Tuesday 9 July 2019

परदे के पीछे से कठपुतलियाँ नचाने की चाल

अतीत में हुए कांग्रेस विभाजन के बाद संभवत: ये पहला अवसर होगा जब गांधी परिवार के दबाव के बावजूद सत्ता और संगठन से जुड़े कांग्रेस नेताओं ने अब तक अपने पद से इस्तीफा नहीं दिया। नौबत यहां तक आ गयी कि हर दो -चार दिन में किसी न किसी वफादार से इस्तीफा दिलवाकर बाकियों को याद दिलाया जाता है। लेकिन उसका ज्यादा असर होता नहीं दिखा रहा। इसका ताजा उदाहरण है पूर्व केन्द्रीय राज्य मंत्री और मप्र के गुना लोकसभा सीट से हाल ही में हारे ज्योतिरादित्य सिंधिया के इस्तीफे को सार्वजानिक किया जाना। प्राप्त जानकारी के अनुसार उन्होंने हफ्ते भर पहले ही महासचिव पद से इस्तीफा दे दिया था किन्तु उसे इस अपेक्षा के साथ दो दिन पूर्व उजागर किया गया कि देखासीखी और नेतागण भी पद त्याग का साहस दिखायेंगे। लेकिन ऐसा होता नहीं लग रहा और इसीलिये कल रात ये खबर प्रचारित की गई कि अब भी यदि वरिष्ठों ने पदों से चिपके रहने का लालच नहीं छोड़ा तब राहुल गांधी की बहिन और श्री सिंधिया के साथ ही महासचिव बनाई गईं प्रियंका वाड्रा भी अपने पद से त्यागपत्र दे देंगीं। ये खबर भी तब आई जब हर तरफ  से सवाल पूछा जाने लगा कि जब श्री गांधी दूसरों से त्यागपत्र की अपेक्षा करते हुए वैसा नहीं होने पर दु:ख व्यक्त कर रहे हैं तब उनके अपने परिवार के सदस्य ऐसा करने में क्यों पीछे रहे ? बहरहाल कांग्रेस अध्यक्ष पद से राहुल का त्यागपत्र एक बार फिर उन्हें मजाक की विषयवस्तु बना रहा है। कल रात ही कांग्रेस के अत्यंत वरिष्ठ नेता डा. कर्णसिंह ने एक बयान जारी करते हुए कहा कि राहुल द्वारा पार्टी अध्यक्ष से इस्तीफा दिए जाने के बाद उन्हें मनाने में बेकार डेढ़ महीने का समय गंवा दिया गया। यदि वे पद पर नहीं रहना चाहते तब उन्हें मुक्त कर दिया जाए। श्री गांधी की प्रशंसा करते हुए जम्मू-कश्मीर के पूर्व महाराजा ने यहां तक मांग कर डाली कि पूर्व प्रधानमन्त्री डा.मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक बुलवाकर नया अध्यक्ष चुने जाने के साथ ही देश के उत्तर, पश्चिम, दक्षिण और पूर्वी हिस्से से एक-एक कार्यकारी अध्यक्ष और उपाध्यक्ष बनाकर क्षेत्रीय संतुलन कायम रखा जावे। डा. सिंह वरिष्ठ होने के बाद भी राजनीतिक तौर पर पार्टी के ताकतवर नेताओं में शुमार नहीं किये जाते। नेहरु-गांधी परिवार के जरूर वे अनन्य भक्त रहे जिसके पीछे कुछ विशेष कारण हैं। राजनेता से ज्यादा वे संस्कृत-संस्कृति और दर्शन शास्त्र के विद्वान के रूप में प्रतिष्ठित हैं। अपने गृह राज्य में भी अब उनका राजनीतिक प्रभाव नगण्य है। बावजूद अपने सौम्य और सरल व्यक्तित्व की वजह से उनका सम्मान होता है। वैसे भी वे राजनीतिक उठापटक से परे रहा करते हैं। ऐसे में उन जैसे व्यक्ति द्वारा सार्वजानिक रूप से ये कहना चौंकाने वाला है कि यदि श्री गांधी लोकसभा चुनाव में पराजय की जिम्मेदारी लेते हुए अध्यक्ष पद से इस्तीफा देकर अलग होना चाहते हैं तो उन्हें रोका नहीं जाना चाहिए और ऐसा करने वालों ने छह सप्ताह का समय व्यर्थ में बर्बाद कर दिया। कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक डा. सिंह की अध्यक्षता में बुलाने की उनकी मांग को लेकर भी कांग्रेसी हलकों में चर्चा है कि गांधी परिवार के परम हितैषी कहलाने वाले कर्णसिंह ने सोनिया गांधी की अध्यक्षता की बात क्यों नहीं की? ऐसा लगता है डाक्टर साहब के बयान के पीछे भी सियासत की गोटियां चल रहे लोग ही हैं। डा मनमोहन सिंह की कांग्रेस में क्या हैसियत और दमखम है ये किसी से छिपा नहीं है। संगठन की गतिविधियों से दूर रहकर वे अपना समय पढऩे-लिखने में लगाते हैं। राहुल के इस्तीफे के बारे में उनकी और से न तो कोई बयान अब तक आया और न ही खुद उन्होंने कार्यसमिति से त्यागपत्र देने की पहल की। हाल ही में वे राज्यसभा से भी निवृत्त हो गए जिसकी वजह से संसद में भी उनका आना-जाना बंद हो गया। ऐसे में कर्णसिंह द्वारा उनकी अध्यक्षता में बैठक बुलाई जाने की मांग समझ से परे है। भले ही राहुल ने नये अध्यक्ष के चयन में अपनी और अपने परिवार की भूमिका से मना कर दिया है और श्रीमती गांधी ने भी बेटे का समर्थन किया लेकिन डा. मनमोहन सिंह का नाम आगे बढ़वाने का अर्थ ये है कि गांधी परिवार परदे के पीछे रहकर कठपुतलियां नचाना चाहता है। डा कर्णसिंह का ये कहना कि राहुल को मनाने में छह सप्ताह गंवा दिए गए उन नेताओं के लिए इशारा है जो अब भी ये मानते हुए पदों पर चिपके हैं कि अंतत: श्री गांधी मान जायेंगे और उस स्थिति में शायद उनका पद भी सुरक्षित बच जाएगा। असलियत जो भी हो लेकिन कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व में इस तरह की अनिश्चितता तो तब भी नहीं आई जब इंदिरा जी के विरुद्ध पार्टी के अधिकांश दिग्गज मोर्चा खोलकर खड़े हो गए थे। राहुल भले ही एक हारे हुए सेनापति हों लेकिन आज कांग्रेस पार्टी के भीतर वरिष्ठ और युवा नेताओं में एक भी ऐसा नहीं है जो गांधी परिवार के विरुद्ध जुबान खोल सके। ये कहना भी गलत नहीं होगा उपर से नीचे तक पार्टी पूरी तरह से गांधी परिवार के करिश्मे पर निर्भर होकर रह गयी है। हालांकि कैप्टन अमरिंदर सिंह सरीखे कुछ स्वयंभू नेता हैं लेकिन उनका आभामंडल सीमित है। बीते डेढ़ माह से राहुल के उत्तराधिकारी को लेकर एक भी सम्भावना सामने नहीं आना ये साबित करती है कि बड़े-छोटे सभी कांग्रेसजन मानकर बैठ गये हैं कि जो कुछ करना है वह चूंकि गांधी परिवार को ही करना है इसलिए व्यर्थ में क्यों अपनी राय व्यक्त कर विवादस्पद हुआ जाए। केवल मप्र में ही कुछ सिंधिया समर्थकों ने उनको राहुल का उत्तराधिकारी बनाने की मांग उछाली है लेकिन उसके पीछे भी ज्यादा दम नहीं दिखा। हाँ, डा. कर्णसिंह के अचानक आगे आ जाने से जरुर ज्योतिरादित्य के पक्ष में गोटियां बिठाने की कोशिश महसूस की जा सकती है क्योंकि श्री सिंधिया की बहिन कर्णसिंह की पुत्रवधू है। क्या होगा ये तो कोई नहीं बता सकता किन्तु राहुल के इस्तीफे से पैदा हुए हालात की वजह से पूरी पार्टी जिस तरह सन्निपात की दशा में है उससे निकट भविष्य में होने वाले कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को परेशानी हो सकती है। कर्नाटक में आये संकट को लेकर पार्टी का केन्द्रीय नेतृत्व जिस तरह उदासीन और असहाय नजर आ रहा है वह इसका प्रमाण है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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