Monday 29 April 2019

सब पर भारी जात हमारी

लोकसभा चुनाव का चौथा चरण आज शाम तक सम्पन्न हो जायेगा। इसके साथ ही 374 सीटों के लिए मतदाताओं का निर्णय ईवीएम में बंद हो चुका होगा। हालांकि सभी अपनी - अपनी जीत का दावा कर रहे हैं लेकिन उनमें इतना अधिक विरोधाभास है कि पक्के तौर पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता। लेकिन एक बात स्पष्ट है कि चौथा चरण आते तक सारे योद्धा थक चुके हैं। जिन मुद्दों से चुनाव शुरू हुआ था वे सभी पृष्ठभूमि में जा चुके हैं या फिर उन्हें सुनते - सुनते मतदाता ऊब गये हैं। यही वजह है कि अंतिम दौर आते - आते तक चुनाव लौटकर फिर जाति के मुद्दे पर केन्द्रित होने लगा है। मायावती ने ज्योंही प्रधानमंत्री को नकली और मुलायम सिंह यादव को असली पिछड़ा नेता बताया त्योंही नरेंद्र मोदी ने उस मुद्दे को पकड़ लिया और जुट गए खुद को पिछड़े से भी बढ़कर अति पिछड़ा बताने। उन्होंने अपनी जाति को लेकर उठाये जा रहे संदेहों को समूची पिछड़ी जातियों का अपमान बताते हुए अपने भाषणों में उसका बेहद आक्रामक ढंग से उल्लेख करना शुरू कर दिया। गत दिवस मायावती ने एक बार फिर से उनकी जाति पर सवाल उठाया और कहा कि जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे तब उनकी जाति सामान्य वर्ग में थी जो बाद में पिछड़े वर्ग में शामिल की गई। बहरहाल इस बहस या विवाद से एक बात साबित हो गई कि चुनाव आयोग चाहे जितना दावा करे लेकिन जाति आधारित राजनीति समाप्त होने की बजाय और बढ़ती ही जा रही है। गुजरात विधानसभा चुनाव से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने मन्दिर जाने का सिलसिला शुरू करते हुए खुद को हिन्दू साबित करने का प्रयास किया और बाद में उन्होंने ब्राम्हण होने का दावा करते हुए जनेऊ पहिनने तक का स्वांग रचा। इससे ये साबित हो गया कि विदेश में शिक्षा प्राप्त करने वाले नेता भी जाति के जंजाल से खुद को मुक्त नहीं कर पा रहे। वैसे इसे लेकर किसी एक या कुछ नेताओं को दोष नहीं दिया जा सकता बल्कि ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि राष्ट्रीय पार्टियां भी जाति जैसी संकुचित सोच को अपनाने तैयार हो गईं। इसका असर ये हुआ कि मतदाताओं के भीतर भी जाति का आकर्षण बढ़ता जा रहा है। बड़ी - बड़ी सर्वेक्षण कम्पनियां तक चुनाव परिणामों का आकलन जाति के आधार पर करती हैं। उदाहरण के लिए बिहार की बेगुसराय सीट पर गिरिराज सिंह और कन्हैया कुमार के बीच जीत - हार का गणित लगाने वाले ये बताने से बाज नहीं आ रहे कि वे दोनों भूमिहार हैं। इसी तरह लोकप्रिय पंजाबी गायक हंसराज हंस को जब भाजपा ने दिल्ली में उदित राज की टिकिट काटकर उम्मीदवारी प्रदान की तब लोगों को ज्ञात हुआ कि वे भी अनुसूचित जाति के हैं। देश की अनेक चर्चित सीटों के चुनाव परिणाम जातीय गणित पर ही टिके बताये जाते हैं। इसीलिये राजनीतिक दल भी टिकिट तय करते समय प्रत्याशी की योग्यता से ज्यादा उसकी जाति को महत्व देते हैं। उप्र और बिहार इस मामले में ज्यादा बदनाम हैं लेकिन ये कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि अब ये बुराई समान रूप से पूरे देश में फैल गई है। जबलपुर लोकसभा सीट से कांग्रेस उम्मीदवार विवेक तन्खा सर्वोच्च न्यायालय के प्रतिष्ठित अधिवक्ता हैं।  चुनाव के समय उनके नाम के पहले पंडित लगा दिया गया जिससे उनके ब्राह्मण होने का पता चल सके। ऐसे उदाहरण अनेकानेक हैं। रामनाथ कोविंद जब तक राष्ट्रपति नहीं बने तब तक उनके अनुसूचित जाति के होने के बारे में बहुत कम लोगों को जानकारी थी। लेकिन जब भाजपा ने उनका चयन इस सर्वोच्च पद के लिए किया तब उनकी शैक्षणिक योग्यता और राजनीतिक अनुभव से ज्यादा उनकी जाति का प्रचार करते हुए दलित वर्ग को लुभाने की कोशिश की गई। इसका नुकसान ये हो रहा है कि समाज जातियों और उसके बाद उपजातियों में बंटकर रह गया है। राजनीति चलाने वालों से समाज की कुरीतियों को मिटाने की अपेक्षा की जाती है लेकिन वे इसे और बढ़ाते जा रहे हैं। उ.प्र., बिहार में अभी कुछ छोटी-छोटी जाति आधरित पार्टियों ने जिस तरह से भाजपा को घुटनाटेक करवाया वह इसका उदाहरण है। ये स्थिति 21 वीं सदी के भारत को कहां ले जायेगी ये सोचकर चिंता होने लगती हैं। मनुवादी सोच को पानी पी-पीकर कोसने वाले नेता जब खुद उसी वर्ण व्यवस्था द्वारा बनाई गयी सामाजिक रचना को सियासत का आधार बनाते हैं तब उनके दोहरेपन पर आश्चर्य होता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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