कर्नाटक में विधानसभा चुनाव के लिए दो सप्ताह से भी कम समय बचा है | मुख्य मुकाबला भाजपा , कांग्रेस और जनता दल (से) के बीच है | बचे हुए समय में इन दलों के बड़े – बड़े महारथी मैदान में कूद पड़े हैं और मतदाताओं को लुभाने के लिए वायदों की झालर जगह – जगह लटकी दिखाई दे रही है | कोई एक रुपया देने की बात करता है तो दूसरा सवा रुपैया लेकर खड़ा हो जाता है | राष्ट्रवाद और धर्म निरपेक्षता जैसे मूलभूत मुद्दे पृष्ठभूमि में जा चुके हैं | भ्रष्टाचार के आरोपों से भी मतदाता प्रभावित नहीं होते क्योंकि जिस पार्टी को बेईमान कहकर लांछित किया जाता है उसी के नेता को अपने कुनबे में शामिल करने में किसी को परहेज नहीं है | जाति जरूर चुनाव दर चुनाव महत्वपूर्ण औजार बनने लगी है जिसके आगे धार्मिक ध्रुवीकरण भी कमजोर पड़ जाता है | लेकिन सबसे ज्यादा धूम रहती है मुफ्त उपहारों की | कर्नाटक के चुनाव तो सिर पर आ चुके हैं लेकिन तेलंगाना , राजस्थान , छत्तीसगढ़ और म.प्र जैसे राज्यों में महीनों बाद होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर अभी से चुनावी डिस्काऊंट सेल सजने लगी हैं | पहले से कर्ज के बोझ में दबे राज्यों की सरकार में बैठे लोग ऐसे – ऐसे वायदे किये जा रहे हैं जिनको पूरा करने में समूचे अर्थतंत्र की कमर टूट जायेगी | लेकिन मतदाता को इससे कोई ऐतराज नहीं है | वह तो बाजार में खड़े उपभोक्ता की तरह होकर रह गया है | उसे जिस दुकान के डिस्काऊंट सेल के में ज्यादा फायदा नजर आता है वह उसी की तरफ आकर्षित हो जाता है | और हो भी क्यों न , क्योंकि जब राजनेताओं का एकमात्र मकसद येन केन प्रकारेण सत्ता हासिल कर अपना घर भरना रह गया है तब बेचारे मतदाता से ही क्यों लोभ – लालच से ऊपर उठकर फैसला करने की उम्मीद की जाए | ये सिलसिला भारतीय राजनीति का स्थायी गुण बनता जा रहा है | किसी पार्टी और उसके नेता की नीतियाँ और कार्यप्रणाली उतनी महत्वपूर्ण नहीं रही जितनी चुनाव जीतने के क्षमता है | यही वजह है की अतीक अहमद और मुख्तार अंसारी जैसे लोग विधायक और सांसद बनने में कामयाब होते रहे हैं | प्रश्न ये है कि चुनाव के समय ही गाँव , गरीब , दलित , पिछड़े , किसान और मजदूर क्यों याद आते हैं | इसी समय ये ध्यान आता है कि महिलाओं के पास हाथ खर्च के लिए पैसे की किल्लत रहती है | विद्यालय जाने वाले छात्र – छात्राओं को सायकिल और स्कूटी की दरकार है |युवाओं को मोबाइल , टैबलेट और लेपटॉप की जरूरत भी सबसे ज्यादा चुनाव के दौरान ही महसूस की जाती है | बीते पांच साल में घरेलू महिलाओं को रसोई गैस महंगी मिलने जैसे एहसास भी सत्ताधारियों को तभी होते हैं जब चुनाव की घंटी बज उठती है | कहने का आशय ये है कि बाजारवाद और उपभोक्तावाद ने केवल आर्थिक गतिविधियों को ही नहीं वरन समूची राजनीतिक संस्कृति पर कब्जा जमा लिया है | और इस वजह से राजनीतिक दलों की सैद्धांतिक पहिचान नष्ट हो गयी है | पहले किसी नेता का व्यक्तित्व उसकी विचारधारा से प्रेरित और प्रभावित होता था | लेकिन अब जाति और मुफ्त उपहार उसकी छवि से जुड़ गए हैं | जिन राजनीतिक दलों ने जाति प्रथा मिटाकर समतामूलक समाज की स्थापना का बीड़ा उठाया था , आज वे ही नई – नई जातियों की खोज करने में जुटे हैं | नेताओं के दलबदल के पीछे भी अब जातीय उपेक्षा को कारण बताया जाता है | सवाल ये है कि यह विकृति किस कारण से आई और इसका सीधा जवाब है देश में कभी न खत्म होने वाले चुनाव | पूरे पांच साल तक कहीं न कहीं चुनाव होने से न सिर्फ राजनीतिक दल और सम्बन्धित राज्य की सरकार , बल्कि केंद्र सरकार भी सब काम छोड़कर उसमें उलझ जाती है | इस कारण नीतिगत ठहराव की समस्या उत्पन्न होने लगी गई | मसलन एक राजनीतिक दल अलग – अलग राज्यों में भिन्न आर्थिक और नीतियां और कार्यक्रम अपनाने बाध्य होता है | उदाहरण के लिये गुजरात में शराब बंदी होने के बाद भी भाजपा शसित बाकी राज्य इससे बचते हैं क्योंकि शराब उनकी कमाई का मुख्य स्रोत है | अन्य विषयों में भी ये बात देखने मिलती है | इसके चलते क्षेत्रीय दल भी लगातार ताकतवर होते जा रहे हैं क्योंकि उनकी दृष्टि केवल उनके राज्य तक ही सीमित है | और उनके दबाव की वजह से राष्ट्रीय दलों को भी ऐसे फैसले लेने पड़ते हैं जिनका दूरगामी असर राष्ट्रहित में नहीं है | इस बारे में चिंता का विषय ये है कि राजनीतिक दल , चुनाव आयोग और सर्वोच्च न्यायालय समय – समय पर चुनव सुधार की बात तो करते हैं लेकिन एक देश एक चुनाव जैसे अति महत्वपूर्ण मुद्दे पर बात कारने की फुर्सत किसी को नहीं है | हालाँकि इस बारे में किसी भी निर्णय पर पहुँचने के पहले ढेर सारी व्यावहारिक और वैधानिक परेशानियाँ सामने आयेंगीं किन्तु कभी न कभी तो ऐसा करना ही होगा | अन्यथा चुनाव प्रणाली में जटिलता बढ़ने के साथ ही संघीय ढांचे को भी नुकसान होने की आशंका है जिसके संकेत काफी कुछ तो सामने आने भी लगे हैं | लेकिन इस बारे में दुर्भाग्यपूर्ण बात ये है कि राष्ट्रीय दलों के बीच ही इस बारे में सहमति नहीं है | चुनाव आयोग भी ऐसे मुद्दों से पल्ला झाड़कर गेंद संसद और सर्वोच्च न्यायालय के पाले में सरका देता है | लेकिन सर्वोच्च न्यायालय और संसद की प्राथमिकतायें भी उनकी अपनी पसंद की होने से राष्ट्रीय महत्व का ये विषय उपेक्षित रह जाता है |सही बात तो ये है कि पूरे पांच साल चलने वाले चुनाव बेमौसम बरसात की तरह है जिससे फायदा कम नुकसान ज्यादा होता है।
- रवीन्द्र वाजपेयी
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