Thursday 11 April 2019

सियासी शिष्टाचार से फल-फूल रहा भ्रष्टाचार


मप्र सरकार ने शिवराज सिंह चौहान के कार्यकाल में हुए ई टेंडर घोटाले की जांच हेतु गत दिवस बाकायदे प्राथमिकी दर्ज करवा दी। इसे तीन हजार करोड़ का बताया जा रहा है। विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस ने इसे एक मुद्दा बनाया था लेकिन इसे व्यापमं जैसा प्रचार नहीं मिल सका क्योंकि यह आम जनता से जुड़ा मसला नहीं था। कमलनाथ की सरकार बन जाने के बाद ये कयास लगाये जा रहे थे कि पिछली सरकार के जिन घोटालों को विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस उजागर करती रही उनकी बिना देर किये जाँच करवाई जावेगी। लेकिन महीनों बीतने के बाद भी कुछ खास नहीं हुआ तब ये माना जाने लगा कि शिवराज और कमलनाथ के बीच सौजन्यता का पौधा फल-फूल रहा है। ये भी कहा जाने लगा कि प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी के करीबी समझे जाने वाले उद्योगपति अडानी के जरिये कमलनाथ और भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के बीच आपसी समझ विकसित हो चुकी थी जिसके अंतर्गत एक दूसरे को बेवजह परेशान नहीं करने की नीति पर अमल करना था। लेकिन बीते सप्ताह अचानक ज्योंही मुख्यमंत्री के बेहद निकटस्थों के यहाँ आयकर विभाग ने दबिश दी त्योंही शायद उस सियासी युद्धविराम का अंत हो गया। छापों के तुरंत बाद ही सरकारी पक्ष से ये चेतावनी आ गई कि हमले का जवाब हमले से दिया जावेगा और उसकी पहली बानगी गत दिवस ई टेंडर में हुए बड़े घोटाले के खिलाफ  मोर्चा खोलने के रूप सामने आई। आर्थिक अपराध विभाग को इसकी कमान सौंपी गयी है। भाजपा की तरफ  से स्पष्टीकरण भी आ गया कि उक्त प्रकरण में चूंकि किसी भी तरह का आर्थिक लेनदेन नहीं हुआ इसलिए आरोपों में कोई  दम नहीं है। बहरहाल मामला जाँच एजेंसी के पास पहुंच गया है और वह अपना काम करेगी लेकिन इस बारे में ये सवाल तो स्वाभाविक तौर पर उठता ही है कि यदि आयकर विभाग द्वारा मुख्यमंत्री के ओएसडी सहित अन्य करीबियों पर दबिश नहीं दी गयी होती तब भी क्या राज्य सरकार ई टेंडर घोटाले की जाँच हेतु इतनी तत्परता दिखाती?  छापों के दौरान ही इस आशय के संकेत आने लगे थे कि ईंट का जवाब जांच रूपी पत्थर से दिया जाएगा और उसकी विधिवत शुरुवात भी हो गयी लेकिन जिस तरह से उन छापों को राजनीतिक उद्देश्य से प्रेरित बताया गया क्या ये कार्रवाई भी उसी श्रेणी में नहीं आती?  भ्रष्टाचार कोई भी करे उसे सजा होनी ही चाहिए। वरना कानून का रहा-सहा डर भी खत्म हो जाएगा और लूट सके सो लूट की प्रतियोगिता और तेज होती चली जायेगी। राष्ट्रीय स्तर पर निगाह डालें तो ये लगता है कि जिसे, जहां और जब मौका मिलता है वह जनता के पैसे पर डकैती डालने से बाज नहीं आता। राहुल गांधी प्रधानमंत्री को राफेल लड़ाकू विमान की खरीदी के मामले में बहस की चुनौती दे रहे हैं लेकिन क्या वे नेशनल हेराल्ड नामक घोटाले के सम्बन्ध में डा. सुब्रमण्यम स्वामी से वैसी ही बहस करने को राजी होंगे ? इसी तरह राबर्ट वाड्रा पर भी भूमि घोटाले का मामला चल रहा है। सभी पक्ष अपने को पाक-साफ और दूध का धुला बताते हुए आरोपों को राजनीतिक विद्वेष का परिणाम बता देते हैं लेकिन जनता को ये लगने लगा है कि पूरे कुँए में भांग घुली हुई है। अक्सर ये कहा जाता है कि हमारे देश में ईमानदार वह है जिसे या तो बेईमानी करने का अवसर नहीं मिला या फिर जिसे बेईमानी करना नहीं  आता। यद्यपि अपवाद सभी जगह होते हैं और राजनीति में भी नैतिकता के कुछ अवशेष विद्यमान हैं लेकिन उनकी स्थिति दाँतों के बीच जीभ जैसी होकर रह गई है। क्मलनाथ सरकार ने पिछली सरकार के दौर के ई टेंडर नामक घोटाले की जाँच करने का जो साहस दिखाया उसके लिये वह बधाई की पात्र है लेकिन जिस तरह मुख्यमंत्री को आयकर छापों का समय नागवार गुजरा वही तोहमत तो उन पर लग सकती है।  ऐसा लगता है सत्ता में बैठे लोगों को चाहे वे किसी भी दल के क्यों न हों, भ्रष्टाचार दूर करने और दोषियों को दंडित करने में उतनी रूचि नहीं रही जितनी राजनीतिक स्टंटबाजी में है। कूटनीतिक शिष्टाचार में सिकन्दर और पोरस के बीच का एक संवाद बहुत प्रसिद्ध है। युद्ध हारने के बाद जब पोरस को सिकन्दर के समक्ष लाया गया और सिकंदर ने उससे पूछा कि तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार किया जावे तब पोरस ने उत्तर दिया था कि जैसा एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है। इस सम्वाद को भारत के राजनेताओं ने अपनी सुविधानुसार कुछ  इस तरह से ढाल दिया कि चुनाव में जीतने वाला जब हारने वाले से पूछता है कि बोल तेरे साथ क्या सलूक किया जावे तब पराजित नेता बोलता है कि जैसा एक भ्रष्ट दूसरे के साथ करता है। इसे मजाक समझकर उपेक्षित भी किया जा सकता है लेकिन सच्चाई ये है कि भ्रष्टाचार हमारा राष्ट्रीय चरित्र ही बन गया है। सत्ता और विपक्ष के बीच चलने वाली रस्साकशी कब नूरा कुश्ती में बदल जाती है ये समझ से परे है। सुविधा के समझौतों ने सिद्धांत और विचारधारा के अंतर को पाट दिया है। चुनाव में काले धन के उपयोग और सत्ता में रहते हुए भ्रष्टाचार को लेकर विभिन्न पार्टियों के आचरण में कोई फर्क  करना मुश्किल हो गया है। इसीलिये आयकर छापों से सनाके में आई कमलनाथ सरकार का यह कदम उसकी ईमानदारी का प्रमाणपत्र नहीं कहा जा सकता क्योंकि ये क्रिया की प्रतिक्रिया के प्राकृतिक सिद्धांत से बढ़कर और कुछ भी नहीं है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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