Saturday 20 July 2019

कर्नाटक : नाटक बन गया कॉमेडी सर्कस

आगामी सोमवार को कर्नाटक विधानसभा में क्या होगा वह पूरी तरह से अनिश्चित है | भजपा का ये दावा तो अपनी जगह ठीक ही कि कुमारस्वामी बहुमत खो चुके हैं लेकिन सर्वोच्च न्यायालय में गत दिवस प्रस्तुत की गईं दो याचिकाओं के द्ववारा सत्ता पक्ष ने मामला टाँगे रखने की जो रणनीति बनाई है  वह किस हद तक सफल होगी ये देखने के बाद ही कुछ कहा जा सकेगा | क्योंकि कर्नाटक का मामला कुछ विधायकों के इस्तीफ़े , उन पर विधानसभा अध्यक्ष की कार्रवाई , अध्यक्ष के अधिकारों की सीमा , राज्यपाल और अध्यक्ष के अधिकारों की व्याख्या और सबसे बढ़कर इस सबमें सर्वोच्च न्यायालय का अधिकार क्षेत्र जैसे मुद्दों पर आकर टिक गया है | संयोगवश इसी राज्य में ऐसे ही  राजनीतिक गतिरोध के सन्दर्भ में प्रसिद्ध बोम्मई मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी थी कि सरकार के बहुमत  का फैसला हर हाल में विधानसभा सदन के भीतर हो न कि राजभवन या अन्यत्र | उस दृष्टि से देखें तो कर्नाटक में जो कुछ भी बीते कुछ दिनों में हुआ वह राजनीति में आई विकृति का ताजा संस्करण है जिसमें सत्ता में बने रहने और सत्ता छीनने के लिए जो कुछ भी किया जा रहा है उसमें सब कुछ है लेकिन नैतिकता और शर्म लेशमात्र भी नहीं है | सत्ताधारी कुछ विधायकों के इस्तीफे के बाद पैदा हुई स्थितियों में सबसे प्राथमिक भूमिका अध्यक्ष की थी जिन्होंने बजाय कुछ फैसला करने की तकनीकी उलझनें पैदा करते हुए जिस तरह का व्यवहार किया उसमें संवैधानिकता कम राजनीतिक नमकहलाली ज्यादा थी लेकिन इसके लिए केवल उन्हें कसूरवार ठहराना गलत होगा क्योंकि अतीत में कुछ भाजपा शासित राज्यों में ऐसे ही राजनीतिक हालातों में वहाँ के विधानसभा अध्यक्ष ने भी ऐसा ही आचरण  किया था | इसी तरह राज्यपाल की भूमिका भी निष्पक्ष नहीं कही जा सकती क्योंकि उनका झुकाव भी जगजाहिर है | लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने भी बीते दिनों जो फैसले दिए उनकी वजह से बजे हल निकलने के मामला और उलझ गया जिसके कारण सत्ता पक्ष को समय व्यतीत करने का भरपूर अवसर मिल गया | कुल मिलाकर मामला मात्र इतना था कि इस्तीफा देने वाले विधायकों को बुलाकर अध्यक्ष को ये पुष्टि करनी थी कि वाकई उन्होंने वैसा किया था | लेकिन विधायकों के व्यक्तिगत रूप से आकर पुष्टि किये जाने के बाद भी अध्यक्ष महोदय न जाने कहाँ - कहाँ की बातें छेड़कर इस्तीफों को अनिर्णय में फंसाकर बैठ गये | दरअसल मामला ये है कि इस्तीफ़े पार्टी द्वारा विधानसभा में मतदान हेतु जारी होने वाले व्हिप के पहले के हैं या नहीं | अध्यक्ष के इस रवैये को भांपकर सर्वोच्च न्यायालय ने इस्तीफा देने वाले विधायकों को सदन में रहने की मजबूरी खत्म कर  दी जिससे कुमारस्वामी सरकार का खतरा और बढ़ गया |  बिना इस्तीफा मंजूर हुए वे पार्टी व्हिप का पालन करने बाध्य होते और वैसा नहीं करने पर दलबदल कानून के अंतर्गत अयोग्य करार दिये जाते | न्यायालय ने इसके आगे अध्यक्ष के कार्यक्षेत्र में दखल से इनकार कर दिया | उसके बाद विधानसभा में विश्वास प्रस्ताव तो पेश हुआ लेकिन बीते दो दिनों से लम्बी  बहस के द्वारा समय निकला जाता रहा और राज्यपाल के निर्देशों की अवहेलना करते हुए सदन सोमवार तक के लिए स्थगित हो गया | सत्ता पक्ष को उम्मीद है कि वह इस दौरान रूठे विधायकों को मनाकर भाजपा के होठों से प्याला छीन लेगा | उधर पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा तो शपथ लेने के लिए उतावले हुए जा रहे हैं | जहाँ तक बात भाजपा की है तो वह भी समूचे विवाद में दूध की धुली नहीं है | सत्ता पक्ष से टूटे विधायकों ने न तो वैराग्य धारण किया और न ही वे निःस्वार्थी हैं | इस्तीफा देकर मुम्बई जाना और शानदार होटल में मौज मस्ती करना,  मुफ्त में तो नहीं हुआ होगा | उन सबको मंत्री बनाने तो कुमार स्वामी भी एक पैर पर तैयार हैं लेकिन  वे त्याग की प्रतिमूर्ति बने बैठे हैं | जाहिर है इस सबसे लोकतंत्र की  दुर्गति हो रही है | कर्नाटक में सत्ता किसके हाथ आयेगी ये महत्वपूर्ण नहीं रहा लेकिन क्या संसदीय प्रणाली का ऐसा मजाक बनता रहेगा , ये बड़ा मुदा बनकर सामने आया है | कांग्रेस और भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों को कुछ देर के लिए क्षणिक नफे नुक्सान से ऊपर उठकर देश के बारे में सोचना चाहिए | अटल जी ने संसद में कहा था पार्टियां बनेंगीं , बिगड़ेंगी , सरकारें आयेंगीं - जायेंगीं लेकिन ये देश रहना चाहिए और इस देश का लोकतंत्र रहना चाहिए | आज अटल जी की उस चिंता में छिपी दूरदर्शिता सामने आती  जा रही है |  कर्नाटक के राजनीतिक घटनाचक्र को सभी लोग नाटक कहकर उसका मजाक उड़ाने में जुटे हैं लेकिन ये नाटक अब कामेडी सर्कस में बदला चुका है और उसमें समाहित हास्य भी फूहड़पन का एहसास करवा रहा है | हो सकता है वहां राष्ट्रपति शासन लगाना पड़े लेकिन उसके पहले जो कुछ भी हो चुका होगा वह लोकतंत्र के माथे पर ऐसे काले निशान छोड़कर जाएगा जिन्हें मिटने में लम्बा समय लगेगा और हो सकता हो वे अमिट हों |

-रवीन्द्र वाजपेयी

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