Thursday 6 April 2023

समाचार माध्यम : स्वतंत्रता आवश्यक किंतु स्वच्छंदता अनुचित




केरल के एक मलयालम चैनल मीडिया वन पर केंद्र सरकार द्वारा लगाई गई रोक को सर्वोच्च न्यायालय ने इस आधार पर हटा दिया  क्योंकि सरकार की आलोचना इसका आधार नहीं हो सकता । उक्त चैनल द्वारा प्रसारित सामग्री को केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्रालय ने राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा मानते हुए उसके लायसेंस नवीनीकरण करने पर प्रतिबंध लगा दिया था। केरल उच्च न्यायालय द्वारा भी इस निर्णय को सही ठहराया गया किंतु गत दिवस मुख्य न्यायाधीश डी. वाय. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने उस फैसले को उलटते हुए कहा कि समाज के संचालन के लिए स्वतंत्र समाचार माध्यम जरूरी है और आलोचना को हमेशा सरकार का विरोध नहीं कहा जा सकता और इस तरह के प्रतिबंधों से लगता है कि प्रेस को हमेशा सरकार का समर्थन करना चाहिए। श्री चंद्रचूड़ ने चैनल की याचिका विचारार्थ स्वीकार करते हुए कहा कि  अंतरिम आदेश के लागू रहने तक चार सप्ताह के भीतर उसके लायसेंस का सूचना प्रसारण  मंत्रालय नवीनीकरण करे। उल्लेखनीय है मीडिया वन पर आरोप था कि उसके अंशधारकों के प्रतिबंधित जमायत ए इस्लामी से संबंध हैं और वह नागरिकता संबंधी कानूनों के विरुद्ध अल्पसंख्यकों को भड़काता था जिससे राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा हो गया। सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र के उस निर्णय को लोकतंत्र के लिए नुकसानदेह मानते हुए चैनल पर रोक लगाने के फैसले पर अंतरिम आदेश जारी कर दिया। सतही तौर पर देखें तो लोकतंत्र की मूलभूत आवश्यकता के लिए प्रेस की स्वतंत्रता से भला कौन  इंकार करेगा ? विशेष रूप से वर्तमान परिस्थितियों में जब समाचार माध्यमों की विश्वसनीयता और सम्मान अब तक के  सबसे निचले स्तर पर है। सही मायनों में तो  समाचार पत्रों की स्वतंत्रता संपादक के कर्मचारी बन जाने से कब की खत्म हो चुकी है। रही बात टीवी चैनलों की तो उनकी पत्रकारिता व्यावसायिकता और ग्लैमर में उलझकर रह गई । ये वैसे ही है जैसे व्यवसायिक सिनेमा ने कला फिल्मों को घाटे का सौदा बना दिया और ओटीटी नामक माध्यम ने वास्तविकता के नाम पर गाली - गलौच और अश्लीलता को परोसकर बॉक्स आफिस के कथित दबदबे की धज्जियां उड़ा दीं। समाचार पत्र यदि किसी बड़े औद्योगिक घराने का है तब तो उसकी नीति और नीयत दोनों सत्ताभिमुखी हो जाती हैं। और यदि वह किसी छोटी हैसियत वाले का है तो सरकारी विज्ञापन की मजबूरी उसकी निष्पक्षता और निर्भीकता को पूरी तरह न सही किंतु काफी हद तक तो प्रभावित करती ही है। यही वजह है कि समाचार पत्र जन सरोकार की बजाय व्यावसायिक प्रतिबद्धता के प्रतीक बन गए हैं । टीवी चैनलों का आर्थिक प्रबंधन तो वैसे भी रहस्यों से घिरा है क्योंकि परदे पर जो लोग दिखते हैं वे केवल कठपुतली हैं जिनकी डोर  पीछे बैठे लोगों के हाथ होती है । यही वजह है कि उनसे निष्पक्षता की उम्मीद निरर्थक है। इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय को ये कहना पड़ा कि स्वतंत्र प्रेस , मजबूत लोकतंत्र के लिए जरूरी है और आलोचना को सरकार का विरोध मान लेना गलत है।लेकिन इस बारे में ये बात भी विचारणीय है कि क्या ये स्थिति अचानक बन गई ? देश के आजाद होने के बाद लंबे समय तक एक ही पार्टी के निर्बाध शासन से प्रेस भी उसके आभामंडल से प्रभावित था। पत्रकारों की सूची में स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ी हस्तियां होने से उसमें वैचारिक एकरूपता थी। हालांकि धीरे - धीरे और धाराएं भी मुख्यधारा की पत्रकारिता से जुड़ीं किंतु सत्ता के विपरीत चलने की सजा उन्हें भोगनी पड़ी। आज जो राजनीतिक मंडली पत्रकारिता की स्वतंत्रता का गाना गाती फिरती है उसके शासनकाल में ही पहली बार देश ने सेंसरशिप का  दंश  सहा था । बीते तीन दशक में  समाज के हर क्षेत्र की तस्वीर बदल गई है। बाजारवाद ने लोगों की  मानसिकता  और प्राथमिकता दोनों में परिवर्तन कर दिया। ऐसे में समाचार माध्यम भी नए कलेवर में आ गए  तो चौंकने वाली बात नहीं होनी चाहिए।वैसे भी तकनीक का प्रभाव बढ़ने से पत्रकारिता में संवेदनशीलता घटी है। स्वतंत्रता के नाम पर स्वच्छंदता ने पैर पसार लिए तो  चमक - दमक में दायित्वबोध लुप्त होकर रह गया । इसका सबसे बड़ा नुकसान ये हुआ कि भारत तेरे टुकड़े होंगे जैसे नारों को अभिव्यक्ति के अधिकार का रूप दे दिया गया। जिस वीरप्पन डाकू को पुलिस नहीं ढूंढ पाती थी उसका साक्षात्कार लेकर एक पत्रकार महानायक बन गया। आतंकवादी से बातचीत को साहसिक पत्रकारिता मान लिया गया और  नक्सलियों से सहानुभूति को जनवादी सोच का नाम दिया जाने लगा  । परिणामस्वरूप नग्नता की तेज हवा में नैतिकता के वस्त्र उड़े जा रहे हैं। ऐसी स्थिति में जब कोई  व्यक्ति या संस्थान अभिव्यक्ति  के नाम पर मर्यादाओं की लक्ष्मण रेखा लांघता है तब उसे स्वतंत्रता कहकर प्रोत्साहित करना भी लोकतंत्र की नसों में धीमा जहर घोलने जैसा है। अभिव्यक्ति  और धर्मनिरपेक्षता की आड़ में इस देश में जो खतरनाक खेल चलता आया  उसमें समाचार माध्यमों का भी एक वर्ग शामिल हो गया है। इसके पीछे कौन लोग हैं , ये तो नजर नहीं आता लेकिन उनके द्वारा जो भी किया जाता है वह देश को भीतर से कमजोर करने का जरिया बनता जा रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने प्रेस की स्वतंत्रता का महत्व प्रतिपादित करते हुए  तो ढेर सारी नसीहतें दे दीं किंतु जिन लोगों के कारण पत्रकारिता अपनी नैसर्गिक पवित्रता खोती जा रही है उनका पर्दाफाश भी जरूरी है। दरअसल पत्रकारिता को कथित सेलेब्रिटीज  की बजाय दोबारा उन लोगों के हवाले  करना होगा जो श्रमजीवी की बजाय कर्मजीवी हों और जिनको पैकेज से ज्यादा मान - सम्मान में रुचि रहे। उल्लेखनीय है पत्रकारिता की अनावश्यक सक्रियता न्यायपालिका को भी चुभती  है , तभी वह मीडिया ट्रायल के बारे में तीखी टिप्पणी करता रहता है। इसलिए इस प्रश्न का उत्तर भी मिलना चाहिए कि किसी व्यक्ति या संगठन के बारे में बेहद कड़वी बात कहने को तैयार बैठे सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी आलोचना की वैसी छूट प्रेस को क्यों नहीं  दी जैसी उसने संदर्भित फैसले में  सरकार को सुझाई है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


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