बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार विपक्षी एकता के सबसे बड़े पैरोकार बनकर उभर रहे हैं। हालांकि संसद के बजट सत्र के दौरान अडानी मामले में जेपीसी के गठन को लेकर हुए गतिरोध के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे द्वारा विपक्ष को एकजुट करने के अनेक प्रयास हुए । बाद में राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता खत्म होने का मुद्दा भी इस कोशिश में जुड़ गया। लेकिन वह मुहिम संसद का सत्र समाप्त होते ही ठंडी पड़ गई। इसका सबसे बड़ा कारण राकांपा प्रमुख शरद पवार का रवैया है।जिन्होंने सावरकर और अडानी दोनों मामलों में कांग्रेस को पिछले पैरों पर खड़े होने मजबूर कर दिया। उसके बाद से श्री पवार की अपनी पार्टी के भीतर भी खींचातानी चल पड़ी और भतीजे अजीत के भाजपा के साथ जुड़कर महाराष्ट्र की सत्ता में भागीदारी करने की खबरें जोर पकड़ने लगीं । बात तो यहां तक चली कि श्री पवार की बेटी सुप्रिया सुले केंद्र की मोदी सरकार में मंत्री बन जायेंगी । हालांकि इस बारे में पवार परिवार के बयानों से स्पष्ट तो कुछ नहीं झलक रहा लेकिन इतना जरूर है कि बीते कुछ दिनों से उसकी तरफ से विपक्षी मोर्चा बनाए जाने के बारे में कोई बात नहीं हो रही। उल्टे अजीत तो नरेंद्र मोदी की तारीफ करते सुनाई दे रहे हैं। ऐसे में नीतीश कुमार के आज प.बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी से मिलने से क्या हासिल होगा ये बड़ा सवाल है क्योंकि विपक्ष की वे सबसे पहली ऐसी नेता हैं जिन्होंने कांग्रेस और राहुल गांधी के नेतृत्व को पूरी तरह से नकार दिया और अपनी पार्टी तृणमूल को भाजपा का विकल्प बनने में सक्षम बताया। हाल ही में उन्होंने सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव से मुलाकात कर कांग्रेस से अलग विपक्षी मोर्चे की जमीन तैयार की जिसमें तेलंगाना के मुख्यमंत्री के.सी. राव भी शामिल माने जाते हैं । हालांकि हाल ही में नीतीश , दिल्ली में राहुल गांधी के अलावा आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल से भी मुलाकात कर चुके हैं परंतु विपक्ष का नेता कौन होगा इस बारे में जो अनिश्चितता है उसके कारण गठबंधन का ठोस स्वरूप सामने नहीं आ पा रहा। ऐसा लगता है ममता , अखिलेश और केसीआर जैसे विपक्षी नेता कांग्रेस से सीधे बात नहीं करना चाहते क्योंकि अपने प्रभाव वाले राज्य में वे उसको पनपने का अवसर देने के इच्छुक नहीं हैं । संभवतः इसीलिए नीतीश को आगे किया जा रहा है क्योंकि उनके सभी नेताओं से अच्छे रिश्ते हैं ।इस बारे में आम आदमी पार्टी का रवैया भी ढुलमुल है क्योंकि जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं उन सभी में वह उम्मीदवार उतारने की तैयारी में है । जिसका सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस को होगा। ऐसे में नीतीश और ममता की मुलाकात में मोदी विरोध पर तो सहमति हो भी जाए किंतु कांग्रेस के समर्थन पर बात बनेगी ये कठिन लगता है। वैसे भी कांग्रेस द्वारा वामपंथियों के साथ किए गए गठबंधन से ममता का पारा बेहद गर्म है। ये सब देखने से तो लगता है कि आगामी कुछ दिनों में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे और उनके साथ शिवसेना छोड़कर आए विधायकों के भविष्य का फैसला होने तक विपक्षी एकता की गुत्थी उलझी ही रहेगी। यदि उन विधायकों की सदस्यता बच गई तब भी श्री पवार की पार्टी भाजपा के साथ आयेगी या नहीं , ये भी बड़ा सवाल है। और कहीं सदस्यता चली गई तब तो राकांपा की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जायेगी क्योंकि तब अजीत पवार मुख्यमंत्री बनने की अपनी इच्छा पूरी करने मोदी शरणम् हो सकते हैं। विपक्षी एकता का भविष्य कर्नाटक विधानसभा चुनाव के परिणाम पर भी टिका है। यदि वहां कांग्रेस को निर्णायक जीत मिली तब निश्चित रूप से उसके साथ ही राहुल गांधी की वजनदारी बढ़ेगी और वे अपनी शर्तों पर गठबंधन को स्वरूप देने की स्थिति होंगे। लेकिन चुनाव नतीजा उसके विपरीत हुआ तब ममता , अखिलेश , केसीआर और केजरीवाल टेढ़े चलते दिखेंगे। इसलिए नीतीश भले ही ममता से मिलने की औपचारिकता पूरी कर लें क्योंकि वे काफी समय पहले इसका ऐलान कर चुके थे किंतु उन्हें हासिल कुछ नहीं होगा। कल ही श्री पवार ने महाराष्ट्र में महा विकास अघाड़ी के भविष्य पर जिस तरह सवाल लगाया वह भी काबिले गौर है। दरअसल विपक्ष में जब तक प्रधानमंत्री के उम्मीदवार पर सर्वसम्मत फैसला नहीं हो जाता तब तक इस बारे में की जाने वाली कोशिशें हवा - हवाई साबित होती रहेंगी। और फिर नीतीश कुमार खुद कितने विश्वसनीय हैं ये कहना कठिन है। इसके अलावा राहुल गांधी की सजा पर अदालत के फैसले पर भी बाकी विपक्षी दलों की निगाहें लगी हैं क्योंकि यदि उच्च न्यायालय से भी उनको राहत न मिली तब विपक्षी दलों के बीच नए सिरे से गठबंधन उभरेंगे और तीसरे मोर्चे के पुनरोदय की संभावना प्रबल हो जाएगी।
- रवीन्द्र वाजपेयी
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