Friday 30 June 2023

तब क्या राज्य का शासन जेल से चलेगा



तमिलनाडु के एक मंत्री  सेंथिल बालाजी  14 जून को भ्रष्टाचार के मामले में ईडी द्वारा गिरफ्तार  किए गए थे। उनकी न्यायिक हिरासत 12 जुलाई तक बढ़ा दी गई है। उसके बाद भी न तो उन्होंने इस्तीफा दिया और न ही मुख्यमंत्री स्टालिन ने उन्हें हटाने की पहल की। आज की भारतीय राजनीति में ये बेहद साधारण घटना कही जायेगी किंतु राज्यपाल आर. एन.रवि ने उक्त मंत्री को ये कहते हुए बर्खास्त करने का फैसला कर डाला कि पद पर रहते हुए वे जांच को प्रभावित कर रहे हैं। मंत्री की नियुक्ति या बर्खास्तगी यद्यपि करते राज्यपाल या राष्ट्रपति ही हैं लेकिन इसके लिए मुख्यमंत्री अथवा प्रधानमंत्री की सिफारिश जरूरी मानी जाती है। इस प्रकरण में राज्यपाल की कार्रवाई पर विवाद इसलिए उठा क्योंकि उन्होंने बिना मुख्यमंत्री की सलाह के ही भ्रष्टाचार के मामले में फंसे मंत्री की बर्खास्तगी का फरमान जारी कर दिया। जब मुख्यमंत्री ने इसे अदालत में चुनौती देने की घोषणा की तब केंद्र सरकार की समझाइश पर राज्यपाल ने अपने निर्णय को स्थगित करते हुए एटार्नी जनरल से सलाह लेने के उपरांत आगे बढ़ने का फैसला किया। अब इस बात पर  बहस चल पड़ी है कि राज्यपाल संवैधानिक प्रमुख होने के बावजूद क्या किसी मंत्री को बिना मुख्यमंत्री की सहमति के बर्खास्त कर सकते हैं ? आजादी के बाद अपनी तरह का ये पहला मामला होने से   कानूनी अनिश्चितता की स्थिति बन गई है। हालांकि राज्यपाल ही मंत्रियों की नियुक्ति करते हैं और वे ही उनको शपथ भी दिलवाते हैं । लेकिन हमारे संविधान में निर्वाचित मुख्यमंत्री अथवा प्रधानमंत्री सरकार का मुखिया होता है इसलिए संवैधानिक प्रमुख होने के बावजूद राज्यपाल और राष्ट्रपति के अधिकार सीमित होते हैं। इस प्रकरण में भी यदि राज्यपाल श्री रवि भ्रष्टाचार के आरोप में ईडी द्वारा गिरफ्तार मंत्री को मंत्री पद से हटाए जाने के लिए मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर अपनी मंशा बताते तब दबाव श्री स्टालिन पर बना होता। राज्यपाल ने जो कार्रवाई की वह केंद्र के इशारे पर थी या स्वविवेक से किया गया फैसला , ये तो स्पष्ट नहीं है किंतु जिस तरह से उन्होंने अपने ही फैसले को स्थगित किया उससे स्पष्ट है केंद्र सरकार भी ये मान बैठी कि उक्त फैसला राजनीतिक तौर पर विवाद का कारण  बनने के साथ ही वैधानिक  दृष्टि से गलत साबित हो सकता है। इसीलिए बिना देर किए उस पर अमल रोक दिया गया। दरअसल मौजूदा राजनीतिक हालात में केंद्र सरकार तमिलनाडु की द्रमुक सरकार से टकराव को टालना चाहेगी। खैर , कानून की नजर में राज्यपाल के फैसले की वैधानिकता तय करना अदालत का काम है लेकिन इस प्रकरण का जो नैतिक पहलू है उस पर भी विचार किया जाना समय की मांग है। पहले ये परंपरा थी कि सरकार में बैठे किसी भी व्यक्ति की गिरफ्तारी होने के पहले ही वह पद से इस्तीफा दे दिया करता था। म.प्र की पूर्व मुख्यमंत्री उमाश्री भारती ने कर्नाटक के हुबली शहर में 144 धारा तोड़ने के प्रकरण में गिरफ्तारी वारंट आने के बाद जब पुलिस उन्हें गिरफतार करने भोपाल आई तो इस्तीफा दे दिया जबकि वहां पहुंचते ही उनको  तत्काल रिहाई भी मिल गई। ये बात अलग है कि भाजपा की आंतरिक राजनीति के चलते वे दोबारा सत्ता में नहीं आ सकीं। और भी अनेक मामले हैं जिनमें सत्ताधारी मंत्री को गिरफ्तारी के चलते इस्तीफा देना पड़ा। उल्लेखनीय है शासकीय कर्मचारी या अधिकारी को सेवा शर्तों के अनुसार 48 घंटे तक हिरासत में रहने पर  निलंबित कर दिया जाता है। उस दृष्टि से मंत्री भी लोक सेवक है और सरकारी खजाने से  वेतन - भत्ते और अन्य सुविधाएं प्राप्त करता है। लिहाजा उसके बारे में भी ऐसा नियम क्यों नहीं है,  ये बड़ा सवाल है। राजनीति में डूबे लोग जब अपने सिर पर तलवार लटकती है तब राजनीतिक प्रतिशोध का हल्ला मचाते हुए बच निकलना चाहते हैं। तमिलनाडु के मंत्री ने जेल जाने पर यदि पद नहीं छोड़ा तो उसके लिए उनके सामने प्रेरणा के तौर पर उद्धव ठाकरे और अरविंद केजरीवाल सरकार के दो मंत्रियों के मामले थे जिन्हें जेल जाने के बावजूद मंत्री बनाए रखा गया । लेकिन तमिलनाडु का कोई सरकारी कर्मचारी अथवा अधिकारी यदि  सीबीआई , आयकर अथवा ईडी जैसी केंद्रीय एजेंसी द्वारा गिरफ्तार कर जेल भेजा जाता तब भी क्या मुख्यमंत्री राजनीतिक दुर्भावना का आरोप लगाकर उसका निलंबन रोके रहते ? इस तरह के सवाल आजकल लगातार उठ रहे हैं। हालांकि इसके लिए किसी एक या कुछ राजनीतिक दलों को ही कठघरे में खड़ा करना पक्षपात होगा क्योंकि ज्यादातर का आचरण काफी कुछ एक जैसा हो चला है। स्व.लालबहादुर शास्त्री द्वारा रेल दुर्घटना होने पर मंत्री पद छोड़ देने का अनुसरण करने की अपेक्षा दूसरे दल से तो की जाती है किंतु खुद उस पर अमल करने कोई तैयार नहीं है। तमिलनाडु के राज्यपाल ने संविधान के अनुसार सही किया या गलत इसका फैसला सर्वोच्च न्यायालय को करना चाहिए जिससे भविष्य में ऐसा विवाद उत्पन्न न हो। लेकिन इसके साथ ही उसे  भ्रष्टाचार के मामले में जेल जाने के बाद भी मंत्री को न  हटाए जाने की नई राजनीतिक शैली पर भी अपनी राय स्पष्ट शब्दों  में देना चाहिए क्योंकि कल को किसी मुख्यमंत्री को भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तारी के जेल जाना पड़े और वह त्यागपत्र देने से इंकार करे तब राज्य का शासन क्या जेल से चलेगा ? 


-रवीन्द्र वाजपेयी 

Thursday 29 June 2023

वंदे भारत : किराया कम न हुआ तो यात्री नहीं मिलेंगे




प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश भर में वंदे भारत एक्सप्रेस का उद्घाटन कर रहे हैं। इस हेतु वे स्वयं संबधित शहर जाकर  ट्रेन को हरी झंडी दिखाते हैं। अत्याधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित यह रेलगाड़ी भारत के आर्थिक विकास का उदाहरण है। हालांकि भारतीय रेल विश्व का सबसे बड़ा नेटवर्क है किंतु विकसित देशों की तुलना में गुणवत्ता , सुरक्षा और समयबद्धता की दृष्टि से हम बहुत पीछे हैं । मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही मुंबई - अहमदाबाद के बीच बुलेट ट्रेन चलाने की योजना को मूर्त रूप देकर उस पर काम शुरू करवा दिया। उसके साथ ही प्रधानमंत्री ने व्यक्तिगत रुचि लेकर वंदे भारत नामक तेज गति से चलने वाली कुर्सी यान रेल गाड़ी चलाने की शुरुआत की जिसके बाद  हर माह विभिन्न राज्यों में वंदे भारत गाड़ी चलाने का सिलसिला जारी है। हाल ही में म.प्र में इंदौर - भोपाल और भोपाल - जबलपुर के बीच वंदे भारत एक्सप्रेस का शुभारंभ किया गया। 100 कि.मी और उससे भी तेज गति से चलने वाली इस रेलगाड़ी को देखने के लिए जनता हर स्टेशन पर उमड़ पड़ी। ढोल - धमाके के साथ इंजिन चालक और स्टाफ का स्वागत किया गया। इस सबसे यही लगता है कि आम जनता में रेलवे के आधुनिकीकरण को लेकर कितनी उत्सुकता है। प्रतिदिन करोड़ों लोगों के आवागमन का सबसे सस्ता और सुलभ साधन होने से रेलवे देश की जीवन रेखा कहलाती है। हर व्यक्ति चाहता है कि रेलवे का स्तर सुधरे , उसमें स्वच्छता और सुरक्षा के साथ ही लेट - लतीफी बंद हो तथा किसी भी गड़बड़ी के लिए जवाबदेही तय की जाए।  उस दृष्टि से वंदे भारत गाड़ियां अच्छा प्रयास कही जा सकती हैं । रेल मंत्री अश्विन वैष्णव बता चुके हैं कि श्री मोदी इन गाड़ियों को लेकर काफी गंभीर हैं और इनको रेलवे का भविष्य मानते हैं। निश्चित रूप से प्रधानमंत्री की सोच दूरगामी और विकासमूल है।लेकिन जहां - जहां भी वंदे भारत गाड़ी चली वहां से जो खबरें मिल रही हैं वे उत्साह को ठंडा करने वाली हैं । इसका उदाहरण उद्घाटन के बाद इन गाड़ियों में यात्रियों की संख्या में देखी जा रही कमी है। कई शहरों में तो 800 - 900 क्षमता वाली इस गाड़ी में 100 से भी कम यात्री सफर करते देखे गए । इसका कारण जानने पर पता लगा कि अव्वल तो जिस गति से इस गाड़ी को चलाए जाने की बात कही जा रही थी वह  संभव नहीं हो पा रही क्योंकि आज भी पटरियों की हालत 160 कि.मी की रफ्तार  लायक नहीं है। इसके कारण जो सुपर फास्ट गाड़ियां पहले से चल रही हैं उनके और वंदे भारत द्वारा लिये जाने वाले समय में  ज्यादा अंतर नहीं आता। दूसरी बात इनकी समय सारणी भी उपयुक्त नहीं है। और सबसे बड़ी बात किराए की है जो मध्यमवर्गीय लोगों के लिए विलासिता या फिजूलखर्ची ही है। भोपाल से जबलपुर के बीच चलाई गई वंदे भारत को ही लें तो 1000 रु. की टिकिट व्यवहारिक नहीं है । समय की कुछ बचत बहरहाल अवश्य हो रही है किंतु रेलवे को ये  भी ध्यान रखना चहिए कि देश में विश्व स्तरीय सड़कों के बन जाने से उच्च मध्यमवर्गीय यात्री भी निजी वाहन से यात्रा करना पसंद करने लगे हैं । इसी तरह अनेक स्थानों से यात्रा करने पर हवाई टिकिट और रेल की  प्रथम श्रेणी वातानुकूलित टिकिट में ज्यादा अंतर नहीं बचा । थोड़ा सा  अतिरिक्त किराया देकर यदि यात्री का समय बचता है तब वह उड़कर जाना पसंद करता है। इंदौर और भोपाल के बीच टेक्सी सेवा  भी दशकों से चली आ रही है। ऐसे में वंदे भारत में  यात्रियों  को आकर्षित करने के लिए प्रतिस्पर्धात्मक किराए रखने होंगे। जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं वहां वंदे भारत गाड़ियों को प्राथमिकता के आधार पर चलाया जा रहा है किंतु जब यात्री ,  किराए की राशि देखता है तब इस गाड़ी की सुंदरता , सुविधाएं और गति वगैरह उसे महत्वहीन लगने लगती हैं। और ये मान लेना भी भूल होगी कि संपन्न वर्ग इस गाड़ी का उपयोग करेगा क्योंकि उसके लिए किराया बेमानी होता है।  रेल से यात्रा करने वालों में सभी वर्गों के लोग होते हैं। वह देखते हुए वंदे भारत के किराए को व्यवहारिक बनाया जाना जरूरी है वर्ना ये गाड़ियां रेलवे के लिए सफेद हाथी साबित होकर रह जायेंगी। चूंकि इनसे प्रधानमंत्री का नाम जुड़ा हुआ है इसलिए रेलवे का ये दायित्व बन जाता है कि वह अब तक चलाई गईं समस्त वंदे भारत रेल गाड़ियों से यात्रा कर चुके  यात्रियों की संख्या के आंकड़े एकत्र कर इस बात की समीक्षा करे कि इसे  कितना प्रतिसाद मिला है। यदि रेलवे को लगता है कि वंदे भारत गाड़ियां उसके अनुमान और आकलन के मुताबिक सही परिणाम दे रही हैं तब बात और है । अन्यथा इसके किराए को युक्तयुक्तिपूर्ण बनाया जाना चाहिए वरना ये गाड़ियां अपनी उपयोगिता खो बैठेंगी।

- रवीन्द्र वाजपेयी 

Wednesday 28 June 2023

समान नागरिक संहिता : कांग्रेस सहित विपक्ष के सामने नया धर्मसंकट



प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गत दिवस भोपाल में  समान नागरिक संहिता पर जो कुछ कहा उसे भाजपा के भावी चुनावी हथियार के  तौर पर देखा जा सकता है।  साथ ही तीन तलाक को इस्लाम का हिस्सा मानने की अवधारणा को गलत बताते हुए उन्होंने स्पष्ट किया कि भारत के दो पड़ोसी इस्लामिक देशों पाकिस्तान और बांग्ला देश के अलावा भी अनेक मुस्लिम राष्ट्र महिला विरोधी इस प्रथा को खत्म कर चुके हैं। लेकिन श्री मोदी ने  समान नागरिक संहिता पर अधिक जोर देते हुए कहा कि एक घर ( देश ) में  दो व्यक्तियों के लिए अलग कानून नहीं हो सकते और सर्वोच्च न्यायालय भी इस बारे में सरकार से कदम उठाने कह चुका है जिसके कहने  के बाद ही विधि आयोग ने समान नागरिकता कानून बनाए जाने पर विभिन्न वर्गों से राय मांगने संबंधी परिपत्र जारी किया । उच्च सूत्रों के मुताबिक केंद्र सरकार संसद के मानसून सत्र में ही उक्त कानून को पारित करवाने की तैयारी में है। प्रधानमंत्री ने भोपाल में जो कुछ कहा उस पर एआईएमआईएम के मुखिया असदुद्दीन ओवैसी ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्हें अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा द्वारा भारत में अल्पसंख्यकों के लिए खतरा बताए जाने संबंधी बयान पर ध्यान देने की नसीहत दे डाली । साथ ही कहा कि  ओबामा के बयान पर भाजपा वाले ये ढोल पीट रहे हैं कि श्री मोदी को सऊदी अरब सहित अनेक मुस्लिम देश अपने सर्वोच्च नागरिक सम्मान से विभूषित कर चुके हैं। मिस्र ने तो कुछ दिन पहले ही उन्हें अलंकृत किया । लेकिन भारत के मुसलमानों को उन देशों से कुछ लेना - देना नहीं है। बकौल ओवैसी , मोदी सरकार के तमाम काम मुस्लिम विरोधी हैं । गौरतलब है समान नागरिक संहिता के अंतर्गत मुस्लिम समाज में एक से अधिक विवाह तथा पैतृक संपत्ति में महिलाओं को उत्तराधिकार जैसे अनेक ऐसे विषय शामिल होंगे जो अन्य धर्मों से अलग हैं । वैसे भी भाजपा के तीन प्रमुख नीतिगत मुद्दों में समान नागरिक संहिता ही बच रहती है क्योंकि राम मंदिर का निर्माण पूर्णता की ओर है तथा जम्मू काश्मीर से धारा 370  भी  हटाई जा चुकी है। जहां तक समान नागरिक कानून की बात है तो विधि आयोग द्वारा सुझाव आमंत्रित किए जाने  से साफ संकेत है कि भाजपा इसको आने वाले समय में मुख्य चुनावी मुद्दा बनाने  जा रही है। कर्नाटक में  पराजय के बाद जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की रणभेरी बज रही  है उनमें मिजोरम को छोड़ बाकी में वह इस मुद्दे पर कांग्रेस सहित अन्य पार्टियों को पिछले पांव पर खड़ा होने मजबूर कर सकती है।  राहुल गांधी ने नर्म हिंदुत्व का जो प्रयोग बीते कुछ समय से करना शुरू किया उसे कांग्रेस के अन्य नेता भी चाहे - अनचाहे आजमा रहे हैं। लेकिन समान नागरिक कानून का समर्थन करने पर भाजपा विरोधी दलों को मुस्लिम मतों से हाथ धोना पड़ेगा । वहीं विरोध करने पर वे हिंदुओं के निशाने पर आए बिना नहीं रहेंगे । गौरतलब है कर्नाटक में हिजाब  और बजरंग दल जैसे मुद्दों पर मुसलमान मतदाता जिस तरह  योजनाबद्ध तरीके से भाजपा को सत्ता से हटाने के लिए जनता दल (सेकुलर) को ठेंगा दिखाते हुए कांग्रेस के पक्ष में  गोलबंद हुए ,  उसकी उत्तर भारत के हिंदुओं में जबर्दस्त प्रतिक्रिया है। इसलिए भाजपा अब समान नागरिक संहिता रूपी नया दांव चलने जा रही है , जिसका स्पष्ट संकेत प्रधानमंत्री द्वारा  भोपाल में दिए गए भाषण से मिल गया। ओवैसी ने जिस तत्परता से उसके विरोध में बयान दिया वह भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इस समय वे पूरे देश में मुसलमानों के मन में ये बात बिठाने में जुटे हैं कि यदि  वे अपना नेतृत्व विकसित करने के बजाय दूसरे दलों के पिछलग्गू बने रहे तो सियासी तौर पर पूरी तरह हाशिए पर धकेल दिए जायेंगे । हालांकि ओवैसी बिहार के पिछले विधानसभा चुनाव के अलावा कहीं और कुछ ज्यादा नहीं कर सके और बिहार के उनके विधायक भी टूट गए किंतु मुस्लिम युवाओं में उनका आकर्षण बढ़ रहा है। इसलिए  भाजपा समान नागरिक संहिता के जरिए विपक्षी दलों को धर्म संकट में  डालने जा रही है। विधि आयोग द्वारा इस पर सुझाव मांगे जाने के बाद  म.प्र में चुनाव अभियान की विधिवत शुरुआत करते हुए श्री मोदी ने जो बातें कहीं वे आने वाले चुनावों में बड़ा मुद्दा बन सकती हैं। देखने वाली बात ये होगी कि हिंदुत्व की चादर ओढ़ने की कोशिश कर रही कांग्रेस सभी धर्मों के लिए एक सा नागरिक कानून बनाए जाने पर क्या रुख अपनाती है ? उसकी दुविधा ये है कि इसका समर्थन करने पर लालू , नीतीश , ममता और अखिलेश जैसे मुस्लिम परस्त नेता उसके साथ गठबंधन करने से पीछे हट सकते हैं। प्रधानमंत्री ने तुष्टीकरण की बजाय संतुष्टीकरण करने की बात कहकर राजनीतिक जमात को बहस के लिए नया शब्द दे दिया है। विपक्ष का गठबंधन बनाने शिमला में होने वाली दूसरी बैठक में समान नागरिकता कानून पर क्या राय बनती है इस पर सबकी निगाहें लगी रहेंगी क्योंकि हिंदुत्व के पैरोकार उद्धव ठाकरे भी इस बैठक में होंगे।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Tuesday 27 June 2023

विपक्षी एकता की नाव में अभी से छेद होने लगे



2024 के लोकसभा चुनाव में  भाजपा विरोधी महागठबंधन बनाने के लिए बिहार के  मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने गत 22 जून को पटना में जो बड़ी बैठक बुलाई थी उसमें शामिल  विपक्षी नेताओं ने एकजुटता का संकल्प लेते हुए आगामी 12 जुलाई को शिमला में पुनः मिलने का निर्णय किया । कहा जा रहा है उसमें सीटों के बंटवारे का फार्मूला तय हो सकता है।  उक्त बैठक में शरीक  ज्यादातर दल चाहते थे कि कांग्रेस बड़ा दिल दिखाते हुए अन्य दलों के लिए ज्यादा सीटें छोड़े जिससे भाजपा के विरुद्ध विपक्ष का साझा उम्मीदवार खड़ा कर मतों का बंटवारा रोका जा सके। कांग्रेस ने इससे असहमति तो नहीं जताई किंतु  आश्वासन भी नहीं दिया । लेकिन  पहला अपशकुन किया आम आदमी पार्टी ने । दिल्ली सरकार के पर कतरने वाले विधेयक को राज्यसभा में रोकने की जो मुहिम अरविंद केजरीवाल चला रहे हैं उसको  समर्थन मिलने की उम्मीद जब कांग्रेस और फारुख अब्दुल्ला की तीखी टिप्पणियों से  मिट्टी में मिल गई तब उनके साथ ही भगवंत सिंह मान , संजय सिंह और राघव चड्डा संयुक्त पत्रकार वार्ता का बहिष्कार कर दिल्ली लौट गए। और आगे किसी भी ऐसी  बैठक में शामिल होने से इंकार कर दिया जिसमें कांग्रेस रहेगी। पटना में ममता बैनर्जी  ने राहुल गांधी से कहा भी कि वे श्री केजरीवाल से मिलकर मसला सुलझा लें किंतु उनकी बात भी अनसुनी कर दी गई।  इसके बाद आम आदमी पार्टी ने जहां कांग्रेस के विरुद्ध बयानों की मिसाइलें दागीं वहीं देश भर में कांग्रेस के अनेक नेताओं ने श्री केजरीवाल पर जेल जाने के डर से भाजपा की बी टीम बनने का आरोप लगा दिया। नीतीश और लालू प्रसाद यादव की पार्टी के कुछ नेताओं ने भी आम आदमी पार्टी और श्री केजरीवाल पर जमकर निशाना साधा। दूसरा मोर्चा लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी ने ममता बैनर्जी के विरुद्ध ये कहते हुए खोला कि तृणमूल कांग्रेस चोरों की पार्टी है । प.बंगाल में वह कांग्रेस को नष्ट करने पर तुली है तो किस मुंह से उससे बड़ा दिल दिखाने की उम्मीद करती है। जवाब में ममता भी ये कहते हुए सामने आईं कि कांग्रेस उनके विरुद्ध वामपंथियों से गठबंधन करने के बाद किस अधिकार से  सदाशयता की उम्मीद करती है ? तमिलनाडु में स्टालिन की कांग्रेस से नाराजगी सुनाई दे रही है। पटना से लौटे  भगवंत सिंह मान कांग्रेस पर जमकर गुस्सा निकाल रहे हैं। इस सबके कारण एक तो श्री केजरीवाल की अध्यादेश वाली मुहिम कमजोर पड़ती नजर आ रही है वहीं  नीतीश  द्वारा विपक्षी एकता की जो नाव चलाई गई उसमें नीचे से भी छेद होते दिख रहे हैं। दरअसल कांग्रेस बाकी  विरोधी दलों को ये एहसास करवाना चाह रही है कि मोदी विरोधी गठबंधन उससे ज्यादा उनके लिए  जरूरी है । पटना बैठक में तेलंगाना के मुख्यमंत्री और विपक्षी एकता के शुरुआती पैरोकार के.चंद्रशेखर राव का न आना भी चौंकाने वाला रहा । उल्लेखनीय है निकट भविष्य  में वहां विधानसभा चुनाव होने वाले हैं जिनमें श्री राव की पार्टी बीआरएस को भाजपा और कांग्रेस दोनों से मुकाबला करना पड़ेगा। कर्नाटक जीतने के बाद कांग्रेस को लग रहा है कि अपने इस पुराने दुर्ग को पुनः हासिल कर लेगी जबकि भाजपा लगातार वहां अपना जनाधार बढ़ाते हुए श्री राव की मुख्य प्रतिद्वंदी बनने के लिए जी - तोड़ प्रयास कर रही है। इन सबके चलते विपक्षी एकता केवल बैठकों तक ही सीमित लग रही है। वैसे आजकल विपक्ष में एक दूसरे को भाजपा की बी टीम कहकर बदनाम करने का फैशन चल पड़ा है। कांग्रेस और वामपंथी दल तृणमूल को भाजपा की बी टीम कहते नहीं थकते , सपा , जद (यू) और  राजद ,  ओवैसी को भाजपा का पिट्ठू बताते हैं। अखिलेश यादव की नजर में मायावती की राजनीति भाजपा को मजबूती प्रदान करने की है । और अब सारे विपक्षी दल मिलकर आम आदमी पार्टी को भाजपा का पिट्ठू साबित करने का अभियान चला रहे हैं। ये भी रोचक है कि सबको एक तरफ से चोर कहने वाले श्री केजरीवाल उन सबसे ही समर्थन की गुहार लगा रहे हैं । कुल मिलाकर विपक्षी एकता की जितनी भी कोशिशें अब तक हुईं वे कुछ समय बाद ही दम तोड़ बैठीं। 2021 के चुनाव की सफलता से उत्साहित ममता ने ये कहते हुए पहल की थी कि राहुल  में नरेंद्र मोदी को रोकने का दमखम नहीं है और वे ही वैकल्पिक चेहरा हो सकती हैं। उसके बाद श्री राव ने बागडोर संभाली किंतु  उनकी बेटी का दिल्ली शराब घोटाले में नाम आने के बाद वे  ठंडे पड़ते नजर आ रहे हैं। दूसरी तरफ यदि मनीष सिसौदिया जेल न जाते तो श्री केजरीवाल भी बाकी सभी दलों और नेताओं को भ्रष्ट साबित करने में जुटे रहते। पटना बैठक के बाद आम आदमी पार्टी , कांग्रेस और तृणमूल के बीच जिस तरह की बयानबाजी सुनाई दे रही है उससे नीतीश की कोशिश पर पानी फिरने का अंदेशा उत्पन्न हो गया है। आम आदमी पार्टी  जिस तरह ऐंठ दिखाती है वह दूध में नींबू निचोड़ने जैसा कृत्य ही है। पटना बैठक के बाद कुछ दिनों में ही जो  देखने और सुनने मिल रहा है   उससे ये आशंका उत्पन्न होने लगी है कि कांग्रेस की आम आदमी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस के साथ चल रही खुन्नस  एकता प्रयासों में रोड़ा अटका सकती है । यद्यपि अभी कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता किंतु एक बात तय है कि भाजपा के विरुद्ध विपक्ष का एक प्रत्याशी उतारने की मंशा शायद ही पूरी हो क्योंकि बिहार बैठक में जितने दल शामिल हुए उतने ही  उससे दूर भी रहे । इसलिए कुछ और मोर्चे उभरने की संभावना बनी रहेगी । और फिर ममता बैनर्जी कब क्या करने लग जाएं ये कोई नहीं बता सकता।

-रवीन्द्र वाजपेयी 



Monday 26 June 2023

पुतिन का पाला सांप उनको डसने पर ही आमादा हो गया



हालांकि  रूस में राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन का तख्ता पलटने के लिए आगे बढ़े रहे वेगनर लड़कों ने अपना अभियान रोक दिया है। उनका नेता प्रिगोझिन बेलारूस चला गया है। मॉस्को की  तरफ़ बढ़ रहे वेगनर सैनिक थम गए हैं। पुतिन के मॉस्को छोड़ देने की खबरों का खंडन भी हो रहा है। इस चौंकाने वाले घटनाक्रम से पूरी दुनिया हतप्रभ रह गई। यूक्रेन पर हमला करने के बाद पुतिन की छवि दुनिया को दूसरे विश्व युद्ध में झोंकने वाले जर्मन तानाशाह एडोल्फ हिटलर जैसी बनने लगी थी। चूंकि अमेरिका सहित तमाम पश्चिमी देश कोरोना की मार के बाद आर्थिक तौर पर काफी कमजोर हुए हैं इसलिए रूस का हमला तृतीय विश्व युद्ध का कारण तो नहीं बन सका  किंतु  अमेरिकी लॉबी के सभी देश यूक्रेन के मददगार बनकर सामने आ गए और रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाकर उसको घेरने का दांव चला। यही वजह है कि सवा साल से ज्यादा बीत जाने के बावजूद पुतिन , यूक्रेन की राजधानी कीव पर अपना झंडा फहराने में कामयाब नहीं हो सके। भले ही बुरी तरह तबाह होने से यूक्रेन की अर्थव्यवस्था चरमरा चुकी है किंतु आज भी वह रूस के सामने झुकने तैयार नहीं है। उल्लेखनीय बात ये है कि बर्बादी के इस दौर में भी उसकी जनता अपनी सरकार के साथ है। हालांकि ये सब विदेशी समर्थन और सहायता से ही संभव है। दूसरी तरफ रूस में यूक्रेन पर हमले के पुतिन के फैसले के विरोध में शुरूआत से ही आवाजें उठ रही हैं। अनेक उद्योगपतियों एवं राजनेताओं ने जब उक्त निर्णय पर सवाल उठाए तो वे स्टालिन युग की तरह से ही गायब हो गए। संदेह ये है कि उनको मौत की नींद सुला दिया गया। रूस में गोपनीय ढंग से अपने विरोधी को खत्म करने का चलन 1917 की साम्यवादी क्रांति के बाद से चला आया है । पुतिन खुद अतीत में उस कुख्यात केजीबी नामक खुफिया संस्था के मुखिया रहे हैं जो इस तरह के काम करती रही। इसलिए सत्ता संभालने के बाद उन्होंने जिस क्रूरता का परिचय समय - समय पर दिया उससे स्टालिन युग की स्मृतियां सजीव हो उठीं। वेगनर नामक निजी सेना को भी पुतिन का मानस पुत्र कहा जाता है। उसका मुखिया प्रिगोझिन उनका रसोइया हुआ करता था। यूक्रेन पर किए हमले में रूसी सेना के साथ वेगनर लड़ाके भी साथ रहे । इस सेना ने वहां के कुछ शहरों पर कब्जा करने में निर्णायक भूमिका निभाई। वेगनर लड़ाके बड़े ही क्रूर किस्म के माने जाते हैं। उनके पास सेना जैसा साजो - सामान और प्रशिक्षण है। कुख्यात अपराधी इसमें भर्ती किए जाते हैं। इसका गठन क्यों और किसलिए किया गया ये बड़ा सवाल है किंतु अचानक वेगनर ने  यूक्रेन को छोड़कर मास्को का रुख क्यों किया और सैन्य मुख्यालय वाले  दो शहरों पर कब्जा करने के बाद पुतिन का तख्तापलट करने का इरादा क्यों जताया ये सवाल बीच में ही अटक गया जब सोवियत संघ का  हिस्सा रहे पड़ोसी  बेलारूस ने प्रिगोझिन को अपने यहां बुलाकर सुरक्षा का आश्वासन दिया। कहने को तो बगावत का यह प्रयास फिलहाल असफल होता दिख रहा है लेकिन पुतिन ने प्रिगोझिन को गद्दार बताते हुए सजा देने का ऐलान कर ये साफ कर दिया है कि वे वेगनर का मास्को प्रस्थान रुकने के बाद भी संतुष्ट नहीं हैं और अपनी चिरपरिचित शैली में इस निजी सेना को नष्ट करने से बाज नहीं आयेंगे। दुनिया ये सोचकर हतप्रभ है कि आज के युग में रूस जैसी विश्व शक्ति में पूरी तरह से सुसज्जित  निजी सेना का औचित्य क्या है और यूक्रेन पर हमले के दौरान पेशेवर सेना के साथ वेगनर का उपयोग करने के पीछे पुतिन की मंशा क्या थी ? सवाल और भी हैं किंतु इस घटना से एक बात साफ हो गई कि पुतिन का यूक्रेन दांव उनके गले पड़ गया है। ऐसा लगता है उन्होंने प्रिगोझिन के साथ कोई गुप्त समझौता किया था जिसका पालन न हो पाने के कारण वे  नाराज होकर उन्हीं का तख्ता पलटने पर आमादा हो गये। ये जानकारी भी मिल रही है कि वेगनर , पुतिन की समानांतर सेना जैसा ही है जिसका  उपयोग वे अनेक देशों में कर चुके हैं। अप्रत्यक्ष तौर पर यह एक आतंकवादी संगठन ही है जिसमें अपराधी तत्वों को भर्ती कर वे अपने गुप्त एजेंडे को अंजाम देते रहे । पश्चिम एशिया के अनेक देशों में  रूस की सैन्य उपस्थिति  वेगनर के जरिए ही बताई जाती है। ऐसा लगता है जिस तरह अमेरिका का पाला - पोसा ओसामा बिन लादेन उसी के लिए जहरीला नाग बन बैठा ठीक वैसा ही वेगनर भी पुतिन के लिए बन गया है। ये भी संभव है कि प्रिगोझिन को पश्चिमी देशों ने अपने पाले में खींचकर उससे पुतिन का तख्ता पलटने का सौदा किया हो। हालांकि ऐसे मामलों में सच्चाई का तत्काल सामने आना मुश्किल होता है लेकिन देर - सवेर इसके पीछे अमेरिका और रूस के खुफिया तंत्र के बीच की जंग भी हो सकती है। इस समय वेगनर द्वारा किए गए दुस्साहस के अंजाम का आकलन करना तो जल्दबाजी होगी किंतु  जिस तरह से प्रिगोझिन और पुतिन एक - दूसरे को धमका रहे हैं उससे लगता है कुछ न कुछ ऐसा जरूर है जिसने पुतिन जैसे सर्वशक्तिमान समझे जा रहे शासक के अति विश्वस्त व्यक्ति को ही उनका दुश्मन बना दिया । इसे उनके पतन की शुरुआत भी माना जा सकता है क्योंकि यूक्रेन में अपने देश को उलझाकर उन्होंने हिटलर जैसी गलती कर दी जो अंततः उसके लिए ही नहीं अपितु जर्मनी के लिए भी आत्मघाती साबित हुई। कूटनीति के किसी जानकार की ये कहावत काफी प्रसिद्ध है कि तानाशाह शेर की पीठ पर सवार तो हो जाते हैं किंतु उतर नहीं पाते। फिलहाल पुतिन की स्थिति भी वैसी ही होकर रह गई है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Saturday 24 June 2023

केजरीवाल की मजबूरी का फायदा उठाना चाह रही कांग्रेस

 केजरीवाल की मजबूरी का फायदा उठाना चाह रही कांग्रेस 


पटना में आयोजित विपक्ष की बैठक संपन्न हो गई। 15 दलों ने एक साथ मिलकर भाजपा को हराने की कसम खाई । ममता बैनर्जी यहां तक कह गईं कि  इसके लिए खून बहाना पड़े तो भी बहाएंगे। शरद पवार , सुप्रिया सुले , मल्लिकार्जुन खरगे , राहुल गांधी ,  उद्धव ठाकरे , आदित्य ठाकरे , स्टालिन अखिलेश यादव , हेमंत सोरेन , फारुख अब्दुल्ला , मेहबूबा मुफ्ती , लालू प्रसाद यादव , तेजस्वी ,  अरविंद केजरीवाल  और भगवंत सिंह मान आदि तमाम नेता बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार  के आमंत्रण पर उक्त बैठक में शामिल हुए किंतु उड़ीसा , तेलंगाना और आंध्र के मुख्यमंत्री क्रमशः नवीन पटनायक , के.सी.राव और जगन मोहन रेड्डी के अलावा तेलुगु देशम के चंद्रबाबू नायडू , बसपा प्रमुख मायावती , अकाली दल के सुखबीर बादल , लोकदल के जयंत चौधरी आदि की गैर मौजूदगी भी उल्लेखनीय रही। असदुद्दीन ओवैसी को भी बुलाया ही नहीं गया।  बैठक में एक बात पर तो सहमति बनी कि भाजपा को 2024 के लोकसभा चुनाव में रोकने सभी एकजुट होकर संयुक्त प्रत्याशी खड़ा करें किंतु किसे कितनी सीटें दी जायेंगी इस पर फैसला आगामी बैठकों के लिए टाल दिया गया । आगामी माह 12 तारीख को शिमला में दोबारा उक्त नेता मिलकर आगे की रणनीति बनाएंगे।  बैठक में मतभेद भी उभरे और कहा सुनी भी हुई। दिल्ली अध्यादेश के मुद्दे पर राज्यसभा में मोदी सरकार के विरोध पर श्री केजरीवाल को  दर्जन भर विपक्षी दलों के समर्थन का आश्वासन मिलने के बावजूद कांग्रेस ने अपने पत्ते नहीं खोले। इसीलिए आम आदमी पार्टी ने बैठक के पूर्व ही दबाव बना दिया था कि पहले इस विषय पर फैसला हो। लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष श्री खरगे ने ये कहते हुए श्री केजरीवाल को रोका कि ये विषय  बैठक की विचार सूची नहीं होने से इस पर विमर्श उचित नहीं है और संसद का विषय होने से इस पर बाद में विचार किया जावेगा। डॉ.अब्दुल्ला ने भी श्री केजरीवाल पर तंज कसा कि उनकी पार्टी ने जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाए जाने के प्रस्ताव का संसद में समर्थन कर विपक्ष की आम राय के विरोध का दुस्साहस किया था। कुछ और नेताओं ने भी श्री केजरीवाल को ज़िद न करने की सलाह दी। इसका असर ये हुआ कि आम आदमी पार्टी के सभी नेता  बैठक की समाप्ति के बाद एकता का प्रदर्शन करने आयोजित की गई पत्रकार वार्ता में शामिल हुए बिना लौट गए। साथ ही श्री केजरीवाल का ये बयान भी आ गया कि जब तक अध्यादेश के विरोध का फैसला नहीं होता वे कांग्रेस के साथ किसी भी अगली बैठक में शिरकत नहीं करेंगे। हालांकि इस संबंध में एक बात गौरतलब है कि जिन दलों ने आम आदमी पार्टी के अनुरोध पर उक्त अध्यादेश का राज्यसभा में विरोध करने का आश्वासन दिया है वे भी पटना बैठक में श्री केजरीवाल के पक्ष में नहीं बोले जिससे वे अलग - थलग पड़ गए। इस तरह कांग्रेस इस बारे में सफल रही क्योंकि आम आदमी पार्टी से सबसे ज्यादा खतरा फिलहाल उसे ही नजर आ रहा है। उसकी ये सोच है कि इस मुद्दे पर श्री केजरीवाल को झुकाया जा सकता है जो राजस्थान , म.प्र और छत्तीसगढ़ में जोर - शोर से आम आदमी पार्टी को चुनाव लड़वाने जा रहे हैं। पटना बैठक  में कांग्रेस अध्यक्ष श्री खरगे ने आम आदमी पार्टी के नेताओं द्वारा हाल ही में दिए कांग्रेस विरोधी बयानों का उल्लेख भी किया । इसके कारण श्री केजरीवाल को असहज स्थिति का सामना करना पड़ गया जो ये उम्मीद लेकर पटना पहुंचे थे कि उनके दबाव के सामने कांग्रेस झुक जायेगी किंतु उल्टे  उनको ही अपनी आलोचना सुनना पड़ी। पटना से खाली हाथ लौटने के बाद आम आदमी पार्टी क्या करती है इस पर सभी की निगाहें लगी रहेंगी क्योंकि उसके लिए 2024 के लोकसभा चुनाव से ज्यादा महत्वपूर्ण उस अध्यादेश को कानून बनने से रोकना है जिसके कारण सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद भी केजरीवाल सरकार के हाथ से अधिकारियों के तबादले और पोस्टिंग के अधिकार छिन गए। पार्टी इस बात को लेकर चिंतित है कि यदि संसद में भी उक्त अध्यादेश को मंजूरी मिल गई तब दिल्ली सरकार की स्थिति सर्कस के शेर जैसी होकर रह जायेगी। कांग्रेस भी इस मुद्दे पर बेहद सतर्क है क्योंकि 2014 में भाजपा को रोकने के लिए दिल्ली में श्री केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनवाने हेतु समर्थन देने का खामियाजा वह आज तक भुगत रही है। इसलिए वह इस बार जल्दबाजी से बचने की नीति पर चल रही है। उसे ये समझ  में आ गया है कि इस मुद्दे पर वह आम आदमी पार्टी को झुकने मजबूर कर सकती है जो उसका विरोध करने का कोई भी अवसर नहीं गंवाती। राजस्थान के हालिया दौरे में श्री केजरीवाल ने जिस आक्रामक शैली में  गहलोत सरकार और कांग्रेस पर हमले किए उनसे पार्टी काफी नाराज है जिसका संकेत श्री खरगे ने उक्त बैठक में श्री केजरीवाल को दिया भी। दिल्ली में भी आम आदमी पार्टी सरकार के मंत्रियों द्वारा पत्रकार वार्ता में कांग्रेस पर लगाए आरोपों से भी वह खफा है। और यही वजह है कि श्री खरगे और श्री गांधी द्वारा अब तक  श्री केजरीवाल को मुलाकात का  समय नहीं दिया गया।  ये लड़ाई कहां तक पहुंचेगी ,  कहना कठिन है क्योंकि दोनों पक्ष एक दूसरे की मजबूरी का लाभ लेना चाहते हैं। कांग्रेस की दूरगामी नीति आम आदमी पार्टी को  भाजपा की बी टीम प्रचारित करने की है। ऐसे में श्री केजरीवाल द्वारा लोकतंत्र पर खतरे का जो भावनात्मक कार्ड चला गया है , उससे प्रभावित होने की बजाय कांग्रेस अपने पत्ते विशुद्ध व्यवहारिक  तरीके से चल रही है। ये कहना भी गलत  न होगा कि अध्यादेश के मुद्दे पर श्री केजरीवाल की नस उसने दबा रखी है। इस मुकाबले में कौन जीतेगा ये तो आने वाला समय ही  बताएगा किंतु इसका असर विपक्षी एकता के प्रयासों पर भी पड़ सकता है क्योंकि आम आदमी पार्टी खेलेंगे नहीं तो खेल बिगाड़ेंगे वाली स्थिति में तो आ ही गई है । 

-रवीन्द्र वाजपेयी 

Friday 23 June 2023

अमेरिका : स्वागत से ज्यादा सौदे और समझौते महत्वपूर्ण हैं



प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका  यात्रा चर्चा में है। उनके भव्य स्वागत का ब्यौरा समाचार माध्यम प्रसारित कर रहे हैं। राष्ट्रपति जो बाइडेन ने उनके लिए निजी रात्रि भोज रखा जिसे अमेरिकी कूटनीति के मुताबिक अति विशिष्ट माना  जाता है। गत रात्रि प्रधानमंत्री ने अमेरिकी  कांग्रेस (संसद)  को भी संबोधित किया । अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर संरासंघ मुख्यालय पर उनके द्वारा योग के कार्यक्रम में हिस्सा लेना  भारत की सांस्कृतिक कूटनीति का सफल प्रदर्शन कहा जायेगा। योग को वैश्विक स्वीकृति दिलवाने में 9 वर्ष पूर्व प्रधानमंत्री ने संरासंघ में दिए अपने प्रथम भाषण में ही जो प्रयास किया वह फलीभूत हो गया ।  अमेरिका के राष्ट्रपति से यूं तो श्री मोदी की भेंट अनेक अवसरों पर हो चुकी है किंतु यह यात्रा इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद अमेरिका और उसके  समर्थक देशों ने जहां रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए वहीं भारत ने संतुलित कूटनीति अपनाते हुए एक तरफ रूस से रिश्ते बनाए रखते हुए अपने व्यापारिक और सामरिक हितों का संरक्षण किया वहीं दूसरी ओर युद्ध रोकने की दिशा में प्रयास जारी रखते हुए यूक्रेन की सद्भावना भी अर्जित की । संरासंघ में रूस विरोधी जितने भी प्रस्ताव अमेरिकी लॉबी द्वारा लाए गए उनमें तटस्थ रहकर भारत ने खुद को पक्ष बनने से रोके रखा और यही कारण है कि इस संकट के दौरान जब समूचा यूरोप तेल और गैस के संकट से हलाकान हो उठा तब भारत तेल का निर्यात करने की स्थिति में आ गया। इसी का परिणाम है कि जब पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था अस्त व्यस्त हो चली है तब भारत में दुनिया को संभावनाएं नजर आ रही हैं । शुरूआत में ये आशंका थी कि यूक्रेन पर रूस के हमले का विरोध नहीं किए जाने के कारण अमेरिका और भारत के रिश्तों पर बुरा असर पड़ेगा । कुछ समय के लिए अमेरिका के साथ पश्चिमी देशों ने दबाव बनाया भी किंतु जल्द ही वे भांप गए कि मौजूदा वक्त में भारत की उपेक्षा करना अब आसान नहीं रहा । एक तरह से वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ ही शक्ति संतुलन के लिए भारत दुनिया की जरूरत बन गया है । अमेरिका के मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडेन के बारे में कहा गया था कि वे पाकिस्तान के पक्षधर हैं किंतु विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में उन्होंने जिस प्रकार प्रधानमंत्री श्री मोदी के साथ भेंट की उससे वह अवधारणा गलत साबित हुई। सबसे बड़ी बात ये है कि जो अमेरिका , भारत से इस बात से नाराज रहता था कि वह रूस के साथ बड़े रक्षा सौदे करता है , वही आज भारत को  न सिर्फ रक्षा उपकरण बेचने अपितु लड़ाकू वायुयान  के एंजिन का उत्पादन यहां करने का समझौता करने तैयार है। इलेक्ट्रिक वाहनों के सबसे बड़े निर्माता टेस्ला के मालिक एलन मस्क ने भी अपनी अकड़ त्यागकर भारत में कारखाना लगाने की इच्छा व्यक्त कर दी। सेना के लिए अत्याधुनिक ड्रोन भी अमेरिका देने राजी हो गया। अनेक अमेरिकी उद्योगपति भारत में अपनी इकाई लगाने आतुर हैं। एलन मस्क का ये   कहना बेहद महत्वपूर्ण है कि भारत व्यवसाय हेतु सर्वथा उपयुक्त देश है। इस सबसे चीन को सबसे ज्यादा परेशानी हो रही है । दक्षिण एशिया में अमेरिका , भारत , जापान और ऑस्ट्रेलिया के संगठन क्वाड से बीजिंग वैसे ही परेशान है। भारत की आर्थिक वजनदारी बढ़ने से चीन को विश्व बाजार में अपनी हिस्सेदारी घटने का डर लग रहा है। उसकी आर्थिक विकास दर भी गिरावट की ओर है। कोरोना संकट ने उसकी विश्वसनीयता में जो कमी की उससे वह उबर नहीं पा रहा। श्री मोदी की अमेरिका यात्रा से पाकिस्तान  भी भन्नाया हुआ है क्योंकि उसके लाख गिड़गिड़ाने के बाद भी अमेरिका उसकी आर्थिक बदहाली दूर करने राजी नहीं हुआ और भारत के साथ रक्षा सौदे करने जा रहा है । वर्तमान वैश्विक हालात में एक साथ रूस और अमेरिका के साथ दोस्ताना बनाए रखने के अलावा भारत ने सउदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात जैसे मुस्लिम देशों के साथ ही इजरायल से प्रगाढ़ रिश्ते बनाए रखकर जिस कूटनीतिक कुशलता का परिचय दिया वह उसके विश्व शक्ति बनने का संकेत है । अन्यथा अमेरिका यूक्रेन संकट पर भारत द्वारा अपनाई गई तटस्थता को अपना विरोध मानकर उसके साथ असहयोग करने से बाज नहीं आता।   जी - 20 देशों की अध्यक्षता कर रहे भारत को ताकतवर देशों के उन समूहों में  भी विशेष तौर पर बुलाया जाने लगा है जिनका वह औपचारिक तौर पर सदस्य नहीं है। श्री मोदी की मौजूदा अमेरिका यात्रा का बखान राष्ट्रपति बाइडेन द्वारा की गई मेजबानी के लिए नहीं अपितु इस दौरान हुए विभिन्न आर्थिक , सैन्य और रणनीतिक समझौतों के लिए किया जाना चाहिए। भारत इस समय रक्षा सामग्री के सबसे बड़े खरीददार के साथ ही लड़ाकू विमान और मिसाइल के निर्यात के क्षेत्र में भी आगे आ रहा है। ऐसे में भारत में जेट एंजिन के निर्माण का समझौता ऐतिहासिक है। टेस्ला इलेक्ट्रिक वाहनों का कारखाना लगाने की एलन मस्क की रजामंदी भी इस बात का प्रमाण है कि हम अपनी शर्तों पर काम करने के लिए दिग्गज बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को बाध्य कर सकते हैं। उल्लेखनीय है भारत आगामी दस सालों में इलेक्ट्रिक वाहनों का सबसे बड़ा बाजार होने जा रहा है। अमेरिकी कांग्रेस  को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने  ए. आई ( आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस ) को अमेरिका और इंडिया बताकर जो संदेश दिया वह भविष्य की ओर इशारा है। उन्होंने अमेरिकी सांसदों को भारत के सामने स्पष्ट कर दिया कि जल्द ही हम दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने जा रहे हैं।  पूरी यात्रा में वे जिस तरह से पेश आए और जिस प्रकार अमेरिकी सरकार ने उन्हें महत्व दिया वह भारत के बढ़ते आत्मविश्वास और सम्मान का प्रमाण है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Thursday 22 June 2023

आम आदमी पार्टी बनेगी विपक्षी एकता में बाधक




बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इन दिनों अपने राज्य पर कम और राष्ट्रीय राजनीति पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं । विगत एक साल में उनकी पार्टी के अलावा राज्य में सत्तारूढ़ महागठबंधन के अनेक घटक उनसे छिटक चुके हैं जिनमें पूर्व केंद्रीय मंत्री आरपीएन सिंह के अलावा उपेंद्र कुशवाहा भी हैं। हाल ही में पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी भी गठबंधन से बाहर आ गए और वे भाजपा के साथ जुड़ने के लिए गत दिवस दिल्ली में गृह मंत्री अमित शाह से भी मिल लिए।   लेकिन इस सबसे बेखबर नीतीश 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए विपक्ष का संयुक्त मोर्चा बनाने के लिए जी तोड़ प्रयास कर रहे हैं। इस हेतु बहुप्रतीक्षित बैठक शुक्रवार 23 जून को पटना में आयोजित है जिसमें शरद पवार , ममता बैनर्जी , राहुल गांधी , अखिलेश यादव , स्टालिन  सहित तमाम विपक्षी नेता शामिल हो रहे हैं। मायावती और ओवैसी सहित कुछ के बारे में असमंजस बना हुआ है । नीतीश चाहते हैं कि विपक्षी मोर्चा इस तरह का बने जिसमें भाजपा के विरुद्ध एक सीट पर एक संयुक्त उम्मीदवार खड़ा करने की सहमति बन जाए। इसके लिए कांग्रेस पर यह दबाव डाला जा रहा है कि वह अधिकतम 250 सीटों पर लड़ने पर सहमत हो जाए जिससे कि बाकी दलों को भी समुचित अवसर मिल सके। हालांकि इसके पीछे सोच यही है कि कांग्रेस को इतना ताकतवर न होने दिया जाए जिससे वह क्षेत्रीय दलों पर हावी हो सके। कुछ लोगों का मानना है कि भाजपा का भय दिखाकर नीतीश खुद प्रधानमंत्री बनने की बिसात बिछा रहे हैं । हालांकि ममता बैनर्जी उनकी राह का रोड़ा बने बिना नहीं रहेंगी। कल पटना में होने जा रहे समागम में संयुक्त मोर्चे की संभावना मजबूत होगी या अंत में एक साथ खड़े होकर  समूह चित्र खिंचवाकर सब अपनी राह पकड़ लेंगे ये आज तक कहना कठिन है क्योंकि   जो भी दल इस बैठक में आ रहे हैं उनका अपना स्वार्थ है और वे बजाय कांग्रेस या नीतीश को ताकतवर बनाने के अपनी जमीन मजबूत करना चाहेंगे। इसका प्रमाण तब मिला जब तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और द्रमुक अध्यक्ष स्टालिन ने कांग्रेस से नाराजगी की वजह से पटना आने से इंकार कर दिया था। ऐसे में बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव को नीतीश ने चेन्नई दौड़ाया । उनकी मनुहार के बाद स्टालिन आने राजी तो हो गए लेकिन कांग्रेस के प्रति उनकी नाराजगी इसलिए चौंकाने वाली है क्योंकि तमिलनाडु में दोनों का गठबंधन है । ऐसा लगता है स्टालिन लोकसभा चुनाव में कांग्रेस द्वारा ज्यादा सीटें मांगे जाने की आशंका के कारण कांग्रेस पर अभी से दबाव बनाने की नीति पर चल रहे हैं जो की कमोबेश बाकी विपक्षी दलों की भी नीति है । लेकिन इस बैठक के पहले सबसे  ज्यादा रायता फैलाने का काम कर रही है आम आदमी पार्टी। उसके मुखिया अरविंद केजरीवाल ने  सभी आमंत्रित दलों को चिट्ठी भेजकर ये शर्त रख दी है कि बैठक में सबसे पहले दिल्ली सरकार से ट्रांसफर - पोस्टिंग का अधिकार छीनने वाले अध्यादेश का संसद में विरोध किए जाने पर निर्णय होना चाहिए। इसे लेकर श्री केजरीवाल विभिन्न राज्यों में जा - जाकर विपक्षी नेताओं से मिल चुके हैं किंतु कांग्रेस ने उनको अब तक मिलने का समय नहीं दिया। उसके बाद वे हाल ही में राजस्थान में कांग्रेस की गहलोत सरकार पर जोरदार हमला कर चुके हैं । म. प्र में भी उनकी पार्टी जोर - शोर  से मैदान में उतर रही है। ऐसी स्थिति में कांग्रेस उनका समर्थन करेगी इसमें संदेह है। और यही बात विपक्षी एकता के प्रयासों में बाधा बन सकती है। कांग्रेस के भीतर आम आदमी पार्टी को लेकर जबरदस्त विरोध है। नीतीश जो कोशिश कर रहे हैं उसमें पहले ममता और के.सी राव बाधा थे। अब श्री केजरीवाल उस भूमिका में हैं। उनकी शर्त स्वीकार न हुई तो पटना बैठक की सफलता पर आशंका के बादल मंडराने लगेंगे। क्या होगा इसका पता तो बाद में चलेगा लेकिन इतना तय है कि आम आदमी पार्टी इस गठबंधन में झगड़े की जड़ बनी रहेगी क्योंकि उसकी नजर में बाकी सभी पार्टियां और नेता बेईमान हैं । नीतीश कुमार की मुसीबत तो ये है कि वे ख़ुद लालू के शिकंजे में फंसे हुए हैं। तेजस्वी की नजर मुख्यमंत्री पद पर लगी हुई है। विपक्ष के बाकी नेताओं के पोस्टर पटना में चिपकने से ये भी साफ है कि कोई अपनी पहिचान खोना नहीं चाहता। ये देखते हुए इस बैठक से ज्यादा उम्मीदें लगाना जल्दबाजी होगी । इसी साल होने वाले 5 राज्यों की विधानसभा के चुनावों के बाद कांग्रेस का क्या होता है उस पर बहुत कुछ निर्भर करेगा।

- रवीन्द्र वाजपेयी 

Wednesday 21 June 2023

नीलेकणी ने गुरु दक्षिणा का आदर्श रूप प्रस्तुत किया



किसी शिक्षण संस्थान की ख्याति इस पर निर्भर करती है कि वहां से कौन - कौन सी हस्तियों ने शिक्षा प्राप्त की। ऑक्सफोर्ड  , कैंब्रिज और हार्वर्ड विवि की शोहरत इसी बात से है कि दुनिया भर में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाने वाले सैकड़ों दिग्गज उनके छात्र रहे हैं। भारत में  यही दर्जा आईआईटी (इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी ) को प्राप्त है। जिससे शिक्षित विद्यार्थी देश के अलावा पूरी दुनिया में भारत की कीर्ति पताका फहरा रहे हैं । इनसे निकले छात्र इस संस्थान के प्रति कृतज्ञता का भाव प्रदर्शित करने में कभी नहीं हिचकते किंतु इंफोसिस नामक कंपनी के सह संस्थापक नंदन नीलेकणी ने मुंबई आईआईटी से जुड़ाव के 50 साल पूरे होने पर उसे 325 करोड़ रु. का दान देकर एक उदाहरण पेश किया है। इसके पूर्व भी वे इस संस्थान को 85 करोड़ रु. दे चुके थे। इस प्रकार उनके योगदान की कुल राशि 400 करोड़ रु. हो गई । श्री नीलेकणी द्वारा दान दी गई उक्त राशि मुंबई आईआईटी में विश्व स्तरीय इंफ्रा स्ट्रक्चर के विकास के साथ ही तकनीकी शोध पर व्यय की जावेगी। इस बारे में उन्होंने कहा कि 50 साल पूर्व इस संस्थान में उनके जीवन की आधारशिला रखी गई थी जिसके कारण मुझे बहुत कुछ हासिल हुआ। श्री नीलेकणी को पूरे विश्व में अनेक सम्मान हासिल हो चुके हैं। पद्म विभूषण से अलंकृत इस उद्यमी को भारत में आधार कार्ड योजना को सफलतापूर्वक लागू करने के लिए भी जाना जाता है। वर्तमान में वे  इंफोसिस के अध्यक्ष हैं। हालांकि पूर्व छात्रों द्वारा अपने शिक्षण संस्थान को आर्थिक सहायता देने के अनेकानेक उदाहरण हैं लेकिन श्री नीलेकणी द्वारा प्रदत्त राशि निश्चित रूप से उल्लेखनीय है। हालांकि आईआईटी और उसी के समकक्ष आईआईएम जैसे संस्थानों से निकले ज्यादातर छात्र आर्थिक तौर पर संपन्न होते हैं ।  ऐसा ही कुछ अन्य संस्थानों के साथ भी है। देश में अनेक एनआईटी भी हैं जिनसे निकली प्रतिभाएं किसी से कम नहीं हैं। चिकित्सा शिक्षा के क्षेत्र में एम्स का भी बड़ा नाम है जिसके पूर्व  छात्र  अच्छी सफलता हासिल करते हैं। अच्छी शिक्षा ग्रहण करने के बाद धन कमाना बुरा नहीं है किंतु  जिस संस्थान ने आपका भविष्य उज्ज्वल बनाने में योगदान दिया यदि पूर्व छात्र उसके भविष्य को सुदृढ़ बनाने के लिए श्री नीलेकणी जैसी उदारता दिखाएं तो देश में उच्च शिक्षा का स्तर वाकई विश्वस्तरीय हो सकता है। भारत को यदि विश्वशक्ति बनना है तब उसको शिक्षा का बड़ा केंद्र भी बनना होगा ताकि बजाय इसके क हमारे युवा विदेशों में शिक्षा ग्रहण करने जाएं ,   विदेशों से छात्र भारत पढ़ने आएं। प्राचीनकाल में ऐसा होता भी था लेकिन तब और अब की शिक्षा में जमीन - आसमान का अंतर है । दुनिया के तमाम विकसित देशों की प्रगति में उनके शिक्षण संस्थानों में होने वाले शोध का महत्वपूर्ण योगदान है। जिनको पेटेंट करवाकर वे उससे खूब कमाई करते हैं और संस्थान का भी विकास होता जाता है। आईआईटी और आईआईएम इस दिशा में अच्छा काम कर रहे हैं। टीसीएस, इंफोसिस और विप्रो जैसी निजी कंपनियों ने भी विश्व स्तर पर अपनी धाक जमाई है। लेकिन हम अभी बहुत पीछे हैं। और इस कमी को दूर करने में श्री नीलेकणी जैसी सोच रखने वाले व्यक्तियों की ज़रूरत है। हमारे देश में धार्मिक कार्यों के लिए दान करने का संस्कार काफी प्रबल है। अनेक औद्यगिक घराने शिक्षण संस्थान और अस्पताल आदि भी बनवा रहे हैं। इससे सेवाओं का विस्तार तो हुआ है किंतु इनके साथ जुड़ी व्यावसायिकता के कारण ज्यादातर अपने सामाजिक सरोकार की उपेक्षा कर बैठते हैं। सरकार द्वारा आय का  2 फीसदी सामाजिक कल्याण के लिए दान करने का नियम बनने के बाद सरकारी और निजी कंपनियां इस दिशा में काफी योगदान देने लगी हैं। लेकिन श्री नीलेकणी ने मुंबई आईआईटी को व्यक्तिगत तौर पर जो दान दिया वह बहुत ही दूरदर्शिता पूर्ण निर्णय है। हर पूर्व छात्र इतना बड़ा दान  करे ये संभव नहीं किंतु गुरु दक्षिणा का यह आधुनिक रूप यदि प्रत्येक छात्र कुछ सीमा तक ही अपना ले और जिस सरकारी विद्यालय , महाविद्यालय अथवा विश्व विद्यालय से उसने  शिक्षा ग्रहण की उसके विकास हेतु छोटी सी भी राशि समय - समय पर देता रहे तो 21 वीं सदी के भारत में शिक्षा का स्तर सुधारने का  बड़ा काम हो सकता है।   श्री नीलेकणी ने जो राशि मुंबई आईआईटी को दी वह अन्य लोगों के लिए भी प्रेरणा का स्रोत हो सकती है जो अपने बेटे - बेटियों की  डेस्टिनेशन शादी पर इतना खर्च करते हैं जिससे दस - 20 विद्यालय बनाए जा सकते हैं  या फिर सैकड़ों जरूरतमंद विद्यार्थियों को शिक्षित बनाकर अपने पैरों पर खड़ा किया जा सकता है। देश में करोड़पतियों की बढ़ती संख्या निश्चित रूप से उत्साहित करती है किंतु यदि वे श्री नीलेकणी का थोड़ा सा भी अनुसरण करें तो  संपन्न होने के साथ ही सम्मान के भी पात्र हो जायेंगे।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Tuesday 20 June 2023

गीता प्रेस का विरोध मानसिक खोखलेपन का प्रमाण



जब भी सनातन धर्म से जुड़े शुद्ध और प्रामाणिक साहित्य के प्रकाशन का जिक्र आता है तब दुनिया भर में फैले करोड़ों हिन्दू उ.प्र के गोरखपुर नगर में स्थित गीता प्रेस का स्मरण करते हैं। कुछ साल पहले जब ये समाचार फैला कि आर्थिक संकट के चलते गीता प्रेस बंद होने के कगार पर पर है तो सोशल मीडिया सहित विभिन्न माध्यमों में लाखों लोगों ने उसकी सहायता की पेशकश की जिसे उक्त संस्थान ने विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया। 1923 में स्थापित गीता प्रेस ने अब तक करोड़ों धार्मिक पुस्तकों का न सिर्फ प्रकाशन किया अपितु उसे नाममात्र के मूल्य पर पाठकों तक पहुंचाने का भागीरथी कार्य भी  करता आया है। उसकी मासिक पत्रिका कल्याण के लाखों पाठक हैं। इसका वार्षिक विशेषांक भी अपने आप में एक शोध प्रबंध होता है। लंबे समय तक गीता प्रेस के संपादक रहे ब्रह्मलीन हनुमान प्रसाद पोद्दार ने भारत के प्राचीन आध्यात्मिक ज्ञान को साहित्य के माध्यम से सहेजने का जो महान कार्य किया उसके लिए उनको भारत रत्न दिए जाने की मांग भी होती रही है। गीता प्रेस चाहता तो अपने प्रकाशनों में विज्ञापन छापकर करोड़ों रु. कमा सकता था किंतु उसने सदैव व्यावसायिकता से दूर रहते हुए सनातन धर्म की साहित्य रूपी विरासत को अक्षुण्ण रखने के प्रति अपने को समर्पित रखा । और इसीलिए उसके प्रति श्रद्धा रखने वाले अनगिनत लोग हैं। ऐसे संस्थान का शताब्दी वर्ष निश्चित रूप से सनातन धर्म के करोड़ों अनुयायियों के लिए हर्ष और आत्मगौरव का विषय है। केंद्र सरकार को इस बात के लिए बधाई दी जानी चाहिए जिसने वर्ष 2021 का गांधी शांति पुरस्कार गीता प्रेस को दिए जाने का निर्णय लिया। हालांकि यह संस्थान किसी पुरस्कार अथवा सम्मान का मोहताज नहीं है किंतु सकारात्मक और उच्च स्तरीय आध्यात्मिक साहित्य का जो प्रकाशन उसके द्वारा किया गया वह सनातन धर्म की सबसे बड़ी सेवा कही जा सकती है। पुरस्कार की घोषणा होते ही दुनिया भर से बधाई संदेश आने लगे । लेकिन देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस के अति उच्च शिक्षित प्रवक्ता जयराम रमेश ने गीता प्रेस को पुरस्कृत किए जाने की तुलना सावरकर और गोडसे को पुरस्कृत किए जाने से करते हुए अपनी खिसियाहट निकाली। लेकिन उनकी यह प्रतिक्रिया कांग्रेस के ही अनेक नेताओं को रास नहीं आई। आचार्य प्रमोद कृष्णम ने तो गीता प्रेस के विरोध को हिंदू धर्म के विरोध की पराकाष्ठा बताते हुए चेतावनी दी कि पार्टी के जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों को ऐसे बयान नहीं देने चाहिए जिनसे होने वाले नुकसान की भरपाई में सदियां लग जाएं। यद्यपि पार्टी की अधिकृत प्रतिक्रिया अभी तक नहीं आना चौंकाता है क्योंकि राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा इन दिनों कांग्रेस को हिंदुत्व से जोड़ने में लगे हुए हैं। उल्लेखनीय है कि राहुल की भारत जोड़ो यात्रा के अंतिम चरण में जब  दिग्विजय  सिंह ने सेना की सर्जिकल स्ट्राइक पर संदेह जताया था तब श्री रमेश ने ही सबसे पहले उस बयान को श्री सिंह की निजी राय कहकर पार्टी का बचाव किया था। उनकी छवि एक सुलझे हुए नेता की रही है किंतु गीता प्रेस को दिए पुरस्कार की आलोचना कर श्री रमेश ने  अपने मानसिक खोखलेपन को ही उजागर किया है। याद रहे शरद पवार की समझाइश के बाद सावरकर जी के  बारे में तो बोलने की हिम्मत तो श्री गांधी भी नहीं बटोर पा रहे। रही बात गोडसे की तो गीता प्रेस ने स्पष्ट किया कि उसके स्थापना काल से ही महात्मा गांधी के साथ उसके निकट संबंध रहे और बापू के लेख वह उनके जीवनकाल और उनके बाद भी प्रकाशित करता रहा है। इस संस्थान की नीति पुरस्कार नहीं लेने की रही है। फिरभी अपनी शताब्दी पूरी होने पर उसने गांधी शांति पुरस्कार लेने पर तो सहमति दी परंतु उसके साथ मिलने वाली 1 करोड़ रु. की धनराशि स्वीकार करने से साफ इंकार कर दिया। गांधीवादी शैली पर चलते हुए 100 साल का सफर सफलता के साथ पूरा करने वाले संस्थान को पुरस्कृत करने  का  शायद ही कोई समझदार व्यक्ति विरोध करेगा किंतु लगता है या तो श्री रमेश को बुद्धि का अजीर्ण हो गया है या वे राहुल को खुश करने के लिए यह मूर्खता कर बैठे। गीता प्रेस ने सनातन धर्म से जुड़े ग्रंथों के साथ पूजा - पद्धति  और कर्मकांड आदि को साहित्य रूप में प्रकाशित करने का जो कार्य किया वह किसी तपस्या से कम नहीं है। सबसे बड़ी बात उनके प्रकाशन सस्ते होने पर भी गुणवत्ता के पैमाने पर खरे उतरते हैं क्योंकि उनमें गलतियाँ नहीं रहतीं। खास बात ये है अपने आपको सनातन धर्म तक सीमित रखते हुए गीता प्रेस ने कभी भी किसी अन्य धर्म की आलोचना नहीं की । और इसीलिए किसी विवाद में नहीं फंसा। श्रीमद भगवत गीता से शुरू उसका अभियान धीरे - धीरे विस्तृत होता चला गया। ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि गीता प्रेस न होता तो सनातन धर्मी न जाने कितने प्राचीन ग्रंथों से अनजान रहते और ऋषि - मुनियों द्वारा प्रवर्तित ज्ञान पर विस्मृतियों की धूल जम चुकी होती। ये देखते हुए  कांग्रेस पार्टी को श्री रमेश की टिप्पणी पर क्षमा मांगने की बुद्धिमत्ता दिखानी चाहिए। वरना आचार्य प्रमोद कृष्णम की बात सच हो जाए तो आश्चर्य नहीं होगा।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Monday 19 June 2023

मणिपुर में राष्ट्रपति शासन लगाकर केंद्रीय बलों को कमान सौंपना जरुरी



डेढ़ महीना हो गया किंतु मणिपुर की स्थिति अनियंत्रित बनी हुई है। जब विधायक, सांसद और मंत्री तक सुरक्षित नहीं हैं तब आम जनता की हालत क्या होगी ये आसानी से समझा जा सकता है। प्राकृतिक सौंदर्य के लिए विख्यात पूर्वोत्तर भारत का ये राज्य इन दिनों भयावह दृश्यों से भरा हुआ है। उच्च न्यायालय के एक फैसले में बहुसंख्यक मैतेई समुदाय को अनु.जनजाति का दर्जा दिए जाने के बाद कुकी नामक आदिवासी समुदाय आंदोलित हो उठा और देखते - देखते हिंसा ने पूरे राज्य को अपनी चपेट में ले लिया। लेकिन ये साधारण हिंसा न होकर बाकायदा पूरी तैयारी के साथ रचा गया षडयंत्र लगता है। जिसके कारण आज मणिपुर दो हिस्सों में साफ तौर पर बंट चुका है । कुकी ज्यादातर पर्वतीय इलाकों में रहते हैं जबकि मैतेई का वर्चस्व इंफाल घाटी में है। नियमानुसार पर्वतीय इलाकों में मैतेई भूमि नहीं खरीद सकते क्योंकि वह अनु.जनजाति (आदिवासियों ) के लिए सुरक्षित रखी गई थी। उच्च न्यायालय के संदर्भित फैसले ने उक्त स्थिति को बदलकर मैतेई समुदाय को कुकी वर्चस्व वाले इलाकों में भूमि खरीदकर बसने का रास्ता साफ कर दिया। उल्लेखनीय है मैतेई समुदाय मणिपुर में जनसंख्या में अधिक होने से राजनीतिक दृष्टि से भी ताकतवर है और इसीलिए उसके विधायक भी ज्यादा रहते हैं किंतु इंफाल घाटी क्षेत्र के हिसाब से छोटी होने से उसके लिए छोटी पड़ती थी । लंबे समय से मैतेई अनु.जनजाति में शामिल होने की मांग करते आ रहे थे ताकि उनको भी पर्वतीय क्षेत्रों में जमीन हासिल करने का हक मिल सके। उच्च न्यायालय के निर्णय ने उनकी वह मांग तो पूरी कर दी किंतु कुकी समुदाय ने उसके विरोध में जिस तरह से जवाबी कार्रवाई की उसने अनेक  बातों को जन्म दे दिया। ये कुछ -कुछ वैसा ही है जैसे अनुच्छेद 370 हटने के पहले तक देश के किसी अन्य राज्य का निवासी  जम्मू कश्मीर में जमीन नहीं खरीद सकता था। जब उक्त धारा हटी तब कश्मीर घाटी के मुस्लिमों की नाराजगी इसी बात पर सबसे ज्यादा थी कि अब बाहर से आकर लोग यहां भूस्वामी बन सकेंगे। लेकिन कुकी समुदाय के लोग तो अपने ही राज्य के मैतेई समुदाय को अपने प्रभावक्षेत्र में आने से रोकने आमादा हैं। वर्तमान स्थिति ये है कि जहां इंफाल घाटी में रहनेवाले कुकी असुरक्षित हैं वहीं कुकी बाहुल्य क्षेत्र में चला गया मैतेई जिंदा बचकर नहीं लौट सकता। लेकिन इस समूचे परिदृश्य में कुकी समुदाय का हथियारबंद होना चौंकाने वाला है। वे जिस तरह से आक्रामक हुए वह साधारण बात नहीं है। धीरे - धीरे पहाड़ी क्षेत्रों में नशीली दवाओं के कारोबार का खुलासा भी होने लगा और ये भी कि पड़ोसी म्यांमार  ड्रग की आवाजाही में सहायक है। कुकी अधिकतर ईसाई धर्मावलंबी हैं वहीं मैतेई हिन्दू । दोनों के बीच  विभाजन इस हद तक हो चुका है कि कुकी वर्चस्व वाले इलाकों में जगह - जगह बोर्ड टांगकर लिख दिया गया है कि यह भारत का आदिवासी क्षेत्र है। मणिपुर में कानून - व्यवस्था पूरी तरह दम तोड़ चुकी है। हालांकि विपक्ष प्रधानमंत्री की चुप्पी पर कटाक्ष कर रहा है किंतु केंद्र सरकार इस नाजुक स्थिति में ऐसा कुछ भी करने से बचती रही है जिससे पूर्वोत्तर का ये सीमावर्ती राज्य जम्मू - कश्मीर की तरह नासूर न बन जाए। कुकी और मैतेई के बीच जानी दुश्मनी के हालात उत्पन्न होने से अब मणिपुर को दो टुकड़ों  में विभाजित करने की मांग जोर पकड़ रही है। इसके पीछे उग्रवाद है या  दो जातीय समूहों के बीच का परंपरागत विवाद , ये पक्के तौर पर फिलहाल कह पाना तो मुश्किल है । मुख्यमंत्री के बयानों से अलग वरिष्ट सैन्य अधिकारियों ने अपना जो आकलन  पेश किया उससे भ्रम की स्थिति भी बनी है। हालांकि इतना तो कहा ही जा सकता है कि कुकी समुदाय जिस तरह से हमलावर हुआ उससे ये आशंका प्रबल हुई है कि नशे के व्यवसाय के तार चूंकि पड़ोसी देशों से भी जुड़े हुए हैं इसलिए विदेशी ताकतें और  ड्रग माफिया  इस संघर्ष को हवा देने के लिए जिम्मेदार हो सकता है जिसे पर्वतीय इलाकों में मैतेई समुदाय के लोगों के आकर बसने से खतरा महसूस होने लगा। आतंकवाद के भीषण दौर में कश्मीर घाटी के भीतरी इलाकों से हिंदुओं को भी इसी तरह खदेड़ा गया था जिससे देश को तोड़ने वाले अपने षडयंत्र को खुलकर अंजाम दे सकें। मणिपुर की स्थिति का जो विश्लेषण सेना और खुफिया एजेंसियों द्वारा अब तक किया गया होगा उसके आधार पर अब ठोस कार्रवाई करने का समय आ गया है। उच्च न्यायालय के फैसले पर गृह मंत्री अमित शाह की ये टिप्पणी काबिले गौर है कि वह जल्दबाजी में लिया गया था किंतु ये बात भी शोचनीय है कि देश के किसी हिस्से में उसी राज्य के लोगों को बसने से रोका जाए। और वह भी जब वह सीमावर्ती हो और दुर्गम बसाहट वाला हो जिसमें विदेशी घुसपैठ आसानी से हो सके। ये सब देखते हुए मणिपुर ही नहीं बल्कि देशहित में भी होगा कि वहां तत्काल राष्ट्रपति शासन लगाकर राज्य में केंद्रीय बल तैनात किए जावें क्योंकि स्थानीय प्रशासन और पुलिस में भी जातीय वैमनस्यता के कारण आपसी सामंजस्य खत्म हो चुका है। हालांकि सीमावर्ती राज्य होने से मणिपुर में कोई भी कदम बेहद सोच - समझकर उठाना होगा। लेकिन देर करने से हालात और संगीन हो सकते हैं ।  समूचा पूर्वोत्तर जनजातियों से भरा पड़ा है । वहां ईसाई मिशनरियों का जाल ब्रिटिश शासन के जमाने में ही फैल चुका था । इस कारण उनको मुख्य राष्ट्रीय धारा से काटे रखने का प्रयास सफल हुआ। पृथक राष्ट्रीयता की भावना फैलाने में भी मिशनरियों की भूमिका किसी से छिपी नहीं है। बीते कुछ दशकों में नगा और मिजो आंदोलनों पर काबू कर पूर्वोत्तर में शांति कायम करते हुए विकास का वातावरण बनने लगा था किंतु मणिपुर में बीते डेढ़ महीनों में जो कुछ भी हुआ उससे यह आशंका जन्म ले रही है कि कहीं ये किसी दूरगामी कार्ययोजना का हिस्सा तो नहीं जिसका उद्देश्य समूचे पूर्वोत्तर को भारत से अलग करना है। इसलिए बीते छह सप्ताह से चली आ रही स्थिति को देखते हुए अब मणिपुर में निर्णायक कदम उठाए जाने की जरूरत है।


- रवीन्द्र वाजपेयी 

Friday 16 June 2023

धर्मांतरण विरोधी कानून किसे खुश करने रद्द किया जा रहा


बहुमत प्राप्त सरकार संविधान के दायरे में रहते हुए नया  कानून बनाए या पुराने को रद्द करे ,  ये उसका अधिकार है। लेकिन कुछ विषय ऐसे होते हैं जिनका संबंध किसी दल विशेष की नीति या पसंद से ऊपर उठकर समाज  और देशहित से जुड़ा होता है । इसलिए ऐसे मुद्दों पर  व्यापक दृष्टिकोण से विचार करना चाहिए। संदर्भ , कर्नाटक की नई सरकार द्वारा पूर्ववर्ती भाजपा सरकार के बनाए धर्मांतरण विरोधी कानून को रद्द किए जाने वाले प्रस्ताव का है । इस बारे में विचारणीय ये है कि उक्त कानून क्यों लाया गया और उस पर किसे आपत्ति थी ? जाहिर है लोभ - लालच , दबाव या अन्य किसी गैर कानूनी तरीके  से  हिंदू धर्म छोड़कर मुस्लिम या ईसाई बनाए जाने का जो सुनियोजित अभियान देश भर में चलाया जा रहा  है उसे रोकने के लिए कर्नाटक ही नहीं अन्य राज्यों ने भी कानून बनाए हैं । एक समय था जब आदिवासी और दलित समुदाय में अशिक्षा और गरीबी का लाभ उठाकर ईसाई मिशनरियों द्वारा उनका धर्म परिवर्तन करवाए जाने की ही चर्चा होती थी। देश के पूर्वोत्तर राज्यों के अतिरिक्त जिन भी राज्यों में आदिवासियों की बड़ी संख्या है , वहां धर्मांतरण जमकर हुआ। जिन इलाकों में आवगमन के साधन और विकास की रोशनी नहीं पहुंची वहां  मिशनरियों का जाल फैलता गया। केरल का ईसाईकरण तो बहुत बड़े पैमाने पर हुआ। लेकिन बीते कुछ दशकों से हिंदुओं को इस्लाम स्वीकार करने हेतु मजबूर किए जाने की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं । केरल में जब लव जिहाद के जरिए हिंदू लड़कियों को मुसलमान बनाने की बात  हिंदू संगठनों ने उठाई तब उसे हल्के में लिया गया किंतु धीरे - धीरे वह इस्लामीकरण के हथियार के तौर पर उपयोग होने लगा। इसमें खाड़ी देशों से आए पेट्रो डालरों की भी महती भूमिका रही। बीते कुछ सालों में लव जिहाद के जरिए हिंदू युवतियों के साथ होने वाले अमानुषिक व्यवहार के मामले भी लगातार सामने आने लगे। सभी में धोखाधड़ी होती हो ऐसा कहना तो गलत होगा किंतु ज्यादातर में हिंदू लड़की का भावनात्मक शोषण या ब्लैकमेल किया जाना सामने आया। इस तरह की घटनाओं को नियंत्रित करने के लिए ही धर्मांतरण विरोधी कानून बनाए गए।  कर्नाटक की नव - निर्वाचित कांग्रेस सरकार को यह स्पष्ट करना चाहिए कि उसे मौजूदा कानून में ऐसा क्या लगा जिसकी वजह से वह उसे रद्द करने जा रही है।  रही बात कानून के दुरुपयोग की तो जिन मामलों में ज्यादती की शिकायत है , नई सरकार उनकी समीक्षा भी कर सकती थी। लेकिन ले - देकर वही तुष्टीकरण की नीति  लागू करने का प्रयास हो रहा है। बेहतर होता कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व इस निर्णय के  दुष्परिणाम का पूर्वानुमान लगाकर कर्नाटक सरकार को इसके खतरों से आगाह करते हुए धीरज के साथ आगे बढ़ने की सलाह देता। लेकिन विधानसभा चुनाव में मुस्लिम मतदाताओं के थोक समर्थन की खुशी में वह अपने पैरों पर कूल्हाड़ी मारने की मूर्खता कर रही है । लोकसभा चुनाव के मद्देनजर पार्टी की व्यूह रचना में मुस्लिम मतदाताओं को क्षेत्रीय पार्टियों के प्रभाव से मुक्त कर वापस अपने साथ लाना है। उल्लेखनीय है बाबरी ढांचा गिरने के बाद मुस्लिम मतदाता कांग्रेस से छिटककर इधर - उधर चले गए। इसी के चलते उ.प्र और बिहार में वह घुटनों के बल आ गई। अन्य राज्यों में भी भाजपा विरोधी  क्षेत्रीय दल को उनका समर्थन मिलने लगा। इस तरह उसको दोहरा नुकसान हुआ क्योंकि हिंदू मतदाता भाजपा की तरफ झुके तो मुसलमानों ने मुलायम , लालू , ममता और  देवगौड़ा जैसे छत्रपों को सिर पर बिठा लिया। कांग्रेस का राष्ट्रीय नेतृत्व इसी वोट बैंक को वापस खींचने में जुटा हुआ है। कर्नाटक चुनाव ने  उसका मनोबल बेशक बढ़ा दिया । लेकिन वहां के मुसलमान जनता दल सेकुलर के ढुलमुल रवैए से सशंकित होकर कांग्रेस की तरफ झुके । लेकिन पार्टी उनको खुश करने के लिए पूरी तरह आत्मसमर्पण की मुद्रा में आ गई तब उसे  हिंदू मतों से हाथ धोना पड़ सकता है जो स्थानीय कारणों से उसकी तरफ आकर्षित हुए। कांग्रेस को ये ध्यान रखना चाहिए कि लव जिहाद के मामले जिस संख्या में  सामने आए हैं उनसे हिंदू समाज काफी उद्वेलित है ।  हाल ही में प्रदर्शित धर्मांतरण पर बनी फिल्म द केरल स्टोरी को पूरे देश में जो सफलता मिली उससे कांग्रेस ही नहीं , मुस्लिम तुष्टीकरण करने वाले अन्य दलों को भी चौकन्ना हो जाना चाहिए। धर्मांतरण जिस स्वरूप में सामने आ रहा है उसकी हिंदू समाज में बेहद रोष पूर्ण प्रतिक्रिया है जिसे हल्के में लेना सच्चाई से मुंह चुराने जैसा होगा। कर्नाटक सरकार जो कदम उठाने जा रही है उससे तो धर्मांतरण में लगी ताकतों का हौसला और बुलंद होगा जो कालांतर में देश के लिए खतरा साबित हो सकता है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


हिंदुत्व का झंडा उठाकर समान नागरिक संहिता का विरोध आत्मघाती होगा




विधि आयोग द्वारा  समान नागरिक संहिता पर विचार विमर्श की जो पहल की गई उसका कांग्रेस द्वारा  विरोध किया जाना उसके मानसिक द्वंद का परिचायक है। एक तरफ तो वह सॉफ्ट हिंदुत्व का पाला छूकर  मुस्लिम तुष्टीकरण के आरोप से छुटकारा चाहती है , वहीं दूसरी ओर मुसलमानों को खुश करने में भी लगी हुई है। कर्नाटक में वह भाजपा सरकार के बनाए धर्मांतरण विरोधी कानून को खत्म करने जा रही है जिसके कारण अनेक मुस्लिम जेल की हवा खाने मजबूर हुए। दूसरी तरफ वह हिंदू प्रतीक चिन्हों का उपयोग कर इस धारणा को ध्वस्त करना चाह रही है कि वह बहुसंख्यक विरोधी है । इस उहापोह में उसके अपने समर्थक भी असमंजस में हैं । समान नागरिक संहिता का मामला नया नहीं है। संविधान लागू होने के समय भी इसकी जरूरत महसूस की गई थी। ये भी कहा जाता  है कि पंडित नेहरू और डॉ.अंबेडकर भी इस बात के पक्षधर थे कि सभी नागरिकों के लिए एक से कानून हों। हालांकि जल्द ही हिंदू विवाह को लेकर बनाए कानून पर नेहरू जी और तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के बीच मतभेद खुलकर सामने आ गए थे। कालांतर में ये विषय राजनीतिक झमेले में उलझकर ठंडा पड़ा रहा। हालांकि  भाजपा और शिवसेना जैसे हिंदूवादी दल शुरू से ही मांग करते आ रहे थे कि नागरिक कानूनों के मामले में सभी धर्मों के लिए एकरूपता लाई जाए।  बीते अनेक दशकों से राष्ट्रीय राजनीति में जिन मुद्दों पर तीखी बहस होती रही उनमें  एक समान नागरिक संहिता भी है। तीन तलाक पर सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक फैसले के बाद से ही इस कानून की मांग  जोर पकड़ने लगी।  भाजपा की राजनीति जिन मुख्य मुद्दों पर केंद्रित रही है उनमें राम मंदिर का निर्माण और अनुच्छेद 370 खत्म करने जैसे वायदे तो उसने पूरे कर दिए। लेकिन समान नागरिक संहिता अभी भी लंबित है।  उल्लेखनीय है सर्वोच्च न्यायालय  भी केंद्र सरकार से इस बारे में  आगे बढ़ने कह चुका है। बीते कुछ वर्षों में असामान्य स्थितियां बनी रहीं इसलिए बात आगे नहीं बढ़ सकी । लेकिन विधि आयोग की ताजा कोशिश के बाद  चौंकाने वाली बात ये है कि सॉफ्ट हिंदुत्व की ओर बढ़ रही कांग्रेस समान नागरिक संहिता लागू पर मोदी सरकार को घेरते हुए कह रही है कि वह अपनी विफलता पर परदा डालने के लिए ये पैंतरा लेकर आई है। अभी  बाकी क्षेत्रीय दलों की प्रतिक्रिया सामने नहीं आई है। लेकिन उद्धव ठाकरे  जैसे हिंदूवादी नेताओं के लिए इस कदम का विरोध करना कठिन  होगा। निश्चित रूप से समान नागरिक संहिता का मुद्दा कांग्रेस के गले में हड्डी की तरह फंस सकता है। यदि वह केंद्र सरकार द्वारा लाए जाने वाले विधेयक का विरोध करती है तो उसका हिंदुत्व के प्रति रुझान नकली साबित हो जायेगा और  वह समर्थन में खड़ी हुई तब  मुसलमानों को वापस अपने साथ लाने की  कोशिशों को पलीता लग जाएगा । कमोबेश पार्टी के समक्ष स्व.राजीव गांधी के शासनकाल में आए शाहबानो मामले जैसी स्थिति पैदा हो सकती है जब सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलटने की गलती कांग्रेस को बेहद महंगी साबित हुई थी। समान नागरिक संहिता कानून की समझाइश चूंकि सर्वोच्च न्यायालय ने दी है लिहाजा मोदी सरकार और भाजपा के पास आगे बढ़ने का समुचित आधार है। कांग्रेस को इस मुद्दे पर क्षणिक लाभ के बजाय दूरगामी दृष्टिकोण के साथ सोचना चाहिए। कर्नाटक की जीत निश्चित तौर पर उसके लिए उत्साहवर्धक है किंतु वहां जो समीकरण थे वे आगामी लोकसभा चुनाव में भी बने रहें ये जरूरी नहीं है । भाजपा समान नागरिक संहिता कानून के जरिए अपने एजेंडे को तो पूरा करेगी ही वह कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों की छद्म धर्मनिरपेक्षता को भी उजागर करने का दांव चलेगी। राहुल गांधी सहित तमाम  विपक्षी नेता आजकल हिंदुत्व का चोला ओढ़कर घूम रहे हैं। उनको ये  समझ में आने लगा है कि देश की तीन चौथाई से ज्यादा  जनसंख्या की उपेक्षा कर केवल अल्पसंख्यकों की मिजाजपुर्सी से अब काम नहीं चलेगा। इसीलिए अब कमलनाथ जैसे नेता प्रदेश कांग्रेस कार्यालय में पंडितों और पुजारियों को बुलाकर उनकी आवभगत करने लगे हैं । अरविंद केजरीवाल हनुमान चालीसा पढ़ने के साथ मुद्रा पर लक्ष्मी जी का चित्र छापने की वकालत कर रहे हैं । अखिलेश यादव ने परशुराम जी की प्रतिमा का अनावरण कर ब्राह्मण मतों की साधने की कोशिश की , वहीं तेलंगाना के मुख्यमंत्री के.सी .राव भव्य हिंदू मंदिर बनवा रहे हैं । इस सबसे यही निष्कर्ष निकलता है कि भाजपा पर हिंदुत्व का उपयोग कर चुनाव जीतने का आरोप लगाने वाले नेताओं को भी अब उससे परहेज नहीं रहा। ये देखते हुए समान नागरिक संहिता पर  कांग्रेस द्वारा प्रथम दृष्टया विरोध किए जाने से ये संकेत मिलता है कि वह अभी भी ढुलमुल रवैया अपना रही है । आने वाले समय में ये मुद्दा राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में होगा । तब कांग्रेस इसके बारे में क्या नीति अपनाती है ये देखना दिलचस्प होगा क्योंकि हिंदुत्व का झंडा उठाकर समान नागरिक संहिता का आत्मघाती  होगा।

- रवीन्द्र वाजपेयी 

Thursday 15 June 2023

योग का विरोध मानसिक दिवालियेपन का प्रतीक



जब भी 21 जून को योग दिवस मनाए जाने की तैयारियां शुरू होती हैं तब कुछ लोगों के पेट में मरोड़ होने लगता है।  गत दिवस उ.प्र  के सपा सांसद शफीकुर्रहमान ने मदरसों में योग दिवस मनाए जाने का विरोध करते हुए तालीम दिवस मनाए जाने की बात कही है। उनके मुताबिक  भाजपा सरकार इसके जरिए मदरसों में दी जाने वाली मजहबी शिक्षा में अड़ंगे लगा रही है। वे पहले व्यक्ति नहीं हैं जिनको योग से परहेज है। इसका कारण संभवतः ये है कि एक तो उससे बाबा रामदेव जुड़े हुए हैं और दूसरा ये कि योग दिवस की शुरुवात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा की गई। उक्त सांसद तो खैर मुस्लिम हैं लेकिन धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देने वाले अनेक हिंदू नेता भी योग और योग दिवस के विरुद्ध बोलते हैं । इन सबके मन में ये डर बैठ गया है कि भारतीय संस्कृति से जुड़े सभी विषय चूंकि  हिंदुत्व की अवधारणा को मजबूत करते हैं , लिहाजा उनसे भाजपा को राजनीतिक लाभ होता है। लेकिन इसका दूसरा पहलू ये भी है कि जब योग जैसे मुद्दे पर कुछ लोग विरोध व्यक्त करते हैं तब भाजपा को बिना कुछ किए ही उसका लाभ लेने का अवसर मिल जाता है। उदाहरण के लिए राममंदिर के निर्माण का जिन लोगों ने विरोध किया वे जनता की नजरों से गिरते चले गए। लेकिन बाद में जब भाजपा को उ.प्र और देश में सत्ता हासिल हो गई तब उन ताकतों को ये लगा कि हिंदुत्व का विरोध करना  नुकसान का सौदा है। इसलिए वे  चुनाव घोषणापत्र में भव्य राममंदिर बनवाने का आश्वासन देने लगे । कुछ नेताओं ने अपना चुनाव प्रचार भी अयोध्या में हनुमान गढ़ी से शुरू कर खुद को रामभक्त दिखाने की कोशिश की। कांग्रेस नेता राहुल गांधी को तो अचानक जनेऊधारी ब्राह्मण प्रचारित कर मंदिर और मठों में घुमाया जाने लगा । असली  हिंदू होने की  कसमें भी खाई जाने लगीं । इसका कुछ असर तो हुआ किंतु  चुनाव खत्म होते ही ऐसे लोगों का मुस्लिम तुष्टिकरण रवैया उजागर होने लगा। यही वजह है कि जबर्दस्त विरोध के बावजूद 2019 में मोदी सरकार की वापसी हुई जबकि कुछ महीनों पहले ही भाजपा म. प्र , राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में हार गई थी। दूसरी पारी में अयोध्या विवाद का फैसला मंदिर के पक्ष में होने और जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने जैसे कदमों के कारण भाजपा अपने मूलभूत मुद्दों को लागू करने के दिशा में आगे बढ़ चली। नागरिकता संशोधन विधेयक भी उसी तरह का निर्णय था। ये बात भी कही जा सकती है कि कोरोना संकट न आया होता तो अब तक समान नागरिक संहिता और जनसंख्या नियंत्रण हेतु भी कानून केंद्र सरकार बना चुकी होती। यद्यपि अनेक राज्यों में भाजपा को हिंदुत्व का झंडा उठाए बाद भी सफलता नहीं मिली । कर्नाटक उसका ताजा उदाहरण है। लेकिन इसका एक कारण ये  है कि कांग्रेस भी अब हिंदुत्व के मुद्दे पर सतर्क होकर बात करने लगी है। म.प्र के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ तो इन दिनों अपने को सबसे बड़ा हनुमान भक्त साबित करने पर आमादा हैं। ऐसे में यदि कोई योग दिवस का विरोध केवल इसलिए करे  कि वह भाजपा अथवा श्री मोदी  द्वारा प्रवर्तित है और भगवाधारी बाबा रामदेव ने उसे घर - घर पहुंचाया तो उसकी बुद्धि पर तरस ही किया जा सकता है । समाजवादी पार्टी के जिन सांसद महोदय ने मदरसों में योग दिवस का विरोध किया उनको अपनी बात के पक्ष में तर्क भी देना चाहिए। जहां तक मजहबी तालीम का सवाल है तो योग उसमें कहां बाधक है ये स्पष्ट किए बिना उसका विरोध सिवाय कट्टरपन के और क्या है ? ये वही तबका है जो भारत माता की जय और वंदे मातरम से भी परहेज करता है। सपा के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने विदेश में पढ़े होने के बावजूद कोरोना का टीका लगवाने से इसलिए इंकार कर दिया क्योंकि उनके नजर में  वह भाजपाई वैक्सीन थी। उनका  वह बयान भी काफी चर्चित हुआ था कि जब सपा की सरकार आयेगी तब वे टीका लगवाएंगे। ऐसे राजनेता ही दरअसल हमारे देश की समस्या हैं। आज जब पूरा विश्व भारत की प्राचीन योग व्यायाम पद्धति को अधिकृत तौर पर अपना रहा है तब कुछ लोग उसे हिंदुत्व से जोड़कर उसका विरोध करें तो वह मानसिक विपन्नता ही कही जायेगी । बेहतर हो कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी योग के बारे में अपना पक्ष स्पष्ट करते हुए मुस्लिम समुदाय को ये समझाए कि वह कोई पूजा पद्धति नहीं है। इसी तरह ध्यान भी किसी धर्म विशेष का समर्थन नहीं करता। इन दोनों के माध्यम से शारीरिक और मानसिक दोनों दृष्टि से व्यक्ति स्वस्थ रहता है। इसीलिए आजकल अंग्रेजी शैली के एलोपैथी अस्पतालों में भी योग और ध्यान की सुविधा उपलब्ध होने लगी है। प्राणायाम की उपादेयता और लाभ भी वैश्विक मान्यता हासिल कर चुके हैं। बाबा रामदेव के बारे में कितनी भी आलोचनात्मक बातें कही जाएं किंतु उन्होंने योग और आयुर्वेद को जनसाधारण में लोकप्रिय बनाने का  प्रशंसनीय कार्य किया है। इसी तरह प्रधानमंत्री श्री मोदी को इस बात का श्रेय है कि उन्होंने संरासंघ के जरिए  विश्व योग दिवस की शुरुआत कर इस भारतीय विद्या को दुनिया भर में स्थापित और प्रतिष्ठित किया। बेहतर हो शफीकुर्रहमान जैसे लोगों के ऐतराज पर उन्हीं की पार्टी के भीतर से आवाज उठे। सही मायनों में ऐसे लोग मुस्लिम समाज के भी हितचिंतक नहीं हैं । ये अल्पसंख्यकों की बदहाली का रोना तो खूब रोते  हैं लेकिन जब उसके उन्नयन की बात आती है तब ऐसे नेता ही मुसलमानों को मजहब का हवाला देकर प्रगति करने से रोकते हैं। योग का विरोध भी ऐसी ही कोशिश है जिसका मकसद मुसलमानों को मुख्य धारा से दूर रखना है ।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Tuesday 13 June 2023

आग : राजधानी में ये हाल हैं तब बाकी शहरों की हालत क्या होगी



म.प्र की राजधानी स्थित सतपुड़ा भवन में गत दिवस शाम के समय लगी आग लगभग 20 घंटे के बाद भी पूरी तरह से बुझाई नहीं जा सकी | सेना की अग्निशमन सेवा का उपयोग भी किया गया | राज्य सरकार के विभिन्न विभागों के कार्यालय सतपुड़ा भवन में होने से हजारों फाइलें और जरूरी दस्तावेज आग में जलकर नष्ट हो गए | ऊपरी मंजिल में लगी आग हवा की वजह से जल्द ही निचली मंजिलों तक ये फ़ैल गई | गनीमत ये रही कि  भवन में मौजूद सभी कर्मचारी और अधिकारी सकुशल बाहर  निकल आये | गर्मियों के मौसम में शॉर्ट सर्किट के कारण इस तरह की घटनाएँ अक्सर हो जाया करती हैं | आजकल एयर कंडीशनरों का उपयोग कार्यालयों में काफी ज्यादा होने लगा है | सतपुड़ा भवन में भी 100 एसी लगे हुए थे जो आग लगने के बाद फटे । गर्मियों में बिजली की मांग ज्यादा होने से दबाव बढ़ता है जिससे  तारों का तापमान बढ़ने से आग लगने का खतरा रहता है | उक्त दुर्घटना का प्रारंभिक कारण शॉर्ट सर्किट ही माना जा रहा है | हालाँकि विपक्षी दल ये आरोप लगाने में जुट गए हैं कि प्रदेश सरकार ने आगामी विधानसभा चुनाव में हार  का आभास करते हुए आग लगवाई जिससे भ्रष्टाचार के मामले दबे  रहें | ये भी याद दिलाया जा रहा है कि 2018 में चुनाव परिणाम आने के बाद  भी ऐसा ही अग्निकांड हुआ था | मुख्यमंत्री  शिवराज सिंह चौहान ने आग लगने के फौरन बाद ही केन्द्रीय गृह और रक्षा मंत्री से बात कर केन्द्रीय  एजेंसियों  की मदद लेने की जो पहल की उसकी वजह से किसी तरह आग को रोका जा सका किन्तु सुबह तक वह पूरी तरह ठंडी नहीं हो सकी थी | इससे इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि दुर्घटना कितनी भीषण रही होगी | प्रारम्भिक तौर पर इसे षडयंत्र कह देना जल्दबाजी लगती है क्योंकि उक्त इमारत की सभी मंजिलों में स्थित शासकीय कार्यालयों में कर्मचारियों और अधिकारियों की पर्याप्त उपस्थिति थी | बहरहाल जांच समिति बना दी गयी है जो आज से ही अपना कार्य शुरू कर देगी | उसकी अंतिम रिपोर्ट आने तक कयासों का दौर चलता रहेगा | चुनाव करीब हैं इसलिए राजनीति भी जमकर होगी | लेकिन इससे अलग हटकर विचारणीय मुद्दा ये है कि बहुमंजिला इमारत में जहां 1 हजार कर्मचारी और अधिकारी बैठते हों , अग्निशमन के इंतजाम पूरी तरह गुणवत्ता युक्त होना चाहिए थे ताकि वहां  मौजूद लोग ही उसका इस्तेमाल करते हुए आग को फैलने से रोकते | बहुमंजिला भवनों में फायर अलार्म  की व्यवस्था भी की जाती है | आजकल विद्युत फिटिंग में भी इस तरह का प्रबंध रहता है जिससे किसी भी तरह की गड़बड़ी होते ही विद्युत प्रवाह तुरन्त रुक जाता है | सतपुड़ा भवन में ये सब इंतजाम थे  या नहीं यह तो जाँच से ही पता चलेगा किन्तु इतना तो कहा ही जा  सकता है कि राजधानी में स्थित प्रशासन का इतना बड़ा केंद्र जिस भवन में स्थित है उसकी देखरेख में कहीं न कहीं कमी जरूर रही | लोक कर्म विभाग जिसके जिम्मे सरकारी भवनों की व्यवस्था होती है उसकी कार्यप्रणाली कैसी है ये किसी को बताने के जरूरत नहीं है | इस विभाग में भ्रष्टाचार का जो नंगा - नाच है उसे कोई भी सरकार नहीं रोक सकी | जो प्राथमिक जानकारी आई है उसके अनुसार इस अग्निकांड में सिर्फ सरकारी दस्तावेज ही नष्ट नहीं हुए अपितु जिस हिस्से में आग लगी उसका ढांचा भी बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया है | बड़ी बात नहीं जाँच के बाद पूरे  भवन को खतरनाक मानते हुए  उसका पुनर्निर्माण करना पड़े | जिस पर करोड़ों का खर्च आएगा और यदि उसकी नौबत नहीं आई तब भी वह इतना कमजोर तो हो ही गया कि उसमें बड़े पैमाने पर मरम्मत करना होगी जिससे लंबे समय तक उसमें लगने वाले कार्यालय अव्यवस्थित रहेंगे। चुनाव के ठीक पहले हुआ ये अग्निकांड कई सवाल खड़े कर गया है। यह किसी षडयंत्र के कारण  चाहे न हुआ  हो किंतु इसके पीछे लापरवाही से इंकार नहीं किया जा सकता। विपक्ष द्वारा इसका राजनीतिक लाभ उठाये जाने की आलोचना भले की जाए किंतु इस बारे में सरकार को अपनी जिम्मेदारी से मुंह नहीं चुराना चाहिए। मुख्यमंत्री ने दुर्घटना के खबर लगते ही व्यक्तिगत रूप से बचाव हेतु जिस तरह की सक्रियता दिखाई वह निश्चित रूप से प्रशंसनीय है किंतु आग जिस तेजी से फैलकर  ऊपरी मंजिल से नीचे की ओर बढ़ती गई उससे एक तो भवन में लगाई गई  अग्निशमन व्यवस्था के दोषपूर्ण होने का प्रमाण मिला दूसरी बात ये भी उजागर हो गई कि प्रदेश की राजधानी की नगर निगम के पास आग बुझाने के ऐसे साधन नहीं हैं जो बहुमंजिला भवनों की ऊपरी मंजिलों तक प्रभावी हो सकें । भोपाल में तो इससे भी ऊंची इमारतें बन गई हैं । शहरों की आवासीय समस्या हल करने के लिए हाई राइज इमारतों की अनुमति भी पूरे प्रदेश में दी  जाने लगी है। ऐसे में  इस बात की जरूरत है कि  प्रदेश की सभी बहुमंजिला इमारतों में अग्निशमन की व्यवस्थाओं की बारीकी से जांच हो । गत वर्ष जबलपुर के एक निजी अस्पताल में हुए अग्निकांड के बाद कुछ महीनों तक तो फायर ऑडिट का कर्मकांड चला लेकिन अंततः वह भी सरकारी भर्राशाही का शिकार होकर रह गया। सतपुड़ा भवन में लगी आग निश्चित रूप से चिंता का विषय है। सिर्फ इसलिए कि इसमें कोई हताहत नहीं हुआ , कुछ दिन की मशक्कत के बाद हादसे को भुला देना भविष्य के लिए नए खतरों की बुनियाद रखेगा। इसलिए जांच समिति को अपना काम इमानदारी से करना चाहिए क्योंकि ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति को रोकना बेहद जरूरी है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 

Monday 12 June 2023

अफीम से भी खतरनाक नशा है मुफ्तखोरी



अरविंद केजरीवाल इस बात से परेशान हैं कि मुफ्त बिजली का उनका चुनाव जिताऊ मंत्र अन्य पार्टियों ने भी सीख लिया । हाल ही में उनका एक बयान आया जिसमें वे खीजते हुए कह रहे थे कि चलो अच्छा हुआ बाकी पार्टियां भी उनकी नकल करते हुए जनता को लाभ पहुंचाने तैयार हुईं। वैसे भी इस समय देश में मुफ्त उपहार बांटने  की होड़ लगी हुई है। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने पहले महिलाओं को मोबाइल फोन के साथ तीन साल तक का डेटा मुफ्त देने की बात कही। जब एक करोड़ से ज्यादा मोबाइल खरीदने की व्यवस्था न हो सकी तब ये ऐलान कर दिया गया कि उसकी कीमत उनके खातों में जमा कर दी जावेगी।  म.प्र में भी कांग्रेस ने भाजपा सरकार द्वारा लाड़ली बहना योजना नामक ब्रह्मास्त्र के अंतर्गत 1 हजार प्रतिमाह दिए जाने के जवाब में 1500 रु. हर महीने देने का वायदा कर दिया है ,मुफ्त और सस्ती बिजली के अलावा सस्ता रसोई गैस सिलेंडर और पुरानी पेंशन की बहाली अलग से। जिन भी राज्यों में चुनाव होने वाले हैं वहां मतदाताओं को ग्राहक की तरह लुभाने के लिए राजनीतिक पार्टियां डिस्काउंट सेल की तर्ज पर अपनी दुकानें खोलकर बैठ गई हैं । ऐसे में क्षेत्रीय से राष्ट्रीय पार्टी बनकर पूरे देश में छा जाने को बेताब आम आदमी पार्टी को ये चिंता सताने लगी है कि जब सभी पार्टियां मुफ्त उपहारों की बरसात करेंगी तब मतदाता उसे क्यों आजमाएंगे ? उदाहरण के लिए हिमाचल और गुजरात में मुफ्त बिजली और मोहल्ला क्लीनिक की गारंटी वाला उसका दांव औंधे मुंह गिरा। पंजाब में कांग्रेस की अंतर्कलह और भाजपा - अकाली गठबंधन टूटने का लाभ जरूर उसे मिला। लेकिन धीरे - धीरे ही सही मुफ्तखोरी को बढ़ावा देने वाली इन योजनाओं से भी जनता को विरक्ति होने लगेगी , यदि उसकी रोजमर्रा की दिक्कतें जस की तस बनी रहीं तो। उदाहरण के लिए म.प्र में शिवराज सरकार ने महिलाओं को 1 हजार रु. हर महीने देने की बात कही तो कांग्रेस 1500 का वायदा लेकर आ गई। इस पैंतरे का मुकाबला करने के लिए मुख्यमंत्री ने लाड़ली बहना योजना के अंतर्गत दी जा रही राशि को क्रमशः बढ़ाते हुए 3 हजार तक ले जाने की घोषणा कर डाली। साथ ही उसकी पात्रता आयु घटाकर 21 वर्ष कर दी। कांग्रेस इसका क्या जवाब देती है ये भी देखना होगा। राजनीतिक पार्टियों की इस दरियादिली को देखकर जनता के एक वर्ग में इस बात की नाराजगी है कि केवल चुनाव के समय ही इतनी उदारता क्यों दिखाई जाती है ? और फिर जो करदाता हैं उनके भीतर  भी ये सवाल रह - रहकर कौंधता है कि उनसे वसूले जाने वाले कर का उपयोग वोटों की खरीद - फरोख्त के लिए किया जा रहा है। हालांकि अपवाद स्वरूप कुछ को छोड़ सभी राजनीतिक दल चुनाव में  बाजारवाद को लेकर कूदने लगे हैं। यद्यपि जरूरतमंदों की जिंदगी आसान करने के लिए सरकार द्वारा सहायता का हाथ बढ़ाना लोक कल्याणकारी राज्य का मूलभूत सिद्धांत है। शिक्षा , स्वास्थ्य , रोजगार हमारे देश की प्रमुख जरूरत है। ऐसा नहीं है कि इस दिशा में कुछ नहीं हुआ  किंतु  वह अपर्याप्त है। और इसीलिए जनता के मन में व्यवस्था के प्रति असंतोष और आक्रोश बढ़ता जा रहा है। जब तक कांग्रेस का एकाधिकार रहा तब तक उसे मुफ्त उपहार की चिंता नहीं रही। लेकिन जब सत्ता बदलने लगी तब राजनीतिक पार्टियों द्वारा चुनाव दर चुनाव  नए वायदों के साथ मैदान में उतरने की नीति अपनाई जाने लगी। बात आरक्षण  और अल्पसंख्यक तुष्टीकरण से जातिवाद तक आने के बाद  धार्मिक ध्रुवीकरण पर आकर टिकी किंतु अंततः नजर मतदाता की जेब पर गई और फिर शुरू हुआ मुफ्त खैरातें बांटने का सिलसिला जो रुकने का नाम नहीं ले रहा। स्व.अर्जुन सिंह ने म.प्र में एक बत्ती कनेक्शन के जरिए मुफ्त बिजली देने की शुरुवात की और साथ में गरीबों को सरकारी जमीनों के  पट्टे भी बांटे जाने लगे। नतीजा ये  हुआ कि देश का सबसे समृद्ध म. प्र विद्युत मंडल बदहाली के कगार पर जा पहुंचा।और सरकारी जमीन पर कब्जे की होड़ में झुग्गी - झोपड़ियों का जाल फैलता गया। आने वाली सभी सरकारों ने कमोबेश इसी नीति को जारी रखा। नाम और स्वरूप जरूर  बदलते गए। धीरे -  धीरे ये चलन राष्ट्रव्यापी हो गया। होना तो ये चाहिए था कि  गरीबों की सामाजिक , आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति में सुधार किया जाता । लेकिन जिस तरह आरक्षण का दायरा बढ़ाने  के बाद भी अनु. जाति/जनजाति और अन्य पिछड़ी जातियों की  बेरोजगारी खत्म नहीं की जा सकी उसी तरह से मुफ्त उपहारों की ये प्रतिस्पर्धा भी मतदाताओं को लुभाने में कहां तक सफल होगी ये बड़ा सवाल है। सबसे बड़ी बात ये है  कि इन घोषणाओं और प्रलोभनों से चुनाव जीतने में भले आसानी होती होगी किंतु बुनियादी समस्याएं यथावत हैं। उदाहरण के तौर पर आजादी के 75 साल बाद भी आरक्षण अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में असफल साबित हुआ । उसके नाम पर चुनाव भले जीते जाते रहे हों लेकिन समाज को जातियों में तोड़ने का बड़ा अपराध भी हुआ। इसी तरह चुनावी खैरातों का अंतिम परिणाम समाज में  असंतोष को बढ़ावा देने वाला ही होगा क्योंकि इसके दूरगामी नतीजे आर्थिक खोखलेपन को जन्म देंगे। बेहतर है देश में अधोसंरचना के कामों पर अधिकाधिक खर्च हो और  मुफ्तखोरी को बढ़ावा देने की जगह करों का बोझ कम करते हुए महंगाई को नियंत्रित करते हुए समाज के सभी वर्गों को राहत देने की व्यवस्था की जाए। मसलन राजस्थान और म.प्र में सबसे महंगा पेट्रोल - डीजल है लेकिन कोई भी पार्टी इनको सस्ता किए जाने की बात नहीं कर रही जबकि ऐसा होने पर महंगाई पर तत्काल नियंत्रण किया जा सकता है। समय आ गया है जब केवल चुनाव जीतने और फिर सत्ता में बने रहने के लिए सौदेबाजी करने की  बजाय करोड़ों लोगों का उपयोग उत्पादकता बढ़ाने हेतु किया जावे । ध्यान रहे जरूरत से ज्यादा मुफ्तखोरी अफीम से भी ज्यादा खतरनाक नशा है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Saturday 10 June 2023

अन्य नेता भी वित्तमंत्री सीतारमण से प्रेरणा लें



केंद्रीय वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण अपनी सादगी के लिए जानी जाती हैं । बतौर वित्तमंत्री उनके कार्यकाल का आकलन सभी अपने - अपने ढंग से करते हैं किंतु उनके बारे में जो ताजा खबर आई वह बाकी राजनेताओं के लिए एक संदेश है। उनकी बेटी का विवाह दो दिन पूर्व  संपन्न हुआ। वित्तमंत्री की बेटी की शादी में  दिग्गज राजनेताओं के साथ ही देश - विदेश के बड़े से बड़े उद्योगपतियों की उपस्थिति से किसी को आश्चर्य नहीं होता । और जब उनका दामाद प्रधानमंत्री कार्यालय में ओएसडी के पद पर पदस्थ हो तब तो जबर्दस्त तामझाम की जा सकती थी। अनेक मंत्री और अन्य बड़े नेता  बेटे - बेटियों के विवाह में अपने वैभव का प्रदर्शन खुलकर कर चुके हैं । जिसमें हजारों की भीड़ एकत्र हुई। प्रधानमंत्री से लगाकर तो निचले स्तर तक के कार्यकर्ता शामिल हुए । राजनीतिक मतभेद त्यागकर अन्य दलों के लोग भी आशीर्वाद देने हाजिरी लगाते हैं । जिनको ऐसी शादियों का निमंत्रण मिलता है वे इसे अपना सौभाग्य मानकर  दौड़े - दौड़े जाते हैं । ये भी  कहा जा सकता  है कि राजनीतिक नेताओं के लिए ऐसे अवसर जनाधार दिखाने के साथ ही धाक जमाने का जरिया होता है। लेकिन श्रीमती सीतारमण ने इस सबसे अलग हटकर  बेटी के विवाह का समूचा आयोजन अपने निवास पर ही किया । इसमें न बड़े नेता बुलाए गए और न ही  अन्य वी.आई .पी । केवल परिवार के सदस्य और कुछ नजदीकी मित्र ही पारंपरिक तरीके से संपन्न उक्त विवाह के साक्षी बने। जैसे ही उसके चित्र सोशल मीडिया पर आए त्योंही वित्तमंत्री के इस कार्य  की प्रशंसा होने लगी। यदि वे इसके बाद कोई स्वागत समारोह आयोजित नहीं करतीं तब उनका ये निर्णय निश्चित रूप से तमाम सत्ताधीश नेताओं और अन्य विशिष्ट जनों के लिए अनुकरणीय है। नेतागण अपने बेटे - बेटियों के विवाह में भीड़ एकत्र कर अपना रुतबा दिखाते हैं । जनता को खुश करने के लिए भी उन्हें ऐसा करना पड़ता है किंतु हंसी तब आती है जब वे सार्वजनिक मंचों पर विवाह जैसे आयोजनों में फिजूलखर्ची से बचने के उपदेश देते हैं । विभिन्न संगठनों द्वारा आयोजित किए जाने वाले सामूहिक विवाह समारोह में भी बतौर अतिथि नेताओं द्वारा शादियों में  दिखावे को रोकने के भाषण झाड़े जाते हैं । लेकिन जब उनका अपना मौका आता है तो वे उन उपदेशों के विपरीत अपनी संपन्नता का वीभत्स प्रदर्शन करने से बाज नहीं आते। उस दृष्टि से श्रीमती सीतारमण ने जो उदाहरण पेश किया वह निश्चित रूप से प्रशंसनीय और अनुकरणीय है । यद्यपि कोई अपने परिवार में होने वाली शादी में सादगी अपनाए या तामझाम दिखाए ये उसका निजी मसला है किंतु राजनेता केवल राजनीति तक ही सीमित नहीं रहते ।  बल्कि उनका आचरण समाज को भी प्रभावित करता है। आजकल शादियों पर किए जाने वाला खर्च  प्रतिष्ठा का मापदंड बन गया है। किसी बड़े व्यक्ति के यहां हुई शादी पर वैभव का कितना प्रदर्शन हुआ उससे उसकी सामाजिक हैसियत तय की जाने लगी है । नेताओं की जमात भी इससे प्रेरित और प्रभावित  है । उस दृष्टि से वित्तमंत्री ने एक आदर्श प्रस्तुत किया है। उनकी आर्थिक नीतियों की आलोचना करने वाले भी उनके द्वारा बेटी के विवाह को पारिवारिक आयोजन तक सीमित रखने के उनके निर्णय की प्रशंसा करेंगे और करना भी चाहिए। लेकिन इसके आगे सवाल ये है कि सत्ता और विपक्ष में बैठे अन्य नेतागण क्या श्रीमती सीतारमण से प्रेरित होकर विवाह जैसे आयोजन में  फिजूलखर्ची से बचेंगे ?  ज्यादा समय नहीं बीता जब कोरोना काल में अतिथियों की संख्या सीमित किए जाने की वजह से कम खर्च में  विवाह समारोह आयोजित किए जाने लगे थे। ज्यादातर लोग इस बात से खुश थे कि कम खर्च में इतना महत्वपूर्ण कार्य संपन्न हो सका। कोरोना के बाद से जीवन के प्रति लोगों के दृष्टिकोण में बदलाव आने की बात आम तौर पर सुनी जाती है । लेकिन ज्योंही महामारी का प्रकोप कम हुआ त्योंही विवाह आयोजनों में  फिजूलखर्ची का दौर लौट आया। इससे साबित होता है कि ऐसे मामलों में  सुधार की प्रक्रिया बहुत धीमी है। पहले दहेज नामक बुराई के विरुद्ध आवाजें उठती थीं। कानून ने तो उस पर रोक लगाई ही , सामाजिक तौर पर भी उसके विरुद्ध काफी जागरूकता आई।  अनेक शिक्षित युवाओं ने अपने माता - पिता को दहेज लेने से रोका। वहीं अनेक युवतियों ने दहेज  मांगने वाले लड़के से विवाह करने से इंकार करने का साहस दिखाया ।  दूसरी तरफ विवाह समारोहों पर होने वाला खर्च बेतहाशा बढ़ जाने से वधू पक्ष पर दहेज से कहीं ज्यादा बोझ आने लगा। ऐसे में  इस बुराई को  तब तक नहीं रोका जा सकता जब तक समाज के प्रमुख लोग फिजूलखर्ची से बचने का उदाहरण पेश नहीं करते। उस दृष्टि से  श्रीमती सीतारमण ने अच्छा प्रयास किया है। सभी ऐसा ही करें इसके लिए जबरदस्ती तो नहीं की जा सकती परंतु राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में नेतृत्व की भूमिका निभाने वाला वर्ग ही यदि वित्तमंत्री से प्रेरित होकर उनका अनुसरण करने  लगे तो इससे साधारण आर्थिक स्थिति वालों का हौसला बुलंद होगा जो बड़े लोगों की नकल करने के फेर में कर्ज लेकर शादियों में रईसी का प्रदर्शन करते हैं ।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Friday 9 June 2023

वरना कैनेडा में अलग खालिस्तान बनाने की मांग उठने लगेगी



दिल्ली में किसान आंदोलन के दौरान जब भिंडरावाले की तस्वीर वाली टी शर्ट पहिए सिख युवक धरना स्थल पर नजर आए तभी ये आशंका हुई थी कि खालिस्तानी आंदोलन किसानों की आड़ में सिर उठा रहा है। चूंकि उसकी अगुआई पंजाब से हुई थी इसलिए सिख किसानों की संख्या काफी थी। धरना स्थल पर लंगर की व्यवस्था भी पंजाब के गुरुद्वारों से ही हो रही थी । धीरे - धीरे ये खबरें भी  आईं कि आंदोलन को कैनेडा और ब्रिटेन के खालिस्तान समर्थक संगठनों से धन भी मिल रहा था।  वहां किसान आंदोलन के पक्ष में जिस तरह से प्रदर्शन हुए उससे भी उक्त आशंका को बल मिला। बाद में गणतंत्र दिवस पर लालकिले की प्राचीर पर  निशान साहेब वाला झंडा फहराकर तलवारें घुमाने जैसी हरकत के साथ ही  शासकीय संपत्ति को क्षतिग्रस्त किए जाने से  इस बात की पुष्टि हो गई कि राष्ट्रविरोधी ताकतें किसान आंदोलन में घुसकर अपना उल्लू सीधा करना चाह रही थीं।आंदोलन खत्म होने के बाद हुए पंजाब विधानसभा के  चुनाव में आम आदमी पार्टी की सरकार बन गई । यद्यपि उसे कांग्रेस की आपसी फूट का परिणाम माना गया लेकिन शीघ्र ही ये बात समझ में आने लगी कि सत्ता परिवर्तन के पीछे  कोई अदृश्य खेल भी था । भगवंत सिंह मान  के सत्ता संभालने के बाद अमृतसर के प्रसिद्ध स्वर्ण मंदिर के निकट लगातार विस्फोट होने लगे।  थाने में बंद एक उग्रवादी को  जिस तरह सशस्त्र भीड़ ने रिहा कराया , उसके बाद ये बात साफ हो गई कि खालिस्तान की जो चिंगारी लंबे समय से दबी हुई थी वह नई सरकार के सत्ता में आते ही भड़कने लगी । भिंडरावाले के नए संस्करण के तौर पर उभरे एक कथित नेता की फरारी से माहौल तनावपूर्ण होने लगा। अनेक हिंदू मंदिरों पर हमले की घटनाएं भी हुईं। इस साल  आपरेशन ब्लू स्टार की बरसी पर  हुए आंदोलन कुछ ज्यादा ही बड़े थे। कुल मिलाकर ये बात स्पष्ट हो गई कि पंजाब में  सत्ता बदलने के बाद खालिस्तान समर्थक अपने को सुविधाजनक स्थिति में मानने लगे । जल्द ही ये बात भी उजागर हो गई कि विदेशों में सक्रिय खालिस्तानी संगठन भी खुलकर भारत विरोधी गतिविधियों में लिप्त हो गए हैं । ब्रिटेन और कैनेडा में खालिस्तान के पक्ष में धरना , जुलूस और पोस्टर बाजी की हालिया खबरें इस बात का प्रमाण हैं कि पंजाब में सिर उठा रहे खालिस्तान समर्थक और विदेश में खालिस्तान का झंडा उठा रहे संगठनों के बीच संबंध है । हाल ही में जब कांग्रेस नेता राहुल गांधी अमेरिका गए तब उनकी सभा में भी खालिस्तानी समर्थक घुस आए और नारेबाजी की । लेकिन कैनेडा से जो ताजा खबर आई वह चिंताजनक है। वहां के एक शहर में भारत की पूर्व प्रधानमंत्री स्व.  इंदिरा गांधी की हत्या की झांकी निकाली गई जिस पर विदेश  मंत्री एस.जयशंकर ने कड़ा  विरोध करते हुए कैनेडा सरकार को चेतावनी दी  कि वह अपनी धरती का उपयोग खालिस्तानी तत्वों को न करने दे क्योंकि यह दोनों देशों के आपसी रिश्तों के लिए नुकसानदेह होगा । उल्लेखनीय है कैनेडा में बब्बर खालसा जैसे अनेक सिख संगठन हैं जो खुलकर खालिस्तान की मांग उठाते हैं। पंजाब में चलने वाली खालिस्तानी गतिविधियों को आर्थिक सहायता उनसे  मिलने की बात भी किसी से छिपी नहीं है। ये कहना भी गलत न होगा कि दिल्ली में पूरे साल चले किसानों के धरने के दौरान  जिस तरह से वहां निहंगो द्वारा हिंसक वारदातें की गईं उससे खालिस्तानी आंदोलन के बीजों के दोबारा अंकुरित होने की आशंका जन्मी जिसकी पुष्टि ब्रिटेन और कैनेडा में हुए  उग्र प्रदर्शनों से हुई। उसी के बाद से पंजाब में खालिस्तान की मांग उठने और राज्य के भीतरी हिस्सों में गड़बड़ियों के समाचार आने लगे । हालांकि किसान आंदोलन को  खालिस्तान समर्थक कहना तो सही नहीं है किंतु उसका लाभ लेकर देश विरोधी ताकतें अपना जाल फैलाने में कामयाब हो गईं। अमेरिका में श्री गांधी के कार्यक्रम में सिख संगठनों द्वारा नारेबाजी के बाद कैनेडा में इंदिरा जी की हत्या का दृश्य दिखाने वाली झांकी निकाले जाने से साफ है कि किसी बड़ी योजना की रूपरेखा बन रही है। विदेश मंत्री श्री जयशंकर ने कैनेडा सरकार को चेतावनी देते हुए जो बयान दिया वह सही समय पर उठाया गया कदम है क्योंकि जहां पाकिस्तान  , खालिस्तानी आतंकवादियों को प्रशिक्षित करने का काम करता है वहीं कैनेडा में सक्रिय खालिस्तानी संगठन इन आतंकवादियों को आर्थिक संसाधन उपलब्ध करवाने के दोषी हैं। भारत के लिए चिंता की बात ये है कि  भारतीय मूल के लाखों सिख कैनेडा के नागरिक  हैं जिनका वहां के राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र में भी काफी प्रभाव है। ये देखते हुए कैनेडा सरकार भी उनके  विरुद्ध कार्रवाई करने में हिचकती है । लेकिन भारत के साथ कूटनीतिक रिश्ते मजबूत होने से कैनेडा को भी ये ध्यान रखना चाहिए कि उसकी जमीन पर भारत विरोधी गतिविधियां जोर न पकड़ें। उसे ये बात समझ लेना चाहिए कि भारत में खालिस्तान बनाए जाने की  मांग को  उसने अपने यहां उठने से नहीं रोका तो  एक - दो दशक बाद कैनेडा में ही सिखों के लिए अलग देश का आंदोलन जन्म लेने लगेगा। उसको ये बात जान लेना चाहिए कि जिस ओसामा बिन लादेन को पालने - पोलने में अमेरिका ने मदद की वही कालांतर में उसके लिए भस्मासुर बना। कैनेडा को अमेरिका के उस अंजाम से सबक  लेना चाहिए। ब्रिटेन , फ्रांस और जर्मनी भी उग्रवाद को नजरंदाज करने की सजा भोग रहे हैं । भारत सरकार द्वारा कैनेडा से जो विरोध व्यक्त किया गया वह तो पूरी तरह सही है किंतु  घरेलू मोर्चे पर भी  इस कूटनीति को सर्वदलीय समर्थन मिलना चाहिए। आम आदमी पार्टी से भी अपेक्षा है कि इस बारे में अपना दृष्टिकोण सामने रखे क्योंकि पंजाब में खालिस्तानी आंदोलन के पनपने से वह भी संदेह के दायरे में आने लगी है। किसी जमाने में अरविंद केजरीवाल के दाहिने हाथ रहे डा.कुमार विश्वास ने इस बारे में जो आरोप लगाए थे , उनका संज्ञान लिया जाना भी जरूरी है।

-रवीन्द्र वाजपेयी 

Thursday 8 June 2023

वृक्षों की लाशों पर होने वाला विकास रोकना अच्छी खबर




विश्व पर्यावरण दिवस के दो दिन बाद ही  भोपाल में जनता के दबाव में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पीपल और बरगद के दो पेड़ काटने पर रोक लगा दी। दरअसल एक सड़क निर्माण के लिए उक्त पेड़ों को काटने की कोशिश लोक निर्माण विभाग कर रहा था किंतु निकटवर्ती आवासीय कालोनी के निवासी इसके विरोध में संगठित हुए और  छोटे बच्चे इन पेड़ों से लिपटकर खड़े हो गए। लोगों का कहना था कि  महिलाएं उन वृक्षों की पूजा करती हैं और फिर 20 वर्ष पुराने पीपल और बरगद के इन पेड़ों के कटने से पर्यावरण को भी क्षति पहुंचेगी। शाम होते - होते मुख्यमंत्री ने एक वीडियो प्रसारित करते हुए पेड़ों को काटने की कार्रवाई पर रोक लगाते हुए कहा कि सड़क घुमा दी जावेगी किंतु वृक्ष जहां हैं वहीं खड़े रहेंगे। उन्होंने छोटे बच्चों  की आंदोलन में सहभागिता का भी  उल्लेख किया। साथ ही लोगों से प्रतिदिन पौधारोपण की अपील भी की। उल्लेखनीय है श्री चौहान भी नित्यप्रति पौधारोपण करते हैं ।  दो वृक्षों को बचाने संगठित हुए क्षेत्रीय जन , विशेष रूप से  बच्चे बधाई के पात्र हैं । मुख्यमंत्री की भी प्रशंसा की जानी चाहिए  जिन्होंने  पेड़ों को बचाने के लिए सड़क कुछ दूर से बनाने का निर्देश दिया। लेकिन इसका दूसरा पहलू भी है । उक्त घटना चूंकि राजधानी भोपाल की है इसलिए उसकी गूंज मुख्यमंत्री के कानों तक पहुंच गई और दो दशक पुराने पवित्र वृक्ष कत्ल होने बच गए। लेकिन प्रदेश के बाकी हिस्सों में न जाने कितने हरे - भरे वृक्ष रोजाना  काटे जाते हैं किंतु शासन और प्रशासन के कानों में जूं तक नहीं रेंगती। लेकिन जैसी जागरूकता और जिद भोपाल की बाग मुगलिया एक्स्टेंशन कालोनी के वाशिंदों ने दिखाई वैसी अन्य शहरों में देखने नहीं मिलती। और जहां दिखाई भी देती है वहां स्थानीय जनप्रतिनिधि जनता का साथ देने के बजाय उसे विकास विरोधी बताने लगते हैं। प्रदेश के ही जबलपुर शहर में डुमना हवाई अड्डे जाने वाली सड़क चौड़ी करने सैकड़ों वृक्ष  बेरहमी से काट डाले गए। उल्लेखनीय है भोपाल की जनता ने स्मार्ट सिटी परियोजना को उन स्थानों से हटवाकर अन्यत्र स्थानांतरित करवा दिया था क्योंकि उसकी वजह से सैकड़ों वृक्ष काट दिए जाते। संदर्भित घटना में  जिन अधिकारियों ने उन वृक्षों को काटने का निर्णय लिया उनकी बुद्धि और विवेक पर भी सवाल उठते हैं। सड़क निर्माण की योजना बनाते समय ही इस बात का ध्यान क्यों नहीं रखा गया कि दो दशक पुराने पर्यावरण की दृष्टि से बेहद उपयोगी वृक्ष बीच में आयेंगे तो उन्हें बचाने हेतु सड़क को थोड़ा इधर - उधर किया जाता । विकसित देशों में तो विशाल वृक्षों को विकास कार्यों में बाधक बनने पर दूसरी जगह स्थानांतरित करने की  तकनीक का इस्तेमाल होता है। हमारे देश में भी कई जगह ऐसा हुआ लेकिन उसमें सफलता का प्रतिशत कम ही है। ऐसे में बेहतर यही होता है कि निर्माण की ऐसी योजना  बनाई जावे जिससे वृक्ष भी बचे रहें और विकास भी न रुके। ये तो किसी को भी  बताने की जरूरत नहीं है कि 20 वर्ष पुराने ऐसे वृक्षों को काटने से कितना नुकसान होता जो 24 घंटे ऑक्सीजन वातावरण में प्रवाहित करते हैं । पीपल और बरगद की पूजा  का संस्कार किसी अंधविश्वास के कारण नहीं अपितु प्रकृति के संरक्षण में इनके योगदान के कारण  है। ऐसे में इस तरह की विकास योजनाएं बनाते समय ये  ध्यान में रखा जाना  चाहिए था कि उसके दायरे में आने वाले वृक्षों को , खासकर जो काफी पुराने और बड़े हों , काटने से बचा जावे। लोकनिर्माण विभाग के जिन अभियंताओं ने सड़क की योजना बनाई उनसे ये पूछा जाना चाहिए कि उन्होंने इस बात का ध्यान क्यों नहीं रखा ? इस बारे में ये भी उल्लेखनीय है कि भोपाल देश की उन राजधानियों में से है जो अपनी हरियाली के लिए जानी जाती जाती हैं । यहां के बड़े और छोटे तालाब जल संरक्षण के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं। प्रदेश की राजधानी बनने के बाद यहां कांक्रीट की जंगलनुमा अट्टालिकाएं बनती गईं और शहर की सीमाएं भी विस्तारित हुईं किंतु आज भी भोपाल प्राकृतिक दृष्टि से काफी सुंदर और समृद्ध है। ऐसे में ये कहा जा सकता है कि इतने बड़े शहर में  एक - दो वृक्ष कट जाने से क्या हो जाता ? लेकिन इसी सोच ने तो देश के अनेक इलाकों से जंगल साफ कर दिए । हिमालय में समय -समय पर आने वाली प्राकृतिक आपदाएं भी वृक्षों की अंधाधुंध कटाई  का ही दुष्परिणाम है। म.प्र में सौभाग्यवश  वन संपदा प्रचुर मात्रा में है । हालांकि विकास कार्यों के कारण बड़ी संख्या में वृक्षों का कत्ल हो चुका है किंतु धीरे - धीरे पर्यावरण की सुरक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ी है । भोपाल की आवासीय कालोनी के निवासियों ने उसी का परिचय देते हुए दो वृक्षों की रक्षा के लिए मोर्चा खोला और अंततः मुख्यमंत्री ने खुद होकर उनकी मांग को मंजूर करने की सौजन्यता दिखाई। इसे निकट भविष्य में होने वाले विधानसभा चुनाव से जोड़कर भी देखा जा सकता है किंतु ये भी सही है कि संचार क्रांति के दौर में इस तरह की घटनाओं का व्यापक प्रचार होने से अन्य लोग भी प्रभावित होते हैं। हालांकि ये बात तो स्वीकार करनी ही होगी कि विकास कार्य नहीं रोके जा सकते। राजमार्ग , बांध और आवासीय क्षेत्रों के निर्माण भी समय की मांग होने से जारी रहेंगे किंतु वैसा करते समय प्रकृति और पर्यावरण को कम से कम नुकसान हो ये ध्यान में रखना जरूरी है।  वृक्ष को भी मनुष्य की तरह मानते हुए उसकी जीवन रक्षा की जानी चाहिए।

-रवीन्द्र वाजपेयी 


Wednesday 7 June 2023

कांग्रेस के बदले रुख से विपक्षी एकता पर खतरे के बादल



विपक्षी एकता के प्रयास अंजाम तक पहुंचने के पूर्व ही में  खटाई में  पड़ते नजर आ रहे हैं। इसका संकेत तब मिला जब 12 जून को पटना में होने वाली विपक्षी दलों की बैठक को टालना पड़ा।  इसका कारण कांग्रेस  अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी के पास समय न होना बताया गया है । लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि कर्नाटक चुनाव में प्राप्त सफलता के बाद कांग्रेस का हौसला बुलंद  है और वह विपक्षी दलों को यह संदेश देना चाहती है कि उसकी स्थिति उतनी कमजोर नहीं जितनी वे  मान बैठे हैं ।जैसा कि सुनने में आया था नीतीश कुमार और अखिलेश यादव ने 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 250 सीटों पर लड़ने की समझाइश दी थी जिससे सभी सीटों पर भाजपा के  विरुद्ध एक संयुक्त प्रत्याशी उतारकर विपक्षी मतों का विभाजन रोका जा सके। लेकिन इसका संकेत मिलते ही कांग्रेस के रणनीतिकारों ने 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और भाजपा के बीच 350 सीटों पर सीधी टक्कर का हवाला देते हुए इससे कम सीटों पर रजामंद होने से मना कर दिया ।और यहीं से  एकता के प्रयासों में दरार पढ़नी शुरू हो गई। जैसी की जानकारी है नीतीश  भाजपा के विरोध में विपक्ष के जिस मोर्चे  को आकार देने की मुहिम चला रहे हैं उसमें तृणमूल , सपा ,  आम आदमी पार्टी , तेलुगु देशम , वाईएसआर कांग्रेस  और बीआरएस जैसी पार्टियों को शामिल करने का भी इरादा है  । लेकिन कांग्रेस को इनके साथ गठबंधन करने में एतराज भी है और संकोच भी। पंजाब और दिल्ली में कांग्रेस के अनेक नेता आम आदमी पार्टी से हाथ मिलाने के खिलाफ हैं। वहीं ममता बैनर्जी , अखिलेश यादव , के.सी. राव जैसे नेता कांग्रेस को अपने राज्य में पैर जमाने का अवसर नहीं देना चाहते। चंद्रबाबू नायडू के दोबारा भाजपा के साथ आने की अटकलें तेज हैं वहीं जगन मोहन रेड्डी भाजपा से  अघोषित निकटता बनाए रखने की नीति पर चल रहे हैं। कांग्रेस को ये बात भी गंवारा नहीं हो रही कि नीतीश इस मोर्चे के शिल्पकार बनकर विपक्षी एकता का चेहरा बनें। दरअसल भारत जोड़ो यात्रा के बाद कांग्रेस को ये लगने लगा है कि राहुल अब पप्पू की छवि को ध्वस्त करते हुए नरेंद्र मोदी के विकल्प के तौर पर उभर रहे हैं । विभिन्न सर्वेक्षणों में हालांकि वे श्री मोदी की तुलना में  काफी पीछे हैं किंतु नीतीश सहित बाकी विपक्षी नेता तो मुकाबले में हैं ही नहीं।  कर्नाटक में जीत के बाद कांग्रेस सोचने लगी  है कि विपक्षी गठबंधन की जरूरत अब उससे ज्यादा क्षेत्रीय दलों को है। बिहार  और  महाराष्ट्र सहित कुछ और राज्य हैं जहां कांग्रेस के किनारा कर लेने से उन दलों की स्थिति कमजोर हो जायेगी। जहां तक बात उ.प्र की है तो वहां उसके पास खोने को कुछ नहीं बचा जबकि उसके साथ होने से सपा को कम मतों से हारी सीटों पर ताकत मिल सकती है। दरअसल नीतीश कुमार विपक्षी मोर्चे के संयोजक बनकर दबे पांव प्रधानमंत्री की दौड़ में बने रहना चाहते हैं । उन्हें उन परिस्थितियों की पुनरावृत्ति होने की उम्मीद  है जिनमें एच. डी.देवगौड़ा और इंदर कुमार गुजराल की लॉटरी खुल गई थी। लेकिन कांग्रेस इस बार किसी भी प्रकार का खतरा मोल लिए बिना गठबंधन के अस्तित्व में आने के साथ ही प्रधानमंत्री पद का निर्णय भी कर लेना चाहती है। इसीलिये कांग्रेस को 250 सीटों पर लड़ने का प्रस्ताव  मंजूर नहीं है क्योंकि  यह फॉर्मूला प्रधानमंत्री की कुर्सी पर उसका दावा कमजोर कर सकता है । इस प्रकार विपक्ष की 12 जून को होने वाली बैठक का टलना कांग्रेस की नई रणनीति का हिस्सा है जिसके अंतर्गत वह क्षेत्रीय दलों की शर्तों की बजाय अपनी शर्तों पर विपक्षी एकता को शक्ल देना चाह रही है । उसे ये भी समझ में आने लगा है कि ममता , के.सी.राव और अरविंद केजरीवाल के साथ गठजोड़ चुनाव बाद की परिस्थितियों में उसके लिए नुकसानदेह होगा। सुनने में आया है कि राहुल गांधी चाह रहे हैं कि इसी साल होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव तक विपक्षी गठबंधन  को लंबित रखा जाए। और यदि उनमें भी उसे हिमाचल और कर्नाटक जैसी सफलता मिल गई तब उसका हाथ सौदेबाजी में काफी ऊंचा हो जायेगा। उल्लेखनीय है म.प्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में उसका भाजपा से सीधा मुकाबला है। आम आदमी पार्टी यहां उपस्थिति दर्ज कराने हाथ पैर मार रही है जिससे कांग्रेस में चिंता है। विपक्षी मोर्चे के बनने के पहले वह इस बात की प्रति आश्वस्त होना चाहेगी कि क्षेत्रीय दल उसके लिए नुकसानदेह न हों। हालांकि पटना बैठक की संभावना अभी खत्म नहीं हुई है किंतु कांग्रेस ने 12 जून को उसका आयोजन रोककर आशंकाओं को जन्म दे दिया है। पार्टी को नीतीश का मेजबान बनना भी अच्छा नहीं लग रहा । बड़ी बात नहीं कांग्रेस अगली बैठक दिल्ली में आयोजित करे और खुद उसकी आयोजक बनकर बड़े भाई की भूमिका में वापस लौटे। ऐसा करने से उसे उन विपक्षी दलों की पहिचान हो जायेगी जो गठबंधन में रहते हुए भी उसे पसंद नहीं करते। जाहिर है ममता , अखिलेश और के.सी.राव जैसे नेता कांग्रेस की मेजबानी शायद ही स्वीकार करेंगे। बहरहाल इन सबसे ये लगने लगा है कि नीतीश कुमार द्वारा जिस उत्साह के साथ पटना में विपक्षी जमावड़ा किया जा रहा रहा वह ठंडा पड़ने लगा है। सही मायनों में कांग्रेस विपक्षी एकता का श्रेय और नेतृत्व आसानी से किसी और नेता को देने तैयार नहीं है। राहुल की अमेरिका यात्रा से भी पार्टी में उत्साह है। उसे लगने लगा है कि श्री गांधी ही विपक्षी नेताओं में अकेले हैं जो राष्ट्रीय स्तर पर पहिचान रखते हैं ।  इसलिए विपक्षी मोर्चे की कमान भी उसी के हाथ में होना चाहिए। देखना ये है कि नीतीश , ममता , अखिलेश , के.सी राव और अरविंद केजरीवाल क्या कांग्रेस के झंडे के नीचे खड़ा होना पसंद करेंगे और राहुल को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार स्वीकार करने की शर्त उनको मंजूर होगी ?

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Tuesday 6 June 2023

मुफ्त उपहार और जाति के समक्ष फीका पड़ जाता है विकास का मुद्दा





जिन राज्यों में चुनाव होने वाले हैं वहां जातीय समीकरणों को साधने का प्रयास चल रहा है। हाल ही में संपन्न कर्नाटक के चुनाव में बाकी मुद्दों पर लिंगायत और वोक्कालिंगा भारी पड़े । सिद्धारमैया सरकार में मंत्रीमंडल के सदस्यों का परिचय  उनके जातीय समूह के तौर पर देते हुए ये भी बताया गया कि ऐसा आगामी लोकसभा चुनाव की व्यूह रचना की दृष्टि से किया गया है। हालांकि इसके लिए केवल कर्नाटक ही एकमात्र उदाहरण नहीं है। इस वर्ष जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं वहां की सरकारें और राजनीतिक पार्टियां विभिन्न जातियों को अपने पक्ष में गोलबंद करने में जुटी हुई हैं। ये देखते हुए अपने को जातियों का रहनुमा प्रचारित करने वाले राजनीतिक नेता भी चुनाव के पहले से ही सौदेबाजी करने लग जाते हैं। जातिगत समीकरणों का महत्व इसी से समझा जा सकता है कि सवर्णों की पार्टी समझी जाने वाली भाजपा सोशल इन्जीनियरिंग नामक हथियार का इस्तेमाल करते हुए सपा और बसपा के वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए प्रयासरत है तो पिछड़ों की पार्टी कही जाने वाली पार्टी के नेता अखिलेश यादव  ब्राह्मणों को रिझाने परशुराम जी की मूर्ति का अनावरण करने जाते हैं। मायावती ने तो दलितों की सबसे बड़ी प्रतिनिधि पार्टी बसपा का महासचिव पद सतीशचंद्र मिश्र नामक ब्राह्मण को सौंपकर सामाजिक समीकरण अपने पक्ष में झुकाने का दांव चला।जिसके बल पर 2005 में वे स्पष्ट बहुमत के साथ मुख्यमंत्री बन सकीं। म. प्र में सत्तारूढ़ भाजपा और उसकी प्रमुख प्रतिद्वंदी कांग्रेस भी जातियों के सम्मेलन आयोजित कर उन्हें अपने पाले में लाने के लिए हाथ - पांव मार रही हैं। इसके अलावा मुफ्त उपहारों की भी बरसात हो रही है। कहीं रसोई गैस का सिलेंडर  सस्ता किया जा रहा है तो कहीं महिलाओं के खाते में भी सीधे राशि  जमा हो रही है। विद्यार्थियों को टैबलेट और महिलाओं को मोबाइल बंट रहे हैं । नए - नए विकास कार्य स्वीकृत करने का काम तेजी पर है । गत दिवस राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने अपने गृहनगर जोधपुर में लगभग 50 शिलान्यास और लोकार्पण कर डाले। ऐसा ही नजारा उन सभी राज्यों में है जहां  चुनाव होने वाले हैं। हालांकि आजादी के बाद से ही ये सब होता आया है । जब आचार संहिता वाली बंदिश नहीं थी तब तो मतदान के दो दिन पहले तक सत्ताधारी पार्टी जनता की छोटी - छोटी शिकायतें दूर कर दिया करती थी। लेकिन अब चुनाव आयोग द्वारा चुनाव की अधिसूचना जारी होने के बाद सरकारी वाहन और विश्राम गृह का उपयोग करने के अलावा नई घोषणा करने से सरकार को रोक दिया जाता है। इसलिए चुनाव नजदीक आते - आते तक सरकारें ताबड़तोड़ घोषणाएं करते हुए मतदाताओं को लुभाती हैं । इन सबसे ये साबित होता है कि जिन विकास कार्यों और जन कल्याणकारी योजनाओं के प्रचार पर राज्य सरकारें करोड़ों रुपए लुटाती हैं वे चुनाव आते - आते तक अपना असर खो देती हैं। अन्यथा जातिगत गोलबंदी और चुनाव के ठीक पहले राहत का पिटारा खोलने का क्या मतलब हो सकता है ? म.प्र के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने एक बार कहा था कि चुनाव मैनेजमेंट से जीते जाते हैं , विकास से नहीं। हालांकि 2003 में बिजली , सड़क और पानी के मुद्दे पर उनकी सरकार  चली गई थी। उसके बाद म.प्र में हर क्षेत्र में जबरदस्त विकास हुआ और वह बीमारू राज्य के कलंक से मुक्त भी हुआ किन्तु 2018 में शिवराज सिंह चौहान सत्ता गंवा बैठे। इसका सबसे अच्छा उदाहरण 2004 का लोकसभा चुनाव है जब राष्ट्रीय राजमार्गों के विकास की स्वर्णिम चतुर्भुज योजना के अंतर्गत दक्षिण के जिन राज्यों में सड़कों का निर्माण शुरू हुआ वहां भाजपा को नाकामयाबी मिलने से अटल बिहारी वाजपेयी के हाथ से  सत्ता खिसक गई। अविभाजित आंध्र को विकास की नई ऊंचाइयों पर ले जाने वाले चंद्रबाबू नायडू भी सत्ता से बाहर हो गए। ऐसे में ये सवाल काफी तेजी से विचार में आता है। कि क्या भारत की  चुनावी राजनीति में विकास प्रभावशाली मुद्दा नहीं रह गया है और सत्ता में आने और उसके बाद उसमें बने रहने के लिए दूसरे टोटके करने जरूरी हैं । यद्यपि उ.प्र विधानसभा का पिछला चुनाव योगी सरकार के राज में बेहतर कानून व्यवस्था के कारण भाजपा के पक्ष में गया किंतु ये भी उतना ही सही है कि जातीय समीकरणों का इस्तेमाल करते हुए सपा  अपनी सीटें दोगुनी करने में कामयाब रही। यही कारण है कि ममता बैनर्जी और लालू प्रसाद यादव जैसे नेताओं ने अपने राज्य के विकास की बजाय चुनाव जीतने के अन्य तरीके अपनाए। ये निश्चित रूप से दुर्भग्यपूर्ण है। हालांकि आजकल प्रत्येक जनप्रतिनिधि पर अपने निर्वाचन क्षेत्र के विकास का दबाव रहता है किंतु चुनाव के दौरान उत्पन्न तात्कालिक मुद्दे उसकी उपलब्धियों पर पानी फेर देते हैं जो वाकई विचारणीय विषय है । अक्सर ये कहा जाता है कि चुनाव में धर्म और जाति की बजाय शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे  विषयों पर चर्चा होनी चाहिए किंतु जब धर्म और जाति सामने आते हैं तब शिक्षा , स्वास्थ्य और बाकी बातें निरर्थक हो जाती हैं। दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने मोहल्ला क्लीनिक और सरकारी विद्यालयों में सुधार जैसा मुद्दा उठाया किंतु उसकी जीत में मुफ्त बिजली और पानी ज्यादा सहायक बने। आने वाले महीनों में होने जा रहे विधानसभा चुनावों में जिस तरह के प्रलोभन दिए जा रहे हैं उनको देखकर लगता है कि राजनीति विचार  नहीं उपहार पर आधारित हो गई है और जाति की दीवारें तोड़ने के बजाय उन्हें और मजबूत किया जाने लगा है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Monday 5 June 2023

राजनीति छोड़ हादसों की पुनरावृत्ति रोकने के बारे में सोचें




उड़ीसा में हुई भीषण रेल दुर्घटना की चर्चा रुक पाती उसके पहले ही बिहार के भागलपुर में गंगा नदी पर बनाये जा रहे पुल का एक हिस्सा गत दिवस भरभराकर नदी में समा गया। रविवार की वजह से काम बंद होने से निर्माणस्थल पर मजदूर नहीं थे इसलिए कोई जनहानि नहीं हुई । इस की लागत 1700 करोड़ से भी ज्यादा है । यह पुल मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का महत्वाकांक्षी प्रकल्प बताया जा रहा है। पुल के गिरने के कुछ देर पहले बिहार के उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव उड़ीसा की रेल दुर्घटना के लिए प्रधानमंत्री और रेल मंत्री को जिम्मेदार मानकर त्यागपत्र की मांग कर रहे थे। लेकिन अब पूरे देश में भागलपुर की घटना को लेकर नीतीश कुमार पर उंगलियां उठने लगी हैं । इस बारे में रोचक तथ्य ये भी है कि उक्त पुल का एक हिस्सा गत वर्ष भी टूटकर गिरा था। बावजूद उसके निर्माण संबंधी गुणवत्ता नहीं रखी गई जिसका नतीजा सामने है । इस घटना को महज धनहानि मानकर चलना गैर जिम्मेदाराना सोच होगी क्योंकि बरसों से बन रहे इस पुल का निर्माण लंबे समय के लिए टल जाएगा । पुल का हिस्से दो - दो बार गिर जाने की वजह से निर्माण स्थल पर अन्य समस्याएं भी उत्पन्न हो जाएंगी। ठेकेदार बदलने पर नए सिरे से निविदा वगैरह निकालनी पड़ेगी , सो अलग। हालांकि हमारे देश में इस तरह के हादसे गाहे - बगाहे होते ही रहते हैं । गत वर्ष गुजरात में भी मरम्मत के कुछ समय बाद ही पुल टूटकर नदी में समा गया। जिसमें काफी लोग हताहत हो गए थे। उक्त सभी हादसे इस बात की पुष्टि करते हैं कि लापरवाही और भ्रष्टाचार हमारी रगों में खून बनकर बहने लगा है। जब भी कभी हादसे होते हैं तब जो भी सत्ता में बैठा होता है उसे विपक्ष के साथ जनता के गुस्से और आलोचना का शिकार होना पड़ता है। मसलन उड़ीसा में रेल दुर्घटना होते ही पूरा विपक्ष केंद्र सरकार पर हमलावर हो गया। रेलमंत्री अश्विन वैष्णव के त्यागपत्र का दबाव बनाया जाने लगा । लेकिन ज्योंही भागलपुर का निर्माणाधीन पुल धसका त्योंही आलोचना का निशाना घूमकर नीतीश सरकार पर केंद्रित हो गया। रेल दुर्घटना की जांच सीबीआई को सौंपने की बात रेल मंत्री कह चुके हैं और नीतीश ने भी पुल गिरने के मामले की जांच हेतु आदेश दे दिए। इसी के साथ ही लालू ,नीतीश और ममता के रेल मंत्री रहते हुए हुई रेल दुर्घटनाओं तथा उनमें मारे गए लोगों की संख्या के आंकड़े प्रसारित कर ये साबित किया जाने लगा कि वर्तमान केन्द्र सरकार के दौर में उक्त दोनों में कमी आई है । लेकिन विपक्ष द्वारा किए जा रहे हमले और केंद्र सरकार की ओर से हो रहे बचाव के बीच ये प्रश्न उभरकर सामने आता है कि दूसरे की गलती पर तो नैतिकता के नाम पर त्यागपत्र की उम्मीद की जाती है किंतु जब वही बात आपके साथ जुड़ती है तब बलि के बकरे तलाशकर अपनी गर्दन बचाने का काम होता है । उड़ीसा की दुर्घटना में अगर रेल गाड़ियां और पटरियां क्षतिग्रस्त हुई होतीं तब शायद उसे उतनी तवज्जो न मिलती किंतु जिस बड़े पैमाने पर जनहानि हुई वह दुखद है और उसके पीछे जो तकनीकी कमियां और मानवीय लापरवाही का आभास हुआ है वे चिंता का सबब भी हैं किंतु ऐसा ही तो भागलपुर का पुल नदी में गिरने के साथ है। इसके पूर्व भी जब उसका एक निर्माणाधीन हिस्सा गिर गया था उसी समय यदि इन्जीनियरिंग दृष्टि से उसकी ईमानदारी से समीक्षा की गई होती तब शायद कल वाला हादसा न होता। इन सब घटनाओं से ये बात महसूस होती है कि विकास कार्यों में होने वाला भ्रष्टाचार अब राजनीतिक दलों की सीमाओं से ऊपर उठकर समूची प्रशासनिक व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा बन चुका है। तेजस्वी यादव सहित तमाम भाजपा विरोधी नेता रेल दुर्घटना पर श्री वैष्णव का त्यागपत्र मांग रहे हैं। राहुल गांधी ने तो अमेरिका में बैठे हुए ही यह मांग कर डाली। संजय राउत ने स्व.लालबहादुर शास्त्री और स्व.माधवराव सिंधिया के उदाहरण देते हुए रेल मंत्री पर दबाव बनाने का प्रयास किया किंतु अब क्या ये सभी नीतीश कुमार पर पुल गिरने का दोष मढ़ते हुए पद त्यागने का दबाव बनाएंगे ? लेकिन सब जानते हैं कि नैतिकता के पुराने उदाहरण अब फिजूल माने जाते हैं । और इसीलिए दूसरों को नैतिकता और ईमानदारी का उपदेश देने वाले जब अपने सिर पर आती है तो दाएं - बाएं झांकने लगते हैं। दरअसल राजनीति के धंधे में लिप्त तबका केवल क्षणिक उन्माद पैदा करते हुए अपने लाभ के लिए होहल्ला मचाता है। इस सबसे हटकर सोचने वाली बात ये है कि किसी हादसे के बाद दायित्वबोध और नैतिकता के जो प्रवचन दिए जाते हैं यदि दैनिक व्यवहार में राजनेता उन बातों को अमल में लाएं तो इस तरह के हादसों की स्थिति ही न बने। और फिर ऐसे अवसरों पर राजनीति से बाज आना चाहिए क्योंकि इससे बचाव और जांच दोनों प्रभावित होते हैं। उड़ीसा की रेल दुर्घटना और बिहार में पुल का गिर जाना दोनों हमारी व्यवस्था में व्याप्त विसंगतियों को उजागर करती हैं। जब तक छोटी - छोटी बातों में राजनीतिक हस्तक्षेप और भ्रष्टाचार होता रहेगा तब तक ऐसी घटनाओं को रोकना मुश्किल रहेगा। जहां तक बात इस्तीफे की है तो उससे भी कुछ लाभ नहीं होता। और जब जेल जाने के बाद भी मंत्री कुर्सी नहीं छोड़ते तब कुछ कहने को बचता ही कहां है ? होना तो ये चाहिए कि किसी भी दुर्घटना के बाद उसकी पुनरावृत्ति रोकने के बारे में कार्ययोजना बनना चाहिए । एक दूसरे की टांग खींचने की प्रतिस्पर्धा में आगे पाट पीछे सपाट का ये खेल रुकना जरूरी है वरना हादसों का सिलसिला इसी तरह जारी रहेगा ।

- रवीन्द्र वाजपेयी