Thursday 27 April 2023

नक्सलियों द्वारा की जाने वाली हत्याओं पर हाय तौबा क्यों नहीं मचती



गत दिवस छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में माओवादियों या नक्सलियों ने सुरक्षा बलों के एक वाहन को विस्फोटक से उड़ा दिया जिसमें 10 जवान और वाहन  चालक मारे गए | ये पहला मौका नहीं है जब चीन की शह पर भारत को अंदर से कमजोर करने और देश में गृहयुद्ध के हालात बनाने की मंशा पालकर बैठे माओवादियों ने इस तरह निर्दोष जवानों की नृशंस हत्या की हो | समय – समय पर इस तरह से वे खून की होली खेलते रहते हैं | प्रत्येक घटना के बाद राज्य और केंद्र सरकार के बयान आते हैं जिनमें देश के इन दुश्मनों के विरुद्ध निर्णायक लड़ाई छेड़ने की डीगें हांकी जाती है और फिर अगली घटना तक सब शांत हो जाता है | माओवादी केवल सुरक्षा बलों को ही निशाना नहीं बनाते बल्कि हर उस व्यक्ति की निर्दयतापूर्वक हत्या कर डालते हैं जो इनकी नजर में सरकार का वफादार है | चूंकि इनका कार्यक्षेत्र घने जंगल होते हैं इसलिए इनको पकड़ना कठिन होता है | और फिर छत्तीसगढ़ के जिस इलाके में इनकी गतिविधियां हैं वह उड़ीसा , झारखंड , महाराष्ट्र और तेलंगाना से सटा होने से ये वारदात के बाद उन राज्यों में चले जाते हैं | लेकिन ये तभी संभव हो पाता है जब स्थानीय आदिवासी जनता इनको संरक्षण और सहयोग देती है | और ऐसा करना उनकी मजबूरी है क्योंकि जिस किसी पर भी इन्हें शक हो जाये कि वह इनके बारे में पुलिस या अन्य किसी सरकारी एजेंसी को खबर कर सकता है , उसकी जान ये सबके सामने लेकर आतंक का माहौल बना देते हैं | हत्या करने के लिए केवल बन्दूक का प्रयोग ही ये नहीं करते अपितु गर्दन काटने की हद तक चले जाते हैं | चूंकि आदिवासी समुदाय के पास इनसे बचाव के साधन नहीं हैं और पुलिस तथा अन्य सुरक्षा बल भी हर समय और हर जगह उनकी हिफाजत के लिए मौजूद नहीं रह सकते इसलिए उन्हें मजबूरन नक्सलियों से डरकर रहना होता है | ये भी कहा जा सकता है कि नक्सल प्रभावित इलाकों में रहने वाले ग्रामीण जन दोहरे दबाव में रहते हैं | माओवादी और सुरक्षा बल दोनों को उन्हें संतुष्ट रखना होता है | इसमें दो मत नहीं है कि नक्सलवाद के नाम पर भारत में खूनी क्रांति के जरिये साम्यवादी सत्ता कायम करने की  जो कार्ययोजना चीन ने सत्तर के दशक में बनाई थी उसका विस्तार प.बंगाल से बाहर भी अनेक राज्यों तक किया जा चुका  है,  जिनमें छत्तीसगढ़ का बस्तर काफ़ी मह्त्वपूर्ण है | इस बारे में ध्यान देने वाली बात ये है कि नक्सली ज्यादतर उन इलाकों में सक्रिय रहते हैं जहां खनिज हैं | इन क्षेत्रों में खनन का व्यवसाय करने वालों से वसूली इनकी आय का साधन होता है | आजकल महिलाएं भी माओवादी गुटों में शामिल हो रही हैं और देश के अनेक राज्यों के कुछ इलाकों में इनकी समानांतर सत्ता कायम है | लेकिन इसके आलावा भी एक वर्ग है जो न तो जंगलों में छिपा रहता है और न हथियार उठाता है | लेकिन माओवादी सोच को वैचारिक आधार देने के लिए ये समाज के विभिन्न वर्गों में रहकर व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह की भावना  फ़ैलाने का काम करता है | खुद को जनवादी कहने वाले ये लोग बुद्धिजीवी की शक्ल में वामपंथी विचारधारा के प्रसार के लिए सक्रिय रहते हैं | और इसीलिये इनके विरुद्ध शहरी नक्सली जैसा शब्द उपयोग किया जाता है | इनमें से अनेक माओवादियों की सहायता करने के आरोप में पकड़े भी जाते हैं | लेकिन उनमें से ज्यादतार सबूतों के अभाव में छूट जाते हैं | देश में माओवाद की जड़ें सींचने का काम यही शहरी वर्ग करता है जो साहित्यकार , शिक्षक , चित्रकार और पत्रकार की भूमिका में रहते हुए परोक्ष रूप से नक्सलवादियों के प्रति सहानुभूति उत्पन्न करने के काम में लगा है | यही वजह है कि माओवादी हिंसा की बड़ी – बड़ी घटनाओं पर भी उतना हल्ला नहीं मचता जितना असद और अतीक जैसे अपराधियों के मारे जाने पर सुनाई देता है | बीते कुछ दिनों  से देश के तमाम राजनेता , सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक , पत्रकार और विधि जगत से जुड़े चर्चित लोग अतीक और उसके परिजनों की मौत का मातम मानते हुए ये माहौल बना रहे हैं कि देश में संविधान खत्म हो गया है और किसी की भी जान सुरक्षित नहीं है | सरकार पर अपराधियों को दण्डित करने के अदालत के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण करने का आरोप भी चारों  तरफ सुनाई दे रहा है | लेकिन जब भी नक्सली इस तरह का नरसंहार करते हैं तब उनकी आलोचना करने वालों में ये वर्ग नजर नहीं आता जिसे दिन रात संविधान और उससे जुड़ी संस्थाओं की चिंता सताया करती है। होना तो ये चाहिए था कि पूरे देश में पक्ष - विपक्ष से ये आवाज आती कि देश को अस्थिर करने वाले इन माओवादियों को समूल नष्ट करने हेतु सुरक्षा बलों को खुली छूट दी जाए। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और न होने की उम्मीद है क्योंकि सहिष्णुता की राग अलापने वाले ज्यादातर लोगों की संवेदना तभी जागृत होती है जब कोई आतंकवादी या अपराधी मारा जाता है। देश के साथ गद्दारी करने वालों की फांसी रुकवाने के लिए जो तबका आधी रात को सर्वोच्च न्यायालय खुलवा देता है उसे माओवादी हिंसा की आलोचना करने की याद नहीं रहती। सीताराम येचुरी जैसे वामपंथी नेता नेपाल में माओवादी हिंसा से उत्पन्न स्थितियों में मध्यस्थता करवाने भागे - भागे जाते हैं लेकिन नक्सलियों को समझाकर समाज की मुख्य धारा में वापस आने के लिए प्रेरित करने का वक्त उनके पास नहीं है। ऐसा लगता है माओवादियों को जड़ से उखाड़ने का समय आ गया है। केंद्र और नक्सल प्रभावित राज्यों की सरकारों को  संयुक्त अभियान छेड़कर  हिंसा के जरिए देश को तोड़ने वाले चीन द्वारा पालित - पोषित इन माओवादियों को उन्हीं की भाषा में समझाना समय की मांग है। जब भी ये अभियान शुरू होगा तब सड़क से संसद और सर्वोच्च न्यायालय तक रूदाली गैंग छाती पीटेगी किंतु ऐसे मामलों में चुनावी राजनीति से ऊपर उठकर सोचने और कदम उठाने की जरूरत है। 

- रवीन्द्र वाजपेयी 


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