Wednesday 30 August 2017

व्यापमं के बाद भी न सुधरने की कसम

कहते हैं दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंककर पीता है लेकिन म.प्र. में व्यापमं घोटाले से बदनाम हो चुकी व्यवस्था में शर्म नाम की चीज लेशमात्र नहीं बची। इसका प्रमाण सरकारी तथा निजी मेडीकल एवं डेंटल कॉलेजों में फर्जी तरीके से मप्र के मूल निवासी बनकर प्रवेश पाने वाले अन्य प्रदेशों के छात्रों का प्रकरण है। गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय ने नीट 2017 की दो चरण की काउंसिल रद्द करते हुए दोबारा करने का जो आदेश दिया वह म.प्र. सरकार के गाल पर तमाचे से भी बढ़कर है। पूर्व में म.प्र. उच्च न्यायालय ने भी राज्य सरकार को आदेशित किया था कि नीट परीक्षा में केवल मप्र के मूल निवासी छात्रों को ही प्रवेश दिया जावे जिसके विरुद्ध राज्य सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया लेकिन वहां उसे मुंह की खानी पड़ गई। पहले दो चरण की काउंसिल को निरस्त कर न्यायालय ने 10 दिन में काउंसिल दोबारा करने का जो निर्देश दिया उसके परिणामस्वरूप मप्र के उन छात्रों को मेडीकल तथा डेन्टल कॉलेजों में प्रवेश मिलना संभव हो सकेगा जो मूल निवासी प्रमाणपत्र के फर्जीबाड़े के शिकार हो गये थे। एक बार मान लें कि मूल निवासी प्रमाणपत्र की जाँच करने का तरीका काउंसलिंग करने वालों के पास नहीं रहा होगा परन्तु जब ये साबित हो चुका है कि राज्य सरकार के संबंधित विभाग से ही अन्य राज्यों के छात्रों ने उक्त दस्तावेज हासिल कर लिया होगा तब ये कहने  में क्या गलत है कि शिवराज सिंह चौहान की सरकार ने व्यापमं की बदनामी से कोई सबक नहीं लिया। इंजीनियरिंग कॉलेजों की भरमार के कारण वहां प्रवेश लेना तो बेहद आसान हो गया है। परन्तु मेडीकल कॉलेजों में प्रवेश पाने की मारामारी रहती है। जो छात्र चूकते हैं वे दंत चिकित्सक बनने हेतु डेंटल कॉलेज में प्रवेश पाने का प्रयत्न करते हैं। इसी वजह से चिकित्सा शिक्षा के क्षेत्र में अभी भ्रष्टाचार की गुंजाइश बच रही है। व्यापमं घोटाले ने शिवराज सरकार को  जितना बदनाम कर दिया उसके बाद होना तो ये चाहिये था कि मुख्यमंत्री मप्र को भ्रष्टाचार विहीन राज्य बनाकर अपनी और भाजपा दोनों की छवि सुधारते किन्तु नीट परीक्षा में हुए गोल-गपाड़े ने साफ कर दिया कि श्री चौहान के तमाम दावों के बाद भी सरकारी दफ्तर भ्रष्टाचार के अड्डे बने हुए हैं। मूल निवासी प्रमाण पत्र में हुए भ्रष्टाचार के लिये भले ही मुख्यमंत्री सीधे जिम्मेदार न हों किन्तु जब वे अच्छे कामों का श्रेय लेते हैं  तब उन्हें इस तरह के गोरखधंधों का दायित्व भी लेना चाहिये। मप्र उच्च न्यायालय के निर्देश के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय जाने का निर्णय ही इस बात को स्पष्ट करता है कि बजाय गल्ती सुधारने के राज्य सरकार उसे सही साबित करने के लिये हाथ -पाँव मारती रही। म.प्र. में चिकित्सा सेवाओं की स्थिति बेहद दयनीय है। ऐसे में जरूरी हो जाता है कि ज्यादा से ज्यादा छात्र चिकित्सा शिक्षा प्राप्त करें जिससे स्वास्थ्य सेवाओं की दशा सुधर सके। अन्य राज्यों के छात्रों को फर्जी तरीके से मूल निवासी प्रमाणपत्र मिलने से मप्र के होनहार छात्रों का भविष्य चौपट होने का खतरा पैदा हो जाता है। सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले को सकारात्मक तौर पर लेते हुए राज्य सरकार को निरस्त  काउंसलिंग दोबारा करते समय ईमानदारी तथा पारदर्शिता के समुचित प्रबंध करने के साथ ही इस तरह की व्यवस्था करनी चाहिए जिससे कि भविष्य में व्यापमं रूपी वायरस दोबारा हरकत में नहीं आ पाए। यदि इसके बाद भी मेडीकल एवं डेंटल कॉलेजों में प्रवेश की प्रक्रिया में भ्रष्टाचार नहीं रूका तब ये मानने को विवश होना पड़ेगा कि मप्र सरकार ने हम नहीं सुधरेंगे की कसम खा रखी है।
बेतरतीब विकास : लाचार आपदा प्रबंधन
यद्यपि 9 घंटे में 12 इंच बरसात होने के बाद इस तरह की स्थिति बन जाना अप्रत्याशित कतई नहीं है किन्तु मुंबई में गत दिवस जो स्थितियां निर्मित हो गईं उनके बाद महानगरों में आपदा प्रबंधन की दयनीय स्थिति पर विचार करने की आवश्यकता फिर महसूस हो रही है। हॉलांकि ये भी कहा जा सकता है कि ऐसी आपदाओं के दौरान तो अमेरिका जैसे संपन्न एवं विकसित देश भी लाचार हो जाते हैं जहां सब कुछ नियोजित और व्यवस्थित है। फिर मुंबई में यदि भारी वर्षा से व्यवस्था पूरी तरह चरमरा जाए तो इसमें सरकार या वहां की महानगर पालिका पर दोषारोपण औचित्यहीन है लेकिन जो शहर अपनी खूबसूरती और चाक चौबंद व्यवस्था के लिये जगजाहिर था वह इस तरह बदहाल कैसे हो गया ये गंभीरता से सोचने वाली बात है। और केवल मुंबई ही क्यों चेन्नई, दिल्ली, कोलकाता बेंगलुरु सरीखे महानगर ही नहीं अब तो 10-12 लाख आबादी वाले मध्यम श्रेणी के शहरों में भी घंटे-दो घंटे की बरसात जनजीवन को अस्त-व्यस्त कर देती है। बेतरतीब बसाहट, बढ़ते अतिक्रमण तथा आपदा से निबटने के लिये जरूरी पेशेवर दक्षता का अभाव तथाकथित विकास की पोल खोलकर रख देता है। दो-चार दिन स्थानीय प्रशासन और सरकार को कठघरे में खड़ा किया जाता है और फिर सब कुछ उसी ढर्रे पर लौट आता है। प्रश्न ये है कि क्या बढ़ती आबादी के अनुरूप नगरों एवं महानगरों में जरूरी व्यवस्थाएं की जा सकीं? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्मार्ट सिटी नामक योजना को शुरू तो कर दिया किन्तु उसका स्वरूप अब तक स्पष्ट नहीं हो पाने से भ्रम की स्थिति बनी हुई है। दरअसल जरूरत है शहरों के असीमित विस्तार पर रोक लगाने की। बड़े शहरों का आकर्षण वहां काम-धंधे की संभावना का होना ही है। लेकिन हर शहर की अपनी सीमा होती है। ऐसे में होना ये चाहिए कि महानगरों के समीप छोटे-छोटे शहर बसाए जाएं जहाँ से आवगमन के पर्याप्त साधनों की व्यवस्था रहे  हमारे देश का नगरीय नियोजन यूरोप के विकसित देशों की तरह नहीं हो सकता किन्तु जापान, कोरिया, सिंगापुर जैसे एशियाई देश हमारे लिये सबक हैं जहां आबादी की समस्या के बावजूद भी मूलभूत सुविधाएं एवं आपदा प्रबंधन पूरी तरह से उच्च स्तरीय है। ऐसा नहीं है कि दुर्घटनाएं और प्राकृतिक आपदाएं वहां नहीं होती परन्तु वहां की सरकारें और जनता दोनों हर गलती से कुछ न कुछ सीखकर भविष्य में उसे न दोहराने के प्रति सतर्क हो जाते हैं। व्यवस्था में सुधार का काम भी वहाँ सतत रूप से चलता है। उसके विपरीत हमारे देश में आग लगने के बाद कुआ खोदने की कहावत ही चरितार्थ हो रही है। कुछ घंटों में भारी बरसात के होने से सब कुछ अस्त-व्यस्त होना उतना चौंकाता नहीं है जितना उससे उबरने में लगने वाला समय तथा संकट के समय अपेक्षित व्यवस्थाओं का अभाव। मुंंबई में असाधारण बरसात ने सब जगह पानी-पानी कर दिया। ऊपर बादल गरज रहे थे और नीचे समुद्र उफन रहा था किन्तु बरसात रूकने पर भी पानी निकासी में लगने वाला लंबा समय सवाल खड़े करता है।  लगभग हर वर्ष ये हालात कहीं न कहीं बनते हैं। मुंबई या अन्य बड़े शहरों की तस्वीरें तो फटाफट बड़ी खबर बन जाती है परन्तु नजर घुमाएं तो कमोबेश पूरे देश की दशा एक जैसी है। ये सब देखकर विकास दर तथा विदेशी मुद्रा के भंडाार संबंधी आंकड़े बेमानी लगते हैं। देश की आर्थिक राजधानी तथा मायानगरी कहलाने वाले महानगर में एशिया की सबसे बड़ी झोपड़ पट्टी विकास के उन तमाम दावों को चिढ़ाती है जो संसद से लेकर ग्राम पंचायत तक किये जाते हैं।

-रवींद्र वाजपेयी

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