Wednesday 17 April 2019

सर्वोच्च न्यायालय संतुष्ट है लेकिन जनता नहीं

सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग को बुलाया तो डांटने-फटकारने के लिए था लेकिन पीठ थपथपाकर लौटा दिया।  बीते कुछ दिनों से राजनीतिक नेताओं की बदजुबानी से पूरे देश में गुस्सा और चिंता का वातावरण था।  चुनाव प्रचार में जिस निम्नस्तरीय भाषा और शब्दावली का प्रयोग होने लगा था उससे चुनाव आयोग की शक्तियों और सख्ती दोनों पर सवाल उठने लगे।  इसीलिये सर्वोच्च न्यायालय ने आयोग को तलब किया था। लेकिन उसके पहले ही चार नेताओं पर कुछ दिनों के लिए चुनाव प्रचार करने की रोक लगाकर आयोग ने दमखम दिखा दिया।  जिससे संतुष्ट होकर प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई ने टिप्पणी कर दी कि ऐसा लग रहा है आयोग को उसकी शक्ति वापिस मिल गई।  इसे एक तरह का व्यंग्य भी कहा जा सकता है क्योंकि अब तक आयोग किसी नेता के विरुद्ध शिकायत आने पर नोटिस तो भेजता था किन्तु उसका जवाब आते और फिर किसी भी तरह की कार्रवाई होते तक चुनाव संपन्न हो जाते थे और लोग सब भूलकर अपने काम में लग जाया करते थे। संभवत: पहली मर्तबा चनाव आयोग ने कुछ बड़े नेताओं को प्रचार से रोकने जैसी सजा दी।  मायावती ने उसके विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया किन्तु उसने उन्हें बैरंग लौटा दिया।  लेकिन जब सर्वोच्च न्यायालय चुनाव आयोग की कार्रवाई पर खुशी जाहिर कर रहा था उसी समय बिहार के कटिहार में कांग्रेस नेता और पंजाब के मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू मुस्लिमों से भाजपा के विरोध में गोलबंद होकर मतदान करने की अपील कर रहे थे। चुनाव आयोग उनके विरुद्ध भी चार नेताओं जैसी कार्रवाई कर सकता है।  लेकिन सर्वोच्च न्यायालय भले ही संतुष्ट हो जाए किंतु जनता के स्तर पर देखने से ऐसा लगता है कि इस तरह की कार्रवाई से अपेक्षित परिणाम प्राप्त नहीं  हो सकते क्योंकि दो या तीन दिन तक प्रचार से दूर रखकर किसी नेता को सुधार पाना सम्भव नहीं होगा।  चुनाव आयोग के पास भड़काऊ और अपमानजनक बातें कहने वालों के विरुद्ध किस हद तक जाकर कार्रवाई करने के अधिकार हैं ये किसी को नहीं पता। वो तो भला हो टी. एन.शेषन का जिन्होंने आयोग को अपने दांत और नाख़ून पैने करने की याद दिलाई वरना तो वह पूरी तरह से लाचार बना रहता था। ये भी सही है कि सूचनातंत्र के विकास की वजह से देश में एक कोने से दूसरे तक खबरों का प्रसारण पलक झपकते होने लगा है। जिन नेताओं पर अब तक रोक लगी उन सभी के भाषण पूरे देश ने टीवी के जरिये देखे और सुने। गत दिवस सिद्धू जब कटिहार में मुसलमानों को भाजपा और नरेंद्र मोदी के विरुद्ध एकजुट होकर मतदान करने  की बात चुनावी सभा में बोल रहे थे तब उसका सीधा प्रसारण भी सभी ने देखा और तत्काल उसका विरोध भी शुरू हो गया।  इसी तरह की अपील मुस्लिम मतदाताओं से बसपा नेत्री मायावती ने की थी जिस पर उनके विरुद्द्ध आयोग द्वारा कार्रवाई की गई थी। उस आधार पर माना जा सकता है कि सिद्धू पर भी ज्यादा से ज्यादा तीन चार दिनों का प्रतिबन्ध लगा दिया जायेगा।  हालांकि उन्होंने मायावती से ज्यादा खतरनाक अपील की। अब सवाल ये है कि क्या बात यहीं तक सीमित रहेगी या फिर जिन  नेताओं के विरुद्ध भड़काऊ भाषण देने वाले बयान देने के आरोप हैं उन पर चुनाव बाद भी अपराधिक प्रकरण चलाये जाने की हिम्मत चुनाव आयोग करेगा। इसीलिये ये लगता है कि सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग के प्रति बेहद नर्म रवैया अपनाते हुए उसकी तारीफ  कर डाली। लेकिन इस तरह की तदर्थ कार्रवाइयों से नेताओं की जुबान से स्तरहीन बातों रूपी गंदे नाले बहना बंद नहीं होंगे।  होना तो ये चाहिए कि इस सम्बन्ध में कानून को और सख्त किया जावे जिससे कोई भी चुनाव प्रचार में शब्दों की मर्यादा लांघने का दुस्साहस नहीं करे। बीते कई चुनावों का इतिहास उठाकर देखा जावे तो ये स्पष्ट हो जावेगा कि आचार संहिता के उल्लंघन संबंधी शिकायतें खेल खतम पैसा हजम वाली स्थिति को प्राप्त होकर रह जाती हैं।  यही कारण है कि चुनाव आयोग के प्रति डर भी महज दिखावा है। चुनावी खर्च की सीमा भी मजाक बनकर रह गयी है। न काले धन का उपयोग रुक रहा है न ही शराब और अन्य प्रलोभनों से मतदाताओं को लुभाने का खेल।  जाति और धर्म के नाम पर खुले आम गोलबंदी होती है। चुनाव आयोग के पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि जिन नेताओं को कुछ दिनों तक प्रचार करने से रोक दिया गया है वे यदि दोबारा वैसा ही अपराध करेंगे तब क्या उन्हें और कड़ी सजा दी जायेगी या फिर इसी तरह से औपचारिकता का निर्वहन होता रहेगा? सवाल और भी हैं लेकिन मुद्दे की बात ये है कि जिस तरह हमारे देश में राजनेता कानून को अपने हाथ में समझते हैं ठीक वैसे ही उन की नजर में चुनाव आयोग केवल भय का भूत मात्र है। अब चूँकि सर्वोच्च न्यायालय तक को नेताओं की घटिया टिप्पणियाँ नागवार गुजरी हैं तब उसे ये भी देखना चाहिए कि क्या जो किया गया वह पर्याप्त था या फिर और कड़ाई की जरूरत है? और यदि हाँ तो उसे स्वत: संज्ञान लेते हुए उसका सुझाव देना चाहिए। वरना चुनाव और चुनाव आयोग दोनों की गम्भीरता नष्ट होती चली जायेगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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