Wednesday 16 September 2020

राजनीति में भी सीधी भर्ती वालों का प्रशिक्षण काल होना चाहिए



 मप्र के शहडोल जिले में पदस्थ एसडीएम और संयुक्त कलेक्टर रमेश सिंह ने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया। खबर है वे अनूपपुर विधानसभा सीट पर होने जा रहे उपचुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी बनना चाहते हैं और इस सिलसिले में पूर्व मुख्यमंत्री और प्रदेश कांग्रेस  अध्यक्ष कमलनाथ से भी  मिल आये हैं। हालांकि अभी उनका इस्तीफा स्वीकार नहीं  हुआ है लेकिन उन्होंने कांग्रेस से लड़ने का कारण  पारिवारिक पृष्ठभूमि को बताया। वैसे नियमों की बात करें तो इसमें गलत कुछ भी नहीं होगा। वे खुद भी अनूपपुर के रहने वाले हैं। श्री सिंह ने 14 वर्ष की सेवा पूरी कर ली जिसके बाद वे सेवानिवृत्ति के पात्र हो गए हैं। शासकीय सेवा से त्यागपत्र देकर जनसेवा करने की उनकी मंशा स्वागतयोग्य है लेकिन इसके लिए वे विधायक बनना चाहते हैं ये सुनकर आश्चर्य होता है। एक प्रशासनिक अधिकारी रहते हुए उन्हें सरकारी कार्य संस्कृति  की पर्याप्त जानकारी हो गई होगी और उस आधार पर  वे पिछड़े क्षेत्र का विकास करना चाहते हैं। एक युवा अच्छी- खासी सरकारी नौकरी छोड़कर जनसेवा के रास्ते पर चलना चाहे ये आदर्श स्थिति है किन्तु उनके निर्णय से एक बार फिर वही सवाल उठ खड़ा हुआ है जो किसी पूर्व न्यायाधीश को राज्यसभा  में भेजे जाने पर उठता है। सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश पद से निवृत्त होते ही रंजन गोगोई को जब राज्यसभा में मनोनीत किया गया तब विपक्ष ने बड़ा बवाल मचाया था। आरोप प्रतिबद्ध  न्यायपालिका तक जा पहुंचे। सेवानिवृत्ति के फौरन बाद न्यायाधीशों को किसी प्रकार से उपकृत किये जाने पर रोक की मांग तो अरसे से उठ रही है। लेकिन सरकारी  अधिकारियों को लेकर ऐसी बंदिश की बात नहीं होती। इसीलिये सरकारी नौकरी छोड़कर राजनीति में आकर स्थापित होने की चाहत लगातार  बढ़ती ही जा रही है। रमेश सिंह से पहले भी देश भर में सैकड़ों नौकरशाह रातों -  रात राजनेता बनने के लिए चुनाव के मैदान में कूद पड़े जिनमें कुछ सफल होकर संसद - विधानसभा में पहुंचे और कई मंत्री भी बन बैठे। पूर्व नौकरशाहों के अनुभव और योग्यता का लाभ लेना बुरा नहीं  है लेकिन उसके लिए सीधे  सांसद , विधायक या मंत्री बनाने से प्रतिबद्ध नौकरशाही का आरोप लगना स्वाभाविक है। एक सरकारी अधिकारी सेवानिवृत्ति के बाद यदि राजनीति में उतरना चाहे तो उसे एक निश्चित समयसीमा तक चुनाव लड़ने या किसी सरकारी पद से वंचित रखा जाना चाहिए। यदि नौकरी से निवृत्त होते ही वह किसी राजनीतिक दल के टिकिट पर चुनाव लड़ता है तो उस पर ये आरोप लगता है कि सेवा में रहते हुए उसने उस राजनीतिक दल को लाभ पहुँचाया होगा। हालाँकि राजनीति में जातिवाद हावी हो जाने के बाद से अब नौकरशाही राजनीतिक विचारधारा से ज्यादा जातिगत आधार पर विभाजित हो चली है। विशेष रूप से अनु. जाति और जनजाति के अलावा अन्य पिछड़ा वर्ग के कर्मचारी  और अधिकारी भी एक दबाव समूह बन गये हैं। प्रातिक्रियास्वरूप प्रशासन में बैठे अगड़ी जातियों के लोग भी जातीय आधार पर संगठित होने लगे हैं। और ये सब इसीलिए हो रहा है क्योंकि नौकरशाही को राजनीतिक संरक्षण मिलने लगा है। रमेश सिंह य़ा उन जैसे तमाम अधिकारी सेवा में रहते हुए भी किसी न  किसी राजनीतिक दल के हिमायती  बने रहते हैं और अवसर पाते ही उसमें  शामिल होकर नेतागिरी करने लगते हैं। प्रशासन पर इसका बुरा असर साफ़ देखा जा  सकता है। मप्र में अनु.जाति के एक आईएएस अधिकारी घूस लेते रंगे हाथ पकड़ लिए गये थे। उसके बाद वे लगातार अपनी  जाति के कारण प्रताड़ित होने का रोना रोते रहे। हालांकि  कानूनी लड़ाई के बाद वे बहाल भी हो गए किन्तु मनमाफिक पदस्थापना नहीं  मिलने से नाराज रहे और सेवानिवृत्ति पर भी उनका बयान बेहद तल्खी भरा रहा। इन सब कारणों से लगता है अब पूर्व नौकरशाहों के   राजनीति में प्रवेश संबंधी  आचार संहिता बननी चाहिए। कलेक्टर जैसा पद त्यागकर मुख्यमंत्री तक जा पहुंचे स्व. अजीत जोगी के नक़्शे कदम पर चलते हुए न जाने कितने नौकरशाह प्रशासक से शासक बन बैठे। मोदी सरकार के अनेक महत्वपूर्ण मंत्री वरिष्ठ नौकरशाह रहे हैं। आजकल तो सेवानिवृत्त होते ही किसी  राजनीतिक  दल की सदस्यता लेने का फैशन सा बन गया है। ये कितना सही या गलत है इस पर गंभीरता से विमर्श होना जरूरी है क्योंकि प्रतिबद्ध न्यायपालिका की तरह से ही प्रतिबद्ध नौकरशाही भी लोकतंत्र के लिए उतनी  ही घातक है। यहाँ ये बात उल्लेखनीय है कि सरकारी नौकरी में चयन के उपरांत अधिकारी कुछ समय तक प्रशिक्षण काल में रहता है। उसके पूरा होने के  बाद ही उसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी जाती है। राजनीति में भी सरकारी  सेवा के बाद आये लोगों को कुछ समय तक तो प्रशिक्षण की प्रक्रिया से गुजरना चाहिए अन्यथा पार्टी के लिए बरसों से पसीना बहा रहे कार्यकर्ताओं के मन में इस सीधी भर्ती से जो असंतोष फैलता है उसकी वजह से उनके  संगठनात्मक ढांचे को नुकसान होता है। कांग्रेस तो  इसका खमियाजा भुगत ही रही है लेकिन अब भाजपा में भी पूर्व नौकरशाहों की सीधी भर्ती जिस तरह से की  जा रही है उसकी वजह से पार्टी विथ डिफरेंस का उसका दावा अर्थहीन होने  लगा  है ।

- रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment