Tuesday 1 September 2020

प्रणब दा : देश अभी उनसे बहुत कुछ सुनना चाहता था




यूँ तो मृत्यु उपरांत हर किसी के बारे में अच्छी-अच्छी बातें कही जाती हैं लेकिन बीती शाम दिवंगत हुए पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के बारे में जो कुछ कहा और सुना जा रहा है वह महज औपचरिकता न होकर सच्चाई है। स्व. मुखर्जी राजनीति में न  आते तब भी अपनी कुशाग्र बुद्धि के कारण जिस क्षेत्र में जाते उसका शिखर स्पर्श किये बिना  नहीं रहते। उन्हें महानता विरासत में नहीं  मिली और न उन पर थोपी गई अपितु उन्होंने अपनी मेधा और मेहनत से उसे अर्जित किया था। साधारण परिस्थिति से निकलकर देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद और सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न तक की उनकी यात्रा में उनकी योग्यता और क्षमता पर उनके वैचारिक विरोधी भी सवाल नहीं उठा सके। स्व. अटल जी की तरह से ही प्रणब बाबू भी दलीय सीमाओं से परे जाकर अपनी विद्वता और ज्ञान के कारण सम्मानित हुए। भारतीय राजनीति के जिस दौर में वे उसका हिस्सा बने तब उनके बारे में लोगों को ज्यादा जानकारी नहीं थी। जिस बंगाल से वे आये वह वामपंथ का मजबूत किला था और वे कोई जननेता भी नहीं थे। उनकी बौद्धिक प्रतिभा और पैनी नजर के कारण ही राजनीति उन्हें खींचकर लाई वरना दादा शिक्षविद बने रहते। लेकिन एक बार जब वे आ गये तब उन्होने एक कुशल राजनीतिक नेता की भूमिका का बड़े  ही प्रभावशाली तरीके से निर्वहन किया। उनका पुरुषार्थ कई  बार उन्हें प्रधानमंत्री पद के निकट ले गया लेकिन प्रारब्ध ने अवरोध  उत्पन्न कर दिए। ये कहने में कुछ भी गलत नहीं होगा कि यदि डा. मनमोहन सिंह की जगह स्व. मुखर्जी प्रधानमंत्री बने होते तब कांग्रेस आज जिस दुरावस्था का शिकार है,  शायद उससे बच जाती। आशय डा. सिंह की योग्यता को कमतर आंकना नहीं अपितु प्रणब दा के संवाद कौशल और साहसिक फैसले लेने की क्षमता को स्वीकार करना है। एक समय ऐसा भी आया जब प्रणब दा को कांग्रेस से बाहर आकर  अपनी अलग पार्टी बनानी पड़ी लेकिन अंत में कांग्रेस को उन्हें वापिस लाना पड़ा और धीरे-धीरे वे उसके विघ्नहर्ता की भूमिका में आ गये। प्रणब मुखर्जी उन गिने चुने राजनेताओं में थे जिनकी अध्ययन और अध्यापन में रूचि अंतत: तक बनी रही और इसीलिये चाहे संसद में हो या अन्यत्र कहीं , उनके भाषण सदैव विषय केन्द्रित और तथ्यपूर्ण होते थे । उनके न रहने से राजनीति में बौद्धिकता की एक और कड़ी टूट गई। एक जमाना था जब बंगाल ज्ञान, विज्ञान, कला, संस्कृति और  आध्यात्म के साथ ही क्रांतिकारी सोच के लिए प्रसिद्ध था। उक्त सभी क्षेत्रों में  एक से एक विभूतियों की गौरवगाथा से बंग भूमि का इतिहास सुशोभित है। उस भद्रलोक की परम्परा को राजनीति में भी प्रणब बाबू ने जिस शालीनता से निभाया उसमें रवीन्द्र संगीत की मधुरता के साथ ही बंगाल के अभिजात्य स्वभाव का भी मिश्रण था। दादा ने एक लम्बी पारी खेली। इंदिरा जी से लेकर राहुल गांधी तक के साथ उन्होंने काम किया। सार्वजानिक जीवन में अनेक दायित्वों का निर्वहन करते हुए वे रायसीना पहाड़ी पर स्थित उस  भव्य प्रासाद तक पहुंचे  जो किसी भी  राजनेता के लिए सन्यास की राह प्रशस्त करता है। उनके कार्यकाल में नरेंद्र मोदी ने पहली बार प्रधानमंत्री का दायित्व ग्रहण किया और बिना संकोच ये स्वीकार किया कि दिल्ली में आने के बाद वे उनके मार्गदर्शक बने। श्री मोदी द्वारा प्रणब दा के चरण स्पर्श करना ये साबित कर गया कि विद्वता का सम्मान करने के हमारे संस्कार आज भी जीवित हैं। उस लिहाज से दादा का चला जाना एक रिक्तता पैदा कर गया। राष्ट्रपति  पद से निवृत्त होने के बाद उन्होने खुद को राजनीति से ऊपर कर  लिया था। सही  मायनों में वे उपदेशक की भूमिका में आ गये थे। रास्वसंघ के आमन्त्रण पर नागपुर जाकर स्वयंसेवकों को संबोधित करने के उनके कदम को लेकर तरह-तरह की टिप्पणियाँ हुईं । लेकिन उस अवसर पर उनका भाषण भारत  के इतिहास और संस्कृति पर एक शोध पत्र के वाचन जैसा था। उनके संस्मरण आत्मकथा के रूप में आ चुके थे पर  अभी देश  उनसे बहुत कुछ और भी सुनना चाहता था। लेकिन उनकी यात्रा का अंत हो गया।  प्रणब मुखर्जी  इंदिरा युग से लेकर 2020  तक राष्ट्रीय परिदृश्य पर पूरी वजनदारी से छाये रहे। बहुमुखी प्रतिभा के धनी दादा का अवसान एक राष्ट्रीय क्षति है क्योंकि सार्वजनिक जीवन में बढ़ते जा रहे प्रदूषण के बीच वे उस सुगन्धित फूल की तरह थे जिसका सान्निध्य हर किसी को पसंद था।
विनम्र श्रद्धांजलि।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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