Thursday 24 September 2020

नीतीश : परिवार से परहेज पर जातिवाद नहीं मिटा पाए

भारतीय राजनीति में बिहार वह राज्य है जहाँ विषमताओं और समस्याओं का भंडार होने के बाद भी राजनीतिक चेतना अपने चरम पर देखी जा सकती है। समाजवादी आन्दोलन के बीज यहाँ की धरती में आजादी के पहले से जमे हुए थे। इस राज्य से शुरू जनांदोलन देश भर में बड़े राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन का आधार बने। 1974 का छात्र आन्दोलन बाद में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में सम्पूर्ण क्रांति के आह्वान में बदल गया जिसकी परिणिति 1977 में हुए सत्ता परिवर्तन के रूप में हुई तथा पहली बार कांग्रेस केंद्र की सत्ता गंवा बैठी। 1989 में केंद्र में दोबारा हुए सत्ता परिवर्तन के बाद बिहार से निकली मंडल आयोग की सिफारिश को विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने लागू किया जो देश में बहुत बड़े सामाजिक और राजनीतिक बदलाव का सूत्रधार तो बनी किन्तु  इसी की वजह से जातिवादी दबाव समूह और लालू यादव ब्रांड राजनीति की शुरुवात भी हुई। जो पहले तो पुराने समाजवादियों द्वारा बनाई गई पारिवारिक पार्टियों की पहिचान बनी किन्तु धीरे-धीरे सभी दलों को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) पर ध्यान देना पड़ा। आज के माहौल में बिहार की राजनीति में विचारधारा पूरी तरह तिरोहित हो चुकी है और केवल जाति ही वहां की मानसिकता पर हावी है। अक्टूबर - नवंबर में होने वाले विधानसभा चुनाव की रणभेरी बजते ही जिस तरह की खबरें सामने आ रही हैं उनसे लगता है कि भले ही नीतीश कुमार खुद को लालू की तरह पिछड़े वर्ग के नेता के रूप में प्रस्तुत न करते हों लेकिन वे भी राजनीति को जातिगत समीकरणों से बाहर नहीं निकाल सके। बीते कुछ समय से चुनावी बिसात बिछते ही जिस तरह की उछलकूद वहां दिखाई दे रही है उसके पीछे केवल और केवल जातिवादी सोच है। लालू यादव के पुत्रों की वजह से राजद के नेतृत्व में बना महागठबंधन लगातार बिखराव का शिकार हो रहा है। जीतनराम मांझी ने पहले ही किनारा कर लिया और मृत्यु के कुछ दिन पहले रघुवंश प्रसाद सिंह ने भी लालू को पत्र लिखकर अलग होने का ऐलान कर दिया था। ताजा खबर के अनुसार अब उपेन्द्र कुशवाहा अपनी आरएलएसपी को महागठबंधन से बाहर निकालने की राह पर बढ़ रहे हैं। उनका कहना है कि वरिष्ठता के कारण उन्हें बतौर मुख्यमंत्री प्रत्याशी पेश किया जावे जिसके लिए लालू के बेटे तैयार नहीं हैं। जब रघुवंश बाबू ने राजद के उपाध्यक्ष पद से स्तीफा दिया था तब कचरा साफ होने जैसी टिप्पणी करते हुए उनका मजाक उड़ाया गया था। इसी तरह उपेन्द्र कुशवाहा को लेकर तेजस्वी ने कह दिया कि जिसे जाना हो जाए। दूसरी तरफ  जदयू और भाजपा के सत्तारूढ़ गठबंधन में रामविलास पासवान की लोजपा अनुसूचित जातियों की ठेकेदार बनकर दबाव बनाने में जुटी है। पासवान जी खुद तो अस्वस्थ होकर अस्पताल में हैं और पार्टी की कमान बेटे चिराग के हाथ दे दी हैं जिनकी महत्वाकांक्षा भी परवान चढ़ रही है। लेकिन उनकी काट के तौर पर नीतीश ने जीतनराम मांझी के रूप में महादलित चेहरा अपने साथ जोड़कर दबाव को बेअसर करने की चाल चल दी है। भाजपा भले ही जातिवादी राजनीति से दूर रहने का दावा करती हो लेकिन उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी भी पिछड़ी जाति से ही हैं। यद्यपि कायस्थ, ब्राह्मण, क्षत्रिय और भूमिहारों में भाजपा की अच्छी पकड़ है लेकिन वह भी पिछड़े और दलित समीकरण से टकराने का साहस नहीं कर सकती। 2015 में रास्वसंघ प्रमुख डा. मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा सम्बन्धी जो सुझाव दिया था उसे लालू यादव ने जमकर उछाला जिसके कारण भाजपा को बहुत नुकसान हुआ। इसीलिये इस बार वह नीतीश कुमार को ही आगे रखकर चुनावी समर जीतना चाह रही है। बिहार में कहने को बाढ़ और कोरोना से लड़ने में नीतीश सरकार की विफलताओं के अलावा भ्रष्टाचार और पिछड़ापन बड़े मुद्दे हैं लेकिन चुनाव लड़ने जा रहे महारथी जानते हैं कि अंतत: जातिगत जोड़तोड़ ही काम आयेगा। वैसे तो प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी की छवि आम तौर पर विकास पुरुष और दमदार नेता की है लेकिन वे भी चुनाव के मौके पर किसी न किसी तरह से अपनी पिछड़ी जाति का ढोल पीटने का अवसर तलाश लेते हैं। हालाँकि बीते कुछ दिनों से वे बिहार में विकास कार्यों के लिए धन वर्षा कर रहे हैं लेकिन उन्हें याद होगा कि बीते चुनाव में उन्होंने बिहार के लिये खजाना खोल देने की जो घोषणाएं कीं वे बेकार साबित हुईं। नीतीश अनुभवी राजनेता हैं। 2015 का चुनाव लालू के साथ मिलकर जीतने के बाद उन्होंने जल्द ही उनसे पिंड छुड़ाकर भाजपा से दोबारा याराना कायम कर लिया। इसका लाभ उन्हें लोकसभा चुनाव में भी मिला। केंन्द्र सरकार में उनकी पार्टी का कोई प्रतिनिधि नहीं है लेकिन राज्यसभा के उपाध्यक्ष पद हेतु नीतीश ने मना नहीं किया। कुल मिलाकर जो बिहार कभी देश को राजनीतिक और सामाजिक बदलाव की प्रेरणा देता था वह आज स्वयं यथास्थितिवाद में उलझकर रह गया है। पिछले चुनाव में प्रशांत किशोर नामक चुनाव विशेषज्ञ ने बिहार में बहार है, नीतिशै कुमार है का नारा देकर भाजपा को नि:शस्त्र कर दिया था। लेकिन इस बार भाजपा ने बिना शर्त नीतीश को नेता मान लिया। रही कांग्रेस तो वह अपने संगठन में शीर्ष स्तर पर मची उठापटक के कारण लड़ाई में कहीं नजर नहीं आ रही। नीतीश कुमार को सुशासन बाबू और विकास पुरुष के नाम से भी जाना जाता है। लेकिन बिहार का आगामी चुनाव भी अंतत: जातीय समीकरणों के आधार पर ही लड़ा जाएगा। हालांकि एक बात का श्रेय उनको देना पड़ेगा कि उन्होंने लालू और शरद यादव के अलावा रामविलास पासवान आदि को हाशिये पर ला खड़ा किया। परिवारवाद से परहेज भी उनकी बड़ी उपलब्धि है। जैसी कि संभावना है यदि फिर सरकार बना ले गये तो  बिहार में वे चुनौतीविहीन हो जायेंगे। लालू के दोनों बेटे बाप कमाई के घमंड में चूर हैं वहीं चिराग पासवान और उपेंन्द्र कुशवाहा का जनाधार सीमित है। जहाँ तक भाजपा का सवाल है तो वह अभी देखो और इन्तजार करो की नीति पर चल रही है।

-रवीन्द्र वाजपेयी


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