Thursday 31 August 2017

भरोसा कायम किन्तु संतोष उम्मीद से कम

नोटबंदी का जिन्न एक बार फिर बोतल से बाहर आ गया। रिजर्व बैंक ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में स्वीकार किया कि 1000 और 500 के जो नोट बंद किये गये थे उनमें से 99 प्रतिशत वापिस आ गये। अभी सहकारी बैंकों में जमा पुराने नोट आने बाकी है जिनसे हो सकता है आंकड़ा 100 फीसदी को छू जाये। पुराने करेंसी नोटों का वापिस आ जाना कोई चौंकाने वाली बात नहीं होती यदि मोदी सरकार ने नोटबंदी का कारण कालेधन की उगाही न बताया होता। ऐसा अनुमान था कि तकरीबन 25 प्रतिशत नोट वापिस नहीं आयेंगे जिससे कालेधन के रूप में चल रही समानान्तर अर्थव्यवस्था दम तोड़ देगी लेकिन नोट वापसी के लिये जो कदम उठाये गये वे अव्वल तो अपर्याप्त थे और फिर बैंकों में हुए भ्रष्टाचार ने भी काले को सफेद करने में काफी मदद कर दी। पेट्रोल पम्पों, अस्पतालों आदि को दी गई छूट का भी गलत फायदा उठाया गया। दबाव में आई सरकार हड़बड़ाहट में गल्तियां करती चली गई जिससे उसके हिस्से में गालियां आईं वहीं कालेधन को बैंकों में जमा कराने का खेल चलता रहा। इसे लेकर रिजर्व बैंक द्वारा साधी गई चुप्पी ने भी सरकार की नीति और नीयत पर संदेह करने वालों को अवसर दिया। कितने नोट रिजर्व बैंक में आये इसकी जानकारी देने में जिस तरह की टालमटोली की जाती रही उससे संदेह और भी गहराता गया। बहरहाल गत दिवस रिजर्व बैंक ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में नोटबंदी संबंधी तमाम जानकारियां सार्वजनिक कर दीं तब विपक्ष को ये कहने का अवसर एक बार फिर मिल गया कि नोटबंदी का निर्णय मूर्खतापूर्ण था तथा वह कालेधन का पता लगाने में पूरी तरह नाकाम रहा। यदि ये मान लें कि जो 1 प्रतिशत नोट वापिस नहीं आये उनका मूल्य 16500 करोड़ था तब भी उक्त निर्णय घाटे का सौदा साबित हो गया क्योंकि नये नोटों की छपाई पर ही तकरीबन उतना या उससे ज्यादा व्यय हो गया, आम जनता त्रस्त हुई और नगदी की कमी ने चौतरफा मंदी का आलम पैदा कर दिया। खेत से लेकर कारखाने तक में श्रमिक बेरोजगार हो गये। उत्पादन घटने से विकास दर घटी वहीं सबसे बड़ा नुकसान हुआ आर्थिक अनिश्चितता के रूप में। पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम ने गत दिवस जो कटाक्ष किये वे सतही तौर पर काफी सही लगते हैं। अन्य आलोचनाएं भी काफी व्यावहारिक है परन्तु वित्तमंत्री अरुण जेटली ने सरकार का पक्ष रखते हुए जो बातें कहीं उनका भी संज्ञान लिया जाना चाहिये। मसलन बैंकों में जमा हुए नोटों को पूरी तरह से सफेद धन मान लेना सही नहीं है। जन-धन योजना में खुले खातों में अचानक जमा की गई बड़ी रकमों की निकासी पर रोक लगाकर सरकार ने काले धन का पता लगाने का जो निर्णय लिया उसके नतीजे अभी आने शेष हैं। इसी तरह जिन खातों में बड़ी राशि जमा की गई उनसे पूछताछ करने पर मिल रही जानकारी भी कालेधन तक पहुंचने में मददगार हो रही है। आयकर एवं प्रवर्तन निदेशालय ने बीते एक वर्ष में जो ताबड़तोड़ कार्रवाई की उसका भी असर पड़ा है। नगदी लेन-देन में भी अभूतपूर्व कमी आई जिसकी वजह से कालेधन का चलन कुछ हद तक तो रूका। कैशलेस अर्थव्यवस्था का सपना भले ही पूरी तरह साकार नहीं हो सका हो परन्तु ये स्वीकार करना गलत नहीं है कि नोटबंदी के बाद कार्ड चैक या इलेक्ट्रॉनिक ट्रांसफर का चलन तेजी से बढ़ा है। नगदी में खरीदी की सीमा घटाने से भी कालेधन से खरीदी करने वालों के हौसले ठंडे पड़ गये। जमीन-जायजाद के व्यवसाय में सबसे ज्यादा काला धन प्रयुक्त होता था। इस कारोबार में आई ठंडक ये साबित करने के लिये पर्याप्त है कि बाजार में कालेधन की आवक जावक पर असर पड़ा है। रही कसर पूरी कर दी जीएसटी ने। एक साल के भीतर नोटबंदी और फिर जीएसटी को लागू किये जाने का कारोबारी जगत में जो विरोध हुआ उसकी प्रमुख वजह कालेधन से व्यापार करने में आई अड़चनें ही हैं। कपड़ा व्यापार को ही लें तो ये बात बाहर आई है कि करमुक्त होने के कारण इस व्यवसाय में आधा लेन-देन कालेधन से होता था। नोटबंदी के बाद भले ही इधर-उधर से व्यवस्था बनाकर लोगों ने कालाधन बैंकों में जमा करवा दिया परन्तु इसे व्यवसाय में उपयोग करना आसान चूंकि नहीं रहा इसीलिये आयकर दाताओं की संख्या में जहां वृद्धि देखी गई वहीं प्रत्यक्ष करों से होने वाली आय भी बढ़ी। उस आधार पर वित्तमंत्री श्री जेटली का ये कहना सही है कि भले ही नोटबंदी के बाद 99 प्रतिशत प्रतिबंधित नोट बैंकों में लौट आएं हों परन्तु उससे ये निष्कर्ष निकालना सही नहीं होगा कि ऐसा होने पर पूरा का पूरा काला धन वैध हो गया। आरोप-प्रत्यारोप के बीच साधारण नागरिक बेहद असमंजस में है। हर समझदार व्यक्ति को ये देखकर तो खुशी होती है कि सरकार का खजाना लबालब हो रहा है तथा वह कर चोरी करने वालों की गर्दन में फंदा कसने में जुटी है परन्तु इस सबसे उसे कोई सीधा फायदा नहीं हो रहा। विकास कार्यों में आई तेजी से इंकार नहीं किया जा सकता। अर्थव्यवस्था की सेहत सुधारने के प्रयासों की सदाशयता पर भी संदेह नहीं किया जा सकता क्योंकि मोदी सरकार ने राजकोषीय घाटे को जिस स्तर तक कम किया वह सराहनीय है। यदि बाजार में महंगाई कम हुई तो उसके पीछे नगदी की उपलब्धता घटना बड़ी वजह थी किन्तु जीएसटी की ऊंची दरें आने वाले दिनों में आम जनता के कंधों का बोझ बढ़ा सकती है ये आशंका भी प्रबल है। वित्तमंत्री आश्वस्त कर चुके हैं कि जीएसटी से सरकार की राजस्व वसूली आशानुरूप हुई तब उसकी दरों में कमी की जा सकती है। यदि वे इस बारे में ईमानदार रहे तब जरूर ये माना जाएगा कि सरकार का उद्देश्य जनता की भलाई है वरना पेट्रोल-डीजल में मुनाफाखोरी के परिप्रेक्ष्य में सरकार की नीयत में खोट देखना गलत नहीं होगा। भले ही प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी के तमाम नेता चिल्ला-चिल्लाकर कहें कि उनकी सरकार पर भ्रष्टाचार का एक भी आरोप नहीं है तथा देशहित में कड़े निर्णय ले रहे हैं किन्तु ये भी उतना ही सच है कि आम नागरिक मोदी सरकार की नीतियों की दिशा को सही मानने के बाद भी ये नहीं कह पा रहा कि इनसे उसे सीधा फायदा हो सका है। भले ही सरकार की वित्तीय स्थिति में जबर्दस्त सुधार हो रहा हो तथा वह इस आय का उपयोग रक्षा सौदों एवं इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास पर कर रही हो, नोटबंदी और जीएसटी से नंबर दो का कारोबार करने वालों पर पाबंदी लगी या फिर आतंकियों की फंडिंग रुकी हो किन्तु आम जनता को इसका सीधा लाभ महसूस नहीं हो रहा। प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री दोनों को ये अच्छी तरह से समझ लेना चाहिये कि अब मूल्य और शेयर बाजार के सूचकांक से ज्यादा आम जनता की प्रसन्नता का स्तर (हैप्पीनेस इंडेक्स) महत्वपूर्ण है और ये कहने में कोई बुराई नहीं है कि फिलहाल जो माहौल है उसमें मोदी सरकार के प्रति भरोसा भले ही कायम हो किन्तु जिस संतोष की उम्मीद थी वह अपेक्षा से काफी कम है।

-रवींद्र वाजपेयी

Wednesday 30 August 2017

धोखा और धूर्तता-चीन की विशेषता

गत दिवस पूरे देश का ध्यान दुष्कर्म करने वाले एक फर्जी बाबा को मिलने वाली सजा पर लगा था तभी खबर आ गई कि भारत भूटान-चीन सीमा पर स्थित डोकलाम को लेकर चला आ रहा तनाव ठंडा हो गया। भारतीय विदेश विभाग के प्रवक्ता ने जानकारी दी कि भारत और चीन अपनी-अपनी सेना वहां से हटा लेंगे। प्रधानमंत्री की ब्रिक्स सम्मेलन के सिलसिले में होने वाली चीन यात्रा के पहले कूटनीतिक स्तर की चर्चा के उपरांत निकले इस समाधान को भारत की जीत के तौर पर प्रचारित किया जाने लगा। चीन ने घुटने टेके जैसे कटाक्ष शुरू हो गये। शायद इसी की प्रतिक्रिया रही कि चीन के विदेश विभाग ने स्पष्ट किया कि भारत अपने सैनिक पीछे हटाएगा किन्तु चीन द्वारा पहले की तरह अपने क्षेत्र की निगरानी हेतु सैनिकों की गश्त जारी रहेगी। इससे ये भ्रम फैला कि भारत की तरफ से जिस समझौते की बात कही गई वह गलत थी किन्तु शीघ्र ही स्पष्ट हो गया कि दोनों अपनी जगह सही हैं। दरअसल सारा झगड़ा डोकलाम नामक उस इलाके में चीन द्वारा सड़क बनाने की कोशिश से शुरू हुआ जो भूटान का है। चीन हड़पने की फिराक में है। गत जून में जब उसने वहां सड़क बनाने की कोशिश की तब भूटान ने उसे रोका तथा भारत को गुहार लगाई। भूटान की सुरक्षा का जिम्मा भारत के पास होने से हमारी सेना ने जाकर चीन को काम करने से रोक दिया। इस दौरान धक्का-मुक्की तथा हाथापाई भी हुई जिसके बाद डोकलाम के निर्जन पड़े इलाके में दोनों देशों के कुछ सैकड़ा सैनिक आमने-सामने तंबू गाड़कर बैठ गए। फिर चीन के सरकारी समाचार माध्यमों में भारत को धमकाने के प्रयास शुरू हो गए। 1962 से भी बुरी हार की चेतावनी दी गई। अपनी सैन्य शक्ति की बार-बार शेखी बघारी गई। सैनिक नहीं हटाने पर हमले की धमकी देने में भी चीन ने संकोच नहीं किया। इधर भारत ने साफ कर दिया कि जब तक चीन के सैनिक हैं तब तक हम भी पीछे नहीं हटेंगे। यही नहीं तो लद्दाख से डोकलाम तक सटी पूरी भारत-चीन सीमा पर हमले का माकूल जवाब देने की तैयारी कर ली गई। वायुसेना को भी तैयार कर दिया गया। रक्षा मंत्री ने दो टूक कहा कि भारत 1962 वाला देश नहंीं रहा वहीं संसद में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने बिना लाग-लपेट के कह दिया कि भारत दबाव में आकर अपने सैनिक नहीं हटाएगा। इसी बीच पूरे देश में चीनी सामान के विरुद्ध माहौल बनने लगा। राष्ट्रीय स्वयं सेवक ने स्वदेशी जागरण मंच नामक अपने अनुषांगिक संगठन के जरिये चीनी सामान के बहिष्कार की मुहिम शुरू कर दी। दीपावली सीजन पर चीनी पटाकों के उपयोग को रोकने का माहौल भी बनने लगा। भारत सरकार ने भी तमाम चीनी वस्तुओं के मानकों पर खरा न उतरने के नाम पर रोक लगाने की तरफ कदम बढ़ा दिए। इस सबके बीच कूटनीतिक प्रयास भी चलते रहे। प्रधानमंत्री ने विश्व की अन्य महाशक्तियों को जिस तरह भारत के पक्ष में किया उससे चीन पर मनोवैज्ञानिक दबाव बढ़ता चला गया। यद्यपि इस बीच वह कभी तिब्बत में सैन्य अभ्यास तो कभी सेना की परेड के वीडियो दिखाकर डराने की कोशिश करता रहा किन्तु भारत ने कूटनीति और सैन्य दोनों ही मोर्चों पर धैर्य तथा चतुराई का परिचय दिया। आने वाले दिनों में चीन में होने वाले ब्रिक्स देशों के सम्मेलन में प्रधानमंत्री श्री मोदी की उपस्थिति को लेकर भी भारत की तरफ से अनिश्चितता बना दी गई जिससे आयोजन स्थगित होने का खतरा पैदा हो गया। ब्रिक्स देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की बैठक में गए अजीत डोभाल ने भी चीनी पक्ष के साथ जो चर्चाएं की वे कारगर साबित हुईं। अंतत: दोनों तरफ से ये संकेत आ गया कि डोकलाम में बनी युद्ध की स्थिति टाल दी गई है। भारत के सैनिक जिस क्षेत्र में तैनात किये गये वह भूटान का तथा निर्जन है। नाथुला दर्रे से 15 किमी दूर भारत-भूटान चीन की सीमाएं मिलकर एक त्रिकोण बनाती हैं। चीन इस इलाके पर कब्जा करने के लिये भूटान को दबाता रहा है। उसने भूटान को आर्थिक मदद के साथ ही सैन्य संरक्षण का आश्वासन भी दिया किन्तु बात नहीं बनी। नेपाल से भी उसे अपेक्षित समर्थन नहीं मिला वहीं श्रीलंका ने भी चीन द्वारा बनाए अपने बंदरगाह के सैन्य उपयोग की अनुमति नहीं दी। इस दौरान उ.कोरिया और अमेरिका के बीच उत्पन्न युद्ध की परिस्थिति से भी चीन दबाव में आ गया। जब उसे लगा कि विश्व बिरादरी में भारत का कूटनीतिक समर्थन बढ़ता जा रहा है तब उसे अलग-थलग होने का भय सताने लगा। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कठोर रवैये ने भी चीन के हौसले पस्त किये किन्तु सबसे बड़ी बात रही मोदी सरकार द्वारा कूटनीतिक प्रयासों को जारी रखने के साथ ही मोर्चे पर सेना की तैनाती। जब चीन को लगा कि भारत की तरफ से भी कड़ा जवाब मिलेगा तब उसने पैंतरा बदला।  भले ही वह कहे कि उसके सैनिक पूर्व की तरह अपने क्षेत्र में गश्त करते रहेंगे किन्तु डोकलाम में घुसकर जबरन सड़क बनाने का उसका पैंतरा फुस्स होकर रह गया है। वह अपनी सीमा पर चौकसी रखे ये उसका अधिकार है जिस पर भारत और भूटान को कोई एतराज नहीं हो सकता। रही बात भारत की तो उसने अपनी टुकडिय़ां भूटान के भूभाग की रक्षा हेतु तैनात की थीं जिसमें वह हर तरह से सफल रहा। चीन की अर्थव्यवस्था इन दिनों ढलान पर है। आर्थिक प्रगति के आंकड़ों की असलियत उजागर होने लगी है। यही स्थिति रही तो आगामी पांच साल में वह भारी अर्थ संकट में घिर जाएगा। उसकी तुलना में विदेशी पूंजी का आगमन भारत में तेजी से हो रहा है। तमाम बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत में उद्योग लगाने तैयार हैं। बीते तीन वर्ष में भारत सरकार ने रक्षा सौदों को लेकर जबर्दस्त सक्रियता दिखाई जिसके कारण सेना का मनोबल एवं ताकत दोनों में वृद्धि हुई है। चीन समझ गया कि 1962 को दोहराने की बात सोचना मूर्खों के स्वर्ग में रहने जैसा होगा। यदि लड़ाई 10 दिन भी चलती तब उसमें होने वाले नुकसान के अनुमान ने भी उसे निरुत्साहित कर दिया। जिस सड़क को यह मध्य एशिया होते हुए बनाना चाह रहा है उससे भारत के दूर रहने के कारण उसने डोकलाम में दबाव बनाने की चाल चली किन्तु वह कारगर नहीं हो सकी। बावजूद इसके भारत को सतर्क रहना होगा क्योंकि चीन की कूटनीति धोखे और धूर्तता पर आधारित है। डोकलाम में चूंकि उसे उम्मीद से उलट जवाब मिला इसलिये संभव है उसने फिलहाल टकराव को टालने का मन बनाया हो परन्तु इससे तरह निश्चिंत होकर बैठ जाना नुकसान देह हो सकता है। बेहतर होगा भारत लगातार आर्थिक मोर्चे पर दबाव बढ़ाए। चीन की ताकत सैन्य बल के साथ ही निर्यात भी है जिसकी काफी खपत भारत में होती है। इसमें जितनी ज्यादा कमी की जावेगी चीन का दम उतना ही फूलेगा। ये देखते हुए उचित होगा कि कूटनीतिक सफलता के उपरांत भारत सरकार बिना हल्ला मचाए चीन से हो रहे आयात में कमी लाने के उपाय ढूंढकर उन्हें लागू करे। विस्तारवाद माओ के समय में तय की गई चीन की नीति है जिसे वह पड़ोसी देशों पर थोपने की कोशिश करता रहता है। भारत उसकी राह में बड़ा रोड़ा बन गया है। इसलिये ये मानकर चलना चाहिए कि जैसा थल सेनाध्यक्ष बिपिन रावत कह चुके है वह डोकलाम सरीखी हरकतें भारत के साथ सटी सीमा पर दूसरी जगह भी करता रहेगा।

- रवींद्र वाजपेयी

बेतरतीब विकास : लाचार आपदा प्रबंधन

यद्यपि 9 घंटे में 12 इंच बरसात होने के बाद इस तरह की स्थिति बन जाना अप्रत्याशित कतई नहीं है किन्तु मुंबई में गत दिवस जो स्थितियां निर्मित हो गईं उनके बाद महानगरों में आपदा प्रबंधन की दयनीय स्थिति पर विचार करने की आवश्यकता फिर महसूस हो रही है। हॉलांकि ये भी कहा जा सकता है कि ऐसी आपदाओं के दौरान तो अमेरिका जैसे संपन्न एवं विकसित देश भी लाचार हो जाते हैं जहां सब कुछ नियोजित और व्यवस्थित है। फिर मुंबई में यदि भारी वर्षा से व्यवस्था पूरी तरह चरमरा जाए तो इसमें सरकार या वहां की महानगर पालिका पर दोषारोपण औचित्यहीन है लेकिन जो शहर अपनी खूबसूरती और चाक चौबंद व्यवस्था के लिये जगजाहिर था वह इस तरह बदहाल कैसे हो गया ये गंभीरता से सोचने वाली बात है। और केवल मुंबई ही क्यों चेन्नई, दिल्ली, कोलकाता बेंगलुरु सरीखे महानगर ही नहीं अब तो 10-12 लाख आबादी वाले मध्यम श्रेणी के शहरों में भी घंटे-दो घंटे की बरसात जनजीवन को अस्त-व्यस्त कर देती है। बेतरतीब बसाहट, बढ़ते अतिक्रमण तथा आपदा से निबटने के लिये जरूरी पेशेवर दक्षता का अभाव तथाकथित विकास की पोल खोलकर रख देता है। दो-चार दिन स्थानीय प्रशासन और सरकार को कठघरे में खड़ा किया जाता है और फिर सब कुछ उसी ढर्रे पर लौट आता है। प्रश्न ये है कि क्या बढ़ती आबादी के अनुरूप नगरों एवं महानगरों में जरूरी व्यवस्थाएं की जा सकीं? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्मार्ट सिटी नामक योजना को शुरू तो कर दिया किन्तु उसका स्वरूप अब तक स्पष्ट नहीं हो पाने से भ्रम की स्थिति बनी हुई है। दरअसल जरूरत है शहरों के असीमित विस्तार पर रोक लगाने की। बड़े शहरों का आकर्षण वहां काम-धंधे की संभावना का होना ही है। लेकिन हर शहर की अपनी सीमा होती है। ऐसे में होना ये चाहिए कि महानगरों के समीप छोटे-छोटे शहर बसाए जाएं जहाँ से आवगमन के पर्याप्त साधनों की व्यवस्था रहे  हमारे देश का नगरीय नियोजन यूरोप के विकसित देशों की तरह नहीं हो सकता किन्तु जापान, कोरिया, सिंगापुर जैसे एशियाई देश हमारे लिये सबक हैं जहां आबादी की समस्या के बावजूद भी मूलभूत सुविधाएं एवं आपदा प्रबंधन पूरी तरह से उच्च स्तरीय है। ऐसा नहीं है कि दुर्घटनाएं और प्राकृतिक आपदाएं वहां नहीं होती परन्तु वहां की सरकारें और जनता दोनों हर गलती से कुछ न कुछ सीखकर भविष्य में उसे न दोहराने के प्रति सतर्क हो जाते हैं। व्यवस्था में सुधार का काम भी वहाँ सतत रूप से चलता है। उसके विपरीत हमारे देश में आग लगने के बाद कुआ खोदने की कहावत ही चरितार्थ हो रही है। कुछ घंटों में भारी बरसात के होने से सब कुछ अस्त-व्यस्त होना उतना चौंकाता नहीं है जितना उससे उबरने में लगने वाला समय तथा संकट के समय अपेक्षित व्यवस्थाओं का अभाव। मुंंबई में असाधारण बरसात ने सब जगह पानी-पानी कर दिया। ऊपर बादल गरज रहे थे और नीचे समुद्र उफन रहा था किन्तु बरसात रूकने पर भी पानी निकासी में लगने वाला लंबा समय सवाल खड़े करता है।  लगभग हर वर्ष ये हालात कहीं न कहीं बनते हैं। मुंबई या अन्य बड़े शहरों की तस्वीरें तो फटाफट बड़ी खबर बन जाती है परन्तु नजर घुमाएं तो कमोबेश पूरे देश की दशा एक जैसी है। ये सब देखकर विकास दर तथा विदेशी मुद्रा के भंडाार संबंधी आंकड़े बेमानी लगते हैं। देश की आर्थिक राजधानी तथा मायानगरी कहलाने वाले महानगर में एशिया की सबसे बड़ी झोपड़ पट्टी विकास के उन तमाम दावों को चिढ़ाती है जो संसद से लेकर ग्राम पंचायत तक किये जाते हैं।

-रवींद्र वाजपेयी

व्यापमं के बाद भी न सुधरने की कसम

कहते हैं दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंककर पीता है लेकिन म.प्र. में व्यापमं घोटाले से बदनाम हो चुकी व्यवस्था में शर्म नाम की चीज लेशमात्र नहीं बची। इसका प्रमाण सरकारी तथा निजी मेडीकल एवं डेंटल कॉलेजों में फर्जी तरीके से मप्र के मूल निवासी बनकर प्रवेश पाने वाले अन्य प्रदेशों के छात्रों का प्रकरण है। गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय ने नीट 2017 की दो चरण की काउंसिल रद्द करते हुए दोबारा करने का जो आदेश दिया वह म.प्र. सरकार के गाल पर तमाचे से भी बढ़कर है। पूर्व में म.प्र. उच्च न्यायालय ने भी राज्य सरकार को आदेशित किया था कि नीट परीक्षा में केवल मप्र के मूल निवासी छात्रों को ही प्रवेश दिया जावे जिसके विरुद्ध राज्य सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया लेकिन वहां उसे मुंह की खानी पड़ गई। पहले दो चरण की काउंसिल को निरस्त कर न्यायालय ने 10 दिन में काउंसिल दोबारा करने का जो निर्देश दिया उसके परिणामस्वरूप मप्र के उन छात्रों को मेडीकल तथा डेन्टल कॉलेजों में प्रवेश मिलना संभव हो सकेगा जो मूल निवासी प्रमाणपत्र के फर्जीबाड़े के शिकार हो गये थे। एक बार मान लें कि मूल निवासी प्रमाणपत्र की जाँच करने का तरीका काउंसलिंग करने वालों के पास नहीं रहा होगा परन्तु जब ये साबित हो चुका है कि राज्य सरकार के संबंधित विभाग से ही अन्य राज्यों के छात्रों ने उक्त दस्तावेज हासिल कर लिया होगा तब ये कहने  में क्या गलत है कि शिवराज सिंह चौहान की सरकार ने व्यापमं की बदनामी से कोई सबक नहीं लिया। इंजीनियरिंग कॉलेजों की भरमार के कारण वहां प्रवेश लेना तो बेहद आसान हो गया है। परन्तु मेडीकल कॉलेजों में प्रवेश पाने की मारामारी रहती है। जो छात्र चूकते हैं वे दंत चिकित्सक बनने हेतु डेंटल कॉलेज में प्रवेश पाने का प्रयत्न करते हैं। इसी वजह से चिकित्सा शिक्षा के क्षेत्र में अभी भ्रष्टाचार की गुंजाइश बच रही है। व्यापमं घोटाले ने शिवराज सरकार को  जितना बदनाम कर दिया उसके बाद होना तो ये चाहिये था कि मुख्यमंत्री मप्र को भ्रष्टाचार विहीन राज्य बनाकर अपनी और भाजपा दोनों की छवि सुधारते किन्तु नीट परीक्षा में हुए गोल-गपाड़े ने साफ कर दिया कि श्री चौहान के तमाम दावों के बाद भी सरकारी दफ्तर भ्रष्टाचार के अड्डे बने हुए हैं। मूल निवासी प्रमाण पत्र में हुए भ्रष्टाचार के लिये भले ही मुख्यमंत्री सीधे जिम्मेदार न हों किन्तु जब वे अच्छे कामों का श्रेय लेते हैं  तब उन्हें इस तरह के गोरखधंधों का दायित्व भी लेना चाहिये। मप्र उच्च न्यायालय के निर्देश के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय जाने का निर्णय ही इस बात को स्पष्ट करता है कि बजाय गल्ती सुधारने के राज्य सरकार उसे सही साबित करने के लिये हाथ -पाँव मारती रही। म.प्र. में चिकित्सा सेवाओं की स्थिति बेहद दयनीय है। ऐसे में जरूरी हो जाता है कि ज्यादा से ज्यादा छात्र चिकित्सा शिक्षा प्राप्त करें जिससे स्वास्थ्य सेवाओं की दशा सुधर सके। अन्य राज्यों के छात्रों को फर्जी तरीके से मूल निवासी प्रमाणपत्र मिलने से मप्र के होनहार छात्रों का भविष्य चौपट होने का खतरा पैदा हो जाता है। सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले को सकारात्मक तौर पर लेते हुए राज्य सरकार को निरस्त  काउंसलिंग दोबारा करते समय ईमानदारी तथा पारदर्शिता के समुचित प्रबंध करने के साथ ही इस तरह की व्यवस्था करनी चाहिए जिससे कि भविष्य में व्यापमं रूपी वायरस दोबारा हरकत में नहीं आ पाए। यदि इसके बाद भी मेडीकल एवं डेंटल कॉलेजों में प्रवेश की प्रक्रिया में भ्रष्टाचार नहीं रूका तब ये मानने को विवश होना पड़ेगा कि मप्र सरकार ने हम नहीं सुधरेंगे की कसम खा रखी है।
बेतरतीब विकास : लाचार आपदा प्रबंधन
यद्यपि 9 घंटे में 12 इंच बरसात होने के बाद इस तरह की स्थिति बन जाना अप्रत्याशित कतई नहीं है किन्तु मुंबई में गत दिवस जो स्थितियां निर्मित हो गईं उनके बाद महानगरों में आपदा प्रबंधन की दयनीय स्थिति पर विचार करने की आवश्यकता फिर महसूस हो रही है। हॉलांकि ये भी कहा जा सकता है कि ऐसी आपदाओं के दौरान तो अमेरिका जैसे संपन्न एवं विकसित देश भी लाचार हो जाते हैं जहां सब कुछ नियोजित और व्यवस्थित है। फिर मुंबई में यदि भारी वर्षा से व्यवस्था पूरी तरह चरमरा जाए तो इसमें सरकार या वहां की महानगर पालिका पर दोषारोपण औचित्यहीन है लेकिन जो शहर अपनी खूबसूरती और चाक चौबंद व्यवस्था के लिये जगजाहिर था वह इस तरह बदहाल कैसे हो गया ये गंभीरता से सोचने वाली बात है। और केवल मुंबई ही क्यों चेन्नई, दिल्ली, कोलकाता बेंगलुरु सरीखे महानगर ही नहीं अब तो 10-12 लाख आबादी वाले मध्यम श्रेणी के शहरों में भी घंटे-दो घंटे की बरसात जनजीवन को अस्त-व्यस्त कर देती है। बेतरतीब बसाहट, बढ़ते अतिक्रमण तथा आपदा से निबटने के लिये जरूरी पेशेवर दक्षता का अभाव तथाकथित विकास की पोल खोलकर रख देता है। दो-चार दिन स्थानीय प्रशासन और सरकार को कठघरे में खड़ा किया जाता है और फिर सब कुछ उसी ढर्रे पर लौट आता है। प्रश्न ये है कि क्या बढ़ती आबादी के अनुरूप नगरों एवं महानगरों में जरूरी व्यवस्थाएं की जा सकीं? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्मार्ट सिटी नामक योजना को शुरू तो कर दिया किन्तु उसका स्वरूप अब तक स्पष्ट नहीं हो पाने से भ्रम की स्थिति बनी हुई है। दरअसल जरूरत है शहरों के असीमित विस्तार पर रोक लगाने की। बड़े शहरों का आकर्षण वहां काम-धंधे की संभावना का होना ही है। लेकिन हर शहर की अपनी सीमा होती है। ऐसे में होना ये चाहिए कि महानगरों के समीप छोटे-छोटे शहर बसाए जाएं जहाँ से आवगमन के पर्याप्त साधनों की व्यवस्था रहे  हमारे देश का नगरीय नियोजन यूरोप के विकसित देशों की तरह नहीं हो सकता किन्तु जापान, कोरिया, सिंगापुर जैसे एशियाई देश हमारे लिये सबक हैं जहां आबादी की समस्या के बावजूद भी मूलभूत सुविधाएं एवं आपदा प्रबंधन पूरी तरह से उच्च स्तरीय है। ऐसा नहीं है कि दुर्घटनाएं और प्राकृतिक आपदाएं वहां नहीं होती परन्तु वहां की सरकारें और जनता दोनों हर गलती से कुछ न कुछ सीखकर भविष्य में उसे न दोहराने के प्रति सतर्क हो जाते हैं। व्यवस्था में सुधार का काम भी वहाँ सतत रूप से चलता है। उसके विपरीत हमारे देश में आग लगने के बाद कुआ खोदने की कहावत ही चरितार्थ हो रही है। कुछ घंटों में भारी बरसात के होने से सब कुछ अस्त-व्यस्त होना उतना चौंकाता नहीं है जितना उससे उबरने में लगने वाला समय तथा संकट के समय अपेक्षित व्यवस्थाओं का अभाव। मुंंबई में असाधारण बरसात ने सब जगह पानी-पानी कर दिया। ऊपर बादल गरज रहे थे और नीचे समुद्र उफन रहा था किन्तु बरसात रूकने पर भी पानी निकासी में लगने वाला लंबा समय सवाल खड़े करता है।  लगभग हर वर्ष ये हालात कहीं न कहीं बनते हैं। मुंबई या अन्य बड़े शहरों की तस्वीरें तो फटाफट बड़ी खबर बन जाती है परन्तु नजर घुमाएं तो कमोबेश पूरे देश की दशा एक जैसी है। ये सब देखकर विकास दर तथा विदेशी मुद्रा के भंडाार संबंधी आंकड़े बेमानी लगते हैं। देश की आर्थिक राजधानी तथा मायानगरी कहलाने वाले महानगर में एशिया की सबसे बड़ी झोपड़ पट्टी विकास के उन तमाम दावों को चिढ़ाती है जो संसद से लेकर ग्राम पंचायत तक किये जाते हैं।

-रवींद्र वाजपेयी