Tuesday 29 September 2020

राजनीतिक दलों के मकडज़ाल से बाहर निकलें किसान



केंद्र सरकार द्वारा लाये गये कृषि सुधार कानूनों को बेअसर करने हेतु गैर भाजपा शासित राज्यों की सरकारों द्वारा अपने कानून बनाये जाने की चर्चा के पीछे राजनीतिक मतभेद ही हैं। लेकिन  केंद्र और राज्यों के बीच राजनीतिक मतभिन्नता यदि संघीय ढांचे की व्यवस्था को नुकसान पहुँचाने लगे तब ये बहुत ही खतरनाक परिपाटी होगी। हालाँकि संविधान में कानूनों को लेकर तीन सूचियाँ बनाई गई हैं। इनके अनुसार कुछ कानून ऐसे हैं जो पूरे देश पर लागू होते हैं जबकि कुछ ऐसे हैं जो  राज्यों के लिए ऐच्छिक होते हैं, वहीं कुछ विषय ऐसे हैं जिन पर कानून बनाना राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आता है। किसानों के हित में बनाये गए हालिया कानूनों के दायरे में यदि पूरा देश नहीं आया तब उनका मूल उद्देश्य ही पूरा नहीं होगा। गत दिवस ही पंजाब में अपना अनाज बेचने गये उप्र के किसानों को वहां के किसानों ने रोक दिया। यदि गैर भाजपा शासित राज्यों द्वारा केन्द्रीय कानूनों को अपने यहाँ प्रभावशील होने से रोका गया तो विभिन्न राज्यों के किसानों और व्यापारियों के बीच टकराहट होने के आसार बढ़ जायेंगे। उदाहरण के तौर पर छत्तीसगढ़ से किसान यदि धान मप्र के बालाघाट जिले की चावल मिल में लेकर आना चाहे जो  नजदीक होने के वजह से सुविधाजनक है, लेकिन उसे मप्र के किसान या सरकार रोके तो इससे किस तरह की स्थिति बनेगी ये विचारणीय प्रश्न है। कश्मीर से कन्याकुमारी और अटक से कटक तक भारत एक है जैसे नारे क्या निरर्थक होकर नहीं रह जायेंगे? संसद द्वारा पारित किसी कानून के नफे-नुकसान का आकलन करना राज्य का अधिकार है। लेकिन बीते कुछ समय से देखने में आ रहा है कि केंद्र सरकार से वैचारिक मतभेद रखने वाली राज्य सरकारें संसद द्वारा पारित कानूनों को लागू करने से इंकार करने का खुला ऐलान करने लगी हैं। नागरिकता संशोधन, शिक्षा नीति और अब कृषि सुधार कानून को लेकर जिस तरह का विरोध करते हुए विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा अपने अलग कानून बनाने की घोषणाएं आये दिन हो रही हैं उन्हें देखते हुए आने वाले दिनों में देश नई समस्या में उलझ सकता है। अधिकतर गैर भाजपा पार्टियाँ नहीं चाहती थीं कि कृषि सुधार विधेयक पारित हो और इसीलिये वे उसे प्रवर समिति के विचार हेतु भेजने की मांग पर अड़ी थीं। जबकि केद्र सरकार अपनी निर्धारित कार्ययोजना के अनुसार उनको पारित करने में किसी भी प्रकार के विलम्ब की पक्षधर नहीं थी। दरअसल विपक्ष भी ऐसे अवसरों पर अपनी नीति बदलता रहता है। कांग्रेस ने तीन तलाक कानून पर लोकसभा में सरकार का साथ दिया किन्तु राज्यसभा में वह उसके विरोध में अड़ गई। कृषि कानूनों को लेकर कई महीनों पहले जब अध्यादेश जारी हुआ था तब मंत्रीमंडल में शामिल अकाली दल की प्रतिनिधि हरसिमरत कौर ने उसके पक्ष में बयान देते हुए कांग्रेस पर किसानों को भड़काने का आरोप लगाया था। लेकिन जब संसद में उसका विधेयक आया तब वे विरोध में आ गईं। इससे ये लगता है कि विरोध के पीछे भी कोई तर्कसंगत बातें न होकर महज राजनीतिक हित साधना है। यदि अध्यादेश जारी होने के बाद से ही विपक्षी दलों द्वारा किसानों को संगठित कर नई व्यवस्था की विसंगतियों को उजागर किया जाता तो देश को उनकी बात समझ में आती। इसी तरह सत्ता पक्ष को भी चाहिए था कि वह इस समय का इस्तेमाल किसानों को आश्वस्त करने में करता। लेकिन न विपक्ष ने अपना दायित्व निभाया और न सता पक्ष ने अपना। अभी तक जो समझ में आया है उसके अनुसार विरोध कर रहे किसानों के मन में ये बात बैठ गई या बिठा दी गई है कि क़ानून लागू होते ही न्यूनतम समर्थन मूल्य रूपी व्यवस्था खत्म हो जायेगी जिससे किसान पूंजीपतियों और व्यापारियों के शिकंजे में फंसकर रह जाएगा। और भी अनेक बातें हैं जिन्हें आधार बनाकर किसानों को आंदोलित किया जा रहा है। हालाँकि भाजपा शासित राज्यों में भी नये कानूनों के विरोध में आंदोलन हो रहे हैं लेकिन वे पंजाब और हरियाणा जैसे उग्र नहीं हैं। केंद्र सरकार को चाहिए वह नये कानूनों के बारे में किसानों के मन में व्याप्त आशंकाओं का समाधान करे। और यदि ये लगता है कि उनका भरोसा जीतने के लिए कुछ और करने की जरूरत हो तो बिना प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाये जरूरी कदम उठाये जाएँ। इसी तरह विपक्ष को भी चाहिए कि वह किसानों का अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए उपयोग करने की बजाय उनके संघर्ष को दिशाहीन होने से बचाए। रही बात राज्यों द्वारा जवाबी कानून बनाने की तो ये कोई इलाज नहीं है और देश के संघीय ढाँचे में अनावश्यक दरारें उत्पन्न करने का खतरा बढ़ाएगा। किसान संगठनों की भी ये जिम्मेदारी है कि वे सत्ता और विपक्ष में से किसी के भी मोहरे न बनते हुए अपने हितों के बारे में सोचें। समय आ गया है जब किसानों को अपने बीच में से ऐसा नेतृत्व तैयार करना चाहिए जो बिना राजनीतिक प्रतिबद्धता के उनकी बात सत्ता और समाज दोनों के सामने रख सके। इसके साथ ही किसानों को थोड़ा जिम्मेदार भी होना पड़ेगा। यदि रेल रोको और तोड़फ़ोड़ जैसे तरीके अपनाये जाते रहे तो वे जनता की सहानुभूति से वंचित हो जाएंगे।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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