Wednesday 30 September 2020

राम जन्मभूमि फैसले के बाद ये प्रकरण महत्वहीन हो चुका था



आखिऱकार 28 साल बाद फैसला आ ही गया। 6 दिसम्बर 1992 को अयोध्या में बाबरी ढांचा ढहाए जाने के आरोप में वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी, डा.मुरली मनोहर जोशी, कल्याण सिंह, उमाश्री भारती, विनय कटियार सहित विश्व हिन्दू परिषद के अनेक पदाधिकारियों और साध्वी ऋतम्भरा , आचार्य  धर्मेन्द्र , महंत नृत्यगोपाल  दास आदि 32 लोगों पर  अपराधिक षडयंत्र रचने का मुकदमा मामला सीबीआई की विशेष अदालत द्वारा ख़ारिज करते हुए सभी आरोपियों को बरी कर दिया। विशेष अदालत के न्यायाधीश  एसके यादव आज शाम सेवा निवृत्त हो जायेंगे। उन्हें गत वर्ष एक साल की सेवा वृद्धि दी गई थी। राम जन्मभूमि विवाद का फैसला करते समय सर्वोच्च  न्यायालय ने  ढांचा गिराए जाने पर अपराधिक प्रकरण जारी रखने की बात कहते हुए 30 सितम्बर तक उसका निपटारा करने का निर्देश दिया था। उस दृष्टि से श्री यादव को आज ही फैसला देना था। इस प्रकरण में कुल 48 आरोपी थे जिनमें 16 नहीं रहे। जो जीवित हैं उनमें भी अनेक बेहद वयोवृद्ध हो चुके हैं। ऐसे में इस फैसले का कानूनी स्तर भी बौद्धिक महत्व  रह गया था। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा रामजन्म भूमि हिन्दुओं को सौंपने के फैसले के बाद ढांचा गिराए जाने का मामला अधमरा सा था। इसीलिये बाबरी मस्जिद के पक्षकार रहे इकबाल अंसारी ने उक्त प्रकरण वापिस लेने की मांग भी की थी । खैर, अदालत के फैसले से अब ज्यादा  कुछ कहने की गुंजाईश नहीं बची। हालाँकि बाबरी मामले से जुड़े मुस्लिम पक्ष के कुछ लोगों ने आज के फैसले से असहमति व्यक्त करते हुए उच्च न्ययालय जाने की बात भी कही है। लेकिन व्यवहारिक और वैधानिक दोनों आधारों पर अब इस प्रकरण को खींचने का कोई लाभ नहीं होगा। फैसले  में श्री यादव ने सीबीआई द्वारा लगाये गये आरोपों को अपर्याप्त मानते हुए कहा कि ढांचा गिराए जाने की घटना आकस्मिक थी जिसके पीछे किसी षड्यंत्र  की योजना की बात गलत है। इसे कारसेवकों के उन्माद का परिणाम माना गया  जिन पर आरोप साबित करना किसी  के लिए भी  सम्भव नहीं है। वैसे भी 28 वर्ष के लम्बे कालखंड में जबकि केंन्द्र और उप्र में अनेक सरकारें बदल गईं हों , ऐसे किसी मामले को अंजाम तक ले जाना बहुत ही कठिन  था। सैकड़ों गवाहियों के बयान और भावनाओं के बीच घिरे किसी भी ऐसे मामले की  तह तक जाने की राह में इतने अवरोध और पेचीदगियां आती हैं कि अभियोजन पक्ष भी आखिर - आखिर में थक जाता है। यदि राजनेता आरोपी न होते तब शायद फैसले को इतना महत्व  भी न मिला होता। और उस पर भी भाजपा के दिग्गज नेता रहे श्री आडवाणी  और डॉ. जोशी के अलावा जितने भी शेष चेहरे हैं वे सभी देश की वर्तमान केंद्र सरकार के समर्थक माने  जाते हैं। इसलिए यदि फैसला उनके विरुद्ध जाता तब भाजपा और विहिप के साथ ही मोदी  सरकार के लिए भी बड़ी ही  विचित्र स्थिति बन  जाती और तब राम जन्मभूमि  पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए फैसले पर भी नए  सिरे से सवाल उठते। लेकिन आज के बाद केंद्र  सरकार सहित समूचे संघ परिवार ने राहत की सांस ली होगी। हालाँकि श्री आडवाणी और डॉ. जोशी को कोई पद न दिए जाने के लिए प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी को आलोचना का शिकार होना पड़ा लेकिन कुछ जानकार ये भी मानते हैं कि उसके पीछे इस प्रकरण का भी हाथ था। जो भी हो एक बहुप्रतीक्षित मामले का पटाक्षेप आज हो गया। आगे इसे घसीटने का कोई लाभ मुस्लिम पक्ष को नहीं  होगा। हिन्दू संगठनों को भी इस फैसले को न्यायिक प्रक्रिया के पूर्ण होने के तौर पर लेना चाहिए, न कि हार या जीत के रूप में। वैसे लगभग तीन दशक  तक चला ये मामला हमारी न्याय प्रणाली पर भी सवाल उठाता है। ये कहने में कुछ भी गलत न होगा कि जाँच एजेंसियों के लिए ऐसे प्रकरणों की  जाँच किसी सिरदर्द से कम नहीं होती। सरकारें बदल जाने से भी उनके काम पर असर पड़ता है।  जिस न्यायाधीश ने अपने कार्यकाल के अंतिम  दिन फैसला दिया उस पर भी उँगलियाँ उठने लगें तो आश्चर्य नहीं होगा। इस सबके बाद भी आज देश  राहत महसूस कर  रहा है। अयोध्या विवाद से जुड़े सभी मामले एक-एक करते हुए परिणाम  तक पहुँच गए और  राम मंदिर का निर्माण भी शुरू हो चुका है। ऐसे में अब जरूरत है सौहार्द्र बनाये रखने की क्योंकि वर्तमान हालात में देश किसी नए विवाद में उलझने के स्थिति में नहीं है। भले ही ओवैसी ब्रांड नेता अपना मुंह चलाने लगे हैं लेकिन उन्हें ज्यादा भाव न दिया जाए यही अच्छा होगा। 

Tuesday 29 September 2020

राजनीतिक दलों के मकडज़ाल से बाहर निकलें किसान



केंद्र सरकार द्वारा लाये गये कृषि सुधार कानूनों को बेअसर करने हेतु गैर भाजपा शासित राज्यों की सरकारों द्वारा अपने कानून बनाये जाने की चर्चा के पीछे राजनीतिक मतभेद ही हैं। लेकिन  केंद्र और राज्यों के बीच राजनीतिक मतभिन्नता यदि संघीय ढांचे की व्यवस्था को नुकसान पहुँचाने लगे तब ये बहुत ही खतरनाक परिपाटी होगी। हालाँकि संविधान में कानूनों को लेकर तीन सूचियाँ बनाई गई हैं। इनके अनुसार कुछ कानून ऐसे हैं जो पूरे देश पर लागू होते हैं जबकि कुछ ऐसे हैं जो  राज्यों के लिए ऐच्छिक होते हैं, वहीं कुछ विषय ऐसे हैं जिन पर कानून बनाना राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आता है। किसानों के हित में बनाये गए हालिया कानूनों के दायरे में यदि पूरा देश नहीं आया तब उनका मूल उद्देश्य ही पूरा नहीं होगा। गत दिवस ही पंजाब में अपना अनाज बेचने गये उप्र के किसानों को वहां के किसानों ने रोक दिया। यदि गैर भाजपा शासित राज्यों द्वारा केन्द्रीय कानूनों को अपने यहाँ प्रभावशील होने से रोका गया तो विभिन्न राज्यों के किसानों और व्यापारियों के बीच टकराहट होने के आसार बढ़ जायेंगे। उदाहरण के तौर पर छत्तीसगढ़ से किसान यदि धान मप्र के बालाघाट जिले की चावल मिल में लेकर आना चाहे जो  नजदीक होने के वजह से सुविधाजनक है, लेकिन उसे मप्र के किसान या सरकार रोके तो इससे किस तरह की स्थिति बनेगी ये विचारणीय प्रश्न है। कश्मीर से कन्याकुमारी और अटक से कटक तक भारत एक है जैसे नारे क्या निरर्थक होकर नहीं रह जायेंगे? संसद द्वारा पारित किसी कानून के नफे-नुकसान का आकलन करना राज्य का अधिकार है। लेकिन बीते कुछ समय से देखने में आ रहा है कि केंद्र सरकार से वैचारिक मतभेद रखने वाली राज्य सरकारें संसद द्वारा पारित कानूनों को लागू करने से इंकार करने का खुला ऐलान करने लगी हैं। नागरिकता संशोधन, शिक्षा नीति और अब कृषि सुधार कानून को लेकर जिस तरह का विरोध करते हुए विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा अपने अलग कानून बनाने की घोषणाएं आये दिन हो रही हैं उन्हें देखते हुए आने वाले दिनों में देश नई समस्या में उलझ सकता है। अधिकतर गैर भाजपा पार्टियाँ नहीं चाहती थीं कि कृषि सुधार विधेयक पारित हो और इसीलिये वे उसे प्रवर समिति के विचार हेतु भेजने की मांग पर अड़ी थीं। जबकि केद्र सरकार अपनी निर्धारित कार्ययोजना के अनुसार उनको पारित करने में किसी भी प्रकार के विलम्ब की पक्षधर नहीं थी। दरअसल विपक्ष भी ऐसे अवसरों पर अपनी नीति बदलता रहता है। कांग्रेस ने तीन तलाक कानून पर लोकसभा में सरकार का साथ दिया किन्तु राज्यसभा में वह उसके विरोध में अड़ गई। कृषि कानूनों को लेकर कई महीनों पहले जब अध्यादेश जारी हुआ था तब मंत्रीमंडल में शामिल अकाली दल की प्रतिनिधि हरसिमरत कौर ने उसके पक्ष में बयान देते हुए कांग्रेस पर किसानों को भड़काने का आरोप लगाया था। लेकिन जब संसद में उसका विधेयक आया तब वे विरोध में आ गईं। इससे ये लगता है कि विरोध के पीछे भी कोई तर्कसंगत बातें न होकर महज राजनीतिक हित साधना है। यदि अध्यादेश जारी होने के बाद से ही विपक्षी दलों द्वारा किसानों को संगठित कर नई व्यवस्था की विसंगतियों को उजागर किया जाता तो देश को उनकी बात समझ में आती। इसी तरह सत्ता पक्ष को भी चाहिए था कि वह इस समय का इस्तेमाल किसानों को आश्वस्त करने में करता। लेकिन न विपक्ष ने अपना दायित्व निभाया और न सता पक्ष ने अपना। अभी तक जो समझ में आया है उसके अनुसार विरोध कर रहे किसानों के मन में ये बात बैठ गई या बिठा दी गई है कि क़ानून लागू होते ही न्यूनतम समर्थन मूल्य रूपी व्यवस्था खत्म हो जायेगी जिससे किसान पूंजीपतियों और व्यापारियों के शिकंजे में फंसकर रह जाएगा। और भी अनेक बातें हैं जिन्हें आधार बनाकर किसानों को आंदोलित किया जा रहा है। हालाँकि भाजपा शासित राज्यों में भी नये कानूनों के विरोध में आंदोलन हो रहे हैं लेकिन वे पंजाब और हरियाणा जैसे उग्र नहीं हैं। केंद्र सरकार को चाहिए वह नये कानूनों के बारे में किसानों के मन में व्याप्त आशंकाओं का समाधान करे। और यदि ये लगता है कि उनका भरोसा जीतने के लिए कुछ और करने की जरूरत हो तो बिना प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाये जरूरी कदम उठाये जाएँ। इसी तरह विपक्ष को भी चाहिए कि वह किसानों का अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए उपयोग करने की बजाय उनके संघर्ष को दिशाहीन होने से बचाए। रही बात राज्यों द्वारा जवाबी कानून बनाने की तो ये कोई इलाज नहीं है और देश के संघीय ढाँचे में अनावश्यक दरारें उत्पन्न करने का खतरा बढ़ाएगा। किसान संगठनों की भी ये जिम्मेदारी है कि वे सत्ता और विपक्ष में से किसी के भी मोहरे न बनते हुए अपने हितों के बारे में सोचें। समय आ गया है जब किसानों को अपने बीच में से ऐसा नेतृत्व तैयार करना चाहिए जो बिना राजनीतिक प्रतिबद्धता के उनकी बात सत्ता और समाज दोनों के सामने रख सके। इसके साथ ही किसानों को थोड़ा जिम्मेदार भी होना पड़ेगा। यदि रेल रोको और तोड़फ़ोड़ जैसे तरीके अपनाये जाते रहे तो वे जनता की सहानुभूति से वंचित हो जाएंगे।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 28 September 2020

सिद्धांत और विचारधारा भी उपभोक्ता वस्तु बनकर रह गये



राजनीति में सिद्धांत और विचारधारा उस उपभोक्ता वस्तु जैसे होकर रह गये हैं जिसका विज्ञापन करने वाले अभिनेता, खिलाड़ी या पेशेवर मॉडल स्वयं उसका उपयोग नहीं करते। दो दिन पहले महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस और शिवसेना के मुख्य प्रवक्ता संजय राउत के बीच किसी पांच सितारा होटल में हुई मुलाकात के बाद ये कयास लगाये जाने लगे कि शिवसेना और भाजपा फिर से नजदीक आने को तैयार हैं। इसके पीछे अनेक कारण बताये जा रहे हैं। महाराष्ट्र की राजनीति पर पैनी नजर रखने वाले मानते हैं कि शिवसेना ने भाजपा से खुन्नस के चलते भले ही शरद पवार की राकांपा और कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बना ली और उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री की कुर्सी भी हासिल हो गई किन्तु उन्हें समर्थन दे रही दोनों  सहयोगी पार्टियां सरकार का जमकर दुरूपयोग कर रही हैं। उद्धव नाममात्र के मुख्यमंत्री रह गये हैं जबकि शासन और प्रशासन का रिमोट कंट्रोल शरद पवार के हाथ में है। अपनी हिन्दुत्ववादी छवि को हो रहे नुकसान को लेकर भी शिवसेना बेहद परेशान है। राममंदिर के शिलान्यास का श्रेय अकेले भाजपा उठा ले गई। इसी के साथ वीर सावरकर के बारे में राहुल गांधी सहित कुछ अन्य कांग्रेस नेताओं के बयानों को लेकर भी शिवसेना असमंजस में फंसकर रह गई। उसका अपना जो जनाधार है वह राकांपा और कांग्रेस से किसी भी तरह से सामंजस्य नहीं बिठा पा रहा। और फिर महाराष्ट्र में कोरोना का फैलाव जिस व्यापक पैमाने पर हुआ और बड़ी संख्या में मौतें हुईं उसकी बदनामी भी उद्धव के खाते में आई। भाजपा के साथ शिवसेना की तल्खी इतनी ज्यादा बढ़ चुकी थी कि केंद्र से मदद मांगने में भी मुख्यमंत्री के पाँव ठिठकते रहे। सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद श्री ठाकरे के पुत्र आदित्य ठाकरे के दामन पर आये छींटे भी उसके लिए चिंता का विषय बने हुए हैं। सुशांत की पूर्व सचिव दिशा सालियान द्वारा आत्महत्या किये जाने की गुत्थी अभी तक सुलझी नहीं है। ऐसा कहा जाता रहा है कि एक अभिनेता द्वारा दी गई पार्टी में दिशा के साथ आपत्तिजनक कृत्य हुआ जिसके बाद ग्लानिवश उसने आत्महत्या की। उस पार्टी में आदित्य ठाकरे की उपस्थिति की चर्चा जमकर होती आई है। चूँकि वह मामला मुम्बई पुलिस के पास था इसलिए उसमें लीपापोती किये जाने के आरोप उद्धव ठाकरे सरकार पर लगते रहे। सुशांत की मौत को भी दिशा की आत्महत्या से जोड़ा गया। उसके बाद जबसे नशीली चीजों के खुल्लमखुल्ला उपयोग का खुलासा हुआ तबसे लोगों का ध्यान दिशा और सुशांत की मौत से हटकर उस तरफ चला गया और फिर बीच में कंगना रनौत के आरोपों और शिवसेना नियंत्रित बीएमसी द्वारा उसके दफ्तर में की गई तोड़फ़ोड़ ने नया मोड़ ले लिया। कंगना ने मुम्बई से मनाली लौटकर एक बार बिना नाम लिए ये आरोप लगाया कि  उन्होंने एक बड़े नेता के पुत्र को इस घटनाक्रम से जुड़ा  बताया इसलिए उनके विरुद्ध बदले की कार्रवाई की गई। चूँकि केंद्र सरकार खुलकर कंगना के पीछे खड़ी हो गई इसलिए शिवसेना को ये सोचने को मजबूर होना पड़ा कि वह इस मुसीबत से कैसे छुटकारा पाए ? तोड़फ़ोड़ के मामले में जिस तरह शरद पवार ने बीएमसी को लताड़ा और मुम्बई उच्च न्यायालय ने भी तीखी टिप्पणियाँ कीं उनसे शिवसेना के कान खड़े हो गए। उसे इस बात का भय सता रहा है कि दिशा और सुशांत की मौत और उसके बाद नशे के कारोबार में फि़ल्मी बिरादरी के अनेक नाम शामिल होने के बीच यदि किसी ने धोखे से भी आदित्य ठाकरे का नाम ले लिया तो उसके लिए मुंह छिपाने की जगह नहीं बचेगी। यही सब सोचकर शायद उसने दोबारा भाजपा के साथ अपने पुराने रिश्ते को पुनर्जीवित करने के बारे में सोचा हो। यद्यपि श्री फड़नवीस और श्री राउत ने संदर्भित मुलकात के बारे में जो बयान दिए उनसे तो लगता है मानों वह एक सौजन्य भेंट थी। पूर्व मुख्यमंत्री ने स्पष्ट किया कि श्री राउत बिहार चुनाव के बारे में सामना अख़बार के लिए उनका साक्षात्कार लेना चाहते थे जिसके लिए उनकी शर्त थी कि उसे बिना कांट - छांट के प्रकाशित किया जाना चाहिए। वहीं श्री राउत ने इसे एक साधारण भेंट बताए हुए कहा कि हम वैचारिक विरोधी तो हैं किन्तु  शत्रु नहीं। लेकिन अचानक दोनों पांच सितारा होटल में मिले , साथ भोजन किया और दो घंटे बिताये तो इसे महज सौजन्य भेंट नहीं माना जा सकता। इसलिए ये सोचना गलत नहीं है कि इस मुलाकत के पीछे हालिया राजनीतिक घटनाक्रम ही है। श्री राउत की भूमिका इसमें उद्धव ठाकरे के दूत की रही होगी। यदि इस मुलाकात के बाद भाजपा की तरफ से सकारात्मक संकेत दिये गये तो बिहार चुनाव के पहले ही महाराष्ट्र में भाजपा - शिवसेना दोबारा मिलकर सरकार बना सकते हैं। लेकिन केवल इन दोनों को इसके लिए कठघरे में खड़ा किया जाना उचित नहीं होगा क्योंकि मिलने और बिछड़ऩे का ये सिलसिला भारतीय राजनीति में आवश्यक बुराई के रूप में शामिल हो चुका है। बिहार में आरएलएसपी नेता उपेन्द्र कुशवाहा लालू परिवार के महागठबंधन को छोड़कर वापिस एनडीए में आ गए। जीतनराम मांझी तो पहले ही आ चुके थे। सुना है कांग्रेस भी राजग के अड़ियल रवैये से नाराज होकर अकेले चुनाव लड़ने की सोच रही है। गठबंधन में शामिल होने और निकलने के पीछे कोई सिद्धांत हो तो वह समझ में आता है। लेकिन जिन कारणों से पार्टियां या नेता किसी के साथ जुड़ते या अलग होते हैं उनका आधार महज स्वार्थ होते हैं। शिवसेना और भाजपा का गठबंधन हिंदुत्व के नाम पर बना , लेकिन टूटा मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए। इसी तरह उपेंद्र कुशवाहा ने मोदी सरकार का मंत्री पद छोड़कर अपनी पार्टी को एनडीए से बाहर निकालकर राजग का साथ पकड़ा। लोकसभा चुनाव में भट्टा बैठ जाने के बाद वापिस वहीं आ गये जहाँ से निकले थे। रामविलास पासवान ने अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार से इस कारण इस्तीफा दे दिया था क्योंकि गुजरात दंगों के बाद भाजपा ने नरेंद्र मोदी को मुख्यमंत्री पद से नहीं हटाया था। लेकिन 2014 में वे उन्हीं मोदी के झंडे तले आ गये। ऐसे अनगिनत उदाहरण भरे पड़े हैं। लेकिन क्या इन नेताओं और पार्टियों द्वारा जनता को ये नहीं बताया जाना चाहिए कि उनके इन कदमों के पीछे कौन सा सिद्धांत या विचार होता है ? उससे भी बड़ी बात ये है कि शीर्ष पर बैठे नेता अपने मान - सम्मान की चिंता तो करते हैं लेकिन वे कार्यकर्ताओं के बारे में नहीं सोचते जिन्हें ऐसे अवसरवादी फैसलों के लिए आम लोगों के कटाक्ष झेलने पड़ते हैं। महाराष्ट्र में यदि शिवसेना और भाजपा दोबारा साथ आते हैं तो उनकी विचारधारा के लिए ये फायदेमंद रहेगा लेकिन सवाल ये उठेगा कि फिर अलग क्यों हुए थे? अगर भाजपा श्री ठाकरे को ही मुख्यमंत्री स्वीकार करती है तो ये निर्णय पहले क्यों नहीं किया गया और शिवसेना इस पद का दावा छोड़कर छोटे भाई की भूमिका से संतुष्ट हो जाती है तब उसकी पिछली जिद पर सवाल उठेंगे। और क्या समझौता होने के बाद भाजपा दिशा की मौत से शुरू हुए घटनाक्रम को रद्दी की टोकरी में फेंककर शिवसेना और ठाकरे परिवार को चरित्र प्रमाणपत्र जारी कर देगी ? सवाल और भी हैं लेकिन जब समूची सियासत केवल और केवल सत्ता के गुणा-भाग में उलझकर रह गई हो तब शर्मो - हया और जवाबदेही की अहमियत ही कहां बच रहती हैं ?

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 26 September 2020

किसानों के दम पर बने ढेर नेता : फिर भी वह नेतृत्वविहीन




भाजपा के बौद्धिक पूर्वज पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जयंती पर प्रधानमंत्री नरेंन्द्र मोदी ने गत दिवस पार्टी कार्यकर्ताओं को अपने संबोधन में नए किसान कानूनों के विरोध को निरर्थक ठहराते हुए विपक्ष पर आरोप लगाया कि वह किसानों को बरगला रहा है। उन्होंने नए कानूनों को किसानों के हित में लिया गया ऐतिहासिक निर्णय बताते हुए कहा कि इससे छोटे किसान सबसे ज्यादा लाभान्वित होंगे जिनकी संख्या 85 फीसदी है। प्रधानमन्त्री ने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया जिससे ये लगता कि उनकी सरकार इस मामले में कदम पीछे खींचने को तैयार है। बल्कि उन्होंने पार्टी कायकर्ताओं का आह्वान किया कि वे किसानों के बीच जाकर उनकी गलतफहमी दूर करें। दूसरी तरफ कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने तो किसानों से इन कानूनों का विरोध करने के लिए आजादी के आन्दोलन जैसा संघर्ष करने कहा है। यूँ भी नए कानूनों का जैसा विरोध पंजाब और हरियाणा में हो रहा है, वैसा अन्य राज्यों में नजर नहीं आया। कल आयोजित बंद में भी प. उत्तरप्रदेश के किसानों ने आम तौर पर शान्ति बनाये रखी। जबकि इस क्षेत्र को किसान आन्दोलन की जमीन माना जाता है। लेकिन जैसी खबरें आ रही हैं उनके अनुसार गैर भाजपा शासित राज्यों की सरकारें नए कानून को लागू नहीं करने के संकेत दे रही हैं। पंजाब सरकार तो पूरे प्रदेश को एक मंडी बनाने जैसे कानून पर विचार कर रही है जिससे उसे मिलने वाला टैक्स यथावत रहे। छतीसगढ़ में भी ऐसी ही चर्चाएँ सुनने में आ रही हैं। हालाँकि किसान को यदि अखिल भारतीय स्तर पर अपना उत्पादन बेचकर ज्यादा दाम मिलने की सम्भावना होगी तब वह राज्य स्तर पर लगाई जाने वाली बंदिशों को शायद ही स्वीकार करेगा। लेकिन भाजपा, कांग्रेस अथवा अन्य पार्टियां किसानों से सीधा संवाद करने की क्षमता खो चुकी हैं। देश में कहने को तो किसानों के स्वयंभू नेता अनगिनत हैं लेकिन सही मायनों में वे नेतृत्वविहीन हैं। पंजाब में अनेक स्थानों पर राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों को आन्दोलनकारी किसानों ने खदेड़ दिया। एक जमाना था जब महेंद्र सिंह टिकैत ने प. उत्तरप्रदेश में बड़े किसान आन्दोलन की नींव रखी थी। लेकिन कालान्तर में वह प्रयोग अपनी मौत मरता गया। प्रधानमंत्री की कुर्सी तक जा पहुंचे स्व. चौधरी चरण सिंह और एचडी देवगौड़ा खुद को किसान कहते रहे लेकिन उनकी राजनीतिक विरासत किसी किसान की बजाय उनके बेटे और पोतों के हाथ में आई जिनका दूरदराज तक गाँव, खेत और किसान से कोई सम्बन्ध नहीं रहा। और यही किसानों के साथ हुआ सबसे बड़ा मजाक है। पंजाब और हरियाणा के किसान जिस बैनर के तले आन्दोलनरत हैं वह राष्ट्रीय स्तर पर कितना प्रभावशाली है ये कल के आन्दोलन से सामने आ गया। कांग्रेस के साथ अन्य विपक्षी पार्टियाँ यदि पीछे से साथ न दें तो किसानों के अपने संगठन उतने दमदार नहीं रहे जो सरकार तक अपनी बात पहुंचा सकें। सही बात तो ये है कि राजनीतिक दलों ने बड़ी ही कुटिलता से किसानों के बीच गैर राजनीतिक नेतृत्व पनपने ही नहीं दिया। एक जमाने में वामपंथी पार्टियां मजदूरों और किसानों की हितचिन्तक होने का दावा किया करती थीं । लेकिन उदारीकरण के बाद अव्वल तो श्रमिक संगठन अप्रासंगिक होते जा रहे हैं वहीं किसानों के बीच वामपंथी प्रभाव बहुत ज्यादा कभी नहीं रहा। सही बात तो ये है कि जिस दिन सीपीएम के तत्कालीन महासचिव स्व. हरिकिशन सिंह सुरजीत ने साम्प्रदायिकता के विरोध का बहाना लेते हुए डा. मनमोहन सिंह की सरकार को टेका लगाया उसी दिन से वामपंथी अपनी सैद्धांतिक पहिचान खो बैठे जिसका प्रमाण बंगाल में उनका मजबूत किला धराशायी होने के रूप में सामने आया। आज के माहौल में किसानों के दम (वोट) पर बने नेता तो ढेर सारे हैं लेकिन फिर भी किसानों का कोई नेता नहीं है। ऐसे में मौजूदा आन्दोलन भी या तो हिंसक होने के बाद अपराधबोध का शिकार होकर हाँफने लगेगा या दिशाहीन होने से भटकाव का शिकार बनकर रह जाएगा। देश की दोनों प्रमुख पार्टियों के दो बड़े नेताओं ने गत दिवस जो आह्वान किये उनके सन्दर्भ में ये कहना गलत न होगा कि न तो भाजपा में अब ऐसे कार्यकर्ता हैं जो प्रधानमन्त्री के आह्वान पर गाँव-गाँव घूमकर किसानों को नए कानूनों के फायदे समझाएं और न ही राहुल में गांधी जी जैसी क्षमता है जो स्वाधीनता संग्राम जैसा आन्दोलन खड़ा कर सकें। वास्तविकता तो ये है कि राजनीतिक दलों में जब मिशनरी भाव से काम करने वाले नेता ही नहीं रहे तब कार्यकर्ताओं से अपेक्षा करना बेमानी ही है। हालांकि भाजपा और काँग्रेस दोनों ने किसानों के बीच काम करने हेतु अपने-अपने प्रकोष्ठ बना रखे हैं। लेकिन वे सब नेतागिरी चमकाने के मंच बनकर रह गए। ऐसी स्थिति में किसानों को नए कानूनों के फायदे और नुकसान बताने वाला तंत्र राजनीतिक दलों में लगभग समाप्त हो चुका है। ऐसे में प्रधानमन्त्री को चाहिए वे इन कानूनों पर सीधे किसानों से टीवी के माध्यम से मुखातिब होकर अपनी बात रखें। केंद्र सरकार के छह मंत्री पत्रकार वार्ता के जरिये किसानों के मन में व्याप्त आशंकाओं को दूर करने आगे आये। बाद में कृषि मंत्री ने भी मोर्चा संभाला लेकिन पंजाब और हरियाणा के किसानों ने उनके आश्वासनों को तवज्जो नहीं दी। पंजाब में भाजपा का जनाधार उतना अच्छा नहीं है लेकिन हरियाणा में तो उसकी अपनी सरकार है। फिर भी यदि वहां के किसान सड़कों पर हैं तब ये कहना गलत नहीं होगा कि अधिकतर राजनीतिक नेता जनसंवाद की कला भूल चुके हैं। सोशल मीडिया के जरिये सियासत करने वाले नेताओं से पसीना बहाने की उम्मीद करना वैसे भी व्यर्थ है।


- रवीन्द्र वाजपेयी


Friday 25 September 2020

नशे का कारोबार : मुम्बई पुलिस की भी सीबीआई जाँच हो




मुम्बई फिल्म उद्योग में कोरोना के कारण काम पूरी तरह ठप्प हो गया था। इसी दौरान सुशांत सिंह राजपूत की मौत ने उसके लिए नई मुसीबत खड़ी कर दी। उससे उबरने के पूर्व ही प्रतिबंधित नशीली चीजों के उपयोग की सुगबुगाहट ने उसकी छवि को तार-तार कर दिया। सुशांत की महिला मित्र रिया चक्रवर्ती से हुई पूछताछ के बाद ये पता चला कि वह सुशांत के लिए गांजा और उस जैसी अन्य अवैध चीजों की खरीदी करती थी। फिर क्या था, जाँच का दायरा बढ़ा और नशीली चीजें फिल्मी हस्तियों तक पहुँचाने वालों से मिली जानकारी के आधार पर नारकोटिक्स नियन्त्रण ब्यूरो ने अनेक अभिनेत्रियों तथा अन्य लोगों को पूछताछ हेतु बुलावा भेज दिया। जाँच का परिणाम क्या होगा ये तो कोई नहीं जानता लेकिन जिस तरह से फिल्म जगत से जुड़े लोग ही सार्वजानिक रूप से ये कह रहे हैं कि ग्लैमर की दुनिया में नशीली चीजों का इस्तेमाल बेहद सामान्य बात है, उससे तो लगता है कि ये डोर लम्बी है। हालाँकि ऐसा कहने वालों से भी ये सवाल पूछा जाना चाहिए कि उन्हें इस अवैध कारोबार के बारे में जानकारी थी तब वे इतने दिनों शांत क्यों रहे? जैसी चर्चा है प्रतिबंधित नशीली चीजों का चलन फिल्मी दुनिया में इतना आम हो चला कि पुरुष वर्ग तो दूर नामी-गिरामी अभिनेत्रियाँ तक इसकी लत का शिकार हैं। ये दावा भी किया जा रहा है कि जाँच सही तरीके से की गई तो न जाने कितने इज्जतदार बेपर्दा नजर आयेंगे। चूँकि जाँच का जिम्मा नारकोटिक्स नियन्त्रण ब्यूरो के पास है और सीबीआई भी सुशांत कांड की जांच से जुड़ी हुई है इसलिए ये माना जा सकता है कि अब तक छिपे तमाम ऐसे रहस्य खुलेंगे जो पैसे और ग्लैमर के आवरण से ढंके हुए थे। लेकिन फिल्मी दुनिया के सितारों के साथ ही ये मामला मुम्बई की उस पुलिस पर भी उँगलियाँ उठाने के कारण उत्पन्न कर रहा है जिसे विश्व का सबसे पेशेवर पुलिस बल प्रचारित किया जाता रहा है। सुशांत की मौत की जांच जब सीबीआई से करवाने का अनुरोध उसके परिवार द्वारा किया गया तब महाराष्ट्र सरकार विशेष रूप से शिवसेना ने उसका जबरदस्त विरोध करते हुए मुम्बई पुलिस को पूर्णरूपेण पेशेवर और सक्षम बताया। बिहार पुलिस के जांच दल को उस मामले से जुड़े दस्तावेजों की प्रतिलिपि देने तक से इंकार कर दिया तथा अनेक महत्वपूर्ण दस्तावेज कम्प्यूटर से उड़ा देने जैसी शरारत भी हुई। उस सबसे लगा था कि शायद सुशांत की मौत और उससे पूर्व बनी परिस्थितियों में कोई ऐसा शख्स परिदृश्य में था जिसका नाम उजागर होने से उद्धव ठाकरे का परिवार और सरकार दोनों मुसीबत में फंस सकते थे। लेकिन धीरे-धीरे जांच जब सुशांत की मौत से आगे निकलकर नशे के अवैध धंधे तक जा पहुंची तब ये जिज्ञासा और मजबूती से उभरी कि मुम्बई में जब राह चलते नशीली चीजों की खरीद-फरोख्त आसानी से सम्भव है तब वहां की पेशेवर पुलिस क्या आँखों में पट्टी बांधकर बैठी रहती है ? सवालों का शिकंजा केवल मौजूदा राज्य सरकार के इर्दगिर्द ही नहीं वरन पिछली सरकार पर भी कसा जायेगा जिसमें भाजपा और शिवसेना दोनों की भागीदारी थी। जिन वहाट्स एप बातचीतों के आधार पर नशीली चीजों की आपूर्ति का आरोप फि़ल्मी सितारों पर लगाया जा रहा है उनमें अनेक पिछली सरकार के समय की भी हैं। इसलिए जाँच केवल नशीली चीजें बेचने और उनका उपयोग करने वालों की ही नहीं बल्कि मुम्बई पुलिस की भी होनी चाहिए जो खुद को जेम्स बांड का भारतीय संस्करण बताते नहीं थकती किन्तु मुम्बई में नशीली दवाओं की सुलभ उपलब्धता की भनक तक उसे नहीं लगी। यहाँ ये उल्लेखनीय है कि मुम्बई पुलिस प्रतिवर्ष एक बड़ा सांस्कृतिक आयोजन करती है जिसमें फिल्मी सितारे मुफ्त में अपनी कला का प्रदर्शन करने के साथ ही मोटी रकम भी पुलिस सहायता कोष में मंच से ही घोषित करते हैं। उनका ये उपकार मुम्बई पुलिस पर एक बोझ जैसा होता है जिसका बदला वह जिस रूप में चुकाती है उसकी कुछ-कुछ बानगी फिल्मी दुनिया में प्रतिबंधित नशीली चीजों की मुक्त खरीदी से मिलती है। नारकोटिक्स नियन्त्रण ब्यूरो की जांच से क्या-क्या सामने आता है ये तो आने वाले दिनों में ही पता चलेगा। लेकिन जिस तरह से परतें खुल रही हैं उससे ये लगने लगा है कि मुम्बई फिल्म उद्योग का जो चेहरा सामने आने वाला होगा वह पूरी तरह बदरंग हो सकता है। इसलिए सीबीआई को मुम्बई पुलिस की भूमिका की भी जांच बारीकी से करनी चाहिए जिसकी नाक के नीचे जहर का कारोबार चलता रहा। बड़ी बात नहीं इसमें अनेक दिग्गज राजनेताओं की भी भूमिका हो। अतीत में भी कुख्यात तस्करों को राजनेताओं के संरक्षण की बात सामने आ चुकी है। संजय दत्त जैसे नामी कलाकार अवैध रूप से हथियार रखने के आरोप में सजा तक काट आये हैं। उसके बाद भी उन्हें फिल्मी दुनिया जिस तरह से सिर पर उठाये फिरती है उससे ये बात साबित हो चुकी है कि उसमें पैसे के लिए पागलपन इस हद तक है कि अच्छे और बुरे का भेद ही नहीं रहा। अत: संदर्भित मामले में सच्चाई का सामने आना निहायत जरूरी है। इसे विडंबना ही कहा जायेगा कि जिन नेताओं और अभिनेताओं में समाज अपना रोल मॉडल देखता है उनमें से अधिकतर अंतत: निराश करते हैं। इसीलिये भारतीय फिल्मों में नेता, अपराधी और पुलिस का गठजोड़ खुलकर दिखाये जाने के बाद भी कोई उसका खंडन या विरोध नहीं करता।

रवीन्द्र वाजपेयी


Thursday 24 September 2020

नीतीश : परिवार से परहेज पर जातिवाद नहीं मिटा पाए

भारतीय राजनीति में बिहार वह राज्य है जहाँ विषमताओं और समस्याओं का भंडार होने के बाद भी राजनीतिक चेतना अपने चरम पर देखी जा सकती है। समाजवादी आन्दोलन के बीज यहाँ की धरती में आजादी के पहले से जमे हुए थे। इस राज्य से शुरू जनांदोलन देश भर में बड़े राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन का आधार बने। 1974 का छात्र आन्दोलन बाद में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में सम्पूर्ण क्रांति के आह्वान में बदल गया जिसकी परिणिति 1977 में हुए सत्ता परिवर्तन के रूप में हुई तथा पहली बार कांग्रेस केंद्र की सत्ता गंवा बैठी। 1989 में केंद्र में दोबारा हुए सत्ता परिवर्तन के बाद बिहार से निकली मंडल आयोग की सिफारिश को विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने लागू किया जो देश में बहुत बड़े सामाजिक और राजनीतिक बदलाव का सूत्रधार तो बनी किन्तु  इसी की वजह से जातिवादी दबाव समूह और लालू यादव ब्रांड राजनीति की शुरुवात भी हुई। जो पहले तो पुराने समाजवादियों द्वारा बनाई गई पारिवारिक पार्टियों की पहिचान बनी किन्तु धीरे-धीरे सभी दलों को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) पर ध्यान देना पड़ा। आज के माहौल में बिहार की राजनीति में विचारधारा पूरी तरह तिरोहित हो चुकी है और केवल जाति ही वहां की मानसिकता पर हावी है। अक्टूबर - नवंबर में होने वाले विधानसभा चुनाव की रणभेरी बजते ही जिस तरह की खबरें सामने आ रही हैं उनसे लगता है कि भले ही नीतीश कुमार खुद को लालू की तरह पिछड़े वर्ग के नेता के रूप में प्रस्तुत न करते हों लेकिन वे भी राजनीति को जातिगत समीकरणों से बाहर नहीं निकाल सके। बीते कुछ समय से चुनावी बिसात बिछते ही जिस तरह की उछलकूद वहां दिखाई दे रही है उसके पीछे केवल और केवल जातिवादी सोच है। लालू यादव के पुत्रों की वजह से राजद के नेतृत्व में बना महागठबंधन लगातार बिखराव का शिकार हो रहा है। जीतनराम मांझी ने पहले ही किनारा कर लिया और मृत्यु के कुछ दिन पहले रघुवंश प्रसाद सिंह ने भी लालू को पत्र लिखकर अलग होने का ऐलान कर दिया था। ताजा खबर के अनुसार अब उपेन्द्र कुशवाहा अपनी आरएलएसपी को महागठबंधन से बाहर निकालने की राह पर बढ़ रहे हैं। उनका कहना है कि वरिष्ठता के कारण उन्हें बतौर मुख्यमंत्री प्रत्याशी पेश किया जावे जिसके लिए लालू के बेटे तैयार नहीं हैं। जब रघुवंश बाबू ने राजद के उपाध्यक्ष पद से स्तीफा दिया था तब कचरा साफ होने जैसी टिप्पणी करते हुए उनका मजाक उड़ाया गया था। इसी तरह उपेन्द्र कुशवाहा को लेकर तेजस्वी ने कह दिया कि जिसे जाना हो जाए। दूसरी तरफ  जदयू और भाजपा के सत्तारूढ़ गठबंधन में रामविलास पासवान की लोजपा अनुसूचित जातियों की ठेकेदार बनकर दबाव बनाने में जुटी है। पासवान जी खुद तो अस्वस्थ होकर अस्पताल में हैं और पार्टी की कमान बेटे चिराग के हाथ दे दी हैं जिनकी महत्वाकांक्षा भी परवान चढ़ रही है। लेकिन उनकी काट के तौर पर नीतीश ने जीतनराम मांझी के रूप में महादलित चेहरा अपने साथ जोड़कर दबाव को बेअसर करने की चाल चल दी है। भाजपा भले ही जातिवादी राजनीति से दूर रहने का दावा करती हो लेकिन उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी भी पिछड़ी जाति से ही हैं। यद्यपि कायस्थ, ब्राह्मण, क्षत्रिय और भूमिहारों में भाजपा की अच्छी पकड़ है लेकिन वह भी पिछड़े और दलित समीकरण से टकराने का साहस नहीं कर सकती। 2015 में रास्वसंघ प्रमुख डा. मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा सम्बन्धी जो सुझाव दिया था उसे लालू यादव ने जमकर उछाला जिसके कारण भाजपा को बहुत नुकसान हुआ। इसीलिये इस बार वह नीतीश कुमार को ही आगे रखकर चुनावी समर जीतना चाह रही है। बिहार में कहने को बाढ़ और कोरोना से लड़ने में नीतीश सरकार की विफलताओं के अलावा भ्रष्टाचार और पिछड़ापन बड़े मुद्दे हैं लेकिन चुनाव लड़ने जा रहे महारथी जानते हैं कि अंतत: जातिगत जोड़तोड़ ही काम आयेगा। वैसे तो प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी की छवि आम तौर पर विकास पुरुष और दमदार नेता की है लेकिन वे भी चुनाव के मौके पर किसी न किसी तरह से अपनी पिछड़ी जाति का ढोल पीटने का अवसर तलाश लेते हैं। हालाँकि बीते कुछ दिनों से वे बिहार में विकास कार्यों के लिए धन वर्षा कर रहे हैं लेकिन उन्हें याद होगा कि बीते चुनाव में उन्होंने बिहार के लिये खजाना खोल देने की जो घोषणाएं कीं वे बेकार साबित हुईं। नीतीश अनुभवी राजनेता हैं। 2015 का चुनाव लालू के साथ मिलकर जीतने के बाद उन्होंने जल्द ही उनसे पिंड छुड़ाकर भाजपा से दोबारा याराना कायम कर लिया। इसका लाभ उन्हें लोकसभा चुनाव में भी मिला। केंन्द्र सरकार में उनकी पार्टी का कोई प्रतिनिधि नहीं है लेकिन राज्यसभा के उपाध्यक्ष पद हेतु नीतीश ने मना नहीं किया। कुल मिलाकर जो बिहार कभी देश को राजनीतिक और सामाजिक बदलाव की प्रेरणा देता था वह आज स्वयं यथास्थितिवाद में उलझकर रह गया है। पिछले चुनाव में प्रशांत किशोर नामक चुनाव विशेषज्ञ ने बिहार में बहार है, नीतिशै कुमार है का नारा देकर भाजपा को नि:शस्त्र कर दिया था। लेकिन इस बार भाजपा ने बिना शर्त नीतीश को नेता मान लिया। रही कांग्रेस तो वह अपने संगठन में शीर्ष स्तर पर मची उठापटक के कारण लड़ाई में कहीं नजर नहीं आ रही। नीतीश कुमार को सुशासन बाबू और विकास पुरुष के नाम से भी जाना जाता है। लेकिन बिहार का आगामी चुनाव भी अंतत: जातीय समीकरणों के आधार पर ही लड़ा जाएगा। हालांकि एक बात का श्रेय उनको देना पड़ेगा कि उन्होंने लालू और शरद यादव के अलावा रामविलास पासवान आदि को हाशिये पर ला खड़ा किया। परिवारवाद से परहेज भी उनकी बड़ी उपलब्धि है। जैसी कि संभावना है यदि फिर सरकार बना ले गये तो  बिहार में वे चुनौतीविहीन हो जायेंगे। लालू के दोनों बेटे बाप कमाई के घमंड में चूर हैं वहीं चिराग पासवान और उपेंन्द्र कुशवाहा का जनाधार सीमित है। जहाँ तक भाजपा का सवाल है तो वह अभी देखो और इन्तजार करो की नीति पर चल रही है।

-रवीन्द्र वाजपेयी


Wednesday 23 September 2020

सुरक्षा परिषद : भारत की स्थायी सदस्यता के बिना चीन पर नियन्त्रण असंभव




संरासंघ महासभा का वार्षिक अधिवेशन प्रतिवर्ष सितम्बर में होता है। वैसे तो यह एक औपचारिकता है जिसका उद्देश्य सदस्य देशों को ये एहसास कराना है कि इस विश्व संस्था का मंच उन सभी को अपनी बात कहने का अवसर प्रदान करता है। लेकिन कोरोना नामक महामारी ने इस वर्ष महासभा के अधिवेशन की चमक फीकी कर दी। संरासंघ की 75 वीं सालगिरह पर इस साल दुनिया भर से राष्ट्राध्यक्ष अपने सन्देश वीडियो के माध्यम से भेज रहे हैं। गत दिवस भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग दोनों के वीडियो भाषण महासभा में प्रसारित किये गये। चीनी राष्ट्रपति ने कोरोना वायरस फैलाने संबंधी आरोप का खंडन करते हुए ये भी कहा कि चीन किसी से न शीतयुद्ध चाहता है और न ही गर्म युद्ध। उन्होंने भारत के साथ चल रहे सीमा विवाद को स्वाभाविक बताते हुए बातचीत से हल निकालने की बात भी कही। दूसरी तरफ अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने चीन को कोरोना फैलाने के लिए कठघरे में खड़ा करते हुए मांग की कि उसे इसके लिए जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए। ट्रंप ने कोरोना को एक बार फिर चीनी वायरस कहकर उस पर सीधा हमला किया। लेकिन श्री मोदी ने संरासंघ पर मंडरा रहे विश्वास के संकट का जो जिक्र किया वह बेहद प्रासंगिक है। उन्होंने खुले शब्दों में पूरी दुनिया को ये बता दिया कि इस विश्व संगठन के मौजूदा ढांचे में आमूल परिवर्तन की जरूरत है जिसके बिना दुनिया के सामने विद्यमान चुनौतियों का सामना करने में वह असमर्थ है। हालाँकि उन्होंने इसे स्पष्ट नहीं किया किन्तु कूटनीतिक वक्तव्यों में संकेतों का बड़ा महत्व होता है। उस दृष्टि से प्रधानमंत्री ने सुरक्षा परिषद के पुनर्गठन का सवाल उठाते हुए स्थायी सदस्य के तौर पर भारत की दावेदारी एक बार फिर पेश कर दी। उल्लेखनीय है दूसरे विश्व युद्ध के उपरान्त लीग ऑफ  नेशन्स के स्थान पर संरासंघ की स्थापना की गयी जिसका मुख्यालय जिनेवा से हटाकर अमेरिका की आर्थिक राजधानी न्यूयॉर्क ले जाया गया। दो महायुद्धों की विभीषिका से त्रस्त अधिकतर देश इस संस्था से जुड़ते चले गये। लेकिन विश्वयुद्ध विजेता के तौर पर उभरे अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस और ताईवान को विशेष अधिकार संपन्न बनाते हुए सुरक्षा परिषद नामक एक संस्था संरसंघ के भीतर ही बनाई गई। उसमें उक्त देश स्थायी सदस्य बन बैठे जिन्होंने वीटो नामक ब्रह्मास्त्र अपने पास रखा। हालाँकि परिषद में अनेक अस्थायी सदस्य भी होते हैं जो एक निश्चित समयावधि के लिए चुने जाते हैं । लेकिन वीटो से वंचित रहने के कारण अपनी बात को लागू करवाने के लिए उनको स्थायी सदस्यों के रहमो - करम पर निर्भर रहना होता है। अस्सी के दशक में जब चीन को संरासंघ की सदस्यता दी गयी तब ताईवान की जगह उसे सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाकर वीटो से सुसज्जित कर दिया गया। कूटनीतिक जगत में ये बात अक्सर चर्चा में आती रही है कि विश्व की बड़ी ताकतें भारत को परिषद में स्थायी सदस्य के तौर पर स्थापित करना चाहती थीं लेकिन हमारे विदेश नीति निर्धारकों ने चीन के पक्ष में अपना दावा छोड़ दिया। देश आजाद होते ही कश्मीर का मसला उलझ गया जिसे पंडित नेहरू लॉर्ड माउन्टबेटन की सलाह पर संरासंघ ले गए। वहां अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देश भारत के विरोध में अपने वीटो का उपयोग करते रहे। जबकि रूस हमारे  समर्थन में खड़ा रहा वरना कश्मीर पर पाकिस्तान का पक्ष मजबूत हो जाता। लेकिन चीन को वीटो मिल जाने के बाद भारत की चिंताएं और बढ़ गईं। बीते कुछ वर्षों में आतंकवाद और कश्मीर जैसे अनेक मसलों पर चीन ने जिस प्रकार भारत के विरोध में वीटो का उपयोग किया उसके कारण उनका औचित्य सामने आ गया। इसी कमी को दूर करने के लिए ही भारत लंबे समय से सुरक्षा परिषद का पुनर्गठन कर स्थायी सदस्यता हासिल करने की मुहिम चला रहा है जिसे विश्व बिरादरी में काफी समर्थन भी मिलने लगा है। बाजारवादी वैश्विक अर्थव्यवस्था के उदय के उपरान्त पश्चिमी देशों को भी भारत की अहमियत महसूस होने लगी है। विशेष रूप से चीन के आर्थिक महाशक्ति बन जाने से एशिया में उसको टक्कर देने में भारत की क्षमता को अमेरिका और उसके समर्थक देश समझने लगे हैं। श्री मोदी ने गत दिवस संरासंघ  के विश्वास के संकट से गुजरने की चर्चा के साथ मौजूदा ढांचे में सुधार के बिना वर्तमान वैश्विक चुनौतियों का सामना करने में असमर्थता का जो जिक्र किया वह सुरक्षा परिषद की  स्थायी सदस्यता के दावे को दोहराने का प्रयास ही है। कोरोना के बाद वैश्विक शक्ति संतुलन नये सिरे से होने की संभावनाएं है क्योंकि विश्व व्यापार संगठन बना तो अमेरिका और उसके समर्थक देशों के लाभ के लिये था किन्तु उसका सर्वाधिक लाभ चीन ने उठाया। लेकिन कोरोना ने पूरी दुनिया को ये अवसर दे दिया कि चीन की ताकत के असीमित विस्तार पर रोक लगाई जाए। 2020 की शुरुवात में ये बात असंभव दिखती थी लेकिन बीते आठ - नौ महीने के भीतर अब चीन को घेरने की नीति वैश्विक स्तर पर विचाराधीन है और इसके लिए संरासंघ और उसके ढांचे में बदलाव या सुधार भी निकट भविष्य में किए जा सकते हैं। मौजूदा स्थिति में भारत के महत्व को दुनिया ने बिना लागलपेट के स्वीकार किया है। शायद इसीलिये प्रधानमंत्री ने संरासंघ महासभा को प्रेषित संबोधन मे सीधे-सपाट शब्दों में उसके मौजूदा ढांचे को कालातीत बताते हुए पुनर्गठन पर बल दिया। कोरोना काल के बाद की दुनिया में भारत की भूमिका के मद्देनजर श्री मोदी ने जो कूटनीतिक दांव चला वह हमारे बढ़ते हुए आत्मविश्वास का परिचायक है। सौभाग्यवश इस मुद्दे पर देश में किसी भी प्रकार का राजनीतिक मतभेद नहीं है। पिछली सरकार भी ऐसा ही करती रही हैं।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 22 September 2020

आंकड़ों में न फँसे : अपना बचाव खुद करें




बीते कुछ दिनों से राष्ट्रीय स्तर पर कोरोना के नए मरीजों से ज्यादा स्वस्थ होने वालों की संख्या प्रचारित हो रही है। निश्चित रूप से जब हर जगह से भयावह खबरें आ रही हों तब इस तरह का कोई भी आँकड़ा मन को ठंडक प्रदान करने वाला होता है। बीते रविवार को चूंकि जाँच बहुत कम हुईं इसलिए नए मरीजों की संख्या में अच्छी - खासी गिरावट देखी गई परन्तु इन आँकड़ों से संतुष्ट होना अपने आपको अँधेरे में रखना होगा क्योंकि इसी के साथ ये खबर भी आ रही है कि कोरोना का चरम अभी तक नहीं आया है। वाकई ऐसा है तब ये मानकर चलना पड़ेगा कि आने वाले कुछ महीने और बड़ा संकट लेकर आयेंगे। टीका (वैक्सीन) आने के समय पर भी अनिश्चितता के बादल मंडरा रहे हैं। कभी अक्टूबर तो कभी अगले वर्ष जून तक की संभावना बताई जा रही है। चिकित्सक समुदाय भी निजी तौर पर ये मानता है कि हमारे देश में कोरोना का टीका सबको उपलब्ध होते तक जून 2021 तो आ ही जाएगा। लेकिन तब तक हर व्यक्ति सुरक्षित कैसे रहे ये बड़ा सवाल है। सरकारी अस्पतालों में पर्याप्त स्थान है नहीं और निजी में भर्ती होने की हैसियत अच्छे-अच्छों की नहीं है। ऐसे में अपने घर या किसी व्यवस्थारहित सरकारी आइसोलेशन केंद्र में जाकर दुर्दशा का शिकार होने के अलावा कोई और विकल्प साधारण इन्सान के पास बचेगा नहीं। इसीलिये ये जरूरी है कि अब कोरोना से बचाव के प्रति पहले से ज्यादा सावधानी का पालन किया जाये क्योंकि लॉक डाउन में छूट मिलते ही बेफिक्री का जो माहौल देखने मिल रहा है उसने कोरोना का प्रभावक्षेत्र और विकसित कर दिया है। जहाँ तक बात नये संक्रमितों की है तो उनकी संख्या को विश्वसनीय नहीं माना जा सकता। देश में बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की भी है जो कोरोना के प्रकट लक्षणों के बिना भी उसके शिकार होकर जान गँवा रहे हैं। उनकी बीमारी की सही जानकारी के अभाव में उनका अंतिम संस्कार सामान्य श्मसान भूमि में ही कर दिया जाता है। ऐसे मृतकों के परिजन और परिचित भी आवश्यक सावधानी नहीं बरतते जिसका परिणाम घातक होता है। अस्पतालों में भीड़ बढ़ने के कारण बड़ी संख्या में मरीजों को घरों में ही एकांतवास करते हुए इलाज कराने की सलाह प्रशासन देता है। इस आधार पर यदि आँकड़ों का सही चित्र पेश किया जावे तो सक्रिय मरीजों की संख्या सरकारी दावों से कहीं ज्यादा होगी। हालाँकि सरकार और निजी क्षेत्र दोनों टीके को विकसित करते हुए उसे बाजार में उतारने के लिए जी जान से जुटे हुए हैं लेकिन जैसी जानकारी आ रही है उसके अनुसार किसी भी तरह का आशावाद जानलेवा हो सकता है। एक बार मान लें कि कोरोना का चरम आ चुका है तब भी छोटी सी लापरवाही अपनी और अपनों की जि़न्दगी पर भारी पड़ सकती है। लॉक डाउन हटाये जाने के बाद से जनजीवन सामान्य तो हुआ लेकिन कोरोना संबंधी अनुशासन की जैसी धज्जियाँ उड़ाई गईं उसकी वजह से ही बीते दो महीने में हालात इस हद तक खराब होते गए कि अनेक शहरों में फिर से लॉकडाउन की मांग जनता और व्यापारी दोनों करने लगे। वैसे भी यदि नए संक्रमितों की संख्या इसी गति से बढ़ती गई तब दोबारा देश, प्रदेश या शहर बंदी करने की नौबत आ जाए तो अचरज नहीं होगा। इसीलिये हर व्यक्ति को चाहिए कि वह न तो आँकड़ों के मकडज़ाल में फंसे और न ही टीके के जल्द आने की खुशी में जश्न मनाने लग जाए। वैज्ञानिक अपना काम पूरी लगन से कर रहे हैं। किसी भी बड़ी बीमारी का टीका बनाने के पहिले बहुत शोध, प्रयोग और परीक्षण करने होते हैं, जिनमें जल्दबाजी की कोई भी गुंजाईश नहीं है। यदि एक भी परीक्षण आशाजनक न रहे तो टीके को स्वीकृति नहीं दी जा सकती। कुल मिलाकर भारत में अभी तक कोरोना को लेकर कोई सटीक जानकारी या भविष्यवाणी सामने नहीं आई है। उसका प्रकोप जिस खतरनाक ढंग से बढ़ रहा है उसे देखते हुए ये कहना सही होगा कि हमें अपनी प्राण रक्षा के प्रति हर तरह से सतर्क हो जाना चाहिए। इस हेतु क्या करना होगा ये बताने की जरूरत नहीं है। बीते छह महीनों में हर खासो-आम को भली-भंति ये समझ में आ चुका है कि कोरोना से बचाव आसानी से कैसे किया जा सकता है? इसलिए बेहतर यही रहेगा कि इस नाजुक घड़ी में बेहद सावधानी और सतर्कता बरती जाये। ये तो साबित हो ही चुका है कि लॉक डाउन कोरोना का इलाज नहीं अपितु उसके फैलाव को रोकने का तरीका मात्र है। यही वजह है कि जब तक वह जारी रहा तब तक ऐसा लगा कि भारत में कोरोना काबू कर लिया गया है। लेकिन ज्योंही शिथिलता आई संक्रमण उछाले मारने लगा। इसका अर्थ ये हुआ कि मानवीय अनुशासन और आचरण ऐसी आपदाओं में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है। यदि आने वाले दिनों में मास्क लगाने, सैनीटाइजर का उपयोग करने और शारीरिक दूरी बनाये रखने जैसे सरलतम तरीके उपयोग किये जाते रहें तभी इस महामारी से मुक्ति मिलेगी वरना तो आंकड़े हमें बहलाते, भरमाते और डराते रहेंगे।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 21 September 2020

कृषि सुधार : बिखराव का प्रतीक बन गई विपक्षी एकता



संसद के दोनों सदनों से कृषि सुधार विधेयकों के पारित होने के बाद उनके कानून बनने का रास्ता साफ़ हो गया है।  लेकिन गत दिवस राज्यसभा में विपक्ष के कुछ सांसदों ने जिस तरह का अभद्र आचरण किया उससे साबित हो गया कि वह खीझ निकाल रहा है।  राज्यसभा में स्पष्ट बहुमत नहीं होने के बाद भी सत्तापक्ष ने ऐसे तमाम महत्वपूर्ण विधेयक पारित करवा लिए जिनका कांग्रेस के साथ ही अन्य विपक्षी दल जमकर विरोध कर रहे थे। इसके लिए मोदी सरकार के सदन प्रबन्धन (फ्लोर मैनेजमेंट) की प्रशंसा करनी होगी।  लेकिन उससे भी बढ़कर यह विपक्ष की विफलता है जो अपना बहुमत होते हुए भी एकजुटता नहीं दिखा पाने की वजह से शुरू में तो दबाव बनाता है लेकिन निर्णय की घड़ी में उसके गुब्बारे की हवा निकल जाती है।  विरोध में चिल्लाने वाले अनेक विपक्षी दल मतदान के समय जिस तरह बहिर्गमन कर जाते हैं उससे उनके बारे में ये धारणा बन गई है कि भीतर - भीतर उनकी सत्ता पक्ष से मिली भगत है।  मौजूदा सत्र के पहले भी कांग्रेस की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने विपक्षी एकता की कोशिश की लेकिन सत्र शुरू होने के पहले वे और राहुल गांधी चिकित्सा कार्यवश विदेश चले गये जिससे विपक्ष का बिखराव बना रहा।  और ऊपर से  कांग्रेस अपने बनाये जाल में खुद ही फंस गई। पंजाब और हरियाणा में हो रहे विरोध का कारण भी उजागर हो चुका है।  यही वजह है कि महीनों पहले जारी अध्यादेशों का किसानों के बीच राष्ट्रव्यापी विरोध खड़ा करने में कांग्रेस ही नहीं बाकी विपक्षी दल भी नाकामयाब रहे।  किसानों के पक्षधर स्वयंसेवी संगठन जितने मुखर हाल ही में नजर आ रहे हैं वे अध्यादेश जारी होने के बाद ही उनके कथित किसान विरोधी प्रावधानों पर राष्ट्रीय विमर्श छेड़ते तब शायद आम किसान और जनता उस पर ध्यान देती। सबसे बड़ी बात ये रही कि कांग्रेस का अन्तर्विरोध उस समय निकलकर बाहर आ गया जब उसके पूर्व प्रवक्ता रहे संजय झा ने ही ये बात उजागर कर दी कि 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी के घोषणापत्र में भी ऐसे कानूनों का वायदा किया गया था। राहुल गांधी ट्वीट करते हुए लगातार इन विधेयकों को लेकर मोदी सरकार पर आरोप लगाते रहे लेकिन श्री झा के खुलासे का कोई समुचित उत्तर पास नहीं होने से उनका विरोध असरहीन रहा।  इन विधेयकों के विरोध में सबसे बड़ा तर्क दिया गया कि इनके कानून बनते ही सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) व्यवस्था खत्म कर दी जायेगी।  लेकिन प्रधानमन्त्री और कृषि मंत्री सहित सरकार के अनेक प्रवक्ता कह चुके हैं कि नये कानून किसान को ये आजादी देंगे कि वह चाहे तो अपना उत्पादन सरकार को बेचे या जहाँ उसे ज्यादा कीमत मिले वहां उसका विक्रय करे।  सरकारी मंडियों की अनिवार्यता और प्रदेश के बाहर बिक्री पर लगी रोक हट जाने से अब किसान के सामने पूरे देश का बाजार खुला है जिसमें वह अपने लिए अधिक मुनाफे वाले अवसर चुन सकता है। सरकार के शीर्ष स्तर से संसद और उसके बाहर ये आश्वासन दिया जा चुका है कि समर्थन मूल्य पर खरीदी जारी रहने के बाद भी किसानों को सरकारी मकडज़ाल से आजादी मिल जायेगी।  ऐसे में विपक्ष को भी अपनी नीति बदलनी चाहिए वरना वह एक बार फिर हाशिये पर चला जाएगा।  गत दिवस राज्यसभा में जो कुछ भी हुआ वह बहुत ही अशोभनीय था।  दुर्भाग्यवश आसंदी के फैसले से असहमति जताने के लिए उनके माइक तोड़ने और नियमावली फाड़ देने जैसी हरकत करने वालों में तृणमूल कांग्रेस के वरिष्ठ सांसद डेरेक ओ ब्रायन भी थे जो सदन में तथ्यपूर्ण बहस के लिए जाने जाते हैं।  आसंदी के प्रति बेहद आपत्तिजनक व्यवहार के लिए दंडस्वरूप सभापति ने आज 8 विपक्षी सदस्यों को सप्ताह भर के लिए निलम्बित कर दिया।  हो सकता है इस अवधि के पूर्व सत्र ही समाप्त हो जाये। यदि विपक्ष को विधेयक के पारित होने की बात उदरस्थ नहीं हो रही थी तो संसदीय प्रजातंत्र में विरोध के लिए और भी मान्य तरीके हैं।  लेकिन ऐसा लगता है विपक्ष की दशा से ज्यादा दिशा खराब है तभी वह देश के किसानों की आवाज नहीं बन सका।  कहा जा रहा है कि कृषि सुधार के इन विधेयकों को किसानों का बड़ा वर्ग पसंद भी कर रहा है। रही बात समर्थन मूल्य की तो खरीफ फसल आने में ज्यादा समय नहीं है और धान खरीदी के समय सरकार के आश्वासन की पुष्टि हो जायेगी। बेहतर होगा विपक्ष इस मुद्दे पर व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाये। नए कानूनों को लेकर उसकी आशंकाएं यदि सही थीं तो उसे अध्यादेश जारी होते ही सीधे किसानों के बीच जाना था जिसमें वह हमेशा की तरह चूक गया।  इस बारे में ध्यान देने योग्य बात ये भी है कि जब तक सरकार गरीबों को सस्ता या मुफ्त अनाज देने वाली सार्वजनिक प्रणाली जारी रखेगी तब तक उसे किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य देते रहना पड़ेगा।  विपक्ष ये भूल जाता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर पूंजीपतियों को संरक्षण देने के कितने भी आरोप लगाये जाएं लेकिन वे गरीबों को खुश करने में कभी पीछे नहीं रहते जो उनकी सफलता का रहस्य है।  कोरोना काल में देश की आधी से ज्यादा गरीब आबादी को मुफ्त और सस्ता अनाज वितरित करने का उनका फैसला इसका प्रमाण है। कृषि सुधार कानूनों को लागू करने का दांव बहुत जोखिम भरा भी है क्योंकि यदि ये कारगर नहीं हुए तो केंद्र सरकार को लेने के देने भी पड़ सकते हैं। लेकिन फिलहाल तो विपक्ष एक बार फिर पराजय की मुद्रा में खड़ा नजर आ रहा है।  किसानों का एकमुश्त समर्थन हासिल करना तो दूर वह अपनी बिरादरी तक को एकजुट नहीं रख सका।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 19 September 2020

पंजाब की राजनीति भी महाराष्ट्र की राह पर बढ़ रही



अकाली दल ने तो केंद्र सरकार से अपनी एकमात्र सदस्य हरसिमरत  कौर बादल को हटाने के बावजूद राजग से अलग होने  के बारे में कुछ नहीं कहा | लेकिन गत दिवस प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने जिस अंदाज में कृषि सुधार विधेयकों का विरोध कर रहे विपक्षी दलों के अलावा अकाली  दल पर भी  निशाना साधा उससे ये संकेत  मिल रहा है कि भाजपा  अकाली दल से मुक्ति पाना चाहती है  जिसके रहते उसका पंजाब में स्वतंत्र अस्तित्व नहीं बन सका  | श्री मोदी ने साफ़ शब्दों में कहा कि जब उक्त अध्यादेश जारी हुए थे तब अकाली दल उनका समर्थन कर रहा था | हालाँकि हरसमिरत ने कल ये सफाई दी कि उनके विरोध को नजरअंदाज कर दिया गया किन्तु यदि ऐसा था तो वे इतने दिनों तक क्यों रुकी रहीं , ये बड़ा सवाल है | सही बात तो ये है कि अकाली दल के मौजूदा अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल अपने कद्दावर पिता प्रकाश सिंह बादल के कारण पार्टी के मुखिया तो बन बैठे लेकिन उनमें उन जैसी राजनीतिक सूझबूझ नहीं है | ये  कहना भी गलत न होगा कि पिछले  विधानसभा चुनाव में अकाली - भाजपा गठबंधन की सरकार जिस नशे के मुद्दे के कारण सत्ता से बाहर हुई उसके लिए सुखबीर और उनके साले ही जनता की   नजर में खलनायक  बन गये थे | प्रकाश सिंह बादल संघर्ष करते हुए सियासत के शिखर तक पहुंचे लेकिन सुखबीर को सब कुछ बना - बनाया मिला | लेकिन इस घटनाक्रम  के पीछे भाजपा और श्री  मोदी की दूरगामी सोच भी है | एक समय था जब हरियाणा  में  भाजपा के लिए पैर रखने के लिए तक जगह नहीं होती थी | बंशीलाल और  देवीलाल जहां जाट नेता थे तो भजनलाल अन्य वर्गों के | स्व. सुषमा स्वराज मूलतः हरियाणा की थीं  परन्तु  वे भी वहां प्रभाव नहीं जमा सकीं | लेकिन बीते दो विधानसभा चुनाव से भाजपा वहां सरकार बनाने के साथ ही लोकसभा  चुनाव में शानदार प्रदर्शन करने में सफल रही | इससे उसका हौसला बढ़ा है | लेकिन पंजाब में उसका अपना जनाधार इसलिए नहीं बन पाया क्योंकि वह बादल परिवार के  आभामंडल  में छिपकर रह जाती थी | अब चूँकि प्रकाश सिंह बादल वृद्धावस्था के कारण बीमार रहने से सक्रिय राजनीति से दूर हो चुके हैं इसलिए पंजाब  की गैर कांग्रेस राजनीति में एक शून्य पैदा हो गया है | बीते कुछ समय से आम आदमी पार्टी जिस तरह से पंजाब में अपने पैर जमा रही है उससे एक बात साबित हो गयी कि वहां के सिख समुदाय में कांग्रेस के प्रति नाराजगी रखने वाला वर्ग अब अकाली दल से हटकर दूसरे विकल्प के प्रति मानसिक तौर पर तैयार है | भाजपा को लग रहा है कि पंजाब के गैर सिख मतदाताओं के अलावा नई पीढ़ी  के सिख भी धार्मिक कट्टरता के मोहपाश से निकलकर राष्ट्रीय राजनीति से जुड़ने के लिए तैयार हैं | प्रकाश सिंह बादल विपक्षी एकता के बहुत पुराने सूत्रधार थे और भाजपा की हिंदूवादी छवि के बाद भी उन्होंने उसके साथ गठबंधन बनये रखा | स्व . भैरोसिंह शेखावत और स्व. अटलबिहारी वाजपेयी से उनके निजी सम्बन्ध भी गठबंधन के स्थायित्व का कारण रहे | भाजपा भी उन्हें उसी तरह स्वीकार करती रही जैसे महाराष्ट्र में स्व. बाल ठाकरे के रहते वह शिवसेना की सहयोगी बनकर संतुष्ट थी |  लेकिन उनके न रहने पर वह उद्धव को बर्दाश्त नहीं  कर सकी | स्व. प्रमोद महाजन भाजपा के राष्ट्रीय नेता जरूर रहे लेकिन बाला साहेब के सामने वे भी ऊँची आवाज में बात नहीं कर पाते थे जबकि शिवसेना और भाजपा का गठबंधन तैयार करने वाले मुख्य शिल्पी वही थे | यही  स्थिति पंजाब में प्रकाश  सिंह बादल के सामने भाजपा की बनी रही | लेकिन ज्यों - ज्यों वे परिदृश्य से बाहर होते जा रहे हैं त्यों - त्यों भाजपा  भी पंजाब में अपने स्वतंत्र अस्तित्व को बनाते हुए हरियाणा जैसे नतीजे की योजना बनाने लगी है | कृषि सुधार विधेयकों के विरोध में हरसिमरत कौर के इस्तीफे के बाद भी अकाली दल ने राजग छोड़ने की मंशा जाहिर नहीं की थी | बावजूद उसके प्रधानमंत्री ने जिस तल्खी भरे अंदाज में अकाली दल को आलोचना  के घेरे में लिया उससे लगता है कि पंजाब में अब भाजपा खुद के बलबूते खड़े  होने की तैयारी में है | इस बारे में गौर करने  वाली बात ये भी है कि कांग्रेस में मुख्यमंत्री कैप्टेन  अमरिंदर सिंह के विरुद्ध जमकर असंतोष के स्वर उठ रहे हैं | पूर्व प्रदेश अध्यक्ष प्रताप सिंह बाजवा तो बगावत का झंडा उठाये घूमते ही रहते हैं | इसी तरह सिख समुदाय के अनेक प्रभावशाली लोग जो आम आदमी पार्टी के चमत्कारिक उदय के बाद उसके प्रति आकृष्ट हुए थे वे भी निराश होकर अब किसी और दल से  अपनी उम्मीदें जोड़ना चाह रहे हैं | भाजपा  ऐसे लोगों पर नजर रखे हुए है | इस प्रकार आने वाला समय पंजाब की राजनीति में उथल पुथल भरा होगा | बड़ी बात नहीं वहां भी महाराष्ट्र की तर्ज पर बेमेल गठबंधन नजर आएं | अकाली दल के इस्तीफे रूपी पैंतरे पर प्रधानमंत्री की रोषपूर्ण प्रतिक्रया में भविष्य के अनेक संकेत छिपे हुए हैं |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 18 September 2020

नए क़ानून : प्रधानमंत्री को चाहिए किसानों को आश्वस्त करें



भारत परम्परागत  कृषि प्रधान देश है और अर्थव्यवस्था में भी कृषि का बहुत बड़ा योगदान है। सबसे ज्यादा रोजगार इसी क्षेत्र में मिलता है। आबादी का बड़ा हिस्सा गाँवों में  ही रहता है। ग्रामीण पृष्ठभूमि के सांसदों  और विधायकों  की संख्या भी अच्छी खासी होगी। राजनीतिक दलों के संगठन में किसान प्रकोष्ठ भी होता है। अनेक स्वयंसेवी संगठन और कृषि अर्थशास्त्री किसानों की भलाई के लिए कार्य करते रहते हैं । चुनावी घोषणापत्रों का बड़ा भाग  गाँव और खेती पर केन्द्रित होता है। प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने किसानों की आय दोगुनी करने के लिए बाकायदा एक कार्यदल भी  बना रखा है। उनको फसल के वाजिब दाम मिलें इसके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज खरीदी की सरकारी व्यवस्था भी  बनी हुई है। ये मूल्य लगातार बढ़ाये जाते हैं। केंद्र  और राज्य दोनों के बजट में बहुत बड़ी राशि ग्रामीण विकास के लिए आवंटित की जाती है। इसका लाभ भी हुआ और ग्रामीण भारत की तस्वीर पूर्वापेक्षा काफी बदली है। सड़क  और बिजली की समुचित व्यवस्था होने से गाँवों के जनजीवन में  आमूल परिवर्तन  हुआ , जिसे एक सीमा तक सुधार भी कहा  जा सकता है। लेकिन किसान की माली हालत को लेकर सदैव चिंताए बनी रहती हैं। अच्छी फसल आने पर उसे दाम नहीं मिलते , वहीं खराब फसल उसे कर्ज और अवसाद में डुबो देती है। यही वजह है कि किसानों की  बदहाली राष्ट्रीय विमर्श का एक स्थायी  विषय बन गई है। खेती भारत की आत्मा कही जाती है। कोरोना काल में जब अर्थव्यवस्था के सारे अंग शिथिल हो गये तब भी किसानों के पौरुष ने देश का आत्मविश्वास बढ़ाने में ऐतिहासिक योगदान दिया। उसी के बल पर प्रधानमन्त्री  गरीबों को मुफ्त और सस्ता अनाज देने की अपनी घोषणा को सफलतापूर्वक लागू कर सके।  उसी दौरान किसानों की  आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए केंद्र सरकार ने कुछ सुधारवादी निर्णय लेते हुए अध्यादेश जारी किये। जिन्हें कानूनी शक्ल देने के लिए संसद में पेश किया गया। कांग्रेस ने तो   इनका विरोध किया ही लेकिन मोदी सरकार में हिस्सेदार अकाली दल भी इन विधेयकों के विरोध में खडा हो गया । गत रात्रि हरसिमरत कौर बादल ने केंद्र सरकार के मंत्रीपद से भी इस्तीफा  दे दिया। संसद  में उनके पति और अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल ने भी विधेयकों को  किसान विरोधी बताया। हालांकि अकाली दल अभी भी राजग में बना हुआ है जिस पर पंजाब  के मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिंदर सिंह ने तंज भी कसा। दरअसल अकाली दल के विरोध का कारण पंजाब और हरियाणा के किसानों द्वारा किये जा रहे उग्र विरोध प्रदर्शन हैं। केंद्र सरकार इन कृषि सुधारों को क्रांतिकारी बताते हुए दावा कर रही है कि इनसे किसान का शोषण रुक सकेगा और वह अपनी फसल के उचित दाम प्राप्त करने के लिए उन्हें खुले बाजार में कहीं भी बेचने के लिए स्वतंत्र होगा। सबसे बड़ी बात कृषि उपज मंडी नामक बंदिश हटा दी गयी। किसानों की ये बड़ी पुरानी मांग रही है कि सरकारी  मंडी उनके शोषण का माध्यम है। इसकी वजह से वे अपनी उपज उन स्थानों में नहीं बेच पाते जहां अपेक्षाकृत ज्यादा दाम उन्हें मिल सकते हैं। जिला और प्रदेश बंदी जैसी व्यवस्थएं खेती को लाभ का व्यवसाय बनाने के तमाम आशावाद पर पानी फेरती रही हैं। सरकारी मंडियां चाहे  वे किसी भी राज्य की हों , भ्रष्टाचार का खुला अड्डा बनकर रह गईं। इनकी स्थापना किसानों को बिचौलियों और आढ़तियों से बचाने के लिए की गई थी । लेकिन हुआ उलटा और  हालात आसमान से टपके खजूर पर अटके वाले बन गये। नए सुधार में सबसे बड़ा बिंदु यही है और पंजाब - हरियाणा के किसान इसी के विरोध में आंदोलित हैं। इस विरोध का एक कारण ये बताया जा रहा है कि इन दोनों राज्यों में बीते कुछ दशकों से बासमती चावल का उत्पादन बढऩे से चावल मिलें भी खूब लग गईं। लेकिन देखा सीखी मप्र सहित अन्य कुछ पड़ोसी राज्यों के किसानों ने भी बासमती उगाना प्रारम्भ कर दिया। नई व्यवस्था में इन राज्यों से आने वाले सस्ते उत्पादन पंजाब और हरियाणा के किसानों के लिए नुकसान की वजह बन सकते हैं  इसी तरह अब गेंहूं में भी उक्त दोनों राज्यों का इकतरफा आधिपत्य नहीं रहा। इनके अलावा ये भी  कहा जा रहा है कि इन सुधारों के माध्यम से किसान और खेती बड़े औद्योगिक घरानों के हाथ में चली जायेगी। जो शुरुवात में तो किसानों को लुभाने के लिए उन्हें ज्यादा लाभ देंगे  लेकिन धीरे - धीरे वे अपनी चालें दिखाते हुए उन्हें अपने शिकंजे में जकड़कर लाचार बना देंगे। सरकार के दावों और विरोध के तर्कों में सही - गलत का आकलन करना जल्दबाजी होगी। हालाँकि कुछ कृषि विशेषज्ञों की  ये बात विचारणीय कि अनेक विकसित देशों में इस तरह के सुधार किसानों के लिए जबरदस्त नुकसान का सौदा साबित हुए हैं। ये देश किसानों को भरपूर  सब्सिडी दिया करते हैं जबकि भारत  पर सब्सिडी खत्म करने का दबाव बनाने में पीछे नहीं रहते। सही  बात तो ये है कि भारत की अर्थव्यवस्था अधकचरेपन का शिकार होकर रह गई है। एक तरफ तो जहाँ मुक्त अर्थव्यवस्था की हिमायत करते हुए विदेशी पूंजी  के लिए लाल कालीन बिछाने की प्रतियोगिता चलती रहती है वहीं दूसरी तरफ पश्चिमी देशों की नकल करते हुए जो सुधार लागू किये जाते हैं वे भारतीय परिवेश को  पूरी तरह रास नहीं आने से नई समस्याएँ उत्पन्न कर देते हैं। केंद्र सरकार द्वारा किये गये इन सुधारों को लेकर भी इसी तरह की आशंकाएं व्यक्त की  जा रही हैं। प्रधानमन्त्री का कहना है कि कुछ लोग किसानों को भड़काकर अपना  राजनीतिक  स्वार्थ सिद्ध करना चाह रहे हैं। उनकी बात सही भी हो सकती है किन्तु उन्हें  किसानों को आश्वस्त करना पड़ेगा कि  नए कानून उनके हिर्तों को नुकसान नहीं पहुंचाएंगे। प्रधानमन्त्री यूँ तो जनता से सीधे संवाद करते रहते हैं लेकिन उनके विरोध में ये अवधारणा भी तेजी से फैलाई जा रही  है कि  वे बड़े औद्योगिक घरानों के हितों के पोषक बनकर आम जनता को उनका गुलाम बनाने के लिए काम  कर रहे हैं। अभी तो केवल पंजाब और हरियाणा में किसानों का असंतोष सड़कों पर आया है। कानून पारित होने के बाद  देश  भर  से क्या प्रतिक्रियाएं आती हैं , ये देखने वाली बात होगी।

- रवीन्द्र वाजपेयी


Wednesday 16 September 2020

राजनीति में भी सीधी भर्ती वालों का प्रशिक्षण काल होना चाहिए



 मप्र के शहडोल जिले में पदस्थ एसडीएम और संयुक्त कलेक्टर रमेश सिंह ने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया। खबर है वे अनूपपुर विधानसभा सीट पर होने जा रहे उपचुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी बनना चाहते हैं और इस सिलसिले में पूर्व मुख्यमंत्री और प्रदेश कांग्रेस  अध्यक्ष कमलनाथ से भी  मिल आये हैं। हालांकि अभी उनका इस्तीफा स्वीकार नहीं  हुआ है लेकिन उन्होंने कांग्रेस से लड़ने का कारण  पारिवारिक पृष्ठभूमि को बताया। वैसे नियमों की बात करें तो इसमें गलत कुछ भी नहीं होगा। वे खुद भी अनूपपुर के रहने वाले हैं। श्री सिंह ने 14 वर्ष की सेवा पूरी कर ली जिसके बाद वे सेवानिवृत्ति के पात्र हो गए हैं। शासकीय सेवा से त्यागपत्र देकर जनसेवा करने की उनकी मंशा स्वागतयोग्य है लेकिन इसके लिए वे विधायक बनना चाहते हैं ये सुनकर आश्चर्य होता है। एक प्रशासनिक अधिकारी रहते हुए उन्हें सरकारी कार्य संस्कृति  की पर्याप्त जानकारी हो गई होगी और उस आधार पर  वे पिछड़े क्षेत्र का विकास करना चाहते हैं। एक युवा अच्छी- खासी सरकारी नौकरी छोड़कर जनसेवा के रास्ते पर चलना चाहे ये आदर्श स्थिति है किन्तु उनके निर्णय से एक बार फिर वही सवाल उठ खड़ा हुआ है जो किसी पूर्व न्यायाधीश को राज्यसभा  में भेजे जाने पर उठता है। सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश पद से निवृत्त होते ही रंजन गोगोई को जब राज्यसभा में मनोनीत किया गया तब विपक्ष ने बड़ा बवाल मचाया था। आरोप प्रतिबद्ध  न्यायपालिका तक जा पहुंचे। सेवानिवृत्ति के फौरन बाद न्यायाधीशों को किसी प्रकार से उपकृत किये जाने पर रोक की मांग तो अरसे से उठ रही है। लेकिन सरकारी  अधिकारियों को लेकर ऐसी बंदिश की बात नहीं होती। इसीलिये सरकारी नौकरी छोड़कर राजनीति में आकर स्थापित होने की चाहत लगातार  बढ़ती ही जा रही है। रमेश सिंह से पहले भी देश भर में सैकड़ों नौकरशाह रातों -  रात राजनेता बनने के लिए चुनाव के मैदान में कूद पड़े जिनमें कुछ सफल होकर संसद - विधानसभा में पहुंचे और कई मंत्री भी बन बैठे। पूर्व नौकरशाहों के अनुभव और योग्यता का लाभ लेना बुरा नहीं  है लेकिन उसके लिए सीधे  सांसद , विधायक या मंत्री बनाने से प्रतिबद्ध नौकरशाही का आरोप लगना स्वाभाविक है। एक सरकारी अधिकारी सेवानिवृत्ति के बाद यदि राजनीति में उतरना चाहे तो उसे एक निश्चित समयसीमा तक चुनाव लड़ने या किसी सरकारी पद से वंचित रखा जाना चाहिए। यदि नौकरी से निवृत्त होते ही वह किसी राजनीतिक दल के टिकिट पर चुनाव लड़ता है तो उस पर ये आरोप लगता है कि सेवा में रहते हुए उसने उस राजनीतिक दल को लाभ पहुँचाया होगा। हालाँकि राजनीति में जातिवाद हावी हो जाने के बाद से अब नौकरशाही राजनीतिक विचारधारा से ज्यादा जातिगत आधार पर विभाजित हो चली है। विशेष रूप से अनु. जाति और जनजाति के अलावा अन्य पिछड़ा वर्ग के कर्मचारी  और अधिकारी भी एक दबाव समूह बन गये हैं। प्रातिक्रियास्वरूप प्रशासन में बैठे अगड़ी जातियों के लोग भी जातीय आधार पर संगठित होने लगे हैं। और ये सब इसीलिए हो रहा है क्योंकि नौकरशाही को राजनीतिक संरक्षण मिलने लगा है। रमेश सिंह य़ा उन जैसे तमाम अधिकारी सेवा में रहते हुए भी किसी न  किसी राजनीतिक दल के हिमायती  बने रहते हैं और अवसर पाते ही उसमें  शामिल होकर नेतागिरी करने लगते हैं। प्रशासन पर इसका बुरा असर साफ़ देखा जा  सकता है। मप्र में अनु.जाति के एक आईएएस अधिकारी घूस लेते रंगे हाथ पकड़ लिए गये थे। उसके बाद वे लगातार अपनी  जाति के कारण प्रताड़ित होने का रोना रोते रहे। हालांकि  कानूनी लड़ाई के बाद वे बहाल भी हो गए किन्तु मनमाफिक पदस्थापना नहीं  मिलने से नाराज रहे और सेवानिवृत्ति पर भी उनका बयान बेहद तल्खी भरा रहा। इन सब कारणों से लगता है अब पूर्व नौकरशाहों के   राजनीति में प्रवेश संबंधी  आचार संहिता बननी चाहिए। कलेक्टर जैसा पद त्यागकर मुख्यमंत्री तक जा पहुंचे स्व. अजीत जोगी के नक़्शे कदम पर चलते हुए न जाने कितने नौकरशाह प्रशासक से शासक बन बैठे। मोदी सरकार के अनेक महत्वपूर्ण मंत्री वरिष्ठ नौकरशाह रहे हैं। आजकल तो सेवानिवृत्त होते ही किसी  राजनीतिक  दल की सदस्यता लेने का फैशन सा बन गया है। ये कितना सही या गलत है इस पर गंभीरता से विमर्श होना जरूरी है क्योंकि प्रतिबद्ध न्यायपालिका की तरह से ही प्रतिबद्ध नौकरशाही भी लोकतंत्र के लिए उतनी  ही घातक है। यहाँ ये बात उल्लेखनीय है कि सरकारी नौकरी में चयन के उपरांत अधिकारी कुछ समय तक प्रशिक्षण काल में रहता है। उसके पूरा होने के  बाद ही उसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी जाती है। राजनीति में भी सरकारी  सेवा के बाद आये लोगों को कुछ समय तक तो प्रशिक्षण की प्रक्रिया से गुजरना चाहिए अन्यथा पार्टी के लिए बरसों से पसीना बहा रहे कार्यकर्ताओं के मन में इस सीधी भर्ती से जो असंतोष फैलता है उसकी वजह से उनके  संगठनात्मक ढांचे को नुकसान होता है। कांग्रेस तो  इसका खमियाजा भुगत ही रही है लेकिन अब भाजपा में भी पूर्व नौकरशाहों की सीधी भर्ती जिस तरह से की  जा रही है उसकी वजह से पार्टी विथ डिफरेंस का उसका दावा अर्थहीन होने  लगा  है ।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 15 September 2020

प्राणों पर संकट के बीच प्राणवायु का संकट !





कहाँ तो बढ़ते वायु प्रदूषण को देखते  हुए जगह-जगह ऑक्सीजन पार्लर शुरू होने  की खबरें आ रही थीं और कहाँ देश भर से ये समाचार आने लगे कि कोरोना संकट  के कारण  अस्पतालों तक में ऑक्सीजन का अभाव होने लगा। हालाँकि जैसा केन्द्रीय  स्वास्थ्य मंत्री डा. हर्षवर्धन ने गत दिवस संसद में बताया उसके अनुसार देश में 92 फीसदी कोरोना मरीज साधारण किस्म के हैं जिनमें से मात्र 6 फीसदी को ऑक्सीजन की जरूरत पड़ रही है। ठीक होने वाले कोरोना संक्रमितों का प्रतिशत भी वैश्विक स्तर से काफी कम है। नये मरीजों की संख्या  में तेजी से वृद्धि के बावजूद  संतोष का विषय है कि स्वस्थ होने वालों की संख्या भी अच्छी खासी है। लेकिन ये सरकारी  आंकड़े हैं और इन पर आँख मूंदकर विश्वास कर लेना आपने आपको धोखा देने जैसा होगा। यद्यपि ये समय  आलोचना का नहीं है क्योंकि पूरी दुनिया इससे पीड़ित है। अमेरिका जैसे विकसित देश तक कोरोना के सामने असहाय साबित हुआ। उस दृष्टि से भारत अपने प्रदर्शन पर अभी तक जो संतोष व्यक्त करता रहा वह बीते दो महीनों में सवालों के घेरे में आ गया है। भले ही आंकड़ों  में कोरोना से मृतकों  का आंकड़ा बेहद कम हो लेकिन बीते कुछ दिनों से श्मसान भूमि में होने वाले  अन्त्तिम संस्कार जिस तरह से बढ़े  वह उन दावों को झुठलाने  के लिए पर्याप्त है जो स्थानीय प्रशासन से लेकर केंद्र सरकार तक कर रही है। डा. हर्षवर्धन स्वयं चिकित्सक हैं इसलिए उनकी व्यवसायिक योग्यता और ईमानदारी पर संदेह किये बिना ये कहा जा सकता है कि मंत्री चाहे केंद्र का हो या राज्य का वह  जो जानकारी सदन में देता है वह प्रशासनिक अमले द्वारा प्रदान  की जाती है और उसमें तथ्यों को छिपाये  जाने की सम्भावना से इंकार नहीं जा सकता। उस दृष्टि से संसद में स्वास्थ्य मंत्री द्वारा दिए गये बयान पर संशय बना रहेगा। बकौल डा. हर्षवर्धन भले ही ऑक्सीजन की जरूरत बहुत ही कम मरीजों को पड़ रही हो  लेकिन  मप्र सहित कुछ राज्यों में बीते कुछ दिनों में अस्पतालों में ऑक्सीजन का स्टॉक खत्म होने से मचे हड़कंप ने एक नई समस्या की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। हालांकि आपदा प्रबंधन के तहत ऑक्सीजन उत्पादक राज्यों से जरूरत वाले राज्यों में तेजी से प्राथमिकता के स्तर पर आपूर्ति की गयी लेकिन जिस मात्रा  में नए मामले प्रतिदिन आ रहे हैं उन्हें देखते हुए आने वाले दिनों में ऑक्सीजन की कमी का अंदेशा बना रह सकता है। हालाँकि कोरोना संकट शुरू होते ही देश में उससे सम्बंधित जरूरतों मसलन मास्क , सैनीटाईजर, वैन्टीलेटर , जाँच किट आदि का  उत्पादन तेजी से होने लगा जिससे आयात की जरूरत खत्म हो गई। इसलिए ये उम्मीद करना गलत नहीं होगा कि अस्पतालों में ऑक्सीजन की बढ़ती हुई मांग को पूरा  करने के लिए देश में उसका पर्याप्त उत्पादन और भंडारण जल्द हो सकेगा। लेकिन तब तक उसकी आपूर्ति सुनिश्चित रखना बड़ी चुनौती है । मप्र उन राज्यों में से है जिनमें  बीते कुछ दिनों में ऑक्सीजन के अभाव के कारण अनेक शहरों में कोरोना मरीजों को जबरदस्त परेशानी हुई। अनेक मौतें  उस वजह से होने की शिकायतें भी आई हैं। ये संतोष  का विषय है कि केंद्र सरकार द्वारा तत्काल सामंजस्य बिठाकर आपूर्ति करवा दी गई परन्तु कोरोना संक्रमण के तेजी से फैलाव के मद्देनजर आने वाले दिन और भी संकट भरे हो सकते हैं। जिन घरों में बुजुर्ग  रहते हैं  वहां  छोटे ऑक्सीजन सिलेंडर रखे जाने की सलाह अक्सर चिकित्सक दिया करते हैं। मौजूदा हालात देखते हुए तो  उसकी  जरूरत किसी को भी पड़ सकती है। कोरोना चूँकि मनुष्य के फेफड़ों को संक्रमित कर  उसके श्वसन तंत्र को नुकसान पहुंचाता है इसलिए शरीर में ऑक्सीजन का वांछित स्तर बनाये रखने के लिए भी जन - जागरण किया जाना जरूरी है।  ये देखने में आया है कि साँस लेने में होने वाली तकलीफ को शुरुवात में नजरंदाज करने से  अस्पताल पहुँचने पर इलाज मुश्किल होता है।  ऑक्सीजन को प्राण वायु कहा जाता है। उसका महत्व तो दिल्ली जैसे शहर में साल में कई मर्तबा होने वाले प्रदूषण के समय समझ में आता रहा। लेकिन कोरोना संकट ने हमारे शरीर में उसकी पर्याप्त मात्रा  के बारे में भी सचेत किया है। इस बारे में भारत की परम्परागत योग पद्धति बेहद उपयोगी है जिसमें श्वसन तंत्र को मजबूत बनए रखने के तमाम व्यायाम हैं। शंख बजाना भी फेफड़ों  के स्वास्थ्य के लिए लाभदायक माना  जाता है। बेहतर  होगा कोरोना के बहाने आम भारतीय इस तरह की सावधानियों के प्रति गंभीर हों क्योंकि छोटी-छोटी बातें भी बड़े से बड़े संकट में कारगर साबित होती  हैं ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 14 September 2020

हिन्दी भाषी ही उसे अपना लें तो उसका उद्धार हो जाये



आज राजभाषा दिवस है। इसे हिन्दी दिवस भी कहा जाता है। 1949 में आज ही  के दिन संविधान सभा ने हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया था। 1953 में हिन्दी की महत्ता प्रतिपादित करने के लिए 14 सितम्बर को राजभाषा दिवस घोषित कर दिया गया। इस प्रकार  यह एक तरह से उसका सरकारी जन्मदिवस है। कालान्तर में इसका विस्तार राजभाषा सप्ताह , पखबाड़ा और मास के तौर पर भी हो गया। वैसे तो हिन्दी के  लिये ये सम्मान की  बात है कि दर्जनों भाषाओं के होते हुए भी   पूरे  देश में सरकारी प्रेरणा से  उसका गुणगान किया जाता है। छोटे-बड़े ढेर सारे आयोजन होते हैं। हिन्दी की सहजता , सरलता और स्वीकार्यता को लेकर संकल्प और प्रतिबद्धता  दोहराई जाती है। प्रतियोगिताएँ , पुरस्कार वितरण , सम्मान  , विचार गोष्ठियां , कवि सम्मलेन, पोस्टर बैनर , जैसे वे अनेक  कर्मकांड किये जाते हैं जिनसे हम भारतीय भली-भांति परिचित हैं। काफी पहले से केंद्र  सरकार के सभी विभागों  तथा उपक्रमों में राजभाषा अधिकारी नियुक्त किये जा चुके  हैं जो हिन्दी में कामकाज को बढ़ावा देने तथा गैर हिन्दी भाषियों को हिन्दी में प्रशिक्षित करने का कार्य करते हैं। इस व्यवस्था का काफी लाभ भी हुआ। हालाँकि भाषावार प्रान्तों के गठन की जो गलती हुई थी उसका खामियाजा देश को आज तक भुगतना पड़ रहा है । जाति और धर्म की तरह से ही भाषा भी वोट बैंक का जरिया  बना ली गई। तमिलनाडु में हिन्दी का सर्वाधिक विरोध होता रहा है लेकिन वहां  के लोग अंग्रेजी  पटर-पटर करने वालों का विरोध नहीं करते। महाराष्ट्र में शिवसेना और मनसे भी मराठी अस्मिता के नाम पर जनभावनाएं भड़काने से बाज नहीं आते। देखासीखी दूसरे राज्यों में भी  क्षेत्रीय भाषा को लेकर सियासत की दूकानें खोलने का प्रयास होता  रहता है। हाल ही में घोषित नई शिक्षा नीति में स्थानीय भाषा में प्राथमिक शिक्षा देने का जो प्रावधान  किया गया उसका भी तमिलनाडु और बंगाल में विरोध किया गया जिसका मुख्य कारण अगले साल होने वाले  विधानसभा के चुनाव हैं। ये संतोष का विषय है कि कम से कम उत्तर भारतीय राज्यों के न्यायालयों के साथ ही  राष्ट्रीय और प्रांतीय स्तर की  प्रतियोगी परीक्षाओं में भी हिन्दी को मान्यता  मिल गयी है। ये सब देखते हुए हिन्दी के भविष्य को लेकर संतुष्ट हुआ जा सकता है। लेकिन इस बारे में जो दूसरा पक्ष है वह चिंता भी पैदा कर रहा है। और वह है हिन्दी भाषियों के ही  एक बड़े वर्ग में हिन्दी के प्रति उपेक्षा की प्रवृत्ति  जो काफी हद तक  हीनभावना का रूप ले बैठी है। पहले उच्च वर्गीय समाज में ही अंग्रेजी का आकर्षण था क्योंकि उसे अभिजात्यता का मापदंड मान लिया गया। लेकिन बीते कुछ दशकों में मध्यम और निम्न मध्यम  वर्ग ने जिस तरह अंग्रेजी को गले लगाया उसकी वजह से हिन्दी का ज्यादा नुकसान हो रहा है। अँग्रेजी माध्यम में शिक्षा को सफलता की  सीढ़ी मान लेने की मानसिकता के कारण शालेय शिक्षा का स्वरूप ही  बदल गया और कुकुरमुत्ते की तरह  गली-गली में कान्वेंट स्कूल के बोर्ड टंग गये। यदि इनके जरिये आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्ग के बच्चे काम चलाऊ अंग्रेजी  ही सीख जाएँ तो इसका लाभ होगा लेकिन अंग्रेजी माध्यम के फेर में हो ये रहा हैं कि हिन्दी भाषी प्रान्तों के बच्चे ही हिन्दी में कमजोर होने लगे। इसके लिए शिक्षा प्रणाली के साथ अभिभावक भी बराबरी से दोषी  हैं जिन्होंने अंग्रेजी माध्यम की मृगमरीचिका में बच्चों को अपनी मातृभाषा से ही अपरिचित कर दिया। ये कहने में कुछ भी गलत या अतिशयोक्ति नहीं है कि हिन्दी को खत्म करना किसी के बस की बात नहीं  है क्योंकि वही ऐसी भाषा है जो पूरे देश में समझी जाती  है। दक्षिण भारत के जिन राज्यों में हिन्दी का विरोध सतह पर दिखाई देता है वहां के लोग उत्तर  भारत में आकर नौकरी करने में तनिक भी  संकोच नहीं करते। इसी तरह उप्र और बिहार जैसे विशुद्ध हिन्दी भाषी प्रदेशों के मजदूर बिना स्थानीय भाषा जाने ही दक्षिण  ही नहीं बल्कि पूर्वोत्तर के राज्यों में भी कार्य करते हैं। कोरोनाकाल में काम बंद हो जाने  की वजह से जब मजदूरों का पलायन हुआ तब ये तथ्य सामने आया कि हिन्दी विरोधी  राज्यों में भी हिन्दी भाषी श्रमिकों और कर्मचारियों का कोई विरोध नहीं है। ये सब देखते हुए हिन्दी भाषी लोगों को हिन्दी के प्रति उनके मन में आई हीन भावना और भविष्यगत असुरक्षा से मुक्त होना पड़ेगा । अंग्रेजी को बतौर भाषा सीखना अच्छा है लेकिन उसे ओढ़ लेने  की प्रवृत्ति हमारे सांस्कृतिक अस्तित्व के लिए खतरा है। क्योंकि भाषा के साथ जो साहित्य और संस्कृति आती है  उसका असर पीढिय़ों तक रहता है और इस दौरान उसे अपनाने वाला  समाज अपनी मूल पहिचान खो बैठता है। विश्व के अनेक देशों  में विदेशी भाषा के आधिपत्य ने उनकी जड़ों को ही नष्ट कर दिया। हिन्दी  के नाम पर होने वाले इस वार्षिक आयोजन में उसके प्रचार - प्रसार और गौरवगान के जो भी प्रयास होते हैं वे सब  स्वागतयोग्य हैं लेकिन जब तक हिन्दी भाषी लोग अपनी मातृभाषा के प्रति आग्रही नहीं होंगे तब तक हिन्दी को सरकारी संरक्षण  में  राजभाषा का दर्जा भले मिलता रहे लेकिन वह सही मायने में राष्ट्रभाषा होने के बाद भी उपेक्षित ही रहेगी। हिन्दी भाषी ही यदि उस को ससम्मान अपना लें तो उसका विरोध धीरे - धीरे विलुप्त होता जाएगा। आज के दिन का सबसे सरल सन्देश यही है कि हिन्दी की बातें कम करें लेकिन  हिन्दी में बातें ज्यादा करें ।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 12 September 2020

चीन दबाव में है लेकिन हमें खुशफहमी से बचना होगा



दो देशों के बीच मित्रता और शत्रुता दोनों के समय यदि कोई बात कायम रहती है तो वह कूटनीति ही है। अनेक उदाहरण हैं जब सेनाओं के बीच घमासान चलता रहता है वहीं सरकार के स्तर पर राजनयिक वार्ताओं के जरिये शान्ति की कोशिश भी जारी रहती हैं। ये भी देखने में भी आया है कि दो देशों के बीच के मतभेद दूर करने के लिए कोई तीसरा देश मध्यस्थता भी करता है। भारत और पाकिस्तान के बीच 1965 के युद्ध के बाद तत्कालीन सोवियत संघ ने ताशकंद बुलाकर भारत के प्रधानमंत्री स्व.लालबहादुर शास्त्री और उस समय पाकिस्तान के राष्ट्रपति रहे अयूब खान के बीच समझौता करवाया था। दूसरे विश्व युद्ध के उपरान्त चीन में साम्यवादी क्रांति के बाद अमेरिका के साथ उसका राजनयिक रिश्ता नहीं था। सुरक्षा परिषद में भी चीन की जगह ताईवान को स्थायी सदस्य के तौर पर अमेरिका ने बिठा रखा था। लेकिन 1972 में अचानक अमेरिका के रुख में बदलाव आया और उसके विदेश सचिव हेनरी कीसिंजर पकिस्तान की मदद से चीन की गुप्त यात्रा पर गये और उससे राजनयिक रिश्ते बनाकर सुरक्षा परिषद में ताईवान की जगह उसे रखवाने में सहायता दी। उसके बाद चीन और अमेरिका वैचारिक मतभेदों के बावजूद आर्थिक क्षेत्र में बेहद नजदीक आ गए। आज उनके बीच तनाव चरम पर है किन्तु दोनों ही एक दूसरे के यहाँ इतना ज्यादा पूंजी निवेश कर चुके हैं कि पूरी तरह नाता तोड़ने में उन्हें हजार बार सोचना पड़ेगा। संयोगवश भारत भी इन दिनों ऐसी ही परिस्थिति से गुजर रहा है। 1962 में चीन ने दोस्ती की आड़ में धोखा देकर हमला किया और हमारी हजारों वर्गमील जमीन पर कब्जा ली। बाद में उसने पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाले कश्मीर का अक्साई चिन इलाका भी बतौर उपहार ले लिया। उसके बाद भी भारत और चीन के बीच सीमा विवाद के बावजूद सामान्य सम्बन्ध बने रहे। और फिर वैश्विक अर्थव्यवस्था विकसित होने के बाद आर्थिक सम्बन्ध इस तेजी से विकसित होते गये कि सीमा विवाद मानो भुला सा दिया गया। हालाँकि बीच-बीच में चीन अपने स्वभाव के मुताबिक कुटिलता दिखाता रहा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ जिसके कारण दुश्मनी सतह पर आती। भारतीय अर्थव्यवस्था पर चीन की छाया इतनी व्यापक हो गई कि पूरा बाजार मेड इन चायना से भर गया। इसका दुष्प्रभाव घरेलू उद्योगों पर पड़ने के बावजूद भारत ने चीन से आयात पर किसी तरह की रोक नहीं लगाई। यहाँ तक कि नरेंद्र मोदी तक चीन के साथ इकतरफा व्यापार को रोकने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। चीन के राष्ट्रपति जिनपिंग से उनकी दोस्ती बड़ी राजनायिक कामयाबी मानी गई। लेकिन चीन कश्मीर और आतंकवाद के मसले पर सदैव पाकिस्तान की तरफदारी करता रहा। और फिर आ गया कोरोना जिसके बाद पूरी दुनिया उसे खलनायक मान बैठी। भारत में भी ये मानने वाले कम नहीं हैं कि दुनिया को इस महामारी के चंगुल में फंसाने वाला चीन ही है फिर भी उसके साथ व्यापारिक रिश्ते बरकऱार रखते हुए कोरोना संबंधी अनेक उपकरण और बचाव के साधन वहां से मंगाए गये। लेकिन वैश्विक महामारी के इस दौर का लाभ लेकर उसने लद्दाख क्षेत्र में घुसपैठ कर दशकों से शांत पड़ी वास्तविक नियंत्रण रेखा पर सैन्य हलचल बढ़ा दी। परन्तु इस बार उसे भारत से जो जवाब मिला उसके कारण वह न सिर्फ  चौंका बल्कि शर्मिन्दगी का शिकार भी हुआ। उसने नेपाल, बांग्लादेश, श्री लंका और पाकिस्तान के जरिये भी भारत पर दबाव बनाना चाहा लेकिन वह  योजना कारगर नहीं हुई। भारत ने सीमा पर दो-दो हाथ करने के इरादे तो दिखाए ही, साथ में आर्थिक मोर्चे पर चोट पहुँचाने के लिए भी ताबड़तोड़ फैसले करते हुए उसके आर्थिक बहिष्कार के प्रति जनमत पैदा कर दिया। हालाँकि चीन के नेता, राजनयिक और सरकार नियंत्रित समाचार माध्यम भारत के दावों का मजाक बनाते हुए गंभीर परिणाम भुगतने की धमकी देने से बाज नहीं आये लेकिन सैन्य और राजनयिक स्तर पर बातचीत करते हुए विवाद को हल करने की पहल भी बीजिंग की तरफ से होती रही। इसका ताजा उदाहरण रूस में बीते कुछ दिनों के भीतर पहले भारत और चीन के रक्षा मंत्रियों और फिर विदेश मंत्रियों के बीच हुई लम्बी वार्ताएं हैं। ये लोग मास्को में आयोजित सम्मेलनों में शिरकत करने गये थे। लेकिन इन वार्ताओं की पेशकश चीन की तरफ  से होना ये साबित करता है कि 1962 के बाद पहली बार वह इतना झुका है। लेकिन सीमा पर हरकतें और सैन्य अधिकारियों के साथ चल रही वार्ताओं में उसके अड़ियलपन से ये अनुमान लगाया जा सकता है कि वह विश्व बिरादरी को दिखाने के लिए तो बातचीत करने का ढोंग रचता है किन्तु सीमा पर युद्ध के हालात बनाये रखकर धमकाने का कोई अवसर नहीं छोड़ता। हालांकि चीनी मामलों के जानकार मानते हैं कि वह फिलहाल युद्ध से बचना चाहेगा क्योंकि उसे ये अंदेशा है कि इस बार भारत सैन्य मोर्चे पर जोरदार टक्कर देगा जिससे उसके महाशक्ति होने के दावे को धक्का पहुंचेगा। जून महीने में गलवान घाटी और अगस्त के अंतिम सप्ताह में पेंगांग झील पर भारत के साथ सैन्य टकराहट में उसे जिस तरह का प्रतिरोध झेलना पड़ा वह उसके लिए जितना अप्रत्याशित था उतना ही अपमानजनक भी। गत दिवस विदेश मंत्री स्तर की वार्ता के दौरान दोनों देशों के बीच जिन पांच बिन्दुओं पर सहमति बनी उनमें विश्वास बहाली भी है जिसका आशय व्यापार को पहले जैसा बनाना ही है। इस दृष्टि से भारत सरकार ने पहली बार सैन्य, आर्थिक और राजनयिक तीनों मोर्चों पर जिस तरह चीन के समक्ष  चुनौती पेश की वह उत्साहित करने वाली है। हालांकि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के विशषज्ञों का मानना है कि नरेंद्र मोदी को सीधे जिनपिंग से बात करना चाहिए जो तनाव खत्म करने में कारगर साबित हो सकेगी क्योंकि उनके बीच पूर्व में काफी अच्छा संपर्क  और संवाद रहा है। लेकिन वक्त की नजाकत ये कहती है कि भारत को किसी भी तरह की जल्दबाजी की बजाय बराबरी के साथ बात करनी चाहिए। चीन निश्चित तौर पर बड़ी ताकत है लेकिन हाल के वर्षों में भारत भी हर क्षेत्र में आगे आया है, वरना न तो वह चीनी सेना से टकराने का साहस दिखाता और न ही आर्थिक मोर्चे पर उसके बहिष्कार जैसी बात सोचता। इसीलिये वह चाहे जितनी धमकी और धौंस देता रहे किन्तु उसकी समझ में ये बात आ चुकी है कि भारत के साथ टकराव से उसे भी जबर्दस्त नुकसान होगा और इसीलिये वह सीमा पर शरारत करते रहने के बावजूद वार्ता के लिए लालायित है। सही बात तो ये है कि लद्दाख में सैन्य गतिविधियाँ बढ़ाने के बाद वह खुद फंस गया है। यदि बिना किसी समझौते के उसने अपनी सेनायें पीछे हटाईं तो उसकी जबर्दस्त किरकिरी होगी। इसी तरह भारत ने यदि व्यापार प्रतिबन्ध जारी रखे तब भी चीन के हितों पर उनका दूरगामी असर होगा। ये देखते हुए फिलहाल भारत भारी न सही लेकिन हर तरह से बराबरी पर है। बावजूद उसके साथ किसी भी स्तर पर बातचीत और उसमें लिए जाने वाले फैसलों को लेकर अतिरिक्त सतर्कता आवश्यक है क्योंकि चीन किसी भी तरह से विश्वसनीय नहीं है। भारत ने बीते कुछ महीनों में जो तैयारी की है उससे देश और दुनिया में ये एहसास पैदा हुआ है कि  1962 और 2020 के भारत में वाकई जमीन और आसमान का फर्क  है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 11 September 2020

सियासी संरक्षण और प्रतिबद्ध प्रशासन से बढ़ा भ्रष्टाचार




देश में भ्रष्टाचार पर नजर रखने वाली एक प्रमुख संस्था है केन्द्रीय सतर्कता आयोग। इसे साधारणत: लोग विजिलेंस कमीशन के नाम से जानते हैं। इसका कार्य केंद्र सरकार के विभिन्न विभागों में होने वाले भ्रष्टाचार और अनियमितताओं को शुरु में ही रोक देना है। सरकारी खरीदी की बड़ी निविदाओं पर भी इस आयोग की पूर्व स्वीकृति ली जाती है। लेकिन भ्रष्ट लोग भी तुम डाल -डाल, हम पात-पात वाली कहावत को चरितार्थ करने में सिद्धहस्त हैं। और इसीलिये सतर्कता के लिये तैनात अमले को चकमा देते हुए भ्रष्टाचारी जमात अपना कारोबार बेधड़क चलाती रहती है। बाद में जो शिकायतें आती भी हैं उनकी जांच और दोषी को दण्डित करने की प्रक्रिया इतनी जटिल और उबाऊ है कि भ्रष्टाचार करने वाला सीना तानकर घूमा करता है। गत दिवस आयोग ने इस विसंगति को दूर करने के लिए सतर्कता आयोग के अधिकारियों द्वारा भ्रष्टाचार की शिकायतों संबंधी फाइलों के समयबद्ध निपटारे के लिए आवश्यक कदम उठाये हैं। जांच का काम देख रहे अधिकारियों के पास लंबित फाइलों की 30 सितम्बर तक समीक्षा की जावेगी और फिर जाँच को अंजाम तक पहुँचाने की प्रक्रिया को तेज किया जावेगा। ये खबर वाकई उत्साहित करने वाली है क्योंकि हमारे देश में यूँ तो समस्याओं के ऊँचे-ऊँचे पहाड़ खड़े हुए हैं लेकिन उनकी सबसे ऊँची चोटी का नाम भ्रष्टाचार है। यदि ये न होता या कम होता तब भारत जाने कभी का विकासशील से विकसित देश बन चुका होता। चूँकि केंद्र सरकार ही देश को संचालित करती है और संघीय ढांचे के बाद भी उसका प्रभाव और उपस्थिति पूरे देश में है , इसलिए उसके विभागों के भ्रष्टाचार से राज्य सरकारों का शासकीय ढांचा भी प्रेरित होता है। इस लिहाज से यदि केन्द्रीय सतर्कता आयोग अपने कर्तव्यों के निर्वहन के प्रति गंभीर और परिणाममूलक हो जाये तो देश की अधिकतर समस्याएं आसानी से हल हो सकती हैं। राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में भ्रष्टाचार ने अपना कब्जा जमा रखा है। उसे रोकने के लिए स्थापित जांच एजेंसियां अक्षम हों ऐसा नहीं है, लेकिन कुछ तो कार्य संस्कृति के अभाव और कुछ राजनीतिक हस्तक्षेप की वजह से जाँच का काम बीरबल की खिचड़ी जैसा होकर रह जाता है। जैसे-तैसे जाँच पूरी हो भी जाये तो फिर बची-खुची कसर पूरी हो जाती है नवाबी चाल से चलने वाली न्यायपालिका में आकर जहां भ्रष्टाचार के मामले भी दीवानी मुकदमों जैसे बरसों-बरस खिंचते रहते हैं। गवाहों और सबूतों पर टिकी न्यायिक प्रणाली शातिर दिमाग वालों के आगे इस कदर मजबूर हो जाती है कि सब कुछ जानते और समझते हुए भी शीघ्र न्याय प्रदान करने में वह असमर्थ है। ऐसे में यदि सतर्कता आयोग निचले स्तर पर ही अपने नाम को सार्थक साबित करते हुए भ्रष्ट लोगों के गिरेबान को पकड़ सके तो भ्रष्ट तत्वों के हौसले कमजोर किये जा सकेंगे। वर्तमान स्थिति तो बेहद चिंताजनक और निराश करने वाली है। यद्यपि इसके लिए राजनीतिक संरक्षण भी कम जिम्मेदार नहीं है जो अपने प्रभाव का बेशर्मी के साथ दुरूपयोग करते हुए जनता को लूटने वालों को रक्षा कवच प्रदान करता है। सरकार बदलने के साथ ही नौकरशाहों को इधर-उधर किये जाने की संस्कृति प्रतिबद्ध प्रशासनिक तंत्र का कारण बनने से सरकारी महकमे के अफसरों की पहिचान  राजनीतिक पार्टी के साथ जुड़ाव से  होने लगी। सतर्कता आयोग में बैठे अधिकारी भी हैं तो आखिर सरकार के वेतनभोगी और ऐसे में उन्हें भी अपनी नौकरी तथा भविष्य प्यारा होता है। इस लिहाज से जब तक प्रशासन राजनीतिक हस्तक्षेप और पहिचान से मुक्त नहीं होगा सतर्कता आयोग की ताजा पहल को सफलता मिलने में संदेह बना रहेगा। यूँ भी भ्रष्टाचार अब केवल किसी एक या कुछ विभागों में सीमित न रहकर समूचे तंत्र में व्याप्त हो चुका है। ऐसी स्थिति में उससे लड़ने के लिए एक समग्र, सक्षम और स्वायत्त व्यवस्था करनी होगी अन्यथा जाँच और दंड प्रक्रिया में अधूरापन बना रहेगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 10 September 2020

आखिर ज़िन्दगी भी तो हमारी है : सावधानी हटी दुर्घटना घटी



मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस : सम्पादकीय
- रवीन्द्र वाजपेयी

आखिर ज़िन्दगी भी तो हमारी है : सावधानी हटी दुर्घटना घटी

 जिस तरह बच्चे के बड़े हो जाने के बाद अभिभावक उसका हाथ पकड़ना छोड़ देते हैं ठीक वही  स्थिति भारत में कोरोना को लेकर दिखाई दे रही है | यहाँ अभिभावक के रूप में सरकार और बच्चे के तौर पर जनता को रखा जा सकता है | बीते कुछ समय से ये महसूस होने लगा है कि केंद्र और राज्य दोनों ही  सरकारों ने धीरे - धीरे कोरोना से निपटने के लिए जनता को उसके हाल पर छोड़ दिया है | इसका संकेत लॉक डाउन में क्रमशः दी जा रही ढील है | दिल्ली जहां कोरोना संक्रमण खत्म होने के दावों के साथ मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल अस्पतालों के खाली बिस्तरों का हवाला देते हुए दूसरे राज्यों के मरीजों का  भी दिल्ली में इलाज करने की  दरियादिली दिखाने लगे थे वहां भी कोरोना ने दोबारा अपना रौद्र रूप दिखाना शुरू कर दिया | देश में जांच की संख्या बढाए  जाने के साथ ही नए संक्रमितों का भी  सैलाब जैसा आने लगा है और  प्रतिदिन का आंकड़ा एक लाख को छूने के करीब है | अनेक राज्यों ने जनता से कहना शुरू कर दिया है कि जाँच केन्द्रों में जाकर अपनी जाँच खुद करवा लें | इस प्रकार घर - घर जाकर कोरोना संक्रमण की खोज बंद करने की तरफ कदम बढ़ाये जा रहे हैं | हालाँकि बिना चिकित्सक का पर्चा लिए निःशुल्क जांच कराने की  सुविधा  अच्छा निर्णय है लेकिन समाज में अशिक्षा के कारण बड़ा वर्ग ऐसा है जो बीमारी के लक्षण  दिखने पर भी जाँच और इलाज के प्रति लापरवाह बना रहता है | यहाँ  तक कि  पढ़े - लिखे लोगों के बीच भी ऐसे व्यक्ति बड़ी संख्या में हैं जो बीमारी के समयोचित इलाज के प्रति उपेक्षाभाव प्रदर्शित करने में बहादुरी समझते हैं | लॉक डाउन  लगाने और बीच - बीच में उसकी अवधि बढ़ाने के समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को संबोधित करते हुए कोरोना से बचाव हेतु हाथ जोड़कर उसके तरीके बताये थे | सरकारी स्तर पर भी लोगों को खूब जागरूक किया जाता रहा | लेकिन लॉक डाउन को शिथिल किये जाने के साथ ही  सरकार ने ये मान लिया कि लोग बहुत ज्यादा समझदार और जागरूक हो गये हैं तथा अब उन्हें उनके हाल पर छोड़ा जा सकता है | चूंकि कोरोना एक वैश्विक संक्रमण है इसलिए उससे बचने के तौर - तरीके  तथा अन्य शिष्टाचार भी अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों के अनुसार लागू किये जा रहे हैं | लॉक डाउन खत्म होने के बाद हमारी सरकारों ने ये मान लिया है कि देश  की जनता कोरोना से बचाव के सभी तौर - तरीके अच्छी तरह से सीख - समझ गई है | इसीलिये  आये दिन  तमाम बंदिशें हटाई  जा रही हैं |  | और ये तब हो रहा है  जब कोरोना संक्रमण का फैलाव सुरसा के मुंह की तरह फ़ैल  रहा है | इसलिए इस बात पर इतराना निहायत बेवकूफी होगी कि भारत में कोरोना से मृत्यु दर बहुत कम है और ठीक होने वालों का अनुपात भी बहुत संतोषजनक है | चिंता की बात ये है कि देश के सभी शासकीय और निजी अस्पतालों में  बिस्तरों की उपलब्धता रोजाना कम होती जा रही है | अभी तक हर किसी को इस बात की उम्मीद थी कि सितम्बर तक वैक्सीन ईजाद हो जायेगी और अक्टूबर  से उसे लगाने का अभियान भी शुरू हो सकेगा | लेकिन अधिकृत रूप से जो ताजा जानकारी आ रही है उसके अनुसार भारत  और विदेश दोनों जगह बन रही वैक्सीनों के अंतिम परीक्षण अभी चल रहे हैं | भले ही रूस और चीन ये दावा कर रहे हैं कि उनकी  वैक्सीन जनता को लगाई  जाने लगी है किन्तु इस बारे में अभी तक कुछ भी पक्के तौर पर नहीं कहा  जा सकता कि भारत में आम जनता तक वैक्सीन कब तक उपलब्ध हो सकेगी | इसे देखते हुए ये जरूरी हो गया है कि अब लोग खुद ही सावधान तो रहें ही साथ ही साथ अपने सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति को मास्क लगाने और हाथ धोने की जरूरत महसूस करवाएं | वैसे ये अच्छी बात है कि भारत में कोरोना को लेकर बहुत ज्यादा भय नहीं है | फिर भी उसे लेकर लापरवाही भी उचित नहीं कही  जा सकती | देखने में आया है  कि किसी भी समस्या से लड़ते समय जब हमें लगने लगता है कि हम जीत के करीब हैं तभी हम लापरवाह हो जाते हैं और बाजी हाथ से निकल जाती है | कोरोना को लेकर भी ऐसा ही हो रहा है | अनेक ऐसे लोग जो प्रारंभ से पूरी तरह सावधान रहे , वे लॉक  डाउन हटने के बाद निश्चिन्त हो उठे और कोरोना की  चपेट में आ गये | इसलिए अब जबकि सरकार ने जिम्मेदारी हमारे कन्धों पर डाल दी है , इसलिए बेहतर होगा कि हम सभी कोरोना से खुद को भी बचाएं और दूसरों को भी इस हेतु प्रेरित करें | आखिर ज़िन्दगी भी तो हमारी है | वाहन चालकों को आगाह करती ये चेतावनी इस संदर्भ में भी बेहद प्रासंगिक है कि सावधानी हटी , दुर्घटना घटी ।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 9 September 2020

देखें ड्रग किस - किस फिल्मी नायक को खलनायक बनाता है



सुशांत सिंह राजपूत नामक अभिनेता की मौत के तकरीबन तीन महीने बाद भी जांच एजेंसियां ये तय नहीं पा रहीं कि उसने आत्महत्या की या उसकी हत्या की गई ? यद्यपि सीबीआई हत्या की बात से इंकार कर चुकी है लेकिन पोस्टमार्टम रिपोर्ट में रह गईं कुछ तकनीकी गलतियों एवं मृतक के बिसरा की एम्स , दिल्ली द्वारा दोबारा जांच को देखते हुए ये माना जा रहा है कि सीबीआई वाले भी पूरी तरह संतुष्ट नहीं हैं। लेकिन मामला आत्महत्या और हत्या से भी आगे निकलकर अब ड्रग्स ( नशीली दवाओं ) के कारोबार तक जा पहुंचा है। दिवंगत अभिनेता के साथ लिव इन में रह रही उसकी महिला मित्र रिया चक्रवर्ती जो उसकी मौत के हफ्ते भर पहले ही उसका घर छोड़कर चली गई थी , कल रात इसी सिलसिले में गिरफ्तार कर ली गई। नशीली दवाओं के विरुद्ध काम करने वाले नारकोटिक्स नियन्त्रण ब्यूरो द्वारा की गयी सघन पूछताछ के बाद रिया द्वारा खुद सेवन करने के अलावा सुशांत के लिए उसकी खरीदी के लिए ड्रग कारोबारियों से सम्बन्ध रखने की बात स्वीकार कर ली गयी। इसी मामले में ब्यूरो ने रिया के भाई के अलावा सुशांत के घर का प्रबन्ध देखने वाले शख्स और एक नौकर को पहले ही हिरासत में ले रखा था। उन सबसे हुई पूछताछ में रिया की भूमिका पता चली और उसके बाद जब उसे बुलाकर लगातार तीन दिन तक सवाल किये गए तब शुरुवाती दौर में अपने को पाक-साफ़  बताने वाली रिया अंतत: अपना गुनाह कबूल कर बैठी। यद्यपि उसने बार-बार यही दोहराया कि वह सुशांत के लिए ड्रग खरीदती थी और उसने कभी-कभार ही उसका सेवन किया 
। लेकिन उसके व्हाट्स एप से जाँच एजेंसियों ने जो बातें खोज निकालीं उनसे पता चला कि सुशांत के जीवन में आने से पहले ही वह इस कारोबार से जुड़े लोगों के सम्पर्क में आ चुकी थी। इस सबसे हटकर उसके बयानों में जो सबसे बड़ी बात सामने आई , वह है फिल्मी दुनिया के तकरीबन 25 लोगों के ड्रग सेवन करने की जानकारी। उस आधार पर नारकोटिक्स नियन्त्रण ब्यूरो अब उन 25 हस्तियों को समन भेजकर उनसे पूछताछ करने के संकेत दे रहा है। यदि ऐसा होता है तब इन दिनों अपने धाकड़ बयानों से चर्चित अभिनेत्री कंगना रनौत के ये आरोप भी विचारणीय हो जाते हैं जिनके अनुसार मुम्बई फिल्म उद्योग में ड्रग का चलन बेहद आम है। कंगना ने कुछ प्रमुख अभिनेताओं के नाम लेकर उनसे अपनी जाँच करवाने को कहा लेकिन उनमें से किसी ने भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। रवीना टंडन और गजेन्द्र सिंह चौहान ने अवश्य ये कहा कि कंगना को पूरी फिल्मी बिरादरी को नहीं लपेटना चाहिए था किन्तु बाकी हस्तियाँ जिस तरह चुप्पी साधकर बैठी हुईं हैं वह चोर की दाढ़ी में तिनके की कहावत को सही साबित कर रही हैं। कंगना के आरोप को अतिरंजित भी मान लें लेकिन अब तो रिया ने भी इस बारे में खुलासा कर दिया है। सुशांत खुद ड्रग लेते थे या नहीं इसकी पुष्टि तो अब तकरीबन असम्भव है लेकिन गत रात्रि जीटीवी पर प्रसारित एक वीडियो में सुशांत जहाँ नशे की हालत में दिख रहे थे वहीं रिया उनसे बात करती सुनाई दे रही थीं। ऐसा लगता है जैसे वीडियो उन्हीं के द्वारा बनाया गया था। उसे देखकर ये लगता है कि सुशांत नशे में था। लेकिन वह इसका आदी था या उसे ये किसी योजनापूर्वक दिया जाता रहा, ये अभी भी रहस्य है। लेकिन पहले कंगना और अब रिया के खुलासे के बाद मामला फिल्मी दुनिया में ड्रग के चलन पर आकर केन्द्रित हो गया है। रिया खुद को बचाने के लिए हम तो डूबेंगे सनम तुमको भी ले डूबेंगे वाली नीति पर चल रही है या उसकी बात में सच्चाई है, ये ब्यूरो पता करेगा। उसकी गिरफ्त में ड्रग की आपूर्ति करने वाले जो लोग आ चुके हैं उनसे भी कुछ न कुछ जानकारी तो मिली ही होगी। उसके आधार पर शराफत का नकाब पहने तमाम ऐसे चेहरे बेपर्दा होंगे जो फिल्मों में तो माफिया के विरुद्ध नायक को लड़ते और जीतते दिखाते हैं लेकिन असल जि़न्दगी में स्वयं उसी बुराई में डूबे हुए हैं। ड्रग और अवैध हथियारों का कारोबार पूरे विश्व में फैला हुआ है। भारत भी अपवाद नहीं है। फिल्मी दुनिया में ड्रग और अवैध हथियार के आरोप में अभिनेता संजय दत्त जेल तक जा चुके हैं। लेकिन फिल्म जगत ने बजाय उनका बहिष्कार करने के संजू नामक बायोपिक बनाकर उनका महिमामंडन किया। बकौल कंगना फिल्मी पार्टियों में बात शराब से बढ़कर ड्रग तक जा पहुँची है। सुशांत की मौत और उसके बाद रिया के बारे में टीवी चैनलों ने इतना ज्यादा कवरेज किया कि लोगों को टीवी समाचारों तक से वितृष्णा होने लगी। लेकिन अब ये जो नया ड्रग खुलासा हुआ है ये बहुत ही गम्भीर है क्योंकि इसके सत्य साबित होने की स्थिति में फिल्म जगत के अपराधी सरगनाओं से निकट सम्बन्ध भी उजागर हुए बिना नहीं रहेंगे। लेकिन इस मामले में शोचनीय पहलू ये भी है कि महाराष्ट्र सरकार विशेष रूप से शिवसेना जिस तरह से व्यवहार कर रही है उससे ये शक भी पैदा हो रहा है कि कहीं इस मामले का सम्बन्ध राजनीति से भी न हो। यूँ भी महाराष्ट्र विशेष रूप से मुम्बइया राजनेताओं के फिल्मी बिरादरी से आत्मीय सम्बन्ध सर्वविदित हैं और उसमें कुछ गलत भी नहीं है। लेकिन शिवसेना द्वारा सुशांत मामले की जांच सीबीआई को दिए जाने से लेकर कंगना के आरोपों पर जिस तरह की बौखलाहट दिखाई गई वह कहानी में कुछ चौंकाने वाले मोड़ आने की आशंका व्यक्त कर रही है। संयोग ये है कि फिल्मी दुनिया में ड्रग के चलन की जानकारी देने वाली कंगना महीनों बाद आज मुम्बई आ रही हैं जबकि रिया जेल। इस दोनों अभिनेत्रियों के बयान किन-किन नायकों को खलनायक साबित करेंगे ये देखने वाली बात होगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 8 September 2020

भारत भी तिब्बत में मानवाधिकार हनन का सवाल उठाये



गलवान घाटी में चीनी सेना के साथ हुई खूनी मुठभेड़ में भले ही दोनों पक्षों के दर्जनों सैनिक हताहत हुए किन्तु उस संघर्ष में एक भी गोली नहीं चली। वास्तविक नियन्त्रण रेखा पर दोनों देशों की सैन्य टुकड़ियां निरंतर निगाह रखती हैं। इस दौरान उनका आमना-सामना भी होता रहा है और कभी-कभार हाथापाई की चित्र सहित खबरें भी आती रहीं। लेकिन दोनों देशों के बीच इस बात पर सहमति कायम रही कि तनाव बढ़ने पर भी अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग नहीं किया जावेगा। ये भी तय हुआ था कि दोनों देश वास्तविक नियंत्रण रेखा पर निगरानी रखने के बावजूद उसके अतिक्रमण से परहेज रखेंगे। यद्यपि चीन गाहे-बगाहे मानवरहित क्षेत्र में अपना कब्जा ज़माने की हरकतें करता रहा जिसे रोकने के दौरान ही धक्का-मुक्की और हाथापाई की नौबत आती थी। लेकिन बीती गर्मियों में चीनी घुसपैठ के बाद हालात पहले जैसी छुटपुट घटनाओं से आगे निकलकर युद्ध की परिस्थितियों में तब्दील होते गये। गलवान घाटी की घटना के बाद भारत ने पहली बार लद्दाख क्षेत्र में बड़े पैमाने पर मोर्चेबंदी की। दरअसल इस दुर्गम इलाके में सैन्य दृष्टि से सड़क, पुल, हवाई पट्टी, सेना को सर्दियों में तैनात रखने के इंतजाम, रसद की आपूर्ति, मिसाइलों, तोपों, टैंकों और लड़ाकू विमानों की तैनाती जैसे प्रबंधों के मामले में भारत तुलनात्मक रूप से चीन से बहुत पीछे था। लेकिन हाल के वर्षों में इस कमी को दूर कर लिया गया। और यही चीन की बौखलाहट का मुख्य कारण है। गलवान घाटी की घटना के पीछे भी यही विवाद था। अग्रिम चौकियों तक सड़क बनाने का चीनी सेना ने विरोध किया जिसे भारत ने नजरंदाज करते हुए अपना काम जारी रखा। उसी का लाभ ये हुआ कि चीन के आक्रामक और संदेहास्पद रवैये को भांपकर भारत ने अत्यंत तत्परता से पूरे लद्दाख क्षेत्र में चीनी सीमा पर जवाबी सैन्य जमावड़ा करते हुए उसे चौंका दिया। ये कहना पूरी तरह सही होगा कि चीन को ऐसी उम्मीद नहीं थी। वह सोचता था कि भारत उससे बातचीत की पहल करेगा लेकिन बजाय इसके हमारी सेनाओं ने युद्ध करने की तैयारी कर ली। चीन को उम्मीद थी कि अक्टूबर में सर्दियां शुरू के पहले ही भारत कुछ टुकड़ियों को छोड़कर बाकी को पीछे हटा लेगा किन्तु चीनी इरादों का सही पूर्वानुमान लगाते हुए भारत ने ये निर्णय कर लिया कि अब लद्दाख में भी सियाचिन जैसी पूर्णकालिक सैन्य तैनाती रखी जावेगी । जिससे चीन दबे पाँव कोई हरकत न कर सके। और इसका त्वरित लाभ भी दिखाई दिया जब बीते 29-30 अगस्त को पेंगांग झील इलाके में चीनी घुसपैठ को नाकाम करने के साथ ही भारत ने रणनीतिक महत्व की कुछ चोटियों से चीनी कब्जे को हटाकर अपना आधिपत्य कायम कर लिया। इसके बाद ही बीते सप्ताह मास्को में चीन के रक्षा मंत्री ने भारत के रक्षा मंत्री से मुलाकात करने की इच्छा व्यक्त की और दोनों के बीच दो घंटे बातचीत हुई। सैनिक अधिकारी भी निरंतर मिलते रहते हैं। लेकिन चीन ने गत दिवस एक बार फिर घुसपैठ की हिमाकत की जिसके चलते दोनों तरफ से दशकों बाद गोलियाँ चलने की जानकारी आई। हालांकि किसी के हताहत होने की खबर नहीं है और ये भी सुनाई दिया कि सांकेतिक तौर पर चेतावनी स्वरूप गोलियां चलीं। लेकिन ये बात स्पष्ट हो गई कि लद्दाख मोर्चे पर अब यद्ध की स्थितियां बन सकती हैं। चीन को पहली बार भारत की तरफ  से इतने जबर्दस्त प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है। सीमा पर चाहे जब उसकी तरफ से होने वाली हरकतों पर भी तकरीबन रोक लग चुकी है। लद्दाख के दुर्गम निर्जन पहाड़ी इलाकों में भारतीय सैनिकों की अनुपस्थिति का लाभ उठाते हुए चीनी सेना गुपचुप कब्जा करने की जो कोशिश किया करती थी वह अब संभव नहीं रहा। इस कारण पहली बार वह तनाव में नजर आ रहा है। और कभी बातचीत से मसला हल करने की बात कहता, तो कभी धमकी देने से बाज नहीं आता। बहरहाल उसे ये अंदाज नहीं रहा होगा कि भारत व्यापार और सैन्य दोनों मोर्चों पर एक साथ उसे चुनौती देने का साहस करेगा। कोरोना संक्रमण फैलाने के लिए पूरी दुनिया में संदेह के घेरे में आने के बाद चीन भारत के साथ सीमा विवाद के जरिये दुनिया का ध्यान भटकाने की जो कोशिश कर रहा था वह उसे उल्टी पड़ गई प्रतीत हो रही है। लेकिन भारत को इस बारे में जरा सी भी खुशफहमी नहीं पालना चाहिए क्योंकि चीन दुनिया भर में हो रही किरकिरी से बौखलाकर भारत के साथ सीमित युद्ध का जोखिम उठा सकता है। अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। इस कारण फिलहाल उसका बहुत भरोसा करना भूल होगी। ऐसे में भारत ने अभी तक जिस तरह का दृढ़ रवैया अपनाया वह जारी रखा जाना जरूरी है।  बेहतर होगा भारत अब तिब्बत में मानव अधिकारों के हनन का मामला संरासंघ में उठाना शुरू करे जो चीन की दुखती रग है। आखिर जब वह जम्मू-कश्मीर को लेकर विश्व संगठन में चाहे जब भारत के विरुद्ध प्रस्ताव ला सकता है तब हम भी वैसा क्यों नहीं कर सकते।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 7 September 2020

गरीबों को घटिया चावल बाँटने वाले मानवता के दुश्मन



मप्र में घटिया चावल वितरण के मामले की जाँच आर्थिक अपराध शाखा को सौंप दी गयी है। मंडला और बालाघाट जैसे आदिवासी बहुल जिलों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली में वितरित होने वाले घटिया चावल को लेकर ज्योंही वास्तविकता सामने आई त्योंही हड़कंप मच गया। राजनीतिक चिल्लपुकार और आरोप-प्रत्यारोप भी चल पड़े। सरकार जब देखती है कि भ्रष्टाचार के किसी मामले में वह कटघरे में खड़ी हो सकती है तब वह बिना देर लगाये जाँच बिठा देती है। ऐसा ही इस प्रकरण में हुआ। राशन की दुकानों से बांटा जाने वाला अनाज गरीबों को पेट भरने के लिए दिया जाता है। कोरोना काल में केंद्र सरकार ने जिस तेजी से सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये गरीबों को मुफ्त और सस्ती दरों पर गल्ला उपलब्ध करवाया उसकी वजह से देश अराजकता से बच गया वरना जो होता उसकी कल्पना तक से रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मप्र में सामने आये घटिया चावल के मामले में राज्य आपूर्ति निगम, चावल मिल संचालक, खाद्य विभाग के बड़े अधिकारी एवं उनकी सरपरस्ती करने वाले कौन- कौन लोग जिम्मेदार हैं ये सब तो जांच से पता चल सकेगा लेकिन इस तरह के मामले महज आर्थिक भ्रष्टाचार तक सीमित नहीं रखे जाने चाहिये। गरीबों के लिए सरकार द्वारा संचालित राशन व्यवस्था लोक कल्याणकारी राज्य के मूलभूत कर्तव्यों में मानी जाती है। राजतंत्र के दौर में भी जिन राजाओं को अच्छा और लोकप्रिय शासक माना गया वे अकाल या अन्य किसी भी प्राकृतिक आपदा के समय प्रजा का उदर पोषण करने के लिए अन्न भण्डार खोल दिया करते थे। आजाद भारत में गरीबी की हालत में बसर करने वाले करोड़ों लोगों को सार्वजानिक वितरण प्रणाली के माध्यम से सस्ता अनाज, शक्कर, कैरोसिन वगैरह देने की व्यवस्था लम्बे समय से चली आ रही है। राशन की दूकान नामक ये प्रणाली हमारे देश के माथे पर एक धब्बा है क्योंकि बीते सात दशक में भी हम गरीबी उन्मूलन के लक्ष्य को केवल चुनावी घोषणापत्र तक ही सीमित रख सके। और तो और करोड़ों लोग गरीबी रेखा से भी नीचे जीवन गुजार रहे हैं। कुछ समय पहले तक विश्व की सबसे तेज विकसित हो रही अर्थव्यवस्था के लिए गरीबी के आंकड़े लज्जित करने वाले हैं लेकिन ये ऐसी हकीकत है जिसे झुठलाना सच्चाई से मुंह मोड़ना  है। उस दृष्टि से होना तो ये चाहिये कि राशन नामक ये व्यवस्था पूरी तरह पारदर्शी रहे। सार्वजानिक वितरण प्रणाली के लिए जिन विभागों की सेवाएँ ली जाती हैं उनको भ्रष्टाचार से पूरी तरह मुक्त होना चाहिए । लेकिन दुर्भाग्यवश वे ही हमारे देश के भ्रष्टतम महकमों में से हैं। मप्र का संदर्भित चावल घोटाला इस तरह का पहला नहीं है। शायद ही कोई ऐसा प्रदेश या जिला होगा जहाँ अनाज की सरकारी खरीदी, उसके भण्डारण और वितरण में नीचता की हद तक भ्रष्टाचार न होता हो। इसके लिए केवल सरकारी अधिकारी अकेले जिम्मेदार नहीं होते। सत्ता में बैठे नेताओं से लेकर राशन की दूकान संचालित करने वाले तक एक गिरोह जैसा बना हुआ है। ईमानदारी से सर्वेक्षण किया जाए तो ये बात सामने आये बिना नहीं रहेगी कि देश में लाखों ऐसे गरीब मिल जायेंगे जो राशन कार्ड बनवाने के लिए भटक रहे हैं जबकि उनसे ज्यादा बोगस राशन कार्ड बने हुए हैं। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के नाम पर जितना गोलमाल प्रारंभ से चला आ रहा है वह बोफोर्स, टेलीकाम, कोयला जैसे तमाम घोटालों पर भी भारी पड़ेगा। लेकिन जैसा शुरू में कहा गया कि इस व्यवस्था में होने वाला भ्रष्टाचार केवल आर्थिक न होकर मानवता के विरुद्ध घिनौना अपराध है। गरीबों को घटिया किस्म का चावल देने के मामले में जो भी कसूरवार साबित हो उसे इतनी कड़ी सजा दी जानी चाहिए जिससे भविष्य में गरीबों की आड़ में अपना घर भरने के पहले कोई हजार बार सोचे। मप्र सरकार को चाहिए कि वह इस मामले को सीबीआई के हवाले करे जिससे जांच एजेंसी को राज्यस्तरीय दबाव से मुक्त रखा जा सके। जिन लोगों ने ये पाप किया है उनके भीतर चूँकि इंसानियत मर चुकी है इसलिए उनको मिलने वाला दंड भी सामान्य से हटकर होना चहिये।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 5 September 2020

वाहन टैक्स जैसी मेहरबानी बिजली बिलों पर भी करे शिवराज सरकार



हमारे देश में निर्णय प्रक्रिया में विलम्ब से अच्छे फैसले भी समय पर लागू नहीं हो पाते। ताजा उदाहरण है मप्र में निजी बस संचालकों द्वारा वाहन टैक्स माफ किये जाने की मांग को पूरा किया जाना। स्मरणीय है निजी बस सेवा संचालक ये मांग कर रहे थे कि प्रदेश सरकार 1 अप्रैल से 31 अगस्त तक का वाहन टैक्स माफ  करे क्योंकि इस दौरान बसें खड़ी रहीं। बीते दिनों ही राज्य सरकार ने एक सितम्बर से बसें चलाने की अनुमति दे दी थी लेकिन बस संचालक बिना टैक्स माफी के इसके लिए राजी नहीं हुए और हड़ताल पर जाने की घोषणा भी कर दी। आखिरकार गत दिवस मुख्यमंत्री ने तदाशय का फैसला किया। उसके बाद हड़ताल वापिस लेते हुए बसों का संचालन आज से प्रारंभ किये जाने की जानकारी बस संचालकों द्वारा दी गई। लेकिन साथ में ये भी जोड़ दिया गया कि जिन मार्गों पर सवारियां नहीं मिलेंगी वहां सेवाएँ रोक दी जायेंगीं। उल्लेखनीय है पहले भी राज्य सरकार द्वारा आधी सवारियों के साथ बसें चलाने की अनुमति दी गई थी किन्तु उसे घाटे का सौदा मानकर बस संचालकों ने अस्वीकृत कर दिया। अब पूरी सवारियों के साथ परिचालन की बात मान ली गई। राज्य सरकार ने 121 करोड़ का टैक्स माफ कर दिया। गतिरोध खत्म होने से प्रदेश के उन इलाकों में यात्री परिवहन प्रारम्भ हो सकेगा जहाँ आवागमन के दूसरे साधन उपलब्ध नहीं थे। जिनके पास अपने वाहन नहीं हैं वे परिवहन के अन्य महंगे साधनों का उपयोग नहीं कर पा रहे थे। छोटे शहरों और कस्बों से गरीब मजदूर, छोटे व्यापारी, मरीज आदि आसपास के स्थानों पर जाने के लिए सार्वजनिक बस सेवा का उपयोग करते हैं। लेकिन मप्र में पहले लॉक डाउन और बाद में संचालकों और सरकार के बीच चल रही खींचातानी से बसों के पहिये जाम रहे। हालांकि अभी भी बस मालिक किराये में अच्छी खासी वृद्धि करने की जिद पकड़े हुए हैं जिससे बीते पांच महीनों का घाटा पूरा किया जा सके। बहरहाल ये तो हुआ कि इस फैसले के बाद प्रदेश में यात्री परिवहन में आ रही दिक्कत से आम जनता को राहत मिलेगी तथा जनजीवन और कारोबार अपने पुराने स्वरूप में लौट सकेगा। लेकिन इस परिप्रेक्ष्य में विचारणीय प्रशन ये है कि जब सरकार को टैक्स माफ  करना ही था तब इतनी हीलाहवाली क्यों की गई? ऐसे मामलों में सरकार का रवैया ज्यादातार टरकाऊ होता है। इसकी एक वजह मंत्रियों के सलाहकार बने बैठे नौकरशाह भी बनते हैं जो अपनी ऐंठ में पहले- पहल किसी भी बात पर नकारात्मक रुख ही दिखाते हैं। उन्हें ये लगता है कि आसानी से किसी मांग को स्वीकार कर लेने से उनका रुतबा कम हो जाएगा। संदर्भित मामले में भी यदि बस संचालकों की मांग अनुचित थी तो उसे अभी भी नहीं माना जाना चाहिए था। और यदि सही थी तब इतना विलम्ब क्यों किया गया जिसकी वजह से सुदूर अंचलों में रह रहे साधनहीन लोगों को अकल्पनीय परेशानी और नुकसान उठाना पड़ा। ऐसा लगता है प्रदेश में होने वाले दो दर्जन से ज्यादा विधानसभा उपचुनावों के कारण ये रहमदिली दिखाई गई। जनसंपर्क पर निकले नेताओं को जनता ने खरी-खोटी सुनाई होगी तब जाकर सरकार बहादुर के कान में जूँ रेंगी। इसी तरह का मामला बिजली वसूली का है। लॉक डाउन के दौरान कारखाने, व्यावसायिक प्रतिष्ठान, सिनेमा, शॉपिंग माल, होटल, रेस्टारेंट आदि महीनों बंद रहे। इस कारण उनकी बिजली खपत न के बराबर रह गई। कुछ महीनों तक तो वसूली स्थगित रखी गयी लेकिन ज्योंही लॉक डाउन में छूट दी जाने लगी त्योंही विद्युत मंडल ने ये जानते हुए भी कि अभी तक उपरोक्त में से अनेक व्यवसाय या तो प्रारंभ नहीं हो सके या फिर उनका कारोबार पटरी पर नहीं आ पाया है, विशुद्ध पठानी शैली में वसूली शुरू कर दी। उनसे न्यूनतम प्रभार के नाम पर अनाप-शनाप राशि वसूली जा रही है। जो औरंगजेब द्वारा हिन्दुओं पर थोपे गये जजिया कर जैसा ही है। जो कारोबारी बिल का भुगतान करने में थोड़ी सी भी देरी करता है, उसकी बिजली काटकर ब्लैकमेल किया जा रहा है। चूँकि उद्योगपति और व्यापारी बस संचालकों की तरह एकजुट नहीं हैं इस वजह से उन्हें पूरी तरह उपेक्षित किया जाता है। प्रदेश सरकार के सामने जो आर्थिक संकट है उससे कोई इंकार नहीं करेगा । लेकिन उसे ये सोचना चाहिए कि सरकार का राजस्व बढ़ाने के लिए कारोबारियों के कन्धों पर पड़ रहे बोझ को हल्का करना बुद्धिमत्ता होगी। जिस तरह आज से बसों का परिचालन शुरू होने से प्रदेश भर में डीजल की बिक्री बढ़ेगी जिससे उस पर लगाए गये टैक्स के रूप में मिलने वाला राजस्व बढ़ जायेगा जो बीते पांच महीनों से रुका पड़ा था। इससे 121 करोड़ के वाहन टैक्स माफी की भरपाई आसानी से हो जायेगी। ऐसी ही बुद्धिमत्ता बिजली बिलों के मामले में भी दिखाई जाए तो तमाम रुके हुए कारोबार गति पकड़ लेंगे और राजस्व की आवक में स्वाभाविक और सुनिश्चित वृद्धि हो सकेगी। शिवराज सिंह चौहान प्रदेश के सबसे अधिक समय तक मुख्यमंत्री बने रहने का कीर्तिमान स्थापित कर चुके हैं। इस कारण उन्हें शासन-प्रशासन के साथ जनता के सभी वर्गों मसलन व्यापारी, उद्योगपति, किसान, मजदूर, नौकरपेशा, पेंशनधारी, बेरोजगार आदि की परेशानियों का अच्छी तरह से एहसास है। बेहतर हो वे कोरोना संकट के इस दौर में अपने अनुभव और संवेदनशीलता से लोगों का दिल जीतने के साथ ही प्रदेश की छवि एक ऐसे राज्य के तौर पर स्थापित करें जहां जनहित के फैसले लेने में देर नहीं की जाती। यदि वे ऐसा कर सके तो प्रदेश में निवेशक सम्मेलनों पर करोड़ों रूपये फूंकने की जरूरत नहीं पड़ेगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 4 September 2020

मोबाइल की रिंगटोन से नहीं रुकने वाला कोरोना का फैलाव




देश में कोरोना संक्रमण को लेकर अजीबोगरीब स्थिति बनी हुई है। अधिकृत आंकड़ों के अनुसार नए संक्रमण रोजाना तेजी से बढ़ते जा रहे हैं वहीं ठीक होने वालों का प्रतिशत भी तेजी से बढ़कर 77 के पार जा पहुंचा है। जबकि मरने वालों का आंकड़ा घटते हुए 1.77 फीसदी हो गया है। स्वस्थ होने वाले संक्रमितों की आशाजनक संख्या और कम मृत्यु दर आश्वस्त तो कर रही है लेकिन जिस गति से नए मामले आते जा रहे हैं उससे ये डर भी लग रहा है कि इस पर नियन्त्रण न हुआ तो कोरोना वाकई महामारी में बदल जाएगा।  अभी तक कोरोना के टीके (वैक्सीन) को लेकर नये-नये अनुमान लग रहे हैं लेकिन ईमानदारी की बात ये है कि दिसम्बर के पूर्व उसकी उम्मीद करना खुद को धोखे में रखना है। और फिर हमारे देश में आबादी का आकार बहुत बड़ा होने से टीका उपलब्ध होने के बावजूद उसे लगाने में लम्बा वक्त लग जायेगा। तब तक कोरोना को रोकना हर किसी का फर्ज है। अर्थव्यवस्था को प्राणवायु देने के लिए सरकार ने लॉक डाउन की शक्ल में लगाये तमाम प्रतिबन्ध तकरीबन शिथिल कर दिए हैं। उद्योग-व्यवसाय में भी रफ़्तार देखी जा सकती है। बाजारों में जनता की भीड़ भी जनजीवन सामान्य होने का संकेत है। परिवहन भी शुरू हो गया है। रेलगाड़ियों का परिचालन क्रमश: बढ़ाया जा रहा है तथा हवाई सेवाएं भी काफी हद तक बहाल की जा चुकी हैं। निर्माण गतिविधियाँ भी जोर पकड़ने लगी हैं। अच्छे मानसून ने कृषि क्षेत्र में उत्साह भर दिया है । अनुमान के अनुसार रिकॉर्ड खरीफ  फसल की उम्मीद की जाने लगी है। इसका अनुकूल असर समूची अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। लेकिन कोरोना के प्रकोप को नहीं रोका जा सका तब समूचा आशावाद धरा रह जाएगा। प्रधानमंत्री सहित बाकी जिम्मेदार लोग भी इस बात पर आये दिन संतोष जताया करते हैं कि हमारे देश में ठीक होने वालों का आंकड़ा जहां निरंतर बढ़ रहा है वहीं मरने वालों का प्रतिशत नीचे जा रहा है। इसे चिकित्सा प्रबंधों की सफलता मान लेना गलत नहीं है लेकिन इस सच्चाई से भी तो मुंह नहीं फेरा जा सकता कि नए संक्रमणों की संख्या सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती जा रही है और यही हाल रहा तो एक हफ्ते से पहले ही प्रतिदिन एक लाख से ज्यादा नए संक्रमित सामने आने लगेंगे। कुछ सूत्रों के अनुसार ग्रामीण इलाकों में भी कोरोना ने दबिश दे दी है। ठीक होने वालों की तुलना में नये संक्रमणों की ज्यादा संख्या से अस्पतालों की क्षमता जवाब देने की स्थिति में आ सकती है। देश की राजधानी दिल्ली में जहां कुछ दिन पहले तक कोरोना को नियंत्रित किये जाने की खुशी मनाई जाने लगी थी वहां बीते कुछ दिनों में हजारों नये मरीज निकलने से चिंता के बादल फिर मंडराने लगे हैं। देश के अन्य हिस्सों से भी कोरोना के पलटवार की खबरें निरंतर मिल रही हैं। इधर केंद्र सरकार ने सितम्बर माह से लॉक डाउन के तहत लगाये अधिकतर प्रतिबन्ध खत्म कर दिए हैं। एक राज्य से  दूसरे में जाने के लिए किसी पूर्वानुमति की जरूरत नहीं रही। यात्री रेल गाड़ियों की संख्या भी बढ़ाई जा रही है। होटल, रेस्टारेंट, सभागारों को भी खोल दिया गया है। दिल्ली में 9 सितम्बर से बार भी प्राम्भ किये जा रहे हैं। लेकिन ये सब होने के बाद भी कोरोना के फैलाव को रोकने की लिए की जा रही सख्ती के प्रति अव्वल दर्जे का उपेक्षा भाव न केवल सरकार अपितु जनता के स्तर पर भी देखा जा सकता है जो घातक साबित हो रहा है। पुलिस मास्क नहीं पहिनने वालों से जुर्माना वसूलकर उसको अपनी उपलब्धि बताती फिरती है। जिला से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक उसके आंकड़े प्रसारित किये जाते हैं । लेकिन जनता को मास्क एवं शारीरिक दूरी बनाये रखने के लिए जरूरी प्रेरणा देते हुए अनुशासित करने का अभियान केवल मोबाईल फोन की रिंग टोन तक सिमटकर रह गया है। ऐसे में ये जरूरी प्रतीत हो रहा है कि भले ही लॉक डाउन को शिथिल किया जाता रहे किन्तु कोरोना से बचाव हेतु जिन सावधनियों को लेकर प्रारंभ में बेहद जागरूकता देखी जा रही थी उनके बारे में समाज का बड़ा तबका अव्वल दर्जे की लापरवाही दिखा रहा है और उसी का परिणाम नये संक्रमितों की संख्या में प्रतिदिन होने वाली वृद्धि के रूप में देखने मिल रहा है। अब जबकि साप्ताहिक लॉक डाउन को भी खत्म कर दिया गया है तब कोरोना से बचाव के मान्य तरीकों को अपनाने के प्रति आत्मप्रेरणा का भाव उत्पन्न किया जाना समय की मांग ही नहीं वरन अनिवार्यता भी है। सरकार का समूचा ध्यान अर्थव्यवस्था को दोबारा चुस्त-दुरुस्त करने के अलावा चीन के साथ सीमा पर चल रहे तनाव से निपटने में लगा है। अनेक राज्यों में बाढ़ से पैदा हुई समस्याएं भी उसका ध्यान आकर्षित कर रही हैं। इनके अलावा उसके रोजमर्रे के काम भी बीते छह महीने में काफी पिछड़ गये हैं। ऐसे में रास्वसंघ जैसे स्वयंसेवी संगठनों को आगे आकर कोरोना से बचाव के प्रति लोगों में दायित्वबोध पैदा करने का अभियान चलाना चाहिए। लॉक डाउन के दौरान जरूरतमंदों की सहायता करने की स्वप्रेरित भावना लिए अनगिनत कोरोना योद्धा सामने आये थे लेकिन उनमें से अधिकतर अब नजर नहीं आते। बेहतर हो राजनीतिक दल भी अपने कार्यकर्ताओं को इस हेतु प्रेरित करें। कोरोना के इलाज की व्यवस्था करना सरकार और चिकित्सकों का काम है लेकिन उसकी रोकथाम के लिए जिन सावधानियों का पालन अपेक्षित और आवश्यक है उसके प्रति समाज की रचनात्मक शक्तियों को मोर्चा संभालना होगा। कोरोना का टीका जब आयेगा तब आयेगा किन्तु तब तक हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे तो सामुदायिक संक्रमण की भयावह स्थिति को रोक पाना असम्भव हो जाएगा। देश की राजधानी दिल्ली में जिस तरह से कोरोना पहले से भी ज्यादा ताकत से आ धमका है वह पूरे देश के लिए चेतावनी भरा संकेत है।

-रवीन्द्र वाजपेयी