Friday 7 April 2023

सड़क जाम करने पर सजा तो संसद जाम करने पर क्यों नहीं



वैसे तो संसद के सभी सत्र महत्वपूर्ण होते हैं लेकिन बजट सत्र की अहमियत कुछ ज्यादा ही होती है जिसमें  आगामी साल के लिए देश की आर्थिक  दिशा तय की  जाती है | इसके अलावा भी कुछ महत्वपूर्ण विधेयकों सहित विधायी कामकाज निपटाए जाते हैं | बजट सत्र के प्रारम्भ में राष्ट्रति दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में अपना अभिभाषण देते हैं जो एक तरह से सरकार का नीति वक्तव्य होने से उस पर धन्यवाद प्रस्ताव के दौरान जोरदार बहस होती है | इस सत्र की अवधि भी सबसे लम्बी होती है | मोदी सरकार ने बजट को फरवरी में प्रस्तुत किये जाने की जो  व्यवस्था की उसकी वजह  से अब नया वित्तीय वर्ष शुरू होते ही विभिन्न मंत्रालयों को खर्च हेतु मिलने वाली राशि उपलब्ध होने से विकास योजनाओं के काम में विलम्ब नहीं होता | इसी तरह रेलवे का अलग बजट बंद करते हुए उसे भी आम बजट के साथ जोड़ दिया गया | इसके कारण बजट पर चर्चा हेतु ज्यादा समय सांसदों को मिलने लगा | लेकिन कल समाप्त हुए सत्र में अभूतपूर्व स्थिति देखने में मिली | उसकी वजह से वित्त विधेयक जैसा अति महत्वपूर्ण विषय भी बिना बहस के ही पारित हो गया | और भी कुछ विधेयक हैं जिन पर सदन में बहस नहीं हुई क्योंकि हंगामे के कारण सदन ठीक से चला ही नहीं | अमूमन सत्र के आख़िरी दिन सदन का माहौल कुछ  हल्का फुल्का  रहता है | शिकवे – शिकायतों के बजाय हास -  परिहास भी देखने मिलता है | लेकिन बीता सत्र इसका अपवाद बन गया | पहले चरण में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर तो फिर भी कुछ  बहस हुई लेकिन दूसरा तो एक तरह से बेकार ही चला गया | इसके लिए दोषी कौन है ये अंतहीन बहस है जिसका फैसला कोई नहीं कर सकता | उल्लेखनीय है संसद के हर सत्र के पहले लोकसभाध्य्क्ष और राज्यसभा के सभापति सर्वदलीय बैठक बुलाकर सदन को सुचारू रूप से संचालित करने हेतु सभी पार्टियों से सहयोग मांगते हैं और उसमें मौजूद विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि इस बात के प्रति आश्वस्त करते हैं कि सत्र की कार्यसूची में शामिल विषयों पर सार्थक विचार – विमर्श किया जावेगा | लेकिन पहले दिन दिवंगतों को श्रद्धांजलि देने के बाद अगले दिन से ही सत्ता और विपक्ष के बीच बाहें चढ़ाने की प्रतियोगिता शुरू हो जाती है | इसके पीछे देश और जनता से जुड़ा हुआ कोई मुद्दा हो तो टकराव समझ में आता है किन्तु निजी हितों के साथ राजनीतिक स्वार्थों के चलते सदन को ठप्प किया जाना जनता के साथ धोखाधड़ी है | गत दिवस समाप्त हुए बजट सत्र के दूसरे चरण में हुईं कुल 15 बैठकों में 5 घंटे  भी कार्यवाही नहीं चल सकी | जो जानकारी आई है उसके अनुसार पूरे बजट सत्र के दौरान लोकसभा में निर्धारित समय का तकरीबन 35 फीसदी और राज्यसभा में 24 फीसदी कामकाज हुआ | सांसदों की गैर जिम्मेदारी का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि दोनों सदनों में प्रश्नकाल तक ठीक से नहीं चला | विपक्ष द्वारा अडानी मामले में जेपीसी की मांग और फिर सत्ता पक्ष की ओर से  विदेशी धरती पर दिए गए भाषण पर राहुल गांधी के माफीनामे की जिद ने पूरे सत्र को एक तरह से बर्बाद कर दिया | विपक्ष का काले कपड़े पहनकर विरोध करना भी एक नई परिपाटी को जन्म  दे गया | वहीं सत्ता में बैठे लोगों द्वारा सदन को बाधित करना एक नए अध्याय की शुरुवात जैसा है | सत्र को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित किये जाने के बाद दोनों पक्ष  एक दूसरे को दोषारोपित कर रहे हैं | विपक्ष ने कल शाम लोकसभाध्यक्ष द्वारा दी गई दावत का भी बहिष्कार किया | इस बारे में  चिंताजनक बात ये भी है कि अब लड़ाई केवल सरकार और विपक्ष के बीच सीमित नहीं रहकर आसंदी तक भी पहुँचने लगी है | कुल मिलाकर ये कहना गलत नहीं है कि  संसदीय प्रजातंत्र जिन श्रेष्ठ परम्पराओं से प्रेरित और प्रभावित होता है उनके प्रति हमारे मौजूदा जनप्रतिनिधियों में लेश मात्र भी सम्मान नहीं बचा है | वरना दोनों सदनों में कुछ सदस्य तो ऐसे होते जो कहते , वे बिना काम किये सदन की बैठक का भत्ता नहीं लेंगे और इस बात के लिए आन्दोलन करते कि सदन की कार्यवाही को ठप्प करना उनके संवैधानिक अधिकार पर कुठाराघात है | ये सवाल भी उठने लगा है कि क्यों न लोकसेवक की श्रेणी में आने वाले सांसदों द्वारा सदन को बाधित करने जैसा कृत्य दंडनीय अपराध माना जाये | ये बात अब चुभने लगी है कि सड़क पर चकाजाम करने वाले आन्दोलनकारियों पर तो अपराधिक प्रकरण दर्ज हो जाता है किन्तु संसद को जाम  करने वाले सीना तानकर घूमा करते हैं | ये विडंबना ही है कि  जिन लोगों के हाथ में कानून बनाने का अधिकार है वे विधि द्वारा स्थापित संसद की समूची व्यवस्था को ठप्प करने में लेशमात्र भी नहीं हिचकते | अपवादस्वरूप किसी मामले में सदन में अपना विरोध करने हेतु विपक्ष सत्याग्रह स्वरूप कुछ करे तो बात समझ में आती है किन्तु गर्भगृह में आने के साथ ही आसंदी तक जा पहुंचना तो वाकई  संस्कारों की कमी का परिचायक है | इसी तरह सत्ता पक्ष अपने बहुमत के घमंड में सदन को अपनी मर्जी से चलाना चाहे तो वह स्थिति भी आदर्श नहीं हो सकती |   बेहतर हो इस मुद्दे पर राष्ट्रीय विमर्श प्रारंभ हो | सर्वोच्च न्यायालय को भी इसका संज्ञान लेना चाहिए क्योंकि संविधान के संरक्षक के रूप में संसदीय प्रणाली में आने वाली विकृतियों को दूर करना उसका भी दायित्व है | संसद के बजट सत्र का साफ़ शब्दों में कहें तो जिस तरह से सत्यानाश किया गया वह अच्छा संकेत नहीं है क्योंकि इसके बाद होने वाले सत्र में भी यदि विपक्ष जेपीसी और सत्तापक्ष माफीनामे की जिद पर अड़ा रहा तो फिर संसद अपनी उपयोगिता ही खो देगी जो देश के भविष्य के लिए किसी दुर्भाग्य से कम न होगा |

रवीन्द्र वाजपेयी 


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