपराधियों के प्रति ही सहानुभूति व्यक्त करने में जुटे हैं।जहां तक बात अखिलेश और मायावती की है तो ये कहना गलत नहीं है कि उन्हीं की वजह से उ.प्र में माफिया पनपा ही नहीं  बल्कि संसद और विधानसभा में भी बैठने की हैसियत में आ गया। रही बात पक्षपात की तो योगी सरकार को ये प्रमाणित करना चाहिए कि उसकी कार्रवाई निष्पक्ष है और भाजपा से जुड़े अपराधी तत्वों का भी अंजाम वैसा ही होगा । समय आ गया है जब अपराधी को समूचे समाज का दुश्मन मानकर समुचित दंड दिया जाए। और यदि उसके लिए एनकाउंटर की जरूरत पड़े तो उसमें हिचकने की  जरूरत नहीं है , वरना अपराधों की अमर बेल फैलती ही चली जायेगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी 



Thursday 13 April 2023

नीतीश अपनी कमजोरी पर पर्दा डालने विपक्षी एकता की मुहिम चला रहे



बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार देश के सर्वाधिक अनुभवी राजनेताओं में हैं | 1974 में बिहार के जिस  छात्र आन्दोलन ने देश में बड़े राजनीतिक परिवर्तन का सूत्रपात किया उससे वे भी जुड़े रहे | मूल रूप से समाजवादी विचारधारा के अनुयायी नीतीश  समन्वयवादी माने जाते हैं | इसीलिये उन्होंने अनेक मुद्दों पर वैचारिक मतभेदों के बावजूद भाजपा के साथ गठबंधन किया और वाजपेयी शासन में मंत्री भी रहे | उसी दौरान उनको बिहार का मुख्यमंत्री भी बनाया गया लेकिन बहुमत के अभाव में वे त्यागपत्र देने मजबूर हुए | कालान्तर में उनकी राजनीतिक यात्रा गाड़ी बदल – बदलकर आगे  बढ़ती रही | कभी जनता दल  , तो कभी समता पार्टी के रूप में वे सियासत के मैदान में बने रहे | भाजपा के साथ रहते हुए भी नरेंद्र मोदी से परहेज के कारण वापस लालू के साथ चले जाना और फिर लौटकर उन्हीं मोदी से मिलकर सत्ता में बने रहने के बाद दूसरी बार लालू के बेटों के साथ गठबंधन करने के कारण उनके साथ जुड़ा सुशासन बाबू नामक विशेषण पल्टूराम में बदल गया | इसमें  दो राय नहीं है कि लालू के राज में बिहार जिस बदहाली और बदनामी के दौर से गुजरा उससे नीतीश ने न  सिर्फ राहत दिलवाई अपितु राज्य को विकास की राह पर आगे भी बढ़ाया | लेकिन वे अपनी दम पर वह करिश्मा नहीं कर सके | उनके सुशासन में भाजपा साथ रही वर्ना वे लालू के एम - वाय ( मुस्लिम – यादव ) समीकरण को छिन्न – भिन्न नहीं कर पाते | लेकिन इतना होने के बाद भी  उनको  मन ही मन ये डर लगता रहा कि देर - सवेर भाजपा  बिहार में सबसे बड़ी ताकत बन जायेगी | इसीलिए एनडीए में रहते हुए भी नरेंद्र  मोदी के साथ मंच  साझा करने से बचते हुए उनको बिहार में चुनाव प्रचार से रोकने का दबाव भी उन्होंने डाला | हालाँकि श्री मोदी से परेहज तो स्व. रामविलास पासवान ने भी खूब किया लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ गठबंधन करने के बाद वे जीवन पर्यंत उसके साथ रहे जबकि नीतीश बाबू बीते नौ साल में कई मर्तबे पाला बदल चुके हैं | 2013 तक उनको भाजपा से दिक्कत न थी लेकिन जैसे ही श्री मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनाये गए , उनकी उम्मीदें टूट गईं | दरअसल अटल जी के सक्रिय  राजनीति से दूर होने और  2009 में लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में एनडीए को लोकसभा चुनाव में मिली हार के बाद से ही  उनको लगने लगा था कि भाजपा उन्हें ही  2014 में पेश करेगी | मुख्यमंत्री के तौर पर उनका प्रदर्शन सराहनीय था और बहुमत न आने पर अन्य दलों से उनके नाम पर सहयोग मिलने की संभावना भी थी | हालाँकि बतौर मुख्यमंत्री श्री मोदी को ज्यादा प्रशंसा मिल रही थी लेकिन 2002 के गुजरात दंगों का जिन्न उनकी राह में रूकावट  था | नीतीश सोच रहे थे कि जिस तरह आडवाणी जी की  उग्र हिंदुत्व की छवि की वजह से अटल जी को भाजपा आगे लाई , वैसा ही कुछ उनके पक्ष में भी हो जायेगा | लेकिन जब भाजपा ने श्री मोदी पर दांव लगाया तो गुजरात दंगों के बाद वाजपेयी सरकार छोडकर चले गए  स्व. पासवान ने तो वापस एनडीए का दामन थाम लिया लेकिन नीतीश अलग होकर बैठ गए | केंद्र में मोदी सरकार बनने के बाद उन्होंने फिर एक बार उन्हीं लालू से गठबंधन किया जिनको जेल भिजवाने में उनका भी हाथ था | और उन दोनों के गठजोड़ ने  2015 के विधानसभा चुनाव में मोदी लहर को रोकने का कारनामा कर दिखाया जो वाकई बड़ी बात थी | और उसी के बाद एक बार फिर ये कहा जाने लगा कि नीतीश बाबू भविष्य में प्रधानमंत्री पद के लिए विपक्ष के उम्मीदवार होंगे | लेकिन  जल्द ही उनकी अक्ल ठिकाने आ गई और महज दो साल बाद ही  वे लालू कुनबे से पिंड छुडाकर मोदी शरणं गच्छामि हो गए | 2019 के लोकसभा चुनाव में भी वे भाजपा के साथ रहे | लेकिन महज  एक मंत्री पद दिए जाने से नाराज होकर केंद्र सरकार से अपनी  पार्टी जद ( यू ) को दूर रखा | यद्यपि बाद में उनकी मर्जी के बिना उनके राज्यसभा सदस्य आरसीपी सिंह मोदी सरकार में मंत्री बन गए जिनसे नीतीश की नाराजगी इस हद तक बढ़ी कि उन्हें राज्यसभा चुनाव में दोबारा टिकिट न देकर मंत्री पद और पार्टी दोनों से हटने मजबूर होना पड़ा | हालाँकि 2020 में नीतीश और भाजपा ने विधानसभा चुनाव मिलकर लड़ा और कड़े मुकाबले में जैसे – तैसे बहुमत मिलने के बाद वे मुख्यमंत्री भी बने किन्तु उनकी पार्टी भाजपा से बहुत पीछे रह जाने की वजह से वे भविष्य के प्रति चिंतित हो उठे | उनकी नाराजगी की वजह स्व. पासवान के बेटे चिराग द्वारा एनडीए में रहते हुए भी जद ( यू ) प्रत्याशियों के विरुद्ध उम्मीदवार लड़ाए जाने से थी क्योंकि उसी के कारण उनकी पार्टी को अनेक सीटें गंवाना पड़ीं | ये भी सुनने में आया कि भाजपा ने उनसे केंद्र की राजनीति में आने के लिए कहा | बात तो उनको राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति बनाने की भी चली किन्तु कभी नागरिकता संशोधन बिल तो कभी जातिगत जनगणना जैसे  मुद्दों पर वे भाजपा को  असमंजस में डालते रहे | और अंततः पुरानी कहानी दोहराते हुए इस्तीफा दिया और उसके फ़ौरन बाद लालू की पार्टी राजद सहित अन्य गैर भाजपा दलों के साथ गठबंधन कर सरकार बना ली  | जिन तेजस्वी के भ्रष्टाचार के सवाल पर उन्होंने महागठबंधन तोड़ा था उन्हीं के साथ फिर जुड़ गए | और तो और ये कसम भी खाने लगे कि दोबारा भाजपा के साथ नहीं जायेंगे | लेकिन उनको ये बात समझ में आने लगी है कि उनकी पार्टी का भविष्य बिहार में सुरक्षित नहीं है | आरसीपी सिंह के बाद उपेन्द्र कुशवाहा भी साथ छोड़ गए | लालू कुनबा फिर अपनी हरकतों पर जिस तरह उतर आ या है उससे वे परेशान तो हैं लेकिन  अकेले दम पर चुनाव लड़ने की क्षमता बची नहीं | इसीलिए कुछ समय से विपक्षी एकता का राग छेड़ रहे थे | और इसी सिलसिले में गत दिवस दिल्ली आकर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे से भी मिल लिए | जिसके बाद से ही मोदी विरोधी प्रचारतंत्र उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बताने लगा | स्मरणीय है नीतीश कांग्रेस को ये सन्देश भेजते रहे हैं कि वह गठबंधन के नेता बनने का लालच छोड़ दे | उनका ये दावा भी चर्चा में आता रहा कि सभी विपक्षी एक साथ आ जाएँ तो 2024 में भाजपा को हराया जा सकता है | लेकिन उनकी ये कवायद ज्यादा असरकारक इसलिए नहीं होगी क्योंकि अब वे विपक्ष के बड़े नेता नहीं रह गए हैं | ममता , केसीआर , शरद पवार , स्टालिन और अखिलेश की तरह उनका जनाधार नहीं बचा | उनके पास विधानसभा में 50 से भी कम विधायक हैं | उनसे ज्यादा बिहार में तेजस्वी चर्चित हैं | ऐसे में विपक्षी एकता की उनकी कोशिश अपनी कमजोरी पर पर्दा डालने का का प्रयास है | सबसे बड़ी बात ये हैं कि सात बार मुख्यमंत्री बनने में पांच मर्तबा उनको भाजपा का सहारा मिला | इसलिए बाकी विपक्षी दल उन पर ज्यादा भरोसा नहीं कर पा रहे | यहाँ तक कि बिहार के कांग्रेस नेता भी उनसे रुष्ट बताये जाते हैं | बीच – बीच  में उनके वापस भाजपा के साथ जाने की खबरें भी  उड़ा करती हैं | इन सबके कारण नीतीश अपनी छवि और विश्वसनीयता दोनों गँवा चुके हैं | विपक्षी एकता की उनकी मुहिम दरअसल अपने को प्रासंगिक दिखाने का प्रयास है | लेकिन दोबारा लालू  परिवार के साथ जुड़कर उन्होंने अपनी साख को जो नुकसान पहुँचाया उसकी भरपाई  आसानी से  होने वाली  नहीं है |

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Wednesday 12 April 2023

केवल दर्जा ही नहीं अपितु सोच भी राष्ट्रीय होना चाहिए



गत दिवस चुनाव आयोग द्वारा आम आदमी पार्टी को  राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा देने के साथ ही राकांपा और तृणमूल सहित कुछ दलों को राष्ट्रीय दलों की सूची से बाहर कर दिया गया | इस हेतु जो मानक तय किये गए हैं उन पर आम आदमी पार्टी ने अपने को साबित कर दिया | मसलन दिल्ली और पंजाब में सरकार बनाने के साथ ही गोवा और गुजरात विधानसभा चुनाव में मिले मतों के आधार पर उसे राष्ट्रीय पार्टी  की हैसियत दे दी गयी | पार्टी के संयोजक अरविन्द केजरीवाल सहित  अन्य नेताओं ने इस पर खुशी जाहिर करने के साथ ही कहा कि इतनी कम अवधि में यह दर्जा हासिल करना किसी उपलब्धि  से कम नहीं है | श्री केजरीवाल ने यह विश्वास भी जताया कि अब आम आदमी पार्टी स्वयं को राष्ट्रीय विकल्प के तौर पर बेहतर तरीके से पेश कर सकेगी | उसका आशावाद गलत भी नहीं है क्योंकि 2014 में महानगर पालिका जैसी दिल्ली विधानसभा पर काबिज होने के बाद उस करिश्मे को दोबारा दोहराना और फिर पंजाब जैसे राज्य में भारी बहुमत के साथ सत्ता में आना निश्चित तौर पर किसी भी ऐसे राजनीतिक दल के लिए गर्व करने लायक है जिसका  भारत में स्थापित राजनीतिक विचारधाराओं से कोई वास्ता नहीं है | यह पार्टी न तो जाति की बात करती है और न ही धर्म की | भाषा , क्षेत्र या ऐसे ही किसी और सम्वेदनशील मुद्दे से भी वह दूर है | उसका उदय अन्ना हजारे के लोकपाल आन्दोलन की कोख से हुआ था | और तब भ्रष्टाचार के विरुद्ध निर्णायक लड़ाई उसका घोषणापत्र था | लेकिन उसे सत्ता मिली उन वायदों से जो पूरी तरह स्थानीय  और आम आदमी की दैनिक ज़िन्दगी से जुड़े थे | मुफ्त बिजली , पानी , सरकारी विद्यालयों में गुणवत्ता युक्त शिक्षा और मुहल्ला  क्लीनिक जैसी बातें दिल्ली के लोगों के मन में बैठ गईं और उन्होंने इस पार्टी को आजमाने का फैसला किया | 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रचंड मोदी लहर में आम आदमी पार्टी ने जमानत जप्ती का रिकॉर्ड तो बनाया परन्तु  श्री केजरीवाल ने वाराणसी में नरेंद्र मोदी के मुकाबले उतरकर भविष्य का संकेत दे दिया | कुछ महीनों बाद ही वे दिल्ली के मुख्यमंत्री बन गए | सातों लोकसभा सीटें जीतने वाली भाजपा तीन विधायकों तक सिमट गयी वहीं कांग्रेस का तो सूपड़ा ही साफ हो गया | इसी के साथ श्री केजरीवाल की महत्वाकांक्षाएं भी परवान चढ़ने लगीं और बजाय दिल्ली की राजनीति में सीमित रहने के वे सीधे प्रधानमंत्री से टकराने की नीति पर चलने लगे | देश के भ्रष्ट नेताओं की सूची  जारी करते हुए  पार्टी ने अपने आपको दूध का धुला और श्री केजरीवाल को राजा हरिश्चन्द्र का अवतार साबित करने का दांव भी चला | चूँकि दिल्ली की जनता से किये वायदे पूरे किये गए इसलिए देश भर में इस पार्टी को लेकर उत्सुकता पैदा हुई | हालांकि अभी तक दो राज्य ही उसके कब्जे में आये हैं | गोवा और गुजरात में वह इस अंदाज में लड़ी जैसे वहां भी दिल्ली और पंजाब की कहानी दोहराई जायेगी किन्तु उसकी उम्मीदें पूरी नहीं हो सकीं | हालाँकि वायदे तो उसने दिल्ली वाले ही किये किन्तु मतदाताओं पर उसका असर बहुत सीमित रहा | लेकिन उस कारण वह राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल करने में जरूर सफल हो गई जिसके अपने फायदे हैं,  विशेष रूप से लोकसभा चुनाव में | सही बात तो ये है कि ये पार्टी उन राज्यों में ही पैर जमा पा रही है जहां कांग्रेस और भाजपा में सीधा मुकाबला है | लेकिन जहां भी अन्य क्षेत्रीय दल मजबूत हैं वहां आम आदमी पार्टी का प्रभाव अपेक्षानुसार नहीं बढ़ रहा | दरअसल श्री केजरीवाल की समस्या ये है कि वे सभी नेताओं और पार्टियों को भ्रष्ट मानते रहे हैं | ऐसे में किसी के साथ गठबंधन में उनको हेटी लगती है | यद्यपि भाजपा के विरोध में वे अन्य विपक्षी दलों के साथ उठते - बैठते तो रहे लेकिन जब भी गठबंधन की बात होती है तो वे मेरी मुर्गी की डेढ़ टांग साबित करते हुए अलग हो जाते हैं | हाल ही में अपने दाहिने हाथ कहे जाने जाने वाले मनीष सिसौदिया की गिरफ्तारी के बाद मजबूरन वे कांग्रेस के साथ मिलकर ईडी और सीबीआई के विरुद्ध आवाज उठाने लगे | और राहुल गांधी की सदस्यता समाप्त किये जाने का विरोध भी उन्होंने किया क्योंकि अपने दो पूर्व मंत्रियों के जेल जाने के बाद उनकी ईमानदारी का दावा कमजोर पड़ने लगा | यहाँ तक कि लालू प्रसाद यादव के परिजनों पर पड़े छापे का भी आम आदमी पार्टी ने विरोध किया |  ऐसे में राष्ट्रीय पार्टी बन जाने के बाद वह अपने को भाजपा और कांग्रेस के विकल्प के तौर पर किस आधार पर पेश करेगी ये बड़ा सवाल है | एक बात और भी है कि मुफ्त उपहार की जो राजनीति इस पार्टी की पहिचान बनी उसे तो अन्य दलों ने  भी अपना लिया | कुछ तो उससे भी आगे निकल चुके हैं | भाजपा और काग्रेस भी चुनावों में खैरात बाँटने में किसी से पीछे नहीं हैं | और फिर श्री केजरीवाल तथा आम आदमी पार्टी के अन्य नेता देश के सामने कोई विचारधारा पेश करने में विफल हैं | देश की सुरक्षा और विदेश नीति के साथ ही अर्थव्यवस्था जैसे गंभीर मुद्दों पर इस पार्टी का दृष्टिकोण एक तो अस्पष्ट है और जो है भी वह भी मुख्यधारा  से मेल नहीं खाता | अरविन्द केजरीवाल न  तो अब पहले जैसे ईमानदार माने जा रहे हैं और न ही उनकी पार्टी की छवि भी वैसी रही | यही वजह है कि आम आदमी पार्टी के अधिकांश संस्थापक सदस्यों को तो या तो बाहर निकाल दिया गया या फिर वे खुद छोड़कर चलते बने | अब जबकि वह  राष्ट्रीय पार्टी  बन चुकी है तब उसे अपनी सोच को भी राष्ट्रीय बनाना होगा | मुफ्त बिजली - पानी जैसे मुद्दे तो  अपनी जगह हैं  लेकिन जब तक पार्टी राष्ट्रीय के साथ ही अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर अपना दृष्टिकोण  सामने नहीं रखती तब तक उसे व्यापक स्तर पर सफलता की उम्मीद नहीं करनी चाहिए | और ये भी कि व्यर्थ की बातों में उलझने की वजह से दिल्ली और पंजाब की सरकार के विरुद्ध असंतोष के स्वर सुनाई देने लगे हैं |

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Tuesday 11 April 2023

अपराध मुक्त चुनाव : जनता को ही कुछ करना होगा




चुनाव आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय में हलफनामा पेश करते हुए अपराधी तत्वों को चुनाव लड़ने से रोकने के लिए कानून बनाने की गुजारिश की है | जिन प्रत्याशियों के विरूद्ध अपराधिक प्रकरणों में आरोप पत्र दाखिल हो जाते हैं उनको चुनाव लड़ने से रोकने हेतु प्रस्तुत याचिका पर आयोग ने साफ़ कहा कि वह चुनावों को अपराध मुक्त करवाने हेतु संकल्पबद्ध है | लेकिन ऐसा करने के लिए उसके पास कोई वैधानिक अधिकार नहीं है | उस हलफनामे पर न्यायालय द्वारा केंद्र सरकार को नोटिस देकर जवाब माँगा गया है | इस बारे में सबसे रोचक बात ये है कि चुनाव आयोग ने इच्छा तो व्यक्त कर दी किन्तु शक्ति न होने की लाचारी भी जता दी | वैसे भी उसे बिना दांत वाला शेर कहा ही जाता है। जिसकी बानगी चुनावों के दौरान पकड़े जाने वाले काले धन को लेकर होने वाली कार्रवाई से मिलती है। उन छापों में करोड़ों रुपए जप्त होने के बाद कितने लोगों को दंडित किया गया इसकी कोई जानकारी नहीं मिलती। अन्य अनियमितताओं को रोक पाने में भी आयोग फिसड्डी साबित होता रहा है। स्व.टी. एन शेषन के कार्यकाल में  चुनाव आयोग का जो दबदबा कायम हुआ वह धीरे - धीरे कम होता चला गया। चुनाव खर्च कहने को तो सीमित किया गया है लेकिन निर्धारित सीमा में प्रमुख राजनीतिक दलों का कोई उम्मीदवार अपवादस्वरूप ही चुनाव लड़ता होगा। लेकिन जहां तक बात अपराध मुक्त चुनाव की है तो वह केवल चुनाव आयोग के बस में नहीं है। संदर्भित याचिका में की गई मांग यदि मान ली जावे तो फिर राजनीतिक दलों के पास उम्मीदवारों का टोटा पड़ जायेगा और फिर केवल आरोप पत्र के आधार पर ही यदि चुनाव लड़ने से वंचित किया जावे तो फिर उस प्रावधान का दुरुपयोग भी होना तय है । न्यायशास्त्र भी मानता है कि जब तक किसी को न्यायालय सजा न दे तब तक उसको दोषी मान लेना उसके प्रति अन्याय होता है। ऐसी स्थिति में ले देकर नैतिकता का ही आसरा बच रहता है जिसके अंतर्गत किसी अपराधिक प्रकरण में अपने विरुद्ध आरोप पत्र पेश हो जाने के बाद निर्दोष साबित होने तक  व्यक्ति खुद होकर चुनाव लड़ने से पीछे हट जाए। अक्सर ये उदाहरण दिया जाता है कि स्व.लालबहादुर शास्त्री ने रेल दुर्घटना होने पर रेल मंत्री के पद से त्यागपत्र देकर अपनी नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार की थी किंतु उसके उलट दिल्ली सरकार के दो मंत्री अपराधिक प्रकरण में जेल में हैं किंतु पद छोड़ने की शराफत उन्होंने नहीं दिखाई। ऐसी ही स्थिति महाराष्ट्र में उद्धव सरकार के दो मंत्रियों के साथ देखने मिली। जिनमें से एक तो गृहमंत्री थे। ऐसे में चुनाव आयोग तो क्या संसद भी इस बारे में कानून बनाएगी ये सोचना ही व्यर्थ है क्योंकि शायद ही कोई राजनीतिक दल इस हेतु तैयार होगा। याचिका कर्ता की अर्जी पर चुनाव आयोग द्वारा अपराधमुक्त चुनाव हेतु सहमत होने के बाद भी बिना संकोच किए अपनी मजबूरी बताते हुए गेंद सर्वोच्च न्यायालय के जरिए सरकार के पाले में खिसका दी गई । चार सप्ताह बाद सरकार और समय मांगेगी , जो उसे दिया जाना अवश्यंभावी है किंतु वह भी अंत में अपने हाथ खड़े कर देगी , ये मान लेना गलत नहीं होगा। और जहां तक सर्वोच्च न्यायालय की बात है तो वह ज्यादा से ज्यादा सरकार को कानूनी प्रावधान बनाने हेतु सुझाव अथवा निर्देश दे सकता है। लेकिन संसद का जो रवैया आजकल देखने में आ रहा है इसके चलते शायद ही वहां इस  बेहद महत्वपूर्ण मुद्दे पर कोई बात करने राजी होगा क्योंकि बहुत बड़ी संख्या उन लोगों की संसद और विधानसभाओं में है जिनके विरुद्ध अपराधिक प्रकरण संबंधी आरोप पत्र अदालतों में पेश किए जा चुके हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि चुनावों को अपराधियों से मुक्त करवाने की मुहिम क्या कानूनी और व्यवहारिक दिक्कतों के चलते फुस्स हो जायेगी , और क्या अतीक अहमद जैसे लोग लोकसभा और विधानसभा में आते रहेंगे ? इस तरह के और भी सवाल हैं जिनका उत्तर खोजे बिना लोकतंत्र और चुनाव प्रक्रिया की पवित्रता को बनाए रखना असंभव है। और तब समाज की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वह गंभीर मामलों में आरोपित खराब छवि के व्यक्ति को हरवा दी , फिर चाहे वह किसी भी पार्टी अथवा पद से जुड़ा क्यों न हो । जिन विकसित देशों में लोकतंत्र अपने सही स्वरूप में संचालित है वहां सरकार और कानून से ज्यादा समाज ऐसे मामलों में सख्त है। जिसकी वजह से अवांछित तत्व चुनाव लड़ने का साहस ही नहीं कर पाते। भारत में चूंकि चुनाव संबंधी समूची सोच लोकतंत्र के भविष्य के बजाय भाषा , क्षेत्र , जाति और धर्म के बाद फिर राजनीतिक जमात पर आधारित है इसलिए यहां नैतिकता की बात सोचने की  फुरसत किसी को नहीं है। जब संविधान की शपथ लेने वाले जेल में रहकर भी मंत्री पद नहीं छोड़ते तब और कुछ कहने को रह ही कहां जाता है ?


- रवीन्द्र वाजपेयी 

Monday 10 April 2023

राजस्थान में भी पंजाब जैसी गलती कर रही कांग्रेस



राजस्थान के मामले में कांग्रेस आलाकमान फिर वही गलती कर रहा है जिसकी वजह से बीते कुछ सालों में उसके लगभग दो दर्जन  नेता पार्टी छोड़ गए | उनमें से कुछ तो ऐसे थे जिनको गांधी परिवार के बेहद निकट समझा जाता था | हाल ही में गुलाम नबी आजाद द्वारा लिखी गयी किताब में उन हालातों का विवरण भी दिया गया जिनकी वजह से वे स्वयं और पार्टी के कुछ नेता बाहर निकलने मजबूर हो गए | दरअसल कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या ये है कि वह हर फैसला गांधी परिवार पर छोड़ देती है | लेकिन परिवार के तीनों सदस्यों की निर्णय क्षमता बेहद कमजोर है | अव्वल तो वे किसी भी फैसले को टालते रहते हैं और यदि करते हैं तो उनमें मतैक्य नहीं बन पाने से बढ़ते – बढ़ते बात रुक जाती है | पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू  के बीच  लड़ाई की कीमत चुकाने के बाद भी राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच जारी जंग को रोकने का कोई भी सार्थक प्रयास अब तक नहीं किया गया | इस बारे में गांधी परिवार की सबसे बड़ी फजीहत तब हुई जब गत वर्ष पार्टी अध्यक्ष के चुनाव हेतु नामांकन भरने की बजाय  श्री गहलोत ने अपने समर्थक विधायकों से इस्तीफा दिलवाकर  ये संदेश दे दिया कि उनको राजस्थान की सत्ता से हटाने पर सरकार गिर जायेगी | उस मामले में गांधी परिवार को खून का घूँट पीकर रह जाना पड़ा | जयपुर आये दो केन्द्रीय पर्यवेक्षकों को गहलोत समर्थक विधायकों ने जिस  तरह से अपमानित किया और बाद में उन पर कोई कार्रवाई नहीं हुई तो उनमें से एक अजय माकन ने तो अपने पद से ही त्यागपत्र दे दिया | श्री गहलोत के साफ इंकार करने के बाद ही मल्लिकार्जुन खरगे को अध्यक्ष बनाया गया | लेकिन राजस्थान में चल रहा गहलोत – पायलट विवाद दिन ब दिन गंभीर होता चला गया | और अब जबकि विधानसभा चुनाव के लिए मात्र कुछ महीने बचे हैं तब श्री पायलट ने 11 अप्रैल से अनशन करने की घोषणा करते हुए जयपुर से दिल्ली तक पार्टी में खलबली मचा दी | मुद्दा भी ये कि मुख्यमंत्री श्री गहलोत ने भाजपा नेत्री और पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के विरुद्ध लगे आरोपों पर कोई भी कार्रवाई नहीं की | उल्लेखनीय है श्री गहलोत और वसुंधरा के निजी सम्बन्ध काफी अच्छे हैं | ये भी कहा जाता है कि जब श्री पायलट अपने समर्थक विधायकों को लेकर गुरुग्राम जा बैठे थे और भाजपा के सहयोग से गहलोत सरकार गिराए जाने की पूरी तैयारी हो गयी थी तब वसुंधरा ने ही रायता फैला दिया क्योंकि उनको इस बात का डर था कि सचिन के आने से पार्टी में उनका भविष्य अंधकारमय हो जायेगा | बहरहाल , श्री पायलट की वह कोशिश उन्हें बहुत महंगी पड़ गयी | उपमुख्यमंत्री सहित संगठन के सभी पद हाथ से निकल गए | उनके समर्थक मंत्री भी लालबत्ती गँवा बैठे | ऐसे में उनकी स्थिति घायल शेर जैसी हो गयी | इसमें दो मत नहीं हैं कि श्री गहलोत ने राजनीतिक चातुर्य के मामले में श्री पायलट को बौना साबित कर दिया | ये जानते हुए भी कि उनको गांधी परिवार का अंदरूनी समर्थन हासिल है ,  सार्वजनिक तौर पर सचिन का मजाक उड़ाने का कोई अवसर मुख्यमंत्री ने नहीं छोड़ा | पार्टी हाईकमान की समझाइश पर श्री पायलट ने काफी संयम बनाये रखा लेकिन जब उन्हें लगा कि समय उनके हाथ से निकलता जा रहा है तब उन्होंने अनशन जैसा फैसला कर डाला | इस विवाद में जितनी गलती श्री गहलोत और सचिन की है उससे ज्यादा गांधी परिवार की है क्योंकि दोनों नेता उसके बेहद करीबी माने जाते रहे हैं | यदि वह समय रहते उन दोनों  का विवाद सुलझाकर बीच का रास्ता निकाल लेता तब नौबत यहाँ तक नहीं आ पाती | राजस्थान के पार्टी प्रभारी सुखजिंदर सिंह रंधावा भी कल जयपुर जा रहे हैं लेकिन जैसी खबर है अब तक सचिन को अनशन स्थगित करने की सलाह न प्रभारी ने दी और न ही गांधी परिवार ही आगे आया | श्री गहलोत तो ऐसा लगता है अपने इस प्रतिद्वंदी को पार्टी से बाहर निकालने पर आमादा है क्योंकि ऐसा होने के बाद राजस्थान में कांग्रेस पूरी तरह से उनके कब्जे में आ जायेगी | राजनीति के जानकारों का मानना है श्री पायलट के पास भी ज्यादा विकल्प नहीं बचे | वसुंधरा को मुद्दा बनाकर उन्होंने एक तीर से दो निशाने साधे हैं। उनको समझ में आ गया है कि भाजपा में उनकी राह में महारानी रोड़ा बनी रहेंगी। इसलिए अब वे तीसरी शक्ति के तौर पर खुद को स्थापित करने की तरफ बढ़ते हुए राजस्थान में कांग्रेस और भाजपा के विकल्प के तौर पर अपनी जगह  बनाने की सोच रहे हैं। उन्हें लग रहा है कि  प्रदेश में तीसरा मोर्चा उनकी अगुआई में खड़ा हो सकेगा और त्रिशंकु विधानसभा बनने पर वे किंग मेकर की भूमिका में हो सकते हैं। भविष्य तो कोई नहीं जानता किंतु इतना तय है कि इस प्रकरण से कांग्रेस आलाकमान की कमजोरी एक बार फिर सामने आ गई है जो लंबे समय से चले आ रहे इस विवाद को हल करवाने में नाकामयाब साबित हुआ। इस प्रकरण में एक बात और भी साफ है कि सचिन  कांग्रेस में रहे तो भी श्री गहलोत उन्हें मजबूत  नहीं होने देंगे और केंद्र में चूंकि कांग्रेस की संभावना है नहीं इसलिए वहां भी कोई अवसर नजर नहीं आता। ऐसे में वे क्या करेंगे ये आने वाले दिनों में  स्पष्ट हो जाएगा लेकिन अनके अनशन का निर्णय कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की विफलता का ताजा सबूत है जिसकी वजह से पार्टी को झटके पर झटके लग रहे हैं और छोटे - छोटे दलों के नेता तक उसको आंखें दिखाने का दुस्साहस करने लगे हैं। उद्धव ठाकरे और शरद पवार ने बीते सप्ताह जिस तरह कांग्रेस की जुबान बंद करवाई वह इसका ताजा उदाहरण है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Saturday 8 April 2023

पवार का नया पावर गेम शुरू



राकांपा ( राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ) के संस्थापक शरद पवार ने एक बार फिर ये साबित कर दिया कि वे राजनीति के कितने बड़े खिलाड़ी हैं | बीते कुछ दिनों के भीतर ही उन्होंने कांग्रेस की उस व्यूह रचना को छिन्न  – भिन्न का कर दिया जिसके जरिये राहुल गांधी को विपक्ष का सबसे बड़ा चेहरा बनाकर 2024 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के मुकाबले प्रधानमंत्री उम्मीदवार के तौर पर खड़ा किया जाना है | विपक्ष की एकता हेतु जितनी भी मुहिम फिलहाल चल रही हैं उनमें से अधिकतर में श्री पवार की सलाह ली जा रही है | प.बंगाल का पिछले चुनाव जीतने के फौरन बाद ममता बैनर्जी ने जब कांग्रेस से अलग विपक्ष का मोर्चा बनाने की घोषणा करते हुए राहुल गांधी की क्षमता पर संदेह जताया तब वे सबसे पहले मुम्बई जाकर श्री पवार से ही मिलीं | यद्यपि उन्हें कोई  आश्वासन इस मराठा नेता ने नहीं दिया | उसके बाद और भी विपक्षी नेता उनसे मिलते रहे किन्तु श्री पवार ने केवल उनकी बात सुनकर चलता कर दिया | भारत जोड़ो यात्रा के सन्दर्भ में उनके द्वारा राहुल के प्रयास की प्रशंसा तो की गई लेकिन यात्रा के बीच में या श्रीनगर में उसके समापन पर कांग्रेस के न्यौते पर वे न खुद गए और न ही उनकी पार्टी का कोई अन्य नेता | लेकिन इस दौरान वे कांग्रेस के साथ भी  मेलजोल बनाये रहे जिसका कारण महाराष्ट्र में महा विकास अगाड़ी नामक गठबंधन है जिसमें रांकापा के साथ कांग्रेस  और शिवसेना भी शामिल हैं | इस बेमेल गठजोड़ के शिल्पकार भी श्री पवार ही हैं | लेकिन बीते कुछ दिनों में ही श्री पवार ने जिस  तरह से पैंतरेबाजी की उसकी वजह से विपक्ष के भीतर खलबली मच गयी है | कांग्रेस को तो मानो सांप सूंघ गया है | जनवरी में हिंडनबर्ग की रिपोर्ट आने के बाद से राहुल गांधी को जैसे ब्रह्मास्त्र की प्राप्ति हो गयी क्योंकि उसमें गौतम अडानी के आर्थिक साम्राज्य के विरुद्ध जो खुलासे किये गए उनसे राजनीति तो गरमाई ही कुछ दिनों तक तो ऐसा लगा कि देश की अर्थव्यवस्था ही धराशायी हो जायेगी | भारतीय स्टेट बैंक और जीवन बीमा निगम जैसे संस्थानों द्वारा अडानी समूह में किये गए निवेश को डूबता हुआ माना जाने लगा और इसके लिए राहुल और उनके प्रचारतंत्र ने सीधे – सीधे श्री मोदी को कठघरे में खड़ा करने की रणनीति तैयार कर ली | संसद के बजट सत्र की शुरुआत से ही इस मामले में जेपीसी बनाये जाने की मांग के साथ  संसद न चलने देने की जिद ठान ली गयी | बाद में श्री गांधी ने ब्रिटेन में जो भाषण दिए उनके लिए माफी मांगे  जाने को  सत्तापक्ष ने प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाते हुए संसद को ठप्प करने का जवाबी दांव चल दिया | इस शीतयुद्ध के दौरान ही सूरत की अदालत से आये  फैसले से राहुल की लोकसभा सदस्यता चली गयी जिसने आग में  घी का काम  किया | और जो विपक्षी दल अभी तक जेपीसी के मुद्दे पर दूर थे वे भी सहानुभूति लेकर कांग्रेस के साथ उठने - बैठने लगे जिसमें आम आदमी पार्टी भी शामिल थी | लेकिन जोश में आकर राहुल ने पत्रकार वार्ता में माफी मांगे जाने के सवाल पर कह दिया कि वे सावरकर नहीं गांधी हैं | उल्लेखनीय है लम्बे समय से वे सावरकर के माफीनामे को लेकर बयानबाजी करते रहे हैं | लेकिन इस बार उनकी  टिप्पणी उनके गले पड़ गयी | पहले तो उद्धव ने विरोध जताया और कांग्रेस द्वारा बुलाई बैठकों से दूरी बना ली और उसके बाद श्री पवार ने  बैठक में पहुंचकर कांग्रेस को समझा दिया कि राहुल को रोका जावे अन्यथा महाराष्ट्र में गठबंधन टूट जाएगा | यही नहीं उन्होंने कांग्रेस सहित बाकी विपक्षी दलों को भी बता दिया कि सावरकर के प्रति महाराष्ट्र में बेहद सम्मान है | उनकी बात का असर भी हुआ और राहुल ने उसके बाद सावरकर के बारे में कहना बंद कर दिया | लेकिन बीते रविवार को नागपुर प्रेस क्लब में श्री पवार ने सावरकर को महान देशभक्त और समाज सुधारक बताते हुए  अंडमान की सेलुलर जेल में उनके द्वारा सही गयी यातनाओं का उल्लेख तो किया ही लेकिन अडानी विवाद में कांग्रेस द्वारा जेपीसी की मांग से असहमति व्यक्ति करते हुए कह दिया कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बनाई गयी जाँच समिति के बाद इसका कोई  औचित्य नहीं रह जाता क्योंकि वह समिति ज्यादा बेहतर है | उनके उक्त बयान के बाद कांग्रेस भौचक रह गई | हालाँकि रांकापा ने संसद में भी जेपीसी के मामले में तटस्थ भाव अपना रखा था किन्तु सार्वजनिक तौर पर उस मांग को निरर्थक बताकर उन्होंने ये संकेत दे दिया कि वे कांग्रेस को इतनी  छूट  नहीं  देंगे जिससे वह मोदी विरोधी राजनीति का नेतृत्व करने लायक बन जाए | और फिर कल उन्होंने एक साक्षात्कार में न सिर्फ जेपीसी की उपयोगिता को ही नकार दिया अपितु हिंडनबर्ग  रिपोर्ट की प्रामाणिकता पर भी संदेह जताकर राहुल और कांग्रेस की धडकनें बढ़ा दीं | यही नहीं तो श्री पवार ने भारत के उद्योगपतियों के योगदान की प्रशंसा करते हुए यहाँ तक कह दिया कि पहले टाटा – बिरला निशाने पर हुआ करते थे लेकिन अब अम्बानी और अडानी पर हमले हो रहे हैं | उनके अनुसार अडानी को जानबूझकर लक्ष्य बनया गया जिनका देश में बिजली उत्पादन में बड़ा योगदान है | उनके इस बयान के बाद कांग्रेस ने फौरन उनके निजी विचार बताकर पिंड छुड़ाया किन्तु संसद सत्र के समाप्त होते ही रांकापा नेता द्वारा कांग्रेस की लाइन के एकदम विपरीत चल देने से विपक्षी एकता की तमाम कोशिशों को तो पलीता लगा ही लेकिन उसके साथ ही नए राजनीतिक समीकरण बनने की संभावनाएं भी पैदा कर दीं | ये बात भी ध्यान देने योग्य है कि उनके भतीजे अजीत पवार ने भी दो दिन पहले ही अरविन्द केजरीवाल द्वारा प्रधानमंत्री की शैक्षणिक योग्यता पर उठाये  जा रहे सवाल का विरोध किया था | राजनीति की नब्ज जानने वाले श्री पवार के इस दांव के परिणाम और उद्देश्यों का अध्ययन करने में जुट गए हैं | जिस तरह एक झटके में उन्होंने सावरकर मुद्दे पर राहुल को मुंह बंद रखने मजबूर किया और अब जेपीसी की मांग की हवा निकालते हुए हिंडनबर्ग रिपोर्ट को रद्दी की टोकरी में फेंकते हुए अडानी सहित तमाम उद्योगपतियों का बचाव किया , वह साधारण बात नहीं है | कांग्रेस को इतना बड़ा झटका तो राहुल को सजा मिलने और सदस्यता जाने से भी नहीं लगा था जितना श्री पवार ने कल दे डाला |


- रवीन्द्र वाजपेयी