Friday 5 July 2019

शराब : कमाई कम बर्बादी ज्यादा

केन्द्रीय वित्त आयोग के मप्र दौरे पर जब प्रदेश में गरीबी कम नहीं होने का सवाल उठा तब प्रदेश शासन के मंत्री पीसी शर्मा ने बड़ा ही महत्वपूर्ण सुझाव आयोग के समक्ष रखते हुए कहा कि यदि शराब बंदी की जाए तब गरीब परिवारों की आर्थिक और सामजिक हालत सुधर सकती है। घरेलू हिंसा और महिलाओं के साथ दुव्र्यवहार रुकने के अलावा बच्चों की बेहतर परवरिश भी संभव हो सकेगी लेकिन इसके लिए केंद्र सरकार को राज्य को आबकारी आय से होने वाले राजस्व घाटे की भरपाई का प्रावधान अपने बजट में रखना चाहिए। मंत्री जी पहले व्यक्ति नहीं हैं जिन्होंने शराब के दुष्परिणामों की तरफ  ध्यान आकर्षित करते हुए उससे बचने ऐसा रास्ता सुझाया हो। यद्यपि जिसे भले ही इसे तात्कालिक प्रभाव से अमल में नहीं लाया जा सके लेकिन जब केंद्र और राज्य सरकार अपनी प्राथमिकताओं में सामाजिक कल्याण को सर्वोच्च स्थान पर रखने के लिए प्रतिबद्ध हों तब नशे के कारोबार से होने वाले फायदे और नुक्सान का सही-सही विश्लेषण किया जाना जरूरी लगता है। अनेक राज्यों द्वारा अतीत में शराब बंदी किये जाने के बाद वहां की वित्तीय दशा बिगड़ जाने पर कदम पीछे खींच लिए गये लेकिन ये भी दिखाई दिया कि उससे वहां का सामजिक माहौल काफी सुधरा। विशेष रूप से गरीब तबके पर सकारात्मक प्रभाव दिखाई दिया। लेकिन अवैध शराब का कारोबार बढऩे के अलावा पड़ोसी राज्य में जाकर शराबखोरी करने जैसी बातें भी सामने आईं। गुजरात में लम्बे समय से नशाबन्दी है। बिहार में भी अपने चुनावी वायदे के मुताबिक नीतीश कुमार ने शराब पर रोक लगा दी जिसके बाद पीने वाले उप्र के सीमावर्ती इलाकों में जाकर गला तर करने लगे। हरियाणा में ऐसा होने पर दिल्ली के मयखाने और आबाद होने लगे थे। इसके अलावा ये बात भी पूरी तरह सही है कि राज्य सरकार को शराब बंदी के कारण जबर्दस्त घाटा उठाना पड़ता है क्योंकि उस पर चाहे जितना टैक्स थोप दो कोई विरोध नहीं करता। प्रदेश की पिछली शिवराज सरकार ने शराब की बिक्री को कम करने के लिए कई प्रयोग किये लेकिन इच्छाशक्ति के अभाव और ढुलमुल सोच के चलते शराबखोरी और बढ़ गई। कमलनाथ सरकार की आबकारी नीति को लेकर भी मंत्रीमंडल के बैठक में ही परस्पर विरोध के स्वर उठते रहे हैं। बहरहाल मंत्री जी ने जो सुझाव दिया वह बहुत ही तर्क पूर्ण और व्यवहारिक है। ये कहना पूरी तरह सही है कि गरीब तो क्या अनेक संपन्न परिवारों की सुख-शांति शराबखोरी के चलते तबाह हो गयी। आधुनिकता और रईसी के दिखावे के चलते उच्चवर्गीय परिवारों की महिलाओं में भी शराब पीने का चलन देखा जाने लगा है। जहां तक बात सरकार की है तो वह नशे के कारोबार को लेकर दुविधा और विरोधाभासी सोच में फंसी रहती है। एक तरफ  तो वह नशे के नुकसानों का प्रचार करते हुए नशा मुक्ति केंद्र खोलने का ढोंग रचती है वहीं दूसरी तरफ  शराब की बिक्री बढ़ाने के लिए भी दबाव बनाती है। कई बार संचालकों ने बताया कि अपना खजाना भरने के लिए सरकार द्वारा उन पर शराब का न्यूनतम कोटा उठाने की अनिवार्यता थोपी जाती है। मप्र सरकार में मोटी फीस लेकर खुले में शराब परोसे जाने की अनुमति भी चर्चा का विषय बनी हुई है। ये कहने में कुछ भी गलत नहीं होगा कि पहले जिस शराब को शर्मिन्दगी का विषय माना जाता था उसे अब सामजिक प्रतिष्ठा से जोड़ दिया गया जिसका सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव समाज के निचले तबके के साथ ही मध्यमवर्ग पर भी पड़ा। युवा पीढ़ी के बीच नशे की लत लगातार बढऩा भी चिंता के नए कारण पैदा कर रही है। शराबी पति या पिता के कारण पत्नी और बच्चे किस हद तक पीडि़त और प्रभावित होते हैं ये किसी से छिपा नहीं है। अपराधों के साथ ही भ्रष्टाचार में बढ़ोतरी के पीछे भी शराब की महती भूमिका है। भले ही शायरों और कवियों के लिए शराब एक प्रिय विषय रहा हो लेकिन समाजशास्त्री इसके नुकसानों को लेकर सदैव चिंतित रहते हैं। पीसी शर्मा का सुझाव यद्यपि अखबारों में भीतरी पन्ने की छोटी सी खबर ही बन सकी लेकिन उस पर राष्ट्रीय विमर्श होना चाहिए। गरीबों, किसानों और छोटे व्यापारियों को पेंशन, सस्ता अनाज, नरेगा और मुफ्त इलाज जैसे सामजिक सुरक्षा के उपाय शराब के हत्थे चढ़कर पानी में चले जाते हैं। नरेगा शुरू होने के बाद से ग्रामीण इलाकों में शराब की बिक्री में रिकार्ड तोड़ वृद्धि इसका प्रमाण है। पंजाब जैसा विकसित राज्य नशे के चलते किस हद तक बर्बाद हुआ ये बताने की जरूरत नहीं है। ऐसी स्थित्ति में श्री शर्मा के सुझाव पर वित्त आयोग को गंभीरता के साथ विचार करते हुए केंद्र सरकार के सामने शराबबंदी करने वाले राज्यों के राजस्व घाटे की भरपाई का रास्ता सुझाना चाहिए। मोदी सरकार ने समाज के निचले तबके की बेहतरी के लिए जो भी योजनाएं और कार्यक्रम चला रखे हैं उनके कारण उनकी झोली वोटों से तो भर गयी लेकिन शराबखोरी नाव में छेद करने जैसी है। ये कड़वा सच है कि सरकार आसानी से अपनी आय के स्रोतों में कमी नहीं कर सकती क्योंकि ऐसा करने से उसका खजाना खाली होने लगता है लेकिन गरीबों के उत्थान के लिए खर्च किये जाने वाले पैसे का समुचित लाभ नहीं मिल रहा तो उसकी वजह शराब जैसी बुराई भी है जिसे साबित करने के लिए किसी जाँच आयोग की जरूरत नहीं है। मोदी सरकार ने साबित कर दिया है कि कड़े निर्णयों के बाद भी जनसमर्थन हासिल किया जा सकता है, बशर्ते सरकार की नीयत साफ हो। नोटबंदी और जीएसटी जैसे फैसलों से उत्पन्न परेशानियों के बाद भी 2019 में नरेंद्र मोदी को विशाल बहुमत सामजिक कल्याण की विभिन्न योजनाओं के कारण ही मिल सका क्योंकि उनसे आम जनता सीधे लाभान्वित हुई। दूसरे कार्यकाल में भी प्रधानमन्त्री ने अपने एजेंडे को जारी रखते हुए उसे और व्यापक करने का इरादा जता दिया है जो उनकी व्यवहारिक सोच का उदाहरण है। ऐसे में यदि मप्र के मंत्री पीसी शर्मा के संदर्भित सुझाव पर गम्भीर चिन्तन के बाद अमल करने की इच्छाशक्ति दिखाई जाए तो आने वाले वर्षों में देश के सामजिक वातावरण में बड़ा गुणात्मक बदलाव देखने मिल सकता है। किसी भी लोक कल्याणकारी शासन व्यवस्था में लोगों की बेहतरी तभी संभव है जब समाज का पूरा वातावारण साफ -सुथरा और संतुलित हो।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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