Wednesday 24 April 2019

मोदी लाओ या हटाओ में समा गए सारे मुद्दे

कल तीसरे चरण के मतदान के साथ ही 302 लोकसभा सीटों का चुनाव संपन्न हो गया। हर चरण में देश के विभिन्न हिस्सों में मतदान होने की वजह से राजनीतिक विश्लेषक अभी तक ये अनुमान लगाने में विफल रहे हैं कि ऊँट किस करवट बैठेगा ? कांग्रेस के बहुमत में आने की उम्मीद तो उसी के नेता छोड़ चुके हैं लेकिन भाजपा क्या 2014 के प्रदर्शन को दोहरा सकेगी इसे लेकर भी संदेह व्यक्त किये जा रहे हैं। शरद पवार जैसे अनुभवी नेता तक ये कह चुके हैं कि भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरेगी और उस सूरत में जाहिर है कि सत्ताधारी एनडीए ही सबसे बड़ा गठबंधन होगा लेकिन बहुमत से दूर होने पर उसका साथ कौन देगा इसे लेकर भी अनिश्चितता है। अनेक राजनीतिक पंडित त्रिशंकु लोकसभा की आशंका व्यक्त करने में लग गए हैं। हालांकि एक वर्ग का अभी भी ये मानना है कि राहुल गांधी को लेकर आम मतदाता में व्याप्त अरुचि का लाभ सीधे नरेंद्र मोदी को मिल रहा है और भाजपा के उम्मीदवारों से असंतुष्ट या नाराज लोग भी फिर एक बार मोदी सरकार के नारे से प्रभावित नजर आ रहे हैं। एक बात ये भी है कि क्षेत्रीय पार्टियां इस चुनाव में अपने लिए सुनहरा अवसर देख रही हैं। उन्हें लग रहा है कि1996 की तरह से एक बार फिर दिल्ली में अस्थिरता उत्पन्न होने जा रही है जिसकी वजह से उनके भाव बढ़ जायेंगे। द्रमुक, अद्रमुक, टीआरएस, तेलुगु देशम, वाईएसआर कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बसपा और लालू की राजद जैसी पार्टियां ये मान बैठी हैं कि यदि नरेंद्र मोदी का करिश्मा नहीं चला  तब उस स्थिति में चिल्लर की तरह उनकी पूछ-परख भी बढ़ जायेगी और सत्ता की मलाई में उनकी भी हिस्सेदारी बढ़ेगी। ऐसी ही सोच एनडीए में भी देखी जा रही है जहां शिवसेना और अकाली दल जैसे सहयोगी सोच रहे हैं कि अगर भाजपा स्पष्ट बहुमत से दूर रह गई तब उसे उनकी कहीं ज्यादा जरूरत पड़ेगी। बीते पांच साल में राजनीतिक जगत में ये स्थापित हो गया है कि श्री मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह विशुद्ध दादागिरी दिखाते रहे। न सिर्फ सहयोगी दलों बल्कि भाजपा के भीतर भी इन दोनों ने अन्य नेताओं की हैसियत दो कौड़ी की बनाकर रख दी। इस वजह से सहयोगी दल मानकर चल रहे हैं कि त्रिशंकु की स्थिति में भी यदि मोदी सरकार वापिस लौटी तब उनकी बल्ले-बल्ले होकर रहेगी। मनपसन्द विभाग के साथ ज्यादा मंत्री पद मिल जायेंगे। विपक्ष में भी कुछ छोटी-छोटी पार्टियां ऐसी हैं जिनके दो-चार सांसद ही अधिकतम जीत सकेंगे किन्तु किसी को बहुमत नहीं मिला तब उनकी भी पौ-बारह होना तय है। सपा के नए सुप्रीमो अखिलेश यादव चुनाव शुरू होने के पहले तक कहते रहे कि अगला प्रधानमंत्री कौन होगा ये उप्र ही निश्चित करेगा लेकिन गत दिवस वे यहां तक कह गए कि उसका निर्णय उनके हाथ में होगा। यद्यपि मायावती को इस पद का दावेदार माने जाने के सवाल का कोई जवाब उन्होंने नहीं  दिया। सही बात ये है कि भारतीय राजनीति इस समय तालाब खुदा नहीं और मगर कूदने लगे वाली स्थिति से गुजर रही है। भाजपा का मानना है कि विपक्ष सहित वामपंथी खेमे के पत्रकार और विश्लेषक उसको बहुमत नहीं  मिलने का जितना प्रचार कर रहे हैं उतनी ही उसकी स्थिति मजबूत होती जा रही है क्योंकि देश का आम मतदाता विशेष रूप से पहली और दूसरी बार मतदान करने वाले युवा किसी भी स्थिति में देश को अस्थिरता की आग में  झोंकने का समर्थन नहीं करेंगे। राहुल गांधी को बतौर प्रधानमन्त्री प्रस्तुत नहीं करने से कांग्रेस के आत्मविश्वास में कमी पहले ही बाहर चुकी है। यही वजह है कि तीन चरण के मतदान के बाद तक विपक्ष अपनी संभावनाओं को लेकर आश्वस्त नहीं है। लेकिन भाजपा भी भीतर ही भीतर किसी अनिष्ट की आशंका से ग्रसित है। उसके मन में 2004 के इण्डिया शाइनिंग के फुस्स होने की कड़वी यादों का खौफ अभी भी ताजा है। उस चुनाव में स्व. अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार की वापिसी को लेकर पूरे देश में उम्मीद की लहरें उठ रही थीं जो अंतत: विनाशकारी साबित हुई। यद्यपि ये भी सही है कि श्री वाजपेयी की उम्र और स्वास्थ्य दोनों उनका साथ नहीं दे रहे थे और पूरी पार्टी प्रमोद महाजन के शिकंजे में फंसी हुई थी। उस दृष्टि से नरेंद्र मोदी ज्यादा ताकतवर हैं और सरकार तथा पार्टी संगठन दोनों पर उनकी जबर्दस्त पकड़ है। हालांकि कुछ मामलों में ये कमजोरी भी नजर आती है। दूसरी तरफ  इसे ही भाजपा की ताकत माना जा रहा है क्योंकि वाजपेयी युग की समाप्ति के बाद के दौर में कोई दूसरा नेता जनता के सामने चहरे के तौर पर नहीं उभर सका। जिसका प्रमाण 2009 के लोकसभा चुनाव में मिला जब लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमन्त्री पद के दावेदार के तौर पर पेश करने के बावजूद भाजपा को जबरदस्त पराजय झेलनी पड़ी थी। नरेंद्र मोदी ने उस शून्य को जिस कुशलता से भरा उसी की वजह से वे अटल जी के बाद देश के सबसे लोकप्रिय नेता बनकर उभरे और भाजपा का विस्तार भी उन क्षेत्रों तक करने में सफल हुए जहां उसका कोई नामलेवा तक नहीं था। यही  वजह है कि राहुल गांधी चाहे कुछ भी कहें किन्तु इस चुनाव का पूरा केंद्र श्री मोदी बन गये हैं। विपक्ष ने भी इसमें खासा योगदान दिया है। तीसरे चरण का मतदान आते तक चुनाव के सभी मुद्दे मोदी लाओ या मोदी हटाओ में आकर समाहित हो गए। इसका लाभ किसे होगा ये दावे के साथ कोई नहीं कह पा रहा तो उसकी असली वजह मतदाता की खामोशी है। मतदान में 2014 की अपेक्षा थोड़ी सी कमी से भी अनुमान लगाने वाले संशय में हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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