Tuesday 30 April 2019

शाबास मप्र : 44 डिग्री में 74 फीसदी मतदान

मप्र की छह लोकसभा सीटों के लिए गत दिवस हुए मतदान के बाद जीत हार किसी की भी हो लेकिन मतदान के प्रतिशत में हुई वृद्धि ने लोकतंत्र के प्रति मतदाताओं की जागरूकता को प्रमाणित कर दिया। दो दिन पहले तक लग रहा था कि चुनाव बेहद ठंडा है और उसमें लोगों की रूचि नहीं है। उपर से तेज गर्मी से भी कम मतदान की आशंका उत्पन्न हो गयी थी। लेकिन 44 डिग्री के तापमान के बावजूद औसतन 74 फीसदी मतदान लोकतंत्र के लिए बेहद सकारात्मक संकेत है। इससे ये साबित हो गया कि आम जनता अपने भविष्य के बारे में काफी सजग है। 2014 की अपेक्षा सबसे कम 3 फीसदी की वृद्धि छिंदवाड़ा में हुई लेकिन वह भी 82 प्रतिशत है जो प्रदेश में सर्वाधिक है। मतदान में सर्वाधिक वृद्धि 13 फीसदी की शहडोल में हुई। वहीं जबलपुर और मंडला में क्रमश: 11 और 10 फीसदी की वृद्धि उल्लेखनीय है ।  पिछले लोकसभा चुनाव की अपेक्षा  सीधी और बलाघाट में भी 8 फीसदी की वृद्धि शुभ संकेत है। ध्यान देने योग्य बात ये हैं कि जिन सीटों पर कल मतदान हुआ उनमें अनुसुचित्त  जनजाति के मतदाताओं की बड़ी संख्या है। मंडला  लोकसभा सीट के अंतर्गत आने वाली सभी विधानसभा  सीटें भी आरक्षित ही हैं। यही स्थिति कमोबेश शहडोल, बालाघाट, छिंदवाड़ा  और सीधी की भी है। ऐसी स्थिति में भरी गर्मी में ग्रामीण इलाकों में रहने वाले मतदाताओं ने जिस सक्रियता का परिचय दिया वह इस बात का प्रमाण है कि समाचार और संचार माध्यमों के जरिये मतदान के प्रति रूचि जाग्रत करने के जो प्रयास हुए उनका सुफल दिखाई देने लगा है। चुनाव आयोग ने भी मतदान के प्रति लोगों को प्रोत्साहित करने का जो अभियान चलाया उसके भी सुपरिणाम दिखने लगे हैं। मतदान केन्द्रों में अच्छी  व्यवस्था भी इसमें सहायक सिद्ध हुई है। लेकिन जो सबसे प्रमुख वजह इस उत्साह के पीछे  नजर आ रही है वह है उन युवा मतदाताओं का मतदान करने पहुंचना जो सन 2000 या 2001 में जन्मे और 18 वर्ष के होते ही पहली बार मतदाता बने। ये वर्ग कम्यूटर और मोबाईल के जरिये देश और  दुनिया से परिचित हुआ है। सोशल मीडिया के उदय ने संपर्कों और संवाद का दायरा असीमित कर दिया है। सूचनाओं और खबरों का आदान- प्रदान जितनी तेजी से होने लगा है उसकी वजह से सुदूर इलाकों तक भी उन सब बातों की जानकारी पहुंच जाती है जो कभी देश और प्रदेश तो क्या 20 - 25 किलोमीटर दूरी के दायरे की घटनाओं से अपरिचित रहते थे। ये भी देखा जाने लगा है कि राष्ट्रीय मुद्दों पर जिस तरह की चर्चा पहले केवल शहरी शिक्षित वर्ग के बीच सीमित हुआ करती थी उसका विस्तार अब कस्बों और ग्रामीण क्षेत्रों तक जा पहुंचा है। मप्र राजनीतिक दृष्टि से बेहद शांत और संयमित माना जाता है। दो दलीय राजनीति के कारण यहाँ न तो ज्यादा जातिगत गोलबंदी नजर आती है और न ही सामाजिक स्तर पर किसी तरह की वैमन्स्यता।  वनवासी क्षेत्र अब पहले जैसे तो नहीं रहे क्योंकि सड़क और बिजली की वजह से वहां की जीवन शैली भी बदली है लेकिन अभी भी वहां विकास का सूर्योदय शहरों की तुलना में कम ही हुआ है। उसके बावजूद भी आदिवासी कहे जाने वाले मतदाताओं को राजनीतिक तौर पर अपरिपक्व मानने वाली अवधारणा के लिये कोई जगह नहीं रही। इसी तरह  ग्रामीण क्षेत्रों में भी लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में भागीदारी के प्रति इच्छा जाग्रत हुई है। एक समय था जब महिलाएं राजनीतिक मामलों में उदासीन समझी जाती थीं। लेकिन बदले हुए सामाजिक माहौल में वे भी पुरुषों की तुलना में पूर्वापेक्षा काफी जागरूक और मुखर हो उठी हैं। इन सबके समन्वित प्रयासों का ही असर है कि डेढ़ दशक पहले तक बीमारू कहे जाने वाले मप्र में अपने अधिकारों के प्रति जनचेतना का उल्लेखनीय विकास हुआ है। पिछले विधानसभा चुनाव में भी इसका प्रमाण सामने आया था लेकिन उस वक्त का मौसम बड़ा ही सुहावना होने से मतदान करने में सहूलियत बनी रही लेकिन इन दिनों सूर्य से बरस रही आग की तपिश ने समूचे जनजीवन को जिस तरह से अस्तव्यस्त कर रखा है उससके बावजूद भी रिकार्ड तोड़ मतदान ने देश की राजनीति में मप्र के महत्व को बढ़ा दिया है। जाति, भाषा और क्षेत्रीयता से उपर उठकर मप्र में दो दलीय राजनीति की वजह से राजनीतिक अनिश्चितता भी तुलनात्मक दृष्टि से कम है। हालाँकि सपा, बसपा और गोंगपा जैसी पार्टियों की मौजूदगी भी रहती है लेकिन उनका प्रभावक्षेत्र बेहद सीमित होने से वे राजनीति की दिशा तय करने में सक्षम नहीं हैं। यही वजह है कि मुख्य संघर्ष भाजपा और कांग्रेस के बीच केन्द्रित रहता है। एक दौर था जब वामपंथी भी थोड़ी से हैसियत रखते थे लेकिन कालान्तर में उनका आभामंडल पूरी तरह लुप्त हो गया। इंदौर जैसे शहर का प्रतिनिधित्व कामरेड होमी दाजी ने लम्बे समय तक संसद में किया। ये सब देखते हुए गत दिवस लगभग 74 फीसदी का औसत मतदान इस बात का प्रमाण है कि देश के मौजूदा राजनीतिक विमर्श में मप्र के मतदाता पूरी जागरूकता के साथ हिस्सेदारी करने तत्पर हैं। अभी केवल छह सीटों का मतदान हुआ है और 23 का बाकी है। उम्मीद की जा सकती है कि देश का ह्रदय प्रदेश अगले चरणों में भी ऐसी ही जागरूकता का परिचय देगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 29 April 2019

सब पर भारी जात हमारी

लोकसभा चुनाव का चौथा चरण आज शाम तक सम्पन्न हो जायेगा। इसके साथ ही 374 सीटों के लिए मतदाताओं का निर्णय ईवीएम में बंद हो चुका होगा। हालांकि सभी अपनी - अपनी जीत का दावा कर रहे हैं लेकिन उनमें इतना अधिक विरोधाभास है कि पक्के तौर पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता। लेकिन एक बात स्पष्ट है कि चौथा चरण आते तक सारे योद्धा थक चुके हैं। जिन मुद्दों से चुनाव शुरू हुआ था वे सभी पृष्ठभूमि में जा चुके हैं या फिर उन्हें सुनते - सुनते मतदाता ऊब गये हैं। यही वजह है कि अंतिम दौर आते - आते तक चुनाव लौटकर फिर जाति के मुद्दे पर केन्द्रित होने लगा है। मायावती ने ज्योंही प्रधानमंत्री को नकली और मुलायम सिंह यादव को असली पिछड़ा नेता बताया त्योंही नरेंद्र मोदी ने उस मुद्दे को पकड़ लिया और जुट गए खुद को पिछड़े से भी बढ़कर अति पिछड़ा बताने। उन्होंने अपनी जाति को लेकर उठाये जा रहे संदेहों को समूची पिछड़ी जातियों का अपमान बताते हुए अपने भाषणों में उसका बेहद आक्रामक ढंग से उल्लेख करना शुरू कर दिया। गत दिवस मायावती ने एक बार फिर से उनकी जाति पर सवाल उठाया और कहा कि जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे तब उनकी जाति सामान्य वर्ग में थी जो बाद में पिछड़े वर्ग में शामिल की गई। बहरहाल इस बहस या विवाद से एक बात साबित हो गई कि चुनाव आयोग चाहे जितना दावा करे लेकिन जाति आधारित राजनीति समाप्त होने की बजाय और बढ़ती ही जा रही है। गुजरात विधानसभा चुनाव से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने मन्दिर जाने का सिलसिला शुरू करते हुए खुद को हिन्दू साबित करने का प्रयास किया और बाद में उन्होंने ब्राम्हण होने का दावा करते हुए जनेऊ पहिनने तक का स्वांग रचा। इससे ये साबित हो गया कि विदेश में शिक्षा प्राप्त करने वाले नेता भी जाति के जंजाल से खुद को मुक्त नहीं कर पा रहे। वैसे इसे लेकर किसी एक या कुछ नेताओं को दोष नहीं दिया जा सकता बल्कि ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि राष्ट्रीय पार्टियां भी जाति जैसी संकुचित सोच को अपनाने तैयार हो गईं। इसका असर ये हुआ कि मतदाताओं के भीतर भी जाति का आकर्षण बढ़ता जा रहा है। बड़ी - बड़ी सर्वेक्षण कम्पनियां तक चुनाव परिणामों का आकलन जाति के आधार पर करती हैं। उदाहरण के लिए बिहार की बेगुसराय सीट पर गिरिराज सिंह और कन्हैया कुमार के बीच जीत - हार का गणित लगाने वाले ये बताने से बाज नहीं आ रहे कि वे दोनों भूमिहार हैं। इसी तरह लोकप्रिय पंजाबी गायक हंसराज हंस को जब भाजपा ने दिल्ली में उदित राज की टिकिट काटकर उम्मीदवारी प्रदान की तब लोगों को ज्ञात हुआ कि वे भी अनुसूचित जाति के हैं। देश की अनेक चर्चित सीटों के चुनाव परिणाम जातीय गणित पर ही टिके बताये जाते हैं। इसीलिये राजनीतिक दल भी टिकिट तय करते समय प्रत्याशी की योग्यता से ज्यादा उसकी जाति को महत्व देते हैं। उप्र और बिहार इस मामले में ज्यादा बदनाम हैं लेकिन ये कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि अब ये बुराई समान रूप से पूरे देश में फैल गई है। जबलपुर लोकसभा सीट से कांग्रेस उम्मीदवार विवेक तन्खा सर्वोच्च न्यायालय के प्रतिष्ठित अधिवक्ता हैं।  चुनाव के समय उनके नाम के पहले पंडित लगा दिया गया जिससे उनके ब्राह्मण होने का पता चल सके। ऐसे उदाहरण अनेकानेक हैं। रामनाथ कोविंद जब तक राष्ट्रपति नहीं बने तब तक उनके अनुसूचित जाति के होने के बारे में बहुत कम लोगों को जानकारी थी। लेकिन जब भाजपा ने उनका चयन इस सर्वोच्च पद के लिए किया तब उनकी शैक्षणिक योग्यता और राजनीतिक अनुभव से ज्यादा उनकी जाति का प्रचार करते हुए दलित वर्ग को लुभाने की कोशिश की गई। इसका नुकसान ये हो रहा है कि समाज जातियों और उसके बाद उपजातियों में बंटकर रह गया है। राजनीति चलाने वालों से समाज की कुरीतियों को मिटाने की अपेक्षा की जाती है लेकिन वे इसे और बढ़ाते जा रहे हैं। उ.प्र., बिहार में अभी कुछ छोटी-छोटी जाति आधरित पार्टियों ने जिस तरह से भाजपा को घुटनाटेक करवाया वह इसका उदाहरण है। ये स्थिति 21 वीं सदी के भारत को कहां ले जायेगी ये सोचकर चिंता होने लगती हैं। मनुवादी सोच को पानी पी-पीकर कोसने वाले नेता जब खुद उसी वर्ण व्यवस्था द्वारा बनाई गयी सामाजिक रचना को सियासत का आधार बनाते हैं तब उनके दोहरेपन पर आश्चर्य होता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 27 April 2019

राहुल तब गलत थे या अब

गत दिवस बिहार के समस्तीपुर में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने जब कहा कि भाजपा द्वारा लालू और उनके परिवार के अपमान का बदला बिहार की जनता लेगी तब 27 सितम्बर 2013 की वह घटना मानस पटल पर आकर तैरने लगी जब दिल्ली में एक पत्रकार वार्ता के दौरान राहुल ने मनमोहन सिंह सरकार द्वारा राष्ट्रपति को भेजे गये उस अध्यादेश का मजमून फाड़कर सनसनी मचा दी जो उन दागी सांसदों और विधायकों को चुनाव लडऩे की छूट प्रदान करने के लिए जारी किया जाना था जो 2 वर्ष या उससे अधिक की सजा प्राप्त होने के कारण चुनाव लडऩे से वंचित कर दिए गए थे। उस अध्यादेश का असली उद्देश्य लालू प्रसाद यादव को बचाना था जो चारा घोटाले में सजा हो जाने के बाद मंत्रीमंडल और संसद दोनों से बाहर हो गये थे। उल्लेखनीय है उसे राष्ट्रपति के पास स्वीकृति के लिए भेजकर प्रधानमंत्री विदेश चले गये थे। राहुल उस वक्त पार्टी के उपाध्यक्ष थे लेकिन सोनिया गांधी ने धीरे-धीरे उन्हें सारे अधिकार सौंपने की प्रक्रिया शुरू कर दी थी। कांग्रेसजन भी उनमें ही भविष्य का अध्यक्ष देखने लग गये और मनमोहन सिंह भी कोई अपवाद नही थे। ऐसे में सरकार द्वारा तैयार अध्यादेश राष्ट्रपति को भेजे जाने के बाद पार्टी के सबसे ताकतवर नेता द्वारा पत्रकार वार्ता में गुस्से का अभिनय करते हुए फाड़े जाने से उनकी अपनी सरकार की जबरदस्त किरकिरी हो गई। राहुल ने उस नाटकीय कृत्य से अपनी ईमानदार और भ्रष्टाचार विरोधी छवि बनाने का प्रयास किया था। दरअसल वह समय आते तक ईमानदार छवि वाले प्रधानमन्त्री डा. सिंह की सरकार भ्रष्टाचार के अनेक मामलों में घिर चुकी थी। लेकिन जिस अध्यादेश को मंत्रीपरिषद की मन्जूरी के बाद राष्ट्रपति के अनुमोदन के लिए भेजा गया उस पर कांग्रेस पार्टी की सहमति नहीं रही होगी ये मान लेना कठिन है। ख़ास तौर पर मनमोहन सिंह जैसा व्यक्ति इतना दुस्साहसी हो ही नहीं सकता था कि वह इतना बड़ा नीतिगत निर्णय अपने दम पर ले लेता जिससे सरकार की खराब छवि और भी खराब होने का खतरा था। राहुल को उसके बारे में नहीं पता होगा ये भी अविश्वसनीय लगता है। और यदि नहीं पता था तब वे प्रधानमन्त्री से कहकर अध्यादेश को राष्ट्रपति भवन से वापिस बुलवा सकते थे जिससे सरकार की फजीहत नहीं होती। लेकिन विशुद्ध फिल्मी शैली की स्टंटबाजी दिखाते हुए उन्होंने पत्रकारों के सामने उक्त अध्यादेश को फाड़कर फेंक दिया। उनके उस कदम के बाद कोई गैरतमंद प्रधानमन्त्री होता तो तत्काल स्तीफा देकर अलग हो जाता लेकिन मनमोहन सिंह में उतना साहस कभी नहीं रहा। बहरहाल अध्यादेश वापिस ले लिया गया। नतीजा ये हुआ कि अपराधिक प्रकरण में दो वर्ष और उससे अधिक की सजा मिलने वाले नेता चुनाव लडऩे के लिए अयोग्य होकर रह गये और परिणामस्वरूप लालू प्रसाद यादव 2014 का लोकसभा चुनाव नहीं लड़ सके। दुर्भाग्य ने उसके बाद भी उनका पीछा जारी रखा और उन्हें दूसरे मामलों में भी लम्बी-लम्बी सजायें होने से वे जेल में हैं। हालाँकि इलाज के नाम पर अस्पताल में रहने की सुविधा उन्हें मिली हुई है जिसका भरपूर फायदा उठाकर वे राजनीति करते रहते हैं लेकिन चुनाव लडऩे का अधिकार उनसे छिन गया। चौंकाने वाली बात ये है कि जिन राहुल ने लालू को चुनावी राजनीति से बाहर करने वाला कदम उठाया था वही उनकी गोद में जा बैठे। यही नहीं तो वे उनसे मिलने अस्पताल भी जाते रहे। बिहार में पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान नीतीश और लालू के गठबंधन में कान्ग्रेस भी सहयोगी थी और बाद में सरकार का हिस्सा भी बनी। ऐसे में लालू का अपमान भाजपा द्वारा किये जाने का आरोप लगाने से पहले राहुल को उस वाकये को याद कर लेना चाहिए था जब उन्होंने लालू के चुनाव लडऩे की राह में अवरोध उत्पन्न कर दिए थे। राहुल गांधी को इस बात का भी जवाब देना चाहिए कि लालू की इस दशा का जिम्मेदार भाजपा है या वे अदालतें जिन्होंने उन्हें अपराधी मानकर जेल भिजवाया। होना तो ये चाहिए था कि कांग्रेस अध्यक्ष जिस साफ-सुथरी छवि को लेकर राजनीति में उतरे थे और जिसे प्रमाणित करने के लिये उन्होंने भ्रष्टाचारियों को बचाने वाले अध्यादेश की धज्जियां उड़ा दी थी, उसे अक्षुण्ण रखने के लिए लालू ब्रांड राजनीति से दूरी बनाकर चलते। लेकिन उन्होंने भाजपा से हिंदुत्व नामक मुद्दा छीनने की कोशिश तो जमकर की लेकिन पार्टी विथ डिफरेंस का दावा छीनने की इच्छा तक नहीं दिखाई। एक तरफ प्रधानमन्त्री के लिए चोर के नारे लगवाना और दूसरी तरफ  चारा चोर के रूप में कुख्यात और कानून द्वारा दण्डित लालू के अपमान का बदला जनता द्वारा लिये जाने की बात कहकर कांग्रेस अध्यक्ष किस ईमानदारी को प्रोत्साहित करना चाहते हैं ये बड़ा सवाल है। लालू और उनके परिवार का अपमान भाजपा ने किया इससे बड़ा मजाक क्या होगा? उनके दोनों बेटों की कारस्तानियाँ भी बिहार के लोगों की जुबान पर हैं। उसके बावजूद यदि राहुल उनके साथ गलबहियां करते घूमने तत्पर हैं तब उनके मुंह से भ्रष्टाचार की बात शोभा नहीं देती। यदि उन्हें लगता है कि लालू का अपमान हुआ और वे भाजपा द्वारा प्रताडि़त किये गये तो उसके पहले उन्हें उस अध्यादेश को फाडऩे के लिए लालू और उनके परिवार से क्षमा याचना भी करना चाहिए जिसकी वजह से चारे की चोरी के अपराधी लालू चुनावी मैदान से बाहर कर दिए गए। वाकई सत्ता की राजनीति कितनी सिद्धांतविहीन है जिसमें फंसकर इंसान अपनी ही बातें भूल जाता है। राहुल का लालू के परिवार से गठबंधन अपने ही बनाये नैतिकता के मापदंडों को अस्वीकार करने जैसा है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 26 April 2019

वे तीन न्यायाधीश और नेतागण क्यों खामोश हैं

ये सच है कि लोकसभा चुनाव की जीत हार के फेर में फंसे राजनीतिक नेताओं को इस समय कुछ और नहीं सूझ रहा। लेकिन न्याय की देवी का चीरहरण होते देखकर भी चुपचाप बैठे रहने वाले इन महारथियों की तुलना धृतराष्ट्र की सभा में बैठे महा पराक्रमी और नीति मर्मज्ञों से करना गलत नहीं होगा जो सत्ता का नमक चाटने के लालच में अपनी कुलवधू की अस्मत लुटती देखकर असहाय बने रहे। सवा साल पहले ही पूरे देश का ध्यान न्यापालिका की स्वायत्तता पर केन्द्रित हो गया था। सर्वोच्च न्यायालय के चार माननीय न्यायाधीशों ने मर्यादा तोड़कर पत्रकार वार्ता करते हुए तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की कथित स्वेच्छाचारिता के विरुद्ध आसमान सिर पर उठा लिया। सड़क से लेकर संसद तक बस एक ही मुद्दा छाया रहा। पूरे देश में ऐसा माहौल बना दिया गया मानों न्यायपालिका सत्ता की बंधुआ हो और निर्णय करने की उसकी शक्ति किसी और के हाथ में चली गई हो। लेकिन उस समय भी किसी ने न्यायपालिका में फिक्सिंग और न्ययाधीशों के चरित्र पर उंगली नहीं उठाई। कार्पोरेट घरानों द्वारा न्यायिक व्यवस्था में दखल का भी कोई आरोप नहीं लगा। लेकिन बीते एक सप्ताह में सर्वोच्च न्यायालय में जो होता दिखाई और सुनाई दे रहा है वह अभूतपूर्व ही नहीं अत्यंत दु:खदायी और चिंतनीय है। जिन चार न्यायाधीशों ने घर की बात सड़क पर लाने का दुस्साहस किया था उनमें से तीन तो घर बैठे हैं लेकिन उनमें से एक वर्तमान मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई हैं जिनके चरित्र पर आरोप लगने से इस विवाद की शुरुवात हुई। लेकिन बात वहीं तक सीमित रहती तब तो उसे व्यक्तिगत मानकर उपेक्षित कर दिया जाता क्योंकि मी टू विवाद के बाद इस तरह की बातें आम हो चली थीं किन्तु जब मामला सर्वोच्च न्यायालय में फिक्सिंग और कार्पोरेट घराने के हस्तक्षेप तक जा पहुंचा तब वह बहुआयामी हो गया जिसे लेकर कुछ न्यायाधीश भी प्रवचन नुमा शैली में आग से न खेलने जैसी नसीहत दे रहे हैं। श्री गोगोई के साथ पत्रकार वार्ता में शामिल रहे तीन न्यायाधीश भले ही सेवा से निवृत्त हो गये हों किन्तु मानसिक तौर पर तो स्वस्थ एवं चैतन्य होंगे ही और ऐसे में उनकी इस मुद्दे में उदासीनता आश्चर्यचकित करने वाली है। श्री चेल्मेश्वर, श्री लोकुर और श्री जोसफ नामक उक्त तीनों न्यायाधीश बीते एक वर्ष के दौरान ही सेवा से निवृत्त हुए हैं इसलिए मौजूदा विवाद के मुद्दों से उनका अनभिज्ञ होना गले नहीं उतरता। रही बात उनके पद पर नहीं होने की तो बतौर एक जिम्मेदार नागरिक और विधि विशेषज्ञ देश उनसे अपेक्षा करता है कि वे मुखर होकर सामने आयें। जब पद पर रहते हुए वे अपने वरिष्ठ मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध विद्रोह की शक्ल में आगे आने से नहीं डरे तो अब जबकि वे सेवा शर्तों से जुड़े अनुशासन से मुक्त हैं तब सर्वोच्च न्यायालय की तार-तार हो रही गरिमा को बचाने के प्रति पूरी तरह उदासीन क्यों हैं इस सवाल का जवाब पूरा देश उनसे मांग रहा है। और फिर उनका अपना पुराना जुझारू साथी एक ऐसे चक्रव्यूह में फंस गया है जिससे निकलने में वह खुद को असहाय महसूस कर रहा है। इस समूचे विवाद में श्री गोगोई की स्थिति उस दुस्साहसी व्यक्ति जैसी हो गयी है जो शेर पर सवार तो हो गया लेकिन अब उतर नहीं पा रहा। न्यायपालिका के बारे में जो-जो भी निम्नस्तरीय बातें सामने आ रही हैं वे नई नहीं हैं। फर्क केवल ये है कि अभी तक जो कान में कहा जाता रहा वह अब सरे आम चिल्लाकर बोला जा रहा है और वह भी ऐसे समय जब देश नई सरकार चुनने की प्रक्रिया में हो। ऐसे में ये अपेक्षा गलत नहीं है कि गंगा की तरह से ही न्यायपालिका की पवित्रता पुनस्र्थापित करने के प्रति भी राजनेता अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त करें। जिन दलों और नेताओं ने तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र के विरुद्ध भड़की चिंगारी को पेट्रोल छिड़ककर आग में बदल दिया था वे मुंह में दही जमाए क्यों बैठे हैं ये प्रश्न भी बेहद प्रासंगिक है। केन्द्रीय मंत्री अरुण जेटली को छोड़कर अभी तक किसी भी पार्टी या नेता ने मौजूदा विवाद में अपना मत नहीं व्यक्त किया जबकि चुनाव के मौसम में स्थानीय स्तर के मुद्दों तक पर पूरे देश में बवाल मचा दिया जाता है। अभी 240 से ज्यादा लोकसभा सीटों पर मतदान बाकी है। तब क्या न्यायपालिका में चल रही कीचड़ फेंक प्रतियोगिता पर देश के राजनीतिक नेतृत्व को चुप बैठना चाहिए। सत्ता से जुड़े लोगों के सामने तो फिर भी कुछ व्यवहारिक परेशानियाँ हो सकती हैं लेकिन जब औद्योगिक घरानों की कारस्तानियों से न्यायपालिका की सर्वोच्च आसंदी की गरिमा और प्रतिष्ठा दांव पर लग गई हो और देश को चलाने का अधिकार मांगने वाले चुप बने रहें तब कुछ और सवाल भी स्वाभाविक रूप से उत्पन्न हो रहे हैं। दीपक मिश्र के विरुद्ध तो बात महाभियोग तक जा पहुंची थी लेकिन श्री गोगोई को लेकर लगे गम्भीर आरोप पर कपिल सिब्बल जैसे कानूनी दिग्गज तक शांत हैं। माना कि अभी आरोपों की जाँच नहीं हुई और उनसे जुड़े अन्य विवादों पर न्यायपालिका ने अपने स्तर पर कदम उठा लिए हैं लेकिन चुनाव लड़ रही विभिन्न पार्टियों को भी न्यायपालिका के मौजूदा सूरते हाल पर अपनी स्थिति और नीति स्पष्ट करनी चाहिए। वरना उनकी खामोशी के गलत अर्थ निकाले जायेंगे।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 25 April 2019

न्यायपालिका में भी स्वच्छता अभियान की जरूरत

जिस तरह किसी के चरित्र के बारे में सब जानते हुए भी कुछ कहने से बचा जाता है ठीक वैसे ही हमारे देश में न्यायपालिका के प्रति इतना ज्यादा सम्मान और लिहाज  है कि उसकी विसंगतियों और विकृतियों के बारे में काफी कुछ जानते हुए भी जुबान बंद रखे जाने की परिपाटी चली आ रही है। यही वजह है कि गत वर्ष की शुरुवात में ही जब सर्वोच्च न्यायालय के चार न्यायाधीशों ने उस समय के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र के विरुद्ध बगावती अंदाज में पत्रकार वार्ता बुलाकर मोर्चा खोला तब भूचाल सा आ गया। मिश्र जी तो सेवा निवृत्त हो गये और उन चार न्यायाधीशों में से भी तीन पेंशनर बनकर घर बैठ गये लेकिन उस मुहिम की अगुआई करने वाले रंजन गोगोई वर्तमान में मुख्य न्यायाधीश हैं। बीते सप्ताह उन पर एक महिला ने यौन शोषण का आरोप लगाकर सनसनी मचा दी थी। उस आरोप की जाँच के तरीके और श्री गोगोई की प्रतिक्रिया को लेकर काफी आलोचनात्मक टिप्पणियाँ हुईं लेकिन वह आरोप तो अपनी जगह धरा रह गया और सर्वोच्च न्यायालय के एक अधिवक्ता ने खुलकर आरोप लगा दिया कि श्री गोगोई पर लगाया गया आरोप किसी बड़े षड्यंत्र का हिस्सा है जिसके पीछे किसी कार्पोरेट घराने का हाथ है। दूसरी तरफ आरोप लगाने वाली महिला ने न्यायाधीशों की उस पीठ के एक सदस्य की निष्पक्षता पर ही ये कहते हुए  सवाल खड़े कर दिए कि वे श्री गोगोई के काफी निकट हैं और नियमित उनके घर आते-जाते रहते हैं। गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय में उस वकील के आरोपों को लेकर गर्मागर्म बहस हुई जिसने न्याय की सर्वोच्च आसंदी में फिक्सिंग जैसे संदेह को चर्चा का विषय बना दिया। प्रकरण अभी प्रारम्भिक स्तर पर है इसलिए किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचना तो जल्दबाजी होगी लेकिन जिस तरह की बहस उक्त अधिवक्ता और अटार्नी जनरल के बीच हुई उससे एक बात तो समझ में आ रही है कि न्यायपालिका को लेकर दबी-छुपी रहने वाली तमाम बातें अब पर्दे से बाहर आने के लिए बेताब हैं। न्यायपालिका में उच्च स्तर पर भ्रष्टाचार होता है ये कहने का साहस डंके की चोट पर तो कोई नहीं  कर सकेगा लेकिन बीते दो-तीन दिनों से जो कुछ छन-छनकर बाहर आया है उससे ये संदेह तो मजबूत हुआ ही  कि भले ही पूरी दाल काली नहीं  हो लेकिन उसमें कुछ  न कुछ काला तो अवश्य है। अभी तक ये होता आया है कि न्यायाधीशों और न्यायपालिका की पवित्रता पर संदेह व्यक्त करने वाले को ये कहकर डांट दिया जाता था कि ऐसी बात नहीं करते। न्यायपालिका में फिक्सिंग होती है या नहीं ये तो उसे करने वाले ही बता सकेंगे लेकिन अभिनेता सलमान खान को सजा मिलने के बाद देर शाम को ऊँची अदालत के न्यायाधीश जमानत देने के लिए इंतजार करते  बैठे रहें, तब कहने वालों को मौका मिल ही जाता है। बड़े से बड़े वकीलों के मुंह से पक्षकार को जब ये सलाह दी जाती है कि मामला पेश करने के लिए थोड़ा रुक जाएं क्योंकि बैंच बदलने वाली है तब उसका भावार्थ कानून नहीं जानने वाला भी आसानी से समझ लेता है। श्री गोगोई की चरित्र ह्त्या करने वाली महिला के चरित्र को लेकर भी जवाबी दावे हुए हैं। उस कोशिश में न्यायपालिका के कुछ कर्मचारियों की भूमिका भी जानकारी, में लाई गयी है। पक्ष-विपक्ष दोनों तरफ  से आक्रमण और बचाव भी शुरू हो चुका है। लेकिन इस समूचे  विवाद में अभी तक राजनीतिक हस्तियों का रूचि नहीं लेना भी अचरज भरा है। मान भी लें कि सभी लोकसभा चुनाव में व्यस्त हैं किन्तु जब बात न्यायपालिका की स्वतंत्रता से बढ़कर उसकी  पवित्रता और मुख्य न्यायाधीश के चरित्र तक जा पहुँची हो तब राजनीतिक बिरादरी पूरी तरह उससे निर्लिप्त बनी रहे ये भी रहस्यमय है। श्री गोगोई ने आरोप लगते ही कुछ महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई से उन्हें रोके जाने की जो बात कही थी वह बेहद महत्वपूर्ण है। उसका खुलासा होना चाहिए कि वे कौन सी ताकतें या लोग हैं जो उनका रास्ता रोकने का प्रयास कर रहे हैं। जिस अधिवक्ता ने कार्पोरेट घराने पर आरोप लगाया है उससे सर्वोच्च नायायालय ने जो सबूत मांगे हैं उन्हें फिलहाल गोपनीय रखने की बात कही जा रही है जिससे कि अन्य जरूरी साक्ष्य नष्ट न किये जा सके। लेकिन जब बात इतनी आगे बढ़ चुकी हो तब देश के राष्ट्रपति से भी अपेक्षा की जाती है कि वे संविधान के मुखिया और संरक्षक होने के नाते इस प्रकरण में रूचि लेते हुए न्यायपालिका के भीतर आ रही गंदगी हटाने स्वच्छता अभियान जैसी कोई मुहिम चलायें। राष्ट्रपति चूँकि स्वयं भी सर्वोच्च न्यायालय में अधिवक्ता रहे हैं इसलिए वहां की अच्छाई-बुराई दोनों से बखूबी परिचित होंगे। ये प्रकरण अब श्री गोगोई पर लगे यौन शोषण के आरोप से आगे बढ़कर न्यायपालिका में फिक्सिंग जैसी बातों तक आ पहुंचा है। वैसे भी आम जनता के मन में न्यायपालिका के प्रति पहले जैसा सम्मान नहीं रहा। इसकी वजह बताने की जरूरत नहीं है। जबलपुर उच्च न्यायालय से सेवा निवृत्त एक न्यायाधीश हाल ही में सवालों के घेरे में आ गये। उन्होंने जिस महिला को न्यायाधीश रहते हुए एक जघन्य अपराध के लिए दंडित किया था उसी के बचाव में वे सर्वोच्च न्यायालय में बतौर अधिवक्ता खड़े हुए और अपनी दलीलों से उसे राहत दिलवा दी। वकीलों के ही किसी संगठन ने उनके इस दोहरे आचरण को नैतिकता के विरुद्ध मानते हुए उनको वकालत करने से रोकने की आवाज भी  उठाई। उल्लेखनीय है इन न्यायाधीश महोदय पर भी न्यायाधीश रहते हुए यौन शोषण का आरोप लगा था जो जाँच में सबित नहीं हो सका। इस तरह के वाकये न्यायापालिका में आम होने लगे हैं । इसलिए रंजन गोगोई पर लगे आरोप के सिलसिले में जो कुछ भी कहा और सुना जा रहा है उसे अंजाम तक पहुँचाया जाना जरूरी है। सर्वोच्च न्यायालय के प्रति सम्मान व्यक्त करना हर छोटे बड़े नागरिक का कर्तव्य है लेकिन ये तभी तक संभव है जब तक न्यायाधीश गण पंच परमेश्वर की अपनी छवि को सुरक्षित रखें।

-रवीन्द्र वाजपेयी