Wednesday 31 July 2019

मोदी की बजाय मुस्लिम महिलाओं की जीत है ये

यदि ये मान भी लिया जाए कि भाजपा ने इसके जरिये अपना राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध किया तब भी इस बात से कौन इंकार करेगा कि एक ही झटके में तीन बार तलाक, तलाक, तलाक कहकर अपनी बीवी को छोड़ देने वाली प्रथा किसी सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं हो सकती। 1947 में मुस्लिम राष्ट्र के नाम पर अलग हुए कट्टरपंथी इस्लामी पाकिस्तान ने 1956 में ही इस प्रथा को खत्म कर दिया था। लेकिन भारत सरीखे धर्मनिरपेक्ष देश को वैसा करने में सात दशक से भी ज्यादा लग गये और वह भी तब जब सर्वोच्च न्यायालय ने दो वर्ष पूर्व एक मुस्लिम महिला सायरा बानो की याचिका पर फैसला सुनाते हुए आनन-फानन में तीन तलाक दिए जाने को अवैध मानकर केंद्र सरकार को निर्देशित किया कि वह कानून बनाकर इसे रोकने का पुख्ता इंतजाम करे। नरेंद्र मोदी सरकार ने तदनुसार कदम आगे बढ़ाये लेकिन कांग्रेस सहित कुछ और पार्टियों ने राज्यसभा में अपने संख्याबल की ताकत पर उसे रोक दिया। नई लोकसभा के गठन के बाद सत्ता में लौटी मोदी सरकार ने बिना समय गँवाए प्राथमिकता के तौर पर इस दिशा में पहल की। लोकसभा में तो खैर उसका बहुमत था ही लेकिन राज्यसभा में भी गत दिवस आखिरकार एक साथ तीन तलाक बोलकर विवाह विच्छेद करने की प्रथा पर कानूनी रोक लगा दी गई। बीते दो साल से यह मुद्दा राजनीतिक दलों के साथ ही मुस्लिम समाज के भीतर बहस और विवाद की वजह  बना हुआ था। सरकार ने कानून में तीन तलाक को दंडनीय अपराध बनाने का जो प्रावधान किया उसे लेकर सबसे ज्यादा एतराज था। कानून के विरोध  में ये तर्क दिया गया कि इसके जरिये मुस्लिम पुरुषों को प्रताडि़त किया जाएगा। महज शिकायत के आधार पर गिरफ्तारी और बिना पीडि़त महिला के बयान सुने जमानत नहीं  दिए जाने जैसे प्रावधानों को मुस्लिम विरोधी बताया गया। लेकिन कानून मंत्री ने स्पष्ट कर दिया कि आधारहीन शिकायत पर पत्नी यदि पति के पक्ष में बयान देती है तब उसे तत्काल रिहाई मिल जायेगी। दंडाधिकारी ऐसे मामलों में सुलह करवाकर भी विवाद हल कर सकेगा। असदुद्दीन ओवैसी और माजिद मेमन सरीखे कानून के जानकार सांसदों ने क्रमश: लोकसभा और राज्यसभा में कानून के दुरूपयोग के साथ ही इस्लामिक व्यवस्थाओं में हस्तक्षेप पर ऐतराज जताया लेकिन कानून को गहराई में जाकर समझने से मोटे तौर पर एक बात तो साफ़  है कि मिस्र जैसे इस्लामी राष्ट्र द्वारा 1929 में तीन तलाक़ पर रोक लगाकर जो शुरुवात की गई थी उसके बाद पाकिस्तान, सीरिया, ट्यूनीशिया, श्रीलंका, बू्रनेई, ईरान, मोरक्को, सायप्रस, जॉर्डन, अल्जीरिया, कतर, संयुक्त अरब अमीरात और ईराक जैसे देशों ने शरीया की व्याख्या करते हुए एक साथ तीन तलाक कहे  जाने को एक तलाक मानकर आगे की कार्रवाई करने का कानून बनाया। ये सब देखते हुए जब भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भी तीन तलाक को अवैध मानकर सरकार से उसे रोकने के बारे में कानून बनाए कहा तभी मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अलावा भारत में मुस्लिमों की मान्यता प्राप्त धर्मिक संस्थाएं और धर्मगुरु अगर सकारात्मक रवैया दिखाकर सार्थक पहल करते हुए मुस्लिम महिलाओं को संरक्षण और सम्मान दिलवाने आगे आते तब शायद उन्हें उस पराजयबोध का शिकार नहीं होना पड़ता जो संसद द्वारा कानून पारित करने के बाद उनके चेहरे से देखा जा सकता है। परदे में रहने वाली मध्यम और उससे भी नीचे की सामाजिक हैसियत वाली मुस्लिम महिलाओं ने जिस अंदाज में खुशियाँ मनाईं उसे मुस्लिम समाज में बड़े बदलाव की शुरुवात के तौर पर देखा जाना चाहिए। आश्चर्य की बात है कि राहुल गांधी सरीखे शिक्षित और आधुनिक ख्यालात वाले नेता के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी तक ने इस मुद्दे पर विरोध किया। कहा गया है कि बुद्धिमान इंसान अपनी गलतियों से सीखता है लेकिन कांग्रेस ने गलतियों को दोहराने की नासमझी की। 1986 में शाह बानो नामक तलाकशुदा मुस्लिम महिला द्वारा गुजारा भत्ता की जो याचिका सर्वोच्च न्यायालय में लगाई, उसे मंजूरी मिल गई थी। लेकिन 400 सीटों के विशाल बहुमत वाली राजीव गांधी की सरकार ने संसद में उस फैसले को उलट दिया। उसकी वजह से कांग्रेस को कितना नुक्सान हुआ ये बताने की जरूरत नहीं है। उसके बाद भी छद्म धर्मनिरपेक्षता की चादर उतारकर मुस्लिम महिलाओं की बेहतरी के लिए बनाये जा रहे क़ानून में योगदान देने से वह केवल इसलिए पीछे हट गयी कि उससे भाजपा को राजनीतिक लाभ मिलेगा। अनेक दूसरी पार्टियां भी कानून के विरोध में थीं लेकिन उन्होंने बुद्धिमत्ता दिखाते हुए मतदान में  हिस्सा नहीं लिया जिससे राज्यसभा में अल्पमत के बाद भी सरकार को मदद मिल गयी। नरेन्द्र मोदी का राजनीतिक प्रबंधन और समय चयन एक बार फिर कसौटी पर खरा उतरा। मुस्लिम महिलाओं के हित में कानून बनवाकर उन्होंने समान नागरिक संहिता की तरफ  एक कदम और बढ़ा दिया है। सर्वोच्च न्यायालय भी अनेक अवसरों पर उसकी जरूरत बता ही चुका है। बेहतर होगा यदि मुस्लिम समाज के सुशिक्षित लोग उन कुरीतियों के विरुद्ध कमर कसने का साहस दिखाएँ जिनकी वजह से देश की दूसरी बड़ी आबादी विकास की मुख्य धारा में शामिल होने से वंचित रह गई। हमारे देश में वैसे तो हर मसले को राजनीति के चश्मे से देखे जाने का चलन है लेकिन तीन तलाक कानून को मोदी की बजाय मुस्लिम महिलाओं की जीत के तौर पर देखा जाए तो ज्यादा बेहतर रहेगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 30 July 2019

दक्षिण में भाजपा का भविष्य तय करेगा कर्नाटक

कर्नाटक में लगभग महीने भर से चले आ रहे राजनीतिक नाटक के एक भाग का पटाक्षेप हो गया। जिसके अंतर्गत कुमारस्वामी सरकार का गिरना , येदियुरप्पा की ताजपोशी और इस्तीफा देने वाले 17 विधायकों को अयोग्य ठहराकर विधानसभा अध्यक्ष द्वारा अपने पद से इस्तीफा देने जैसे दृश्य दिखाई दिए। इसके बाद योग्य विधायकों द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में अपील पर  सबकी निगाहें रहेंगीं। हालाँकि अभी तक इस तरह के मामलों में अध्यक्ष के फैसले को ही अंतिम माना  जाता रहा है लेकिन सर्वोच्च न्यायालय चाहे तो अपनी तरफ से कोई  नई व्यवस्था भी दे सकता है क्योंकि दलबदल कानून की तरह से ही अध्यक्ष के अधिकारों के दुरुपयोग को  लेकर भी कानूनी विवाद खड़े होने लगे हैं। बहरहाल गत दिवस ध्वनि मत से विश्वास मत जीतने के बाद येदियुरप्पा ने पहली बाधा तो पार कर ली लेकिन अयोग्य ठहरा दिए  गये विधायकों को सर्वोच्च न्यायालय ने स्थगन नहीं दिया तब 17   उपचुनाव छह महीने के भीतर करवाने पड़ेंगे। यदि भाजपा उनमें से भी जीत लेती है तब भी उसका बहुमत बहुत ही कम होगा और दो - चार विधायक भी नाराज हुए तब येदियुरप्पा को भी कुमारस्वामी की तरह ही परेशानी का सामना करना पड़ेगा। इसकी वजह भाजपा में दूसरी पार्टी से आकर विधायक चुने लोग बन  सकते हैं जिनका उद्देश्य किसी भी तरह सत्ता में बने रहना है।  यदि 17 विधायकों की सदस्यता बरकरार रहती तब वे सभी येदियुरप्पा मंत्रीमंडल में शामिल होने का दबाव बनाते। पूरे के पूरे 17 उपचुनाव भाजपा जीत ले ये सामान्य तौर पर संभव नहीं दिखाई देता। और इसीलिये कर्नाटक का राजनीतिक परिदृश्य आगे भी धुंधला बना रहने की आशंका है। यदि सत्ता के बलबूते भाजपा कुमारस्वामी के 10 - 12  विधायक खींचकर जनता दल (एस) में विभाजन  करवा दे तब भी दलबदलुओं की मांगें और नखरे उसका सिरदर्द बने रहेंगे। ऐसी सूरत में येदियुरप्पा से किसी सुशासन की उम्मीद करना कोरा आशवाद होगा। इसलिए बेहतर यही होगा कि कुछ समय राज करने के बाद येदियुरप्पा विधानसभा भंग करवाकर नया जनादेश प्राप्त करें। लोकसभा चुनाव में कर्नाटक में विरोधी सरकार के रहते हुए भी मोदी लहर ने जबर्दस्त असर दिखाया। पूर्व प्रधानमन्त्री देवेगौड़ा और उनका पौत्र तो हारे ही लोकसभा में कांग्रेस दल के नेता रहे मल्लिकार्जुन खडग़े भी परास्त हो गए। जाहिर है इसी का असर कुमारस्वामी सरकार पर पड़ा वरना 17 विधायक इस्तीफा देने का दुस्साहस नहीं कर पाते। अब जबकि अयोग्य होकर वे  उपचुनाव लडऩे से वंचित कर दिए गये तब उनकी राजनीतिक उपयोगिता भाजपा के लिए कितनी रह गई ये कहना भी कठिन है। ऐसी स्थिति में तलवार की धार पर चलते रहने से येदियुरप्पा कर्नाटक  की जनता की आकांक्षाओं को किस सीमा तक पूरा कर सकेंगे ये यक्ष प्रश्न है। भाजपा आलाकमान को भी कर्नाटक के बारे में  गंभीरता से  रणनीति बनानी चाहिए क्योंकि दक्षिण का यह प्रवेश द्वार पार्टी के भविष्य की दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है। आन्ध्र में तो उसके लिए फिलहाल कोई गुंजाईश है नहीं और तेलंगाना में भी उसकी मंजिल दूर है। तमिलनाडु में पार्टी अभी भी अपरिचित सी बनी हुई है लेकिन केरल में उसकी संभावनाएं निरंतर मजबूत होती जा रही हैं और उस दृष्टि से कर्नाटक का प्रदर्शन दक्षिण की राजनीति में उसका स्थान निश्चित करने वाला होगा। इस सम्बन्ध में एक बात और भी विचारणीय है कि येदियुरप्पा 76 वर्ष के हो गए हैं। यद्यपि उनके प्रबल प्रतिद्वंदी अनंत  कुमार नहीं रहे लेकिन भाजपा आलाकमान ने लोकसभा चुनाव के दौरान अनेक युवाओं को टिकिट देकर भविष्य का नेतृत्व तैयार करने की दिशा में कदम बढ़ा दिए थे जिसके अनुकूल परिणाम भी आये। ऐसी स्थिति में येदियुरप्पा के लिये यही बेहतर होगा कि वे जल्द  चुनाव करवाएं जिससे कि भाजपा में अंदरूनी खींचातानी से बचा जा सके। ये बात सच है कि मुख्यमंत्री कर्नाटक के जातीय समीकरणों की दृष्टि से काफी ताकतवर हैं। कांग्रेस और जनता दल (एस) में फिलहाल उनकी टक्कर का कोई नेता नहीं होने से भी उनकी पकड़ मजबूत हुई है लेकिन उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं लगभग पूरी हो चुकी हैं और ऐसे में बेहतर यही रहेगा कि वे समय रहते किसी सक्षम उत्तराधिकारी के हाथों बागडोर देकर मार्गदर्शक की भूमिका में आ जाएँ। वरना बड़ी बात नहीं उनकी दशा भी गुजरात के पूर्व भाजपाई मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल जैसी होकर रह जाये।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 29 July 2019

सावधान : हम सब खा रहे धीमा जहर

हमारे देश में किसी भी चीज की लहर सी आती है। मप्र में इन दिनों नकली दूध और उससे बनने वाले पदार्थों की धरपकड़ का दौर चल रहा है। सरकारी अमला पूरे जोश में है। शहरी बस्तियों के बीच नकली, दूध, घी, पनीर, मावा जैसी चीजें बनाने का  सुनियोजित कारोबार लम्बे से से चला आ रहा था। नकली दूध में प्रयुक्त होने वाली चीजों को लेकर होने वाला खुलासा चौंकाने वाला है। मिठाइयों सहित अनेक खाद्य सामग्रियों में भी दूध, घी, मावा और पनीर का उपयोग होता है इसलिए ये सीधे-सीधे जनस्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। आज खबर आ गई कि प्रदेश सरकार के अपने उपक्रम दुग्ध संघ के कुछ टैंकरों को भी मिलावटी दूध के संदेह में रोक लिया गया। उल्लेखनीय है दुग्ध संघ भी दुग्ध उत्पादकों से दूध खरीदकर बेचता है और उसकी अपनी कोई डेरी नहीं है। नकली दुग्ध उत्पाद बनाना आर्थिक दृष्टि से बेहद सस्ता पड़ता है और जाहिर है जो व्यापारी इन्हें खरीदता है वह भी मुनाफे के फेर में लोगों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करता है। ये कारोबार नया नहीं है। बरसों से केवल मप्र ही नहीं वरन पूरे देश में मिलावटी खाद्य सामग्री का व्यापार धड़ल्ले से चला आ रहा है। बीच-बीच में दिखावे के तौर पर सरकारी विभाग धरपकड़ सप्ताह या पखवाड़े की तर्ज पर छापामारी करते हुए अपनी ईमानदारी और कार्यकुशलता का झंडा फहराते घूमते हैं और फिर उसके बाद सब जैसे थे की स्थिति में लौट आता है। मिलावटखोरों से जप्त किये गये सैम्पल जाँच संस्थानों में भेजे जाते हैं लेकिन उनकी रिपोर्ट क्या और कब आती है ये पता ही नहीं चलता। सैकड़ों में से एकाध को अपवादस्वरूप सजा मिल पाती है और वह भी अपील में छूट जाता हो तो बड़ी बात नहीं। साल में दो-चार बार ये अभियान समाचार माध्यमों की सुर्खियाँ बनता है। रक्षाबंधन, दीपावली, होली जैसे त्यौहारों के पहले मिठाई वालों के यहाँ दबिश देकर कार्रवाई करने का ढोंग किया जाता है। लेकिन दो-चार दिन की धमाचौकड़ी के बाद हालात सामान्य हो जाते हैं। मिठाई वालों का तर्क है कि वे बाजार से दूध, मावा और पनीर जैसी चीजें खरीदते हैं जिनकी शुद्धता पता लगाने का कोई साधन उनके पास नहीं है। यही बात मावा बेचने वाले कहते हैं कि वे तो बाहर से माल मंगवाते और बेचते हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि दूध और उससे बने उत्पादों की शुद्धता और प्रामाणिकता की जाँच करने के इंतजाम क्यों नहीं किये गये? इस सबके बीच एक और तथ्य परेशान करने वाला है कि देश में दूध की मांग और पूर्ति में बड़ा असंतुलन है। बढ़ती आबादी और घटते पशुधन के कारण प्रति व्यक्ति दूध की उपलब्धता भी जरूरत के लिहाज से बेहद कम है। ऐसे में दुग्ध उत्पादों से बनने वाली खाद्य सामग्री की आपूर्ति में बेतहाशा वृद्धि चौंकाने वाली है। शासन के खाद्य विभाग के दिमाग में इतनी सी छोटी सी बात न आती हो ये मान लेना कठिन है। और फिर दूध और उससे बनी चीजें ही नहीं बल्कि खाने-पीने की लगभग हर वस्तु की शुद्धता संदेह के घेरे में है। यहाँ तक कि बोतल बंद पीने के पानी तक में स्वास्थ्य के लिए हानिकारक चीजें होने की बात भी अक्सर चर्चा में आती रही हैं। पैक की हुई खाद्य सामग्री को खराब होने से बचाने के लिए उनमें मिलाये जाने वाले रासायनिक तत्व भी मानव स्वास्थ्य के लिए घातक प्रमाणित हो चुके हैं लेकिन उनके उपयोग को रोकने की फिक्र भी किसी को नहीं है। उपभोक्ताओं के हितों के लिए कार्यरत स्वयंसेवी संस्थाएं हालाँकि अपने स्तर पर समुचित प्रयास करती हैं लेकिन मिलावटखोरों की ताकत के आगे सरकारी अमला पूरी तरह घुटनाटेक रहता है। न्यायिक दंड प्रक्रिया भी इतनी लम्बी और जटिल है कि अधिकतर अपराधी बच निकलते हैं। जहां तक बात जनसाधारण में जागरूकता की है तो शिक्षा का अभाव भी बहुत बड़ी बाधा है। खाद्य सामग्री पर लिखी गई जानकारी यहाँ तक कि एक्सपायरी तारीख तक पढऩे की फिक्र अच्छे खासे शिक्षित लोगों तक में नहीं होती। प्रश्न ये भी उठता है की यदि सरकारी एजेंसी द्वारा बेची जाने वाली खाद्य सामग्री को लेकर भी संदेह पैदा हो जाए तब आम उपभोक्ता क्या करे? सभी जानते हैं कि मप्र में मिलावटी और नकली दूध तथा उससे बनी चीजों के विरूद्ध चलाया जा रहा सरकारी अभियान क्षणजीवी है। कुछ दिन के हल्ले के बाद बाद हालात फिर ढर्रे पर लौट आयेंगे लेकिन समय आ गया है जब केवल सरकार ही नहीं बल्कि पूरा समाज जागरूक होकर इस स्थिति को सुधारने कमर कसे। भारत पाम आयल का सबसे बड़ा आयातक है। इसका उपयोग खाद्य तेलों में होने की जानकारी आने के बाद भी सरकारी एजेंसियों के हाथ बंधे हुए हैं। मोदी सरकार ने आम जनता के लिए आयुष्मान भारत योजना शुरू की है जिसके अंतर्गत पांच लाख तक के इलाज की सुविधा दी जाती है लेकिन खाद्य सामग्री में होने वाली खतरनाक मिलावट को रोका जा सके तो लोगों को असाध्य बीमारियों से बचाकर देश को स्वस्थ रखा जा सकता है। हालाँकि ये काम बेहद कठिन है क्योंकि हमारे देश में इंसानी चरित्र की शुद्धता ही संदिग्ध हो चली है। मिलावट करने वाला जानता है कि उसकी करतूत लोगों के लिए कितनी नुकसानदेह है लेकिन पैसे की अंधी वासना उसे लालच के गहरे कुए में उतारती चली जाती है। जहर खाकर जान देने वाले की मौत तो खबर बन जाती है लेकिन देश के करोड़ों लोगों को धीमा जहर देकर उनकी जिन्दगी को खतरे में डालने के कारोबार को लेकर न दिल्ली के जन्तर-मन्तर पर कोई धरना देता है और न ही संसद में हंगामा होता है। दरअसल आम जनता कारोबारियों की नजर में उपभोक्ता और नेताओं के लिए महज मतदाता बनकर रह गई है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 27 July 2019

संदर्भ-आजम खान : जूते खाय कपाल ........

उप्र की रामपुर सीट से चुने गये सपा के लोकसभा सदस्य आजम खान की बदजुबानी नई बात नहीं है। चुनाव के दौरान रामपुर से भाजपा उम्मीदवार जयाप्रदा के बारे में की गई उनकी अश्लील टिप्पणी पर भी काफी हल्ला मचा था। आजम अतीत में भारत माता को डायन कहने तक की हद तक जा चुके हैं। हाल ही में उन्होंने इस बात पर भी अफसोस जताया कि उनके पूर्वज बंटवारे के समय पाकिस्तान नहीं गये। वैसे उनकी विवादस्पद सार्वजनिक टिप्पणियों की सूची बनाई जाए तो 25-50 पृष्ठ की पुस्तिका प्रकाशित हो सकती है। उनकी बदजुबानी को सपा के संस्थापक मुलायम सिंह यादव और अब नये सुप्रीमो अखिलेश का समर्थन और संरक्षण रहा है क्योंकि वे पार्टी के मुस्लिम चेहरे हैं। पिछले दिनों आजम को भू माफिया घोषित कर दिया गया। रामपुर में लोगों की जमीन जबरन कब्जाने के कई प्रकरण उनके विरुद्ध दर्ज किये जा चुके हैं। इस मामले में सबसे चौंकाने वाली बात ये रही कि उनके इलाके के दर्जनों मुस्लिम पुरुष और महिलाएं खुलकर सामने आये और आजम द्वारा बलपूर्वक उनकी जमीनें छीनी जाने के आरोपों की पुष्टि की। लेकिन आज की चर्चा का केंद्र दो दिन पहले लोकसभा में बोलते हुए आजम द्वारा आसन्दी पर विराजमान महिला सांसद रमा देवी से की गई बेहूदगी है। सदन में वे अपने भाषण में इधर-उधर देखते हुए शेर सुनाने लगे तब रमा देवी ने उन्हें टोकते हुए आसंदी से मुखातिब होकर अपनी बात कहने का निर्देश दिया जिस पर उन्होंने ऐसी बात कह दी जो पूरी तरह निम्नस्तरीय होने से  महिला के अपमान की श्रेणी में रखी जाने लायक थी। उस पर होहल्ला मच गया। रमा देवी भाजपा सांसद हैं इसलिए सत्ता पक्ष ने आजम खान के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया और बात माफी मांगने अन्यथा सदस्यता समाप्त किये जाने तक बढ़ गई। गत दिवस लोकसभा में अधिकांश महिला सांसदों ने इस प्रकरण पर एक स्वर से आजम खान को घेरा और तकरीबन सभी पक्षों ने लोकसभा अध्यक्ष से मांग की कि उनके विरुद्ध इतनी कड़ी कार्रवाई की जाए जिससे भविष्य में कोई और इस तरह की हिमाकत न कर सके। आश्चर्य की बात रही कि अखिलेश यादव ने ये कहते हुए आजम का बचाव किया कि उनकी मंशा पीठासीन महिला सांसद के अपमान की नहीं थी। इसी तरह की कोशिश कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी और एआईएमआईएम सदस्य असदुद्दीन ओवैसी द्वारा की गई लेकिन सदन के भीतर और बाहर आजम खान के विरोध में ही ज्यादा आवाजें उठीं। महिला सांसदों ने तो पार्टी की सीमा तोड़कर आजम खान के विरुद्ध सख्त कदम उठाने की मांग की। लोकसभा अध्यक्ष ने इस मामले पर सर्वदलीय बैठक भी बुलाई और संभवत: वे सोमवार को इस बारे में निर्णय सुनायेंगे। ये भी संभव है की बेहद मोटी चमड़ी वाले आजम खान सदन में माफी मांगकर बड़ी सजा से खुद को बचा लें। लेकिन उन जैसे नेताओं के कारण संसदीय लोकतंत्र की जो फजीहत हो रही है उसके मद्देनजर अब राजनीतिक दलों को महज चुनाव जीतने की क्षमता को ही प्रत्याशी की योग्यता का आधार मानने वाली सोच त्यागनी चाहिए। आजम खान तो खैर अव्वल दर्जे की गिरी हुई मानसिकता वाले व्यक्ति हैं जो मुस्लिम नहीं होते तो मुलायम सिंह और उनकी पार्टी भी उन्हें इतना सिर पर नहीं चढ़ाती लेकिन दूसरी पार्टियों में भी ऐसे सांसदों की कमी नहीं है जो समय-समय पर ऊल-जलूल टिप्पणियों के जरिये राजनीतिक ही नहीं अपितु पूरे सार्वजानिक वातावरण को प्रदूषित करते रहते हैं। भाजपा में भी साक्षी महाराज जैसे लोग हैं जो व्यर्थ की बातें कहकर विवाद पैदा करते रहते हैं। नाम लेने बैठें तो संसद ही नहीं विधानसभाओं में भी ऐसे घटिया लोग चुनकर आ जाते हैं जिन्हें संसदीय गरिमा और सामजिक शिष्टाचार का लेशमात्र भी ध्यान नहीं रहता। लेकिन आजम खान ने लोकसभा में रमा देवी से जिस अंदाज में बात की वह अखिलेश यादव की नजर में भले ही साधारण बात रही हो और हो सकता हो अपने कुसंस्कारों की वजह से आजम खान ने बिना आगे-पीछे सोचे वह सब कहा हो किन्तु समय आ गया है जब उन्हें ये एहसास करवा दिया जाए कि संसद वर्जनाहीन मानसिकता वाली पेज थ्री संस्कृति आधारित देर रात की पार्टी नहीं है जिसमें महिलाओं के साथ बेतकल्लुफी में शालीनता को पूरी तरह तिलांजलि दे दी जाए। आजम खान केवल मुस्लिम होने की खाते रहे हैं लेकिन उनकी जुबान जिस तरह से बेलगाम होती जा रही है उसे देखते हुए उन्हें सबक सिखाना जरूरी हो गया है। लोकसभा के वर्तमान अध्यक्ष ओम बिरला ने जिस तरह से सदन को संचालित करते हुए एक अनुशासन कायम किया उसकी वजह से सामान्य तौर पर अपेक्षित है कि आजम अगर सदन के भीतर अपने कुकृत्य के लिए रमा देवी से बिना शर्त माफी नहीं मांगते तब उस बदतमीजी पर उनके विरुद्ध कठोर कार्रवाई की जानी चाहिए। हो सकता है उप्र सरकार द्वारा उनके विरुद्ध दर्ज किये गये भूमि हड़पने सम्बन्धी अपराधिक मामलों की वजह से उनका मानसिक संतुलन गड़बड़ा गया हो लेकिन उनकी हरकत किसी भी सूरत में काबिले माफी नहीं है। बात-बात में शेरो-शायरी सुनाने वाले आजम खान को इस देसी उक्ति में निहित भाव को भी समझ लेना चाहिए : -
जऱा सी जिभिया कर गई बाल बवाल, चुपके से भीतर हुई और जूते खाय कपाल।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 26 July 2019

बहुत आसान है कमरे में वन्दे मातरम कहना .....

भारतीय टीम के पूर्व कप्तान और दुनिया के सबसे लोकप्रिय क्रिकेटरों में से एक महेंद्र सिंह धोनी ने विश्व कप से फुर्सत होते ही भारतीय सेना से जुडऩे की इच्छा व्यक्त की और उन्हें मानद लेफ्टीनेंट कर्नल का दर्जा देकर पैराशूट रेजीमेंट में टेरिटोरियल आर्मी यूनिट में प्रशिक्षण दिया जा रहा है । 31 जुलाई से 15 अगस्त तक जम्मू - कश्मीर में रहते हुए वे पेट्रोलिंग गार्ड और पोस्ट ड्यूटी जैसे काम करेंगे । इसके पहले सचिन तेंदुलकर भी वायु सेना में इसी तरह जुड़ चुके हैं। प्रसिद्ध अभिनेता नाना पाटेकर का सेना से जुड़ाव भी लोगों की जानकारी में है । धोनी भारतीय क्रिकेटरों में सचिन के बाद सबसे ज्यादा पैसे वाले हैं। बतौर खिलाड़ी अंतर्राष्ट्रीय मुकाबलों से उनकी विदाई की चर्चा जोरों पर है। हालाँकि अब तक उन्होंने सन्यास नहीं लिया लेकिन 39 साल की आयु में क्रिकेट खेलते रहना कठिन है। विश्व कप के सेमी फायनल मैच में धोनी के रन आउट होने पर उनकी शारीरिक क्षमता को लेकर काफी सवाल उठे क्योंकि विकेट के बीच तेजी से दौड़कर रन बनाने वालों में धोनी को बेजोड़ माना जाता रहा है । उस मैच में भारत की नजदीकी हार का कारण उनके रन आउट होने को ही माना गया वरना वे विषम परिस्थितियों में भी मुकाबला भारत के पक्ष में मोड़ लाये थे । कहते हैं वे पहली बार ड्रेसिंग रूम में आकर रुआंसे देखे गये। निश्चित रूप से ये उनका आखिरी विश्व कप मैच था। चर्चा है बीसीसीआई ने उन्हें सन्यास की घोषणा से रोक रखा है । लेकिन ये तय है कि मुख्य धारा के क्रिकेट से वे दूर होते जा रहे हैं । ऐसे में उन्होंने भारतीय सेना में अपनी मानद सेवा देने का जो निर्णय किया वह अच्छा संकेत है । भले ही दो चार हफ्ते के प्रशिक्षण मात्र से वे पूरी तरह सेना के सांचे में नहीं ढल सकते लेकिन उन सरीखी नामी-गिरामी हस्तियों का प्रतीकात्मक जुड़ाव भी असरकारक होता है और उस लिहाज से धोनी के इस कदम का स्वागत होना चाहिए । ये हकीकत किसी से छिपी नहीं है कि भारतीय सेना विशेष रूप से थल सेना में अफसरों की बहुत कमी है। सत्तर - अस्सी के दशक तक युवाओं में सेना का अफसर बनने का जबर्दस्त आकर्षण देखा जाता था । एनसीसी के जरिये महाविद्यालयीन विद्यार्थी सेना में अपना भविष्य देखा करते थे लेकिन बीते दो ढाई दशक में हालात पूरी तरह से बदल गए । देशभक्ति का ज्वार तो उछाल मारता देखा जा सकता है किन्तु जब सेना में भर्ती होने की बात आती है तब सैनिक बनने के इच्छुक बेरोजगारों की भीड़ उमड़ पडती है लेकिन अफसर बनने वाले युवाओं का टोटा पड़ जाता है । इससे निपटने के लिए सेना ने सेवा शर्तों के साथ ही पदोन्नति के नियमों को भी काफी आकर्षक बनाया लेकिन समस्या यथावत है। धोनी के सांकेतिक सैन्य प्रशिक्षण से ये समस्या हल हो जायेगी ये मान लेना तो खुशफहमी होगी लेकिन यदि उन जैसी और हस्तियाँ इस तरह सेना के साथ जुड़ें तब निश्चित रूप से कुछ न कुछ फर्क तो पड़ेगा। भारत जैसे देश में सेना में अनिवार्य रूप से नौकरी करने जैसा अमेरिकी नियम तो कभी लागू नहीं हो सकता लेकिन सेना में अफसरों की कमी को लम्बे समय तक बनाये रखना भी देश की सुरक्षा के लिहाज से चिंताजनक है । आज पूरा देश कारगिल दिवस के बहाने भारतीय सेना के वीर जवानों और युवा अफसरों के शौर्य और सर्वोच्च बलिदान का स्मरण कर श्रद्धावनत है । ऐसे में महेंद्र सिंह धोनी को सेना की वर्दी में देखकर युवाओं में सेना के जरिये देश की सेवा करने की भावना उत्पन्न होगी ये उम्मीद तो की ही जा सकती है। इसी के साथ ये अपेक्षा भी गलत नहीं होगी कि खेल के साथ फिल्म जगत के कुछ और युवा उत्साही कलाकार भी सेना के साथ जुड़कर उत्प्रेरक की भूमिका निभाएंगे । किसी शायर ने इसी संदर्भ में बड़ी ही सटीक पंक्तियाँ लिखी थीं :-
चलो चलते हैं मिल जुलकर वतन पर जान देते हैं , बहुत आसान है कमरे में वन्दे मातरम कहना।

- रवीन्द्र वाजपेयी