Friday 12 April 2019

वोटर ही तोड़ सकता है जातिवाद की जंजीर

गत दिवस लोकसभा चुनाव के मतदान का पहला चरण सम्पन्न हो गया। जिसमें पिछले चुनाव की अपेक्षा 5 से 7 फीसदी मतदान कम हुआ। इसकी क्या वजह है इसका विश्लेषण तो होता रहेगा लेकिन सबसे प्रमुख बात जो पूरे चुनावी परिदृश्य पर हावी है वह है जाति। चुनाव पूर्व जितने भी सर्वेक्षण सामने आए उनमें जीत-हार का आधार जाति और धर्म को ही माना गया। राष्ट्रीय और स्थानीय मुद्दे भी हालांकि मायने रखते हैं लेकिन ज्यादातर लोगों के सिर पर जाति और धर्म का नशा चढ़ा हुआ है । मुस्लिम मतदाताओं के बारे में सभी सर्वेक्षणों में स्थायी रूप से ये मान लिया गया कि  वे भाजपा को हराने वाले उम्मीदवार का साथ देंगे। इसी तरह कुछ जातियों के बारे में  भी सर्वे एजेंसियों ने ये अनुमान लगा लिया कि उनका थोक मत अमुक पार्टी को ही मिलेगा। चुनाव विश्लेषण के लिहाज से ये उपयोगी हो सकता है लेकिन लोकतंत्र के भविष्य की दृष्टि से ये बहुत ही खऱाब संकेत है। कहा जा सकता है कि  भारत जैसे जाति आधारित समाज में राजनीति उससे मुक्त रहे ये असम्भव है लेकिन आजादी के पहले जातिगत आधार पर समाज को  विभाजित करने वाली प्रथाएं मिटाने के लिए अनेक आंदोलन हुए। गाँधीजी ने तो अछूतोद्धार को अपनी लड़ाई का हिस्सा बनाया था किन्तु उनके समानांतर अनेक समाज सुधारकों ने भी जाति के नाम पर होने वाले भेदभाव के विरुद्ध संघर्ष किये । आज़ादी के बाद गांधीजी ज्यादा समय तक रहे नहीं और डॉ. आंबेडकर भी जल्द ही केंद्र सरकार से अलग हो गए । समाजवादी आंदोलन के नाम पर जाति मिटाने के प्रयास भी हुए लेकिन डॉ. लोहिया के अनुयायी आज के समय के सबसे बड़े जातिवादी बनकर उभरे जिन्होंने पूरे राजनीतिक विमर्श को जाति के जाल में जकड़ दिया। यूं तो पहले आम चुनाव से ही जातिवादी राजनीति चलने लगी थी फिर भी क्षेत्रीय दलों के उभार ने इसे और मजबूत किया। कुछ क्षेत्रीय दल तो सिर्फ और सिर्फ जाति के आधार पर ही खड़े हैं। सन् 80 के बाद कुछ राज्य में जातीय आधारित क्षेत्रीय दल हावी हुए तो राष्ट्रीय पार्टी कमजोर होने लगी। पहले कांगे्रस के पैर उखड़े। उत्तर प्रदेश और बिहार में इस बूढ़ी पार्टी का अस्तित्व ही दांव पर लग गया। दक्षिण के कुछ राज्य खासकर तमिलनाडू में भी वोटर जाति देखता है। यही हाल कर्नाटक का भी है। भारतीय जनता पार्टी और नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता आज चरम पर है। इसके बाद भी इसे सम्पूर्ण राष्ट्रीय पार्टी नहीं कहा जा सकता। भाजपा आज कई राज्य की सत्ता पर सवार है। उसे भी जातिवादी छोटे-छोटे दल से हाथ मिलाना पड़ रहा है। जाति के साथ-साथ धर्म भी राजनीति पर हावी हो गया है। वोटिंग के एक-दो दिन पहले धु्रवीकरण की कोशिश भरपूर तरीके से की जाती है। इस दफा भी ऐसा ही हो रहा है। कुछ मुद्दे ऐसे हैं जिनसे देश की आधी से अधिक आबादी प्रभावित है। किसान तो मुख्य धारा में होना चाहिए। बेरोजगारी की समस्या कैसे दूर होगी यह बताया जाना जरूरी है। अलग-अलग राज्य में अलग-अलग प्राब्लम है। कहीं पानी की कमी है तो कहीं बाढ़ बरसात में तबाही मचाती है। स्वास्थ्य सेवा का क्षेत्र तो अभी भी शहर तक सिमटा हुआ है। गांव-देहात मेें अब भी सामान्य बुखार की गोली नहीं मिलती। शिक्षा का मामला भी इससे जुदा नहीं माना जा सकता। हजारों-हजार गांव ऐसे हैं जहां आज भी स्कूल नहीं मिलेगा। पीने के साफ पानी से लेकर शौचालय तक का टोटा है। ताली दोनों हाथ से बजती है। सिर्फ नेताओं और पार्टियों को जिम्मेदार ठहराया जाना गलत है। पिछड़ापन कहें या जागरुकता की कमी। 21वीं सदी का मतदाता भी जाति देखकर बटन दबाता है। वह धार्मिक हवा के बहाव में बह जाता है। यह नहीं सोचा जाता कि तात्कालिक लाभ फायदेमंद है या दीर्घकालीन योजना। एक दिन का वोट पांच साल का पछतावा। यही भारतीय लोकतंत्र की विडम्बना है। जिस दिन से जाति को न कहना शुरू किया जायेगा, हालात बदलने लगेंगे। राष्ट्रीय या क्षेत्रीय दल मजबूर हो जायेंगे, योग्यता, गुणवत्ता और रचनात्मकता को बढ़ावा देने के लिए। मतदाता चाहे तो सभी दल को विवश कर सकता है जाति से पीछा छुड़ाने। नये दौर की नई इबारत लिखने। यह एक बेहद कठिन और जटिल रास्ता है। सदियों से चला आ रहा सिस्टम इतनी जल्दी नहीं बदलेगा। इस लोकसभा चुनाव में शुरूआत हो सकती थी। किसी ने भी ईमानदार कोशिश नहीं की। हर हाल में सत्ता चाहिए की जिद जातिवाद की बेडिय़ां तोडऩे नहीं देगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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