Monday 15 April 2019

थकाने और उबाने वाला चुनाव

जैसी कि आशंका और संभावना थी वैसा ही हो रहा है। लोकसभा का मौजूदा चुनाव पहले चरण के मतदान के बाद ही उन मुद्दों से दूर होता जा रहा है जिन्हें लेकर ये शुरू हुआ था। लगभग डेढ़ महीने चलने वाली चुनाव प्रक्रिया न सिर्फ  थका देने वाले वाली अपितु उबाऊ भी लगने लगी है। नीतिगत बातों और चुनाव घोषणापत्र पर बहस तो दरकिनार हो गयी लेकिन निजी आक्षेप के साथ भड़काऊ बातें ज्यादा होने लगी हैं। इसी के साथ एक अनिश्चितता भी बनी हुई है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच गठजोड़ जिस तरह से फुटबाल बना हुआ है वह देश के राजनीतिक परिदृश्य को काफी हद तक स्पष्ट करता है। कई सीटों पर कांग्रेस और भाजपा अभी तक अपने उम्मीदवार तय नहीं कर सकीं। अनेक महत्वपूर्ण सीटों की टिकिटें दूसरी पार्टी से उड़कर आने वाले प्रवासी पक्षियों के आगमन की सम्भावना के कारण रुकी हुई हैं। वाराणसी में प्रधानमंत्री के विरुद्ध प्रियंका गांधी के लडऩे की चर्चा अचानक गर्म हो गई। इसी बीच खबर आ गयी कि मप्र की इंदौर सीट से लोकसभाध्यक्ष सुमित्रा महाजन की जगह नया उम्मीदवार तय कर पाने में आ रही परेशानी के चलते भाजपा नरेंद्र मोदी को वहां से भी उतार सकती है। भोपाल में कांग्रेस के दिग्गज प्रत्याशी दिग्विजय सिंह के विरुद्ध भाजपा को कोई उम्मीदवार ही नहीं मिल रहा। पहले चरण में केवल 91 सीटों के लिए मतदान हुआ है लेकिन पूरा माहौल थका और उदासीन नजर आने लगा है। उन सीटों पर 2014 की तुलना में 5 से 6 फीसदी कम मतदान होने से राजनीतिक पार्टियां भौचक हैं। वह भी तब जबकि चुनाव प्रचार कई महीनों से चला आ रहा था। बीते दो-तीन दिनों से ईवीएम मशीनों को लेकर विपक्षी पार्टियों ने नये सिरे से मोर्चा खोल दिया है। कुछ मतदान केन्द्रों में ईवीएम से निकलने वाली पर्ची (वीवीपीएटी) की गिनती किये जाने के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से भी विपक्षी पार्टियां संतुष्ट नहीं हैं। मायावती तो यहाँ तक बोल गईं कि ईवीएम में गड़बड़ी नहीं हुई तो केंद्र सरकार चली जायेगी। चुनाव के काफी पहले से विपक्षी दल इस मुद्दे पर दबाव बनाये हुए थे। ईवीएम की जगह मतपत्रों से चुनाव करवाने की पुरानी प्रणाली को पुन: शुरू किये जाने को लेकर चुनाव आयोग का दरवाजा खटखटाया गया किन्तु उसने जब बात नहीं मानी तब मामला अदालत तक जा पहुँचा जिसने कुछ बंदिशों के साथ मशीनों से ही मतदान कराये जाने की व्यवस्था दे दी। सही बात ये है कि जो चुनाव लोकतंत्र की प्राथमिक आवश्यकता है वही हमारे देश में लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के लिए नुकसानदेह बन गया है। राष्ट्रीय सोच की जगह स्थानीय मुद्दे, व्यक्तिगत हमले, मतदाताओं को लुभाने के लिए घोषणापत्र की आड़ में दी जाने वाली घूस आदि की वजह से पूरा चुनाव एक मजाक होता जा रहा है। चुनाव आयोग की सख्ती के बावजूद काले धन का उपयोग रुकने का नाम ही नहीं ले रहा। चुनावी खर्च की निर्धारित सीमा मजाक बनकर रह गई है।  मतदाता के मन में  राजनीतिक व्यवस्था के प्रति नाराजगी और अविश्वास बढ़ता ही जा रहा है। राहुल गांधी तो चौकीदार की  आड़ में प्रधानमन्त्री को चोर कहलवाते फिरते हैं लेकिन यदि जनता का मन टटोला जाए तो उसे पूरी राजनीतिक बिरादरी ही अविश्वसनीय लगने लगी है। इस चुनाव में देश के संघीय ढांचे में दरार पडऩे के जो संकेत मिल रहे हैं वह भी बड़ा खतरा है। कुछ मुख्यमंत्री तो अपने को किसी दूसरे देश के राष्ट्रप्रमुख की तरह मानकर बातें करते सुने जा सकते हैं। राजनीतिक जगत में मतभेद और मनभेद पहले भी थे लेकिन व्यक्तिगत शत्रुता का भाव नहीं दिखाई देता था। दुर्भाग्य से मौजूदा दौर नीतियों और सिद्धांतों की बजाय निजी शत्रुता निकालने का होकर रह गया है। संसद और सड़क दोनों जगहों पर बहस का स्तर एक जैसा हो जाने से हर वह व्यक्ति दुखी और चिंतित है जिसे लोकतंत्र में सच्ची आस्था है। इस माहौल में वे मुद्दे विमर्श से बाहर होते जा रहे हैं जिन पर देश का भविष्य टिका हुआ है। लोकतंत्र को खैरात तंत्र बना देने में कोई भी पार्टी और नेता पीछे नहीं है। चुनाव जीतने के लिए सरकारी खजाने को बेरहमी से लुटाने की प्रतिस्पर्धा चल पड़ी है। नेताओं पर सत्ता की जो वासना सवार हो चुकी है उसके कुछ वायरस धीरे-धीरे जनता के बीच भी फैल गए हैं। इसका परिणाम जाति और धर्म के साथ ही क्षेत्रीय दबाव समूहों के तौर पर देखा जा सकता है। येन केन प्रकारेण चुनाव जीतने के लिए अनुचित दबावों के सामने झुकने की वजह से ही देश अनेक ऐसी समस्याओं में उलझकर रह गया है जिनका हल दूरदराज तक नजर नहीं आता। आतंकवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे संवेदनशील मुद्दों पर भी राजनीतिक एकता का अभाव नये खतरों की तरफ  इशारा कर रहा है। देशद्रोह के कानून को समाप्त करने जैसे वायदे किसी भी तरह से देशहित में नहीं हो सकते। जम्मू कश्मीर और नक्सलवाद को लेकर एक राय नहीं होना अत्यंत दुखद है। चुनाव तो महीने-सवा महीने बाद संपन्न हो जायेंगे और किसी न किसी की सरकार भी बन जायेगी लेकिन सवाल ये है कि क्या  उससे देश और जनता की समस्याएं हल हो सकेंगीं? जब तक इस सवाल का संतोषजनक उत्तर नहीं मिलता तब तक चुनाव नामक कर्मकांड भले पूरा हो जाए लेकिन लोकतंत्र के भविष्य पर मंडराते खतरे कम नहीं होंगे। एक देश एक चुनाव की व्यवस्था को लेकर किसी भी तरह की चर्चा नहीं होना ये दर्शाता है कि राजनीतिक बिरादरी में दायित्वबोध का किस हद तक अभाव हो चुका है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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