Saturday 13 July 2019

गरीबी : आंकड़ों की फसल से पेट नहीं भरते

संरासंघ की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व के 10 विकासशील देशों में भारत ने गरीबी दूर करने में सबसे अच्छा काम किया है। 10 वर्ष में 27 करोड़ लोगों के गरीबी रेखा से बाहर आने की जानकारी  के साथ बताया गया है कि भारत में 2006 से 2016 के बीच गरीबों की संख्या 55 करोड़ से घटकर 27 करोड़ हो गई। जिन मापदंडों के आधार पर उक्त आंकड़े प्रसारित किये गये उनका आधार पोषण, शिशु मृत्यु दर, रसोई गैस, स्वच्छता, पीने का पानी, बिजली, आवास और संपत्ति प्रमुख थे। 1971 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ को अपना मुख्य मुद्दा बनाकर विपक्ष को चित्त कर दिया था। उसके पहले वे बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर चुकी थीं। जिससे गरीबों को ऋण लेकर कारोबार करने की सुविधा मिली वरना उसके पहले तक तो रिक्शा और हाथ ठेले वाला बैंक की सीढ़ी तक नहीं चढ़ सकता था। इंदिरा जी के उस कदम के पीछे हालाँकि कांग्रेस पार्टी के भीतर का झगड़ा था जिससे निबटने के लिए वामपंथी सलाहकारों ने उन्हें समाजवादी नीतियाँ अपनाने की सलाह दे डाली। श्रीमती गांधी को उसका राजनीतिक लाभ तो तत्काल मिल गया लेकिन गरीबी हटाओ के नारे को हकीकत में बदलने का सपना अधूरा रह गया। बाद में इंदिरा जी अन्य मामलों में उलझकर रह गईं जिससे राजनीति की दिशा और दशा दोनों बदलते चले गए। यद्यपि सभी राजनीतिक दल और सरकारों के वायदे और नीतियाँ गरीबों के उत्थान का ढोल पीटती रहीं और खैरात के नाम पर खजाना भी जमकर लुटाया गया लेकिन गरीबी दूर करना मृग-मरीचिका जैसा बना रहा। उदारीकरण के दौर के बाद तो पूरा आर्थिक और राजनीतिक चिंतन पूंजी निवेश और विकास दर पर आकर टिक गया जिसमें गरीब के बारे में सोचने की फुर्सत ही किसी को नहीं रही। बहरहाल उक्त  रिपोर्ट जिस समयावधि की बताई  जा रही है उसमें पहले 8 वर्ष तो डा. मनमोहन सिंह की सरकार के थे जिन पर ये आरोप है कि उन्होंने देश में जिस उदारीकरण नामक आर्थिक सुधार की प्रक्रिया का प्रादुर्भाव किया उसने गरीबों की कमर तोड़ दी। छोटे और मंझले किस्म के व्यापारी और श्रमिक वर्ग के लिए नई आर्थिक नीतियाँ कितनी घातक साबित हुईं ये सर्वविदित हैं। ऐसे में डा सिंह के कार्यकाल में गरीबों की संख्या का घटना विरोधाभास के साथ आश्चर्यजनक लगता है। आखिरी के दो वर्ष नरेंद्र मोदी की सरकार के थे। हालाँकि प्रधानमन्त्री बनते ही श्री मोदी ने गरीबों की दशा सुधारने वाली नीतियाँ तेजी से शुरू कीं किन्तु उनका असर  2016 तक उतना नहीं हुआ जिससे गरीबी हटने का दावा किया जा सके। चूँकि उक्त रिपोर्ट संरासंघ की  है इसलिए उसकी सत्यता को स्वीकार करने के बाद भी ये मानना पड़ेगा कि आंकड़े और सर्वेक्षण भारत सरकार के ही होंगे और हमारे देश में फर्जी आंकड़ों की फसल किस तरह लहलहाती है ये किसी से छिपा नहीं है। उस वजह से दस वर्षों में उपर वर्णित मापदंडों के मुताबिक गरीबों की संख्या में 27 करोड़ की कमी आना गले नहीं उतरता। जहां तक बात गरीबी रेखा की है तो किसी को उसके नीचे या ऊपर रखना भी आंकड़ों की बाजीगरी है। बीते कुछ वर्षों में मोदी सरकार देश के लाखों निजी संस्थानों को भविष्य निधि के अंतर्गत ले आई। जिसकी वजह से बेरोजगारी के सरकारी आंकड़े सुधर गए जबकि वास्तविकता ये थी कि वे लोग पहले से ही नौकरी में थे। गरीबी रेखा से लोगों को बाहर लाने के खेल में  भी इसी तरह की चालाकियों को झुठलाया नहीं जा सकता। ये बात सही है कि सरकारी नीतियों और अनुदानों की वजह से गरीबों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में सुधार आया है लेकिन वे गरीबी के अभिशाप से मुक्त हो गये हों ये कहना पूरी तरह सही नहीं  है। मोदी सरकार ने रसोई गैस, शौचालय, आवास और स्वास्थ्य संबंधी अनेक जन कल्याणकारी कदम उठाकर गरीबों के बीच अपनी पैठ बनी है लेकिन अभी भी शिक्षा, पेय जल, स्वच्छता और पोषण जैसी समस्याएं बदस्तूर जारी हैं। झुग्गी पर लगी टीवी की डिस्क और हाथ में मोबाईल को गरीबी हटने का आधार मान लेना अपने आप को धोखा देने जैसा ही है। सही बात तो ये है की वोटबैंक की लालच में राजनीतिक दलों ने गरीब बने रहने का आकर्षण बढ़ा दिया है। प्रधानमन्त्री आवास योजना के अंतर्गत बने घरों में रहने के लिए अनेक झोपड़पट्टी वाले इसलिए राजी नहीं हो रहे क्योंकि वहां उन्हें मिलने वाली मुफ्त सुविधाएं बंद हो जायेंगीं। अनेक सर्वेक्षण एजेंसियों ने ये तथ्य उजागर किया गया है कि गरीबी सरकारी विभागों के साथ ही गरीबों की कमाई  का बड़ा जरिया बन गया है। इसीलिये संरासंघ की रिपोर्ट पर अपने ही हाथों से अपनी पीठ भले ठोंक ली जाए लेकिन जिस तरह आँख बंद कर लेने से दिन को रात में नहीं समझा जा सकता उसी तरह से महज आंकड़ों को वास्तविकता समझकर आत्ममुग्ध होना भी सही नहीं होगा क्योंकि उनकी फसल देखने में तो अच्छी लगती है लेकिन उससे पेट नहीं भरा करते।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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