Saturday 20 April 2019

भोपाल की लड़ाई : वरना दोनों में फर्क क्या रह जायेगा

भोपाल से भाजपा प्रत्याशी प्रज्ञा ठाकुर ने पहले दिन जो सहानुभूति और समर्थन हासिल किया था उसमें गत दिवस जाहिर तौर पर कुछ कमी आई होगी। मालेगांव बम विस्फोट की जाँच के दौरान पुलिस अधिकारी स्व. हेमंत करकरे द्वारा उनके साथ किये गये व्यवहार को लेकर उन्होंने जो बयान  दिया वह विरोधियों को तो नागवार गुजरा ही लेकिन  समर्थक भी उसे हजम नहीं कर पाए। उनके साथ हिरासत में हुई अमानवीयता का कोई भी समर्थन नहीं करेगा। स्व. करकरे ने बतौर जांच अधिकारी जो किया वह उनकी जिम्मेदारी से जुड़ी बात थी। यदि उसमें कुछ ज्यादती हुई तो वे उसके लिए दोषी माने जा सकते हैं लेकिन प्रज्ञा का ये कहना उनकी अपरिपक्वता है कि उन्होंने स्व. करकरे को श्राप दे दिया जिसकी वजह से सवा महीने के भीतर 26/11 के मुम्बई हमले में आतंकियों ने उन्हें मार गिराया। स्मरणीय है उन्हें मरणोपरांत अशोक चक्र से सम्मानित भी किया गया था। प्रज्ञा के बयान के बाद पूरे देश में बवाल मच गया। भाजपा के लिए भी जवाब देना कठिन होने लगा तब उसने निजी बयान कहते हुए अपना पल्ला झाड़ लिया और शाम होते तक प्रज्ञा ने भी बयान वापिस ले लिया। लेकिन जो नुकसान होना था वह तो हो ही गया। पूछताछ के दौरान स्व. करकरे ने प्रज्ञा के साथ ज्यादतियां की होंगी इसे माना जा सकता है क्योंकि पुलिस ऐसा करती है और फिर जिस प्रकरण में प्रज्ञा आरोपी थीं वह था भी बहुत गंभीर। लेकिन जाँच से जुड़े एक पुलिस अधिकारी को श्राप देने और देशद्रोही कहने जैसी टिप्पणी उन्हें मिली असहनीय यातना के विरुद्ध गुस्से का विस्फोट होने के बावजूद किसी भी तरह से गले उतरने लायक नहीं है। यदि वे लोकसभा प्रत्याशी नहीं होतीं तब शायद व्यक्तिगत नाराजगी के नाम पर उनका उक्त बयान नजरअंदाज कर दिया जाता किन्तु संसद में प्रवेश करने के इच्छुक किसी भी व्यक्ति से इस तरह के गैरजिम्मेदाराना बयान की अपेक्षा नहीं की जाती। जिन आरोपों के सिलसिले में उन्हें जेल में ठूंसा गया उनके बारे में अंतिम फैसला तो कानून की अदालत ही करेगी। परसों जब उन्होंने अपने साथ हुए अमानुषिक व्यवहार का बखान किया तब उसे पढऩे और सुनने वाला साधारण व्यक्ति दुखी भी हुआ और द्रवित भी, लेकिन स्व. करकरे को लेकर कही गयी बातें भले ही सही हों लेकिन उनका असमय उल्लेख किसी को रास नही आया। और फिर जो व्यक्ति जीवित न हो उसके बारे में कटुता भरी बात कहने से बचना चाहिए। प्रज्ञा अब एक साधारण व्यक्ति नहीं अपितु राजनीति के मैदान की खिलाड़ी हैं जहां व्यक्तिगत खुन्नस की बजाय सैद्धांतिक विरोध के लिए जगह होती है। वे अपने साथ हुए अत्याचार को बेशक जनता के सामने रखते हुए समर्थन जरूर मांगे लेकिन ऐसा करते हुए किसी को मरने का श्राप देने जैसी बातें कहकर नकारात्मक छवि का शिकार भी हो सकती हैं। और फिर एक साध्वी होने के नाते उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे अपने आध्यात्मिक स्वरूप को सामने रखें। अपना बयान वापिस लेते हुए उन्होंने ये कहा कि चूंकि उससे दुश्मनों को बल मिलता है इसलिए उसे वापिस लेती हूँ। इसकी जगह उन्हें कुछ ऐसा कहना चाहिए था जिससे जाहिर होता कि वे भावावेश में वैसा कह गईं जिसका उन्हें खेद है। प्रज्ञा को ये भी सोचना चाहिए कि जिन दिग्विजय सिंह के विरुद्ध वे लडऩे आईं हैं वे भी ऐसे ही गैरजिम्मेदाराना बयानों की वजह से अपनी छवि खराब कर बैठे। जनता किसी नेता की आक्रामक शैली को तभी तक पसंद करती है जब तक उसमें शालीनता और सौजन्य हो। चूँकि प्रज्ञा के आरोपों पर सफाई देंने के लिए हेमंत जीवित नहीं हैं इसलिए उनकी बजाय उस व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करना ज्यादा बेहतर होता जिसने प्रज्ञा को पकड़कर जेल भेजा। बहरहाल उनके द्वारा अपना बयान वापिस लिए जाने के बाद इस विवाद को ठंडा किया जाना ही बेहतर होगा। पुलिस अधिकारियों के संगठन द्वारा अपने साथी के सम्मान के साथ खिलवाड़ पर जो विरोध व्यक्त किया गया वह भी अपनी जगह ठीक है। भाजपा को चाहिए वह प्रज्ञा को जुबान पर लगाम लगाने की सलाह और सीख दे। वरना उनकी सारी तेजस्विता धरी रह जायेगी। भोपाल यूँ भी सुशिक्षित लोगों का शहर है जहां सेवा रत और सेवा निवृत्त शासकीय कर्मचारी/अधिकारी बड़ी संख्या में रहते हैं जिनकी सहानुभूति प्रज्ञा के प्रति भले हो जाए लेकिन स्व. करकरे को देशद्रोही या अत्याचारी कहने वाले को अपना सांसद चुनना वे शायद पसंद नहीं करेंगे। प्रज्ञा को ये भी ध्यान रखना होगा कि उन्हें अभी तक अदालत ने बरी नहीं किया है और कानूनी मामले अदालत में ही निपटते हैं। वे सांसद चुन भी जाएं तब भी उनको तभी निर्दोष माना जाएगा जब न्यायालय उन्हें दोषमुक्त घोषित कर दे। भाजपा को उन्हें लेकर सतर्क रहना होगा क्योंकि आज का मतदाता लकीर का फकीर नहीं रह गया और वह तात्कालिक मुद्दों से प्रभावित होकर भी अपनी राय बदल लेता है। और  यदि दिग्विजय सिंह जैसी ही बातें प्रज्ञा भी करने लगेंगी तब दोनों में फर्क  क्या रह जायेगा? बेहतर हो प्रज्ञा उनसे जोरदारी से लड़ें लेकिन उन जैसा बनने से बचें।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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