भले ही लोकसभा के भीतर कांग्रेस की इतनी दयनीय स्थिति पहले कभी नहीं रही लेकिन उसकी सबसे बड़ी पराजय आज भी 1977 वाली ही थी जब पहली बार केद्रीय सत्ता उसके हाथ से छिनी और विश्व में पहली बार कोई प्रधानमन्त्री सत्ता में रहते हुए अपना चुनाव भी हारा। यद्यपि उसके पहले भी इंदिरा गांधी पार्टी के भीतर विरोध को झेल चुकी थी जिसकी वजह से कांग्रेस का विभाजन हुआ। 1977 के बाद एक बार फिर इंदिरा जी ने कांग्रेस तोड़ी और अपने वफादारों के साथ दोबारा पार्टी को खड़ा करते हुए सत्ता में लौटीं। जनता पार्टी की सरकार को जिस तरह उन्होंने गिरवाया उसमें हालाँकि संजय गांधी की भूमिका ज्यादा थी लेकिन इंदिरा जी भी पूरी ताकत से मैदान में डटी रहीं। 1989 में भी राजीव गांधी को सत्ता गंवाना पड़ी लेकिन उसके बाद भी वे उतने हताश नहीं हुए और आखिर में विश्वनाथ प्रताप सिंह और बाद में चंद्रशेखर की सरकार गिरवाकर कांग्रेस की वापिसी की राह प्रशस्त की। यहाँ तक कि 2004 के लोकसभा चुनाव में सोनिया गांधी ने गठबंधन राजनीति का सहारा लेकर वाजपेयी सरकार को अप्रत्याशित पराजय का स्वाद चखाया। उस दृष्टि से राहुल गांधी से केवल कांग्रेसी ही नहीं वरन आम जनता भी अपेक्षा करती थी कि 2014 में मिली करारी हार से सबक लेते हुए वे कांग्रेस को एक बार पुन: सम्मानजनक स्थिति में ले आयेंगे लेकिन पूरे पांच साल तक अपनी विचित्र कार्यशैली की वजह से वे जनमानस में अपने आप को वैकल्पिक नेतृत्व के बतौर स्थापित नहीं कर सके और बिना पूरी तैयारी के नरेंद्र मोदी को चुनौती देने लगे। नतीजा सबके सामने है। 1977 की तरह राहुल भी अमेठी की अपनी पुश्तैनी सीट नहीं बचा सके। पराजय का पूर्वाभास होने की वजह से वे यदि वायनाड न खिसके होते तब लोकसभा में बैठने तक से वंचित रह जाते। यहाँ तक तो ठीक था लेकिन चुनाव बाद उन्होंने जिस तरह अध्यक्ष पद छोडऩे की पेशकश कर एक आनिश्चितता उत्पन्न कर दी उसकी वजह से पूरी पार्टी सन्निपात की स्थिति में आ चुकी है। सोनिया जी भी अज्ञात कारणों से निर्लिप्त हैं। पदाधिकारियों सहित विभिन दायित्व सँभालने वालों पर इस्तीफे के लिए भावनात्मक दबाव बनाया जा रहा है। लेकिन उसका भी वैसा असर नहीं हुआ जैसी अपेक्षा की जा रही थी। सबसे बड़ी बात ये है कि किसी ने भी राहुल से इस्तीफा नहीं माँगा था और न ही पार्टी में कोई भी ऐसा नेता या गुट है जो खुलकर राहुल गांधी की मुखालफत कर सके। उसके बाद से छ: सप्ताह बीत गये लेकिन पार्टी में नया अध्यक्ष चुनना तो दूर रहा उसकी प्रक्रिया तक प्रारम्भ नहीं हो पा रही। राहुल चाहते हैं उनके परिवार से बाहर का नया अध्यक्ष लोकतांत्रिक तरीके से चुना जाए लेकिन वह तरीका कौन निर्धारित करेगा इसी उहापोह में पार्टी बिना राजा की फौज जैसी बनकर रह गयी है। राहुल की निकटतम समझी जाने वाली युवा ब्रिगेड भी समझ नहीं पा रही कि उनके तथाकथित्त रोल माडल को हो क्या गया है? बुजुर्ग नेता तो पूरी तरह निर्विकार भाव में हैं क्योंकि उन्हें अच्छी तरह पता है कि मुंह खोलने की सजा क्या होगी? बहरहाल इसका दुष्प्रभाव कर्नाटक और गोवा में प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है जहां कांग्रेस की दीवार से ईंटें खिसक रही हैं और कोई देखने सुनने वाला नहीं है। मप्र, राजस्थान और पंजाब में सरकार होने के बाद भी बड़े नेताओं के मतभेद सार्वजानिक तौर पर महसूस किये जा सकते हैं। कुल मिलाकर राहुल के बचकाने निर्णय से कांग्रेस जिस दिशाहीनता की शिकार होकर रह गई है उससे उनके अत्यंत विश्वासपात्र ज्योतिरादित्य सिंधिया भी खिन्न नजर आये। दो दिन पहले भोपाल में पत्रकारों के समक्ष उन्होंने जो कुछ भी कहा वह उनकी मन:स्थिति को बयान करने वाला था। वैसे बात है भी सही। देश की सबसे पुरानी पार्टी का अध्यक्ष डेढ़ माह पहले त्यागपत्र दे चुका हो और उसे मनाने की तमाम कोशिशें विफल रही हों, उसके बाद भी कोई वैकल्पिक व्यवस्था करने के बारे में नहीं सोचा जाना ये दर्शाता है कि राहुल के नेतृत्व में पार्टी विचारशून्यता के गर्त में समा चुकी है। वस्तुत: गांधी परिवार ने अपने प्रभुत्व को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए विकल्प की किसी भी संभावना को उभरने ही नहीं दिया वरना राजस्थान में सचिन पायलट और मप्र में श्री सिंधिया मुख्यमंत्री होते। दुर्भाग्य से राहुल आज भी उसी अभिजात्य मानसिकता में फंसे हुए हुई हैं जो राजपाट चले जाने के बाद भी राजा - महाराजाओं में नजर आती है। लेकिन जनता अब इस तरह की सोच से ऊपर उठकर वास्तविकता के धरातल पर फैसले लेने लगी है। और इसी का नतीजा अमेठी में श्री गांधी की पराजय के रूप में सामने आया। ये कहना भी गलत नहीं होगा कि यदि सपा - बसपा का समर्थन नहीं होता तो रायबरेली से सोनिया जी की जीत भी मुश्किल हो जाती। बेहतर तो यही होगा कि राहुल अपने तौर-तरीके बदलते हुए देश की जमीनी हकीकत को समझें और जिस विचारधारा की लड़ाई लडऩे का वे दम भरते हैं उसका खाका तो देश के समक्ष रखें। केवल नरेंद्र मोदी और भाजपा को कोसने तथा रास्वसंघ पर निराधार आरोप लगाने वाली राजनीति के दिन लद चुके हैं। बीते दिनों राज्यसभा में कांग्रेस दल के नेता गुलाम नबी आजाद से आयुष्मान योजना का समर्थन करने की अपील के दौरान प्रधानमन्त्री ने बड़ी ही मार्के की बात करते हुए कहा कि यदि कांग्रेस सोचती है योजना की सफलता से मोदी को राजनीतिक लाभ मिलेगा तो घबराइये नहीं, 2024 के चुनाव में वे नये मुद्दे लेकर उतरेंगे। राहुल को इस बात को समझना चाहिए कि 2014 के चुनाव के बाद ही अमित शाह ने 50 फीसदी मतों का लक्ष्य निर्धारित किया था जो अनेक बड़े राज्यों में हासिल भी हो गया। कहते हैं श्री मोदी ने 2024 के चुनाव हेतु अभी से रोड मैप तैयार करना शुरू कर दिया है और उसके लिए विशेषज्ञों की टीम कार्यरत है जबकि कांग्रेस भावी चुनौतियों के लिए खुद को तैयार करने की जगह असमंजस में डूबी हुई है। जिसका परिणाम कर्नाटक और गोवा में डूबते जहाज से चूहे कूदने की शक्ल में सामने आ रहा है। कहते हैं समय किसी को नहीं दिखता लेकिन दिखा बहुत कुछ देता है। और यह भी कि समझदार इंसान गलतियों से सीखता है। लेकिन राहुल गांधी न जाने किस दुनिया में विचरण करते हैं। पार्टी अध्यक्ष पद छोडऩे के पीछे उन्होंने जो वजह बताई उसके जरिये वे अपने नैतिक पक्ष को मजबूत करना चाहते थे लेकिन वैसा करने में भी उन्होंने अपरिपक्वता का परिचय देते हुए पार्टी और अपनी दोनों की फजीहत करवा दी। प्रश्न ये है कि श्री गांधी जिस आन्तरिक प्रजातंत्र की गुहार लगा रहे हैं वह आएगा कैसे? क्योंकि कांग्रेस का आम कार्यकर्ता ये समझने में असमर्थ है कि गांधी परिवार के अलावा पार्टी को और कोई चला सकता है। ये ठीक है कि जीत के हजार पिता होते हैं जबकि हार सदैव अनाथ होती है लेकिन राहुल गांधी चाहते तो पराजय को भी स्वभाविक तौर पर स्वीकारते हुए पार्टी को दोबारा खड़ा होने के लिए तैयार करने के बाद पदमुक्त होते। दिल्ली, बिहार, पंजाब, कर्नाटक, मप्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में पराजय तथा गुजरात में फीकी जीत के बाद आम भाजपाई का मनोबल टूटा हुआ था लेकिन मोदी और शाह की जोड़ी ने बिना विचलित हुए अंतिम मुकाबले में कांग्रेस ही नहीं पूरे विपक्ष को धूल चटा दी। यदि राहुल में जऱा सी भी राजनीतिक समझ है तो उन्हें पार्टी नेतृत्व का फैसला अतिशीघ्र करवाकर भविष्य की तैयारी में जुट जाना चाहिए। यदि वे ऐसा नहीं करते तब नरेंद्र मोदी का कांग्रेस मुक्त भारत का नारा हकीकत में बदलना अवश्यम्भावी हो जाएगा और उसके लिए किसी और को दोष नहीं दिया जा सकता। श्री गांधी के लिए ये सोचने वाली बात है कि देश के युवा मतदाताओं ने उन्हें छोड़कर एक 68 साल के व्यक्ति में भरोसा जताया और वह भी एक नहीं दो बार।
-रवीन्द्र वाजपेयी
No comments:
Post a Comment