Tuesday 16 July 2019

न्यायाधीशों की नियुक्ति में पारदर्शिता क्यों नहीं

वैसे ये सवाल गैर वाजिब नहीं है कि जब प्रशासनिक, पुलिस, राजस्व, वन, रेलवे और विदेश विभाग में अधिकारियों का चयन परीक्षा और साक्षात्कार की प्रक्रिया से गुजरकर किया जाता है तब उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति में कालेजियम नामक प्रणाली का उपयोग किये जाने का क्या औचित्य है जिसमें पारदर्शिता का सर्वथा अभाव है। समूची  प्रक्रिया कुछ न्यायाधीशों के विवेक पर छोड़ दी जाती है। इस बारे में उल्लेखनीय ये है कि देश के प्रधान न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय के चार अन्य न्यायाधीशों को मिलाकर बनाया गया कालेजियम संवैधानिक व्यवस्था नहीं है। इसकी शुरुवात 1993 में हुई जिसके पीछे सोच थी न्यायपालिका की स्वायत्तता को बनाये रखते हुए न्यायाधीशों की नियुक्ति को सरकारी दबाव या प्रभाव से मुक्त रखना। कालेजियम द्वारा भेजी जाने वाली सिफारिश को सरकार यदि पुनर्विचार हेतु लौटा देती है और वह उसे दोबारा भेज देता है तब सरकार के पास उसे स्वीकार करने के आलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं बच रहता। कालान्तर में इस प्रणाली में आईं विकृतियों को लेकर न्याय जगत के भीतर से ही आवाजें उठने लगीं और राजनीतिक क्षेत्र भी ये महसूस करने लगा कि न्यायिक स्वायत्तता की आड़ में न्यायिक स्वच्छन्दता पनप उठी  है। विरोध के स्वर तब और तेज हो उठे जब कुछ विशिष्ट परिवारों की तीन-तीन पीढिय़ां न्यायाधीश बनीं जिनमें कुछ की योग्यता और अनुभव पर भी सवाल उठे। संसद में भी न्यायपालिका की स्वेच्छाचारिता को लेकर गर्मागर्म बहस हुई। सर्वदलीय सहमति के आधार पर 2014 में संसद ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग बना दिया जिसको संघ लोक सेवा आयोग की तरह ही न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार दिया गया। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय को ये नागवार गुजरा और उसने संसद के उस फैसले को पूरी तरह से रद्दी की टोकरी में फेंकते हुए कालेजियम प्रणाली जारी  रखने की  जिद पकड़ ली। उसके बाद से कुछ नियुक्तियों को लेकर केंद्र सरकार और कालेजियम के बीच टकराव हुआ लेकिन सरकार को अंतत: झुकना पड़ा क्योंकि और कोई विकल्प था ही नहीं। अभी हाल ही में अलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश द्वारा प्रधानमन्त्री को लिखे पत्र में कालेजियम की प्रक्रिया पर कई सवाल उठाये गये। मप्र उच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश पद पर गुजरात उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश की नियुक्ति विषयक सिफारिश को केंद्र सरकार द्वारा लम्बे समय से दबाए बैठे रहने से भी अघोषित टकराव की स्थिति बनी हुई है। इसी बीच गत दिवस राज्यसभा में कालेजियम को लेकर चर्चा हुई जिसके बाद सभापति वेंकैया नायडू ने आम सहमति को देखते हुए विस्तृत चर्चा कराये  जाने की जरुरत भी जताई। कुल मिलाकर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन की आवश्यकता से चूंकि लगभग सभी दल और अधिकांश सांसद रजामंद हैं इसलिए इस बारे में यदि दोबारा कानून बनाने की प्रक्रिया सरकारी स्तर पर शुरू हो तब विधायिका और न्यायपालिका के बीच नया द्वंद प्रारम्भ हो सकता है। न्यायपालिका की सदाशयता पर संदेह किये बिना भी ये कह सकते हैं  कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया को चार-पांच न्यायाधीशों के भरोसे छोड़ देना अटपटा लगता है। ये भी देखा गया है कि अनेक राजनेताओं के पुत्र एवं निकट संबंधी भी न्यायाधीश बनकर कालेजियम में बैठ जाते हैं। ज्यादा दूर क्यों जाएँ पूर्व और वर्तमान प्रधान न्यायाधीश क्रमश: श्री दीपक मिश्रा और श्री रंजन गोगोई दोनों राजनीतिक परिवारों से ताल्लुकात रखते हैं। न्यायाधीशों की नियुक्ति में राजनीतिक हस्तक्षेप से कितना भी इंकार क्यों न किया जाए किन्तु जब भी उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति होनी होती है उसके पहले उस राज्य के मुख्यमंत्री वहां  के मुख्य न्यायाधीश से सौजन्य भेंट हेतु जाते हैं। जिसका निहित उद्देश्य विधि जगत से जुड़े लोग अच्छी तरह जानते हैं। ये सब देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय को चाहिए कि वह कालेजियम प्रणाली को लेकर उठने वाले सवालों का ठंडे दिमाग से संज्ञान लेते हुए या तो समूची चयन प्रक्रिया को पूरी तरह से पारदर्शी बनाए या फिर राष्ट्रीय न्यायिक आयोग को अस्तित्व में लाने के लिए अपने सुझाव सरकार को दे क्योंकि संसद में जिस तरह की चर्चा सुनने मिल रही है उसके मुताबिक कालेजियम प्रणाली की वजह से समूची न्यायपालिका संदेह के घेरे में  खड़ी की जाने लगी है। श्री गोगोई और कलेजियम के बाकी सदस्यों को भी न्यायायिक अभिजात्यता से परे उठकर सोचना होगा क्योंकि कालेजियम प्रणाली न्यायिक क्षेत्र में भी आलोचना का शिकार होने लगी है। हाल के कुछ वर्षों में कानून की पढ़ाई के प्रति युवा पीढ़ी का आकर्षण बढ़ा है। लड़कियां भी बड़ी संख्या में विधि क्षेत्र में अपना भविष्य तलाशने आ रही हैं। ऐसे में जरूरी हो जाता है कि प्रतिभाओं को समुचित अवसर देने के बारे में न्यायपालिका और सरकार समन्वय बनाते हुए ऐसा रास्ता निकाले जिससे न्यायाधीश की आसंदी पर विराजमान व्यक्ति की योग्यता और क्षमता को लेकर किसी को उंगली उठाने का अवसर नहीं मिले।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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