Saturday 6 April 2019

बुजुर्गों की विदाई : निर्णय सही लेकिन तरीका गलत

लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने चुनाव नहीं लडऩे की घोषणा सर्वजनिक रूप से करते हुए एक अनिश्चितता को तो खत्म कर दिया लेकिन अपनी घोषणा में उन्होंने जिस तरह के कटाक्ष किये उनसे उनके संसदीय जीवन के अंत में खटास आ गया। 1989 से 2014 तक लगातार इंदौर लोकसभा सीट से जीतती आ रही श्रीमती महाजन वाजपेयी सरकार में मंत्री भी रही थीं। संगठन के अनेक पदों पर भी भाजपा ने उन्हें बिठाया। लेकिन उनकी राजनीतिक यात्रा का सबसे महत्वपूर्ण क्षण 2014 में आया जब केंन्द्र में पहली बार भाजपा को पूर्ण बहुमत मिलने पर वे सर्वसम्मति से लोकसभा अध्यक्ष चुनी गईं। इसे संयोग कह सकते हैं कि उनकी पूर्ववर्ती मीरा कुमार भी महिला थी। भारतीय विदेश सेवा छोड़कर कांग्रेस के माध्यम से राजनीति में आईं मीरा जी को अपने पिता स्व. बाबू जगजीवन राम की विरासत का लाभ मिला लेकिन ताई नाम से लोकप्रिय सुमित्रा जी ने लोकसभा में अपने प्रदर्शन एवं संसदीय ज्ञान के कारण वह पद हासिल किया और बीते पाँच वर्ष में उसका निर्वहन भी अत्यंत गरिमा के साथ किया। भाजपा ने 75 वर्ष की आयु के नेताओं को चुनाव नहीं लड़वाने के निर्णय के परिणामस्वरूप जब लालकृष्ण आडवाणी, डा. मुरलीमनोहर जोशी और कलराज मिश्र की टिकिट काट दी तब श्रीमती महाजन के भी चुनाव मैदान से हट जाने की संभावना बढ़ चली थीं। आगामी 12 तारीख को वे 76 साल की हो जायेंगी। लेकिन चुनाव की घोषणा होते ही वे इंदौर में जनसंपर्क  करने लग गईं। इससे पार्टी आलाकमान भी असमंजस में फंस गया।  हालाँकि वे ये भी कहती रहीं कि उनने कभी टिकिट नहीं मांगा और ये संगठन का निर्णय होता है। उनके इस रवैये की वजह से भाजपा उनकी सीट से दूसरा उम्मीदवार घोषित करने में हिचक रही थी। यद्यपि भोपाल सहित ग्वालियर आदि अनेक सीटों पर अभी तक उसके प्रत्याशी घोषित नहीं हुए लेकिन वहां के समीकरण दूसरे हैं जबकि इंदौर में केवल ताई के लिहाज में टिकिट रुकी हुई थी। दरअसल आलाकमान चाह रहा था कि वे खुद होकर 75 वर्ष की आयु वाले आधार पर मैदान से किनारा कर लें किन्तु ऐसा करने की बजाय वे इंदौर में गोटियाँ बिठाने में जुट गईं। आखिरकार उनके धैर्य का बांध टूट गया और गत दिवस उनकी ओर से एक पत्र जारी करते हुए कहा गया कि इन्दौर की टिकिट की घोषणा करने में पार्टी को संकोच हो रहा है जिसका कारण वे समझती हैं। इसलिए वे ख़ुद होकर उम्मीदवारी से दूर होने का निर्णय कर रही हैं जिससे पार्टी बिना संकोच अपना फैसला कर सके। यदि उनके पत्र में केवल चुनाव नहीं लडऩे की घोषणा होती तब वह इतना चर्चित नहीं होता लेकिन उन्होंने जो तंज कसा उससे उनके मन की खुन्नस बाहर आ गई। इस बारे में सबसे अच्छा आचरण लालकृष्ण आडवाणी का रहा जिन्होंने टिकिट कटने के बावजूद किसी भी तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की और दो दिन पूर्व एक ब्लॉग लिखकर अपने प्रति सम्मान और बढ़ा लिया। डा. जोशी ने भी छोटा सा पत्र कानपुर के मतदाताओं के नाम लिखकर अपना दर्द जाहिर किया लेकिन ताई जी ने कुछ ज्यादा चुभती हुई प्रतिक्रिया सार्वजानिक तौर पर व्यक्त करते हुए पार्टी को शर्मसार कर दिया। वैसे उम्रदराज नेताओं को चुनावी राजनीति से दूर करना एक अच्छा निर्णय माना गया। भाजपा ने इसकी पहल करते हुए एक रास्ता अन्य दलों को भी सुझाया लेकिन ये कहना गलत नहीं होगा कि इस फैसले को लागू करने का तरीका गलत था। बेहतर होता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और प्रधानमंत्री स्वयम इन बुजुर्ग नेताओं से मिलते और उनसे नई पीढ़ी के लिए स्थान रिक्त करते हुए आशीर्वाद मांगते। वह स्थिति ज्यादा व्यवहारिक होती और उससे इन वृद्ध नेताओं के मन में अपनी उपेक्षा को लेकर उत्पन्न गुस्सा निश्चित रूप से कम होता। लेकिन ऐसा लगता है जैसे अपने निर्णय को लेकर भाजपा हाईकमान स्वयं भी अपराधबोध से ग्रसित है। वरना इतने बड़े नेताओं की विदाई इतने फीके तरीके से नहीं की जाती। रही बात कांग्रेस  सहित अन्य पार्टियों में बुजुर्गों को हटाकर युवाओं को अग्रिम पंक्ति में लाने की तो वहां पारिवारिक सत्ता है इसलिए किसी भी फैसले में निजी स्वार्थ हावी रहता है। लेकिन भाजपा चूंकि रा स्व संघ से प्रेरित है और राष्ट्रवादी विचारधारा को लेकर चलने का दावा करती है तब उससे ये अपेक्षा की जाती है कि वह किसी भी कार्यकर्ता या नेता को उसके योगदान के लिए वाजिब सम्मान दे। उस दृष्टि से लोकसभा के मौजूदा चुनाव में बुजुर्गों की टिकिट काटने का निर्णय सही और समयानुकूल होने के बाद भी सौजन्यता के अभाव में अपनी सार्थकता खो बैठा। वैसे गलती बुजुर्गों की भी कम नहीं है। जिस दिन पार्टी ने 75 साल वाला फैसला लिया था उसी दिन यदि तमाम उम्रदराज नेता उसका पालन करने की इच्छा व्यक्त कर देते तब शायद उनका सम्मान और बढ़ जाता लेकिन मप्र में सरताज सिंह और रामकृष्ण कुसमारिया ने पार्टी छोड़ कांग्रेस का दामन पकड़कर दुर्गति करवा ली वहीं बाबूलाल गौर भी अंट-शंट बयान देकर हंसी के पात्र बन गए। बेहतर होता ये सब आडवाणी जी से कुछ सीखते जिनका ब्लॉग अपने आप में एक दस्तावेज बन गया। राजनीति जिस मुकाम पर आ गयी है उसमें बुजुर्ग पीढी को समय रहते  युवा पीढ़ी के लिए स्थान रिक्त करना जरूरी हो गया है लेकिन उनकी विदाई सम्मानजनक तरीके से हो ये भी अपेक्षित है क्योंकि उन्होनें अपने जीवन का मूल्यवान समय पार्टी और विचारधारा को दिया है। कृतज्ञता और कृतघ्नता के बीच की बारीक लकीर को समझना जरुरी है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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