अकाली दल ने तो केंद्र सरकार से अपनी एकमात्र सदस्य हरसिमरत कौर बादल को हटाने के बावजूद राजग से अलग होने के बारे में कुछ नहीं कहा | लेकिन गत दिवस प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने जिस अंदाज में कृषि सुधार विधेयकों का विरोध कर रहे विपक्षी दलों के अलावा अकाली दल पर भी निशाना साधा उससे ये संकेत मिल रहा है कि भाजपा अकाली दल से मुक्ति पाना चाहती है जिसके रहते उसका पंजाब में स्वतंत्र अस्तित्व नहीं बन सका | श्री मोदी ने साफ़ शब्दों में कहा कि जब उक्त अध्यादेश जारी हुए थे तब अकाली दल उनका समर्थन कर रहा था | हालाँकि हरसमिरत ने कल ये सफाई दी कि उनके विरोध को नजरअंदाज कर दिया गया किन्तु यदि ऐसा था तो वे इतने दिनों तक क्यों रुकी रहीं , ये बड़ा सवाल है | सही बात तो ये है कि अकाली दल के मौजूदा अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल अपने कद्दावर पिता प्रकाश सिंह बादल के कारण पार्टी के मुखिया तो बन बैठे लेकिन उनमें उन जैसी राजनीतिक सूझबूझ नहीं है | ये कहना भी गलत न होगा कि पिछले विधानसभा चुनाव में अकाली - भाजपा गठबंधन की सरकार जिस नशे के मुद्दे के कारण सत्ता से बाहर हुई उसके लिए सुखबीर और उनके साले ही जनता की नजर में खलनायक बन गये थे | प्रकाश सिंह बादल संघर्ष करते हुए सियासत के शिखर तक पहुंचे लेकिन सुखबीर को सब कुछ बना - बनाया मिला | लेकिन इस घटनाक्रम के पीछे भाजपा और श्री मोदी की दूरगामी सोच भी है | एक समय था जब हरियाणा में भाजपा के लिए पैर रखने के लिए तक जगह नहीं होती थी | बंशीलाल और देवीलाल जहां जाट नेता थे तो भजनलाल अन्य वर्गों के | स्व. सुषमा स्वराज मूलतः हरियाणा की थीं परन्तु वे भी वहां प्रभाव नहीं जमा सकीं | लेकिन बीते दो विधानसभा चुनाव से भाजपा वहां सरकार बनाने के साथ ही लोकसभा चुनाव में शानदार प्रदर्शन करने में सफल रही | इससे उसका हौसला बढ़ा है | लेकिन पंजाब में उसका अपना जनाधार इसलिए नहीं बन पाया क्योंकि वह बादल परिवार के आभामंडल में छिपकर रह जाती थी | अब चूँकि प्रकाश सिंह बादल वृद्धावस्था के कारण बीमार रहने से सक्रिय राजनीति से दूर हो चुके हैं इसलिए पंजाब की गैर कांग्रेस राजनीति में एक शून्य पैदा हो गया है | बीते कुछ समय से आम आदमी पार्टी जिस तरह से पंजाब में अपने पैर जमा रही है उससे एक बात साबित हो गयी कि वहां के सिख समुदाय में कांग्रेस के प्रति नाराजगी रखने वाला वर्ग अब अकाली दल से हटकर दूसरे विकल्प के प्रति मानसिक तौर पर तैयार है | भाजपा को लग रहा है कि पंजाब के गैर सिख मतदाताओं के अलावा नई पीढ़ी के सिख भी धार्मिक कट्टरता के मोहपाश से निकलकर राष्ट्रीय राजनीति से जुड़ने के लिए तैयार हैं | प्रकाश सिंह बादल विपक्षी एकता के बहुत पुराने सूत्रधार थे और भाजपा की हिंदूवादी छवि के बाद भी उन्होंने उसके साथ गठबंधन बनये रखा | स्व . भैरोसिंह शेखावत और स्व. अटलबिहारी वाजपेयी से उनके निजी सम्बन्ध भी गठबंधन के स्थायित्व का कारण रहे | भाजपा भी उन्हें उसी तरह स्वीकार करती रही जैसे महाराष्ट्र में स्व. बाल ठाकरे के रहते वह शिवसेना की सहयोगी बनकर संतुष्ट थी | लेकिन उनके न रहने पर वह उद्धव को बर्दाश्त नहीं कर सकी | स्व. प्रमोद महाजन भाजपा के राष्ट्रीय नेता जरूर रहे लेकिन बाला साहेब के सामने वे भी ऊँची आवाज में बात नहीं कर पाते थे जबकि शिवसेना और भाजपा का गठबंधन तैयार करने वाले मुख्य शिल्पी वही थे | यही स्थिति पंजाब में प्रकाश सिंह बादल के सामने भाजपा की बनी रही | लेकिन ज्यों - ज्यों वे परिदृश्य से बाहर होते जा रहे हैं त्यों - त्यों भाजपा भी पंजाब में अपने स्वतंत्र अस्तित्व को बनाते हुए हरियाणा जैसे नतीजे की योजना बनाने लगी है | कृषि सुधार विधेयकों के विरोध में हरसिमरत कौर के इस्तीफे के बाद भी अकाली दल ने राजग छोड़ने की मंशा जाहिर नहीं की थी | बावजूद उसके प्रधानमंत्री ने जिस तल्खी भरे अंदाज में अकाली दल को आलोचना के घेरे में लिया उससे लगता है कि पंजाब में अब भाजपा खुद के बलबूते खड़े होने की तैयारी में है | इस बारे में गौर करने वाली बात ये भी है कि कांग्रेस में मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिंदर सिंह के विरुद्ध जमकर असंतोष के स्वर उठ रहे हैं | पूर्व प्रदेश अध्यक्ष प्रताप सिंह बाजवा तो बगावत का झंडा उठाये घूमते ही रहते हैं | इसी तरह सिख समुदाय के अनेक प्रभावशाली लोग जो आम आदमी पार्टी के चमत्कारिक उदय के बाद उसके प्रति आकृष्ट हुए थे वे भी निराश होकर अब किसी और दल से अपनी उम्मीदें जोड़ना चाह रहे हैं | भाजपा ऐसे लोगों पर नजर रखे हुए है | इस प्रकार आने वाला समय पंजाब की राजनीति में उथल पुथल भरा होगा | बड़ी बात नहीं वहां भी महाराष्ट्र की तर्ज पर बेमेल गठबंधन नजर आएं | अकाली दल के इस्तीफे रूपी पैंतरे पर प्रधानमंत्री की रोषपूर्ण प्रतिक्रया में भविष्य के अनेक संकेत छिपे हुए हैं |
- रवीन्द्र वाजपेयी
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