Wednesday 23 August 2017

केजरीवाल सरकार का सही निर्णय लेकिन....

लम्बे समय तक सुर्खियों से गायब रहने के बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री एक बार फिर चर्चा में आये और वह भी सकारात्मक तौर पर। राज्य सरकार के निर्देशों के बावजूद जिन निजी विद्यालयों ने पहले से वसूली गई मनमानी फीस वापस लौटाने से परहेज किया उनका अधिग्रहण करने संबंधी फैसले को उप राज्यपाल द्वारा स्वीकृति दे दी गई। दिल्ली सरकार द्वारा निजी विद्यालयों की फीस निर्धारित की गई किन्तु शिक्षकों के वेतन में वृद्धि के नाम पर प्रबंधन ने फीस बढ़ा दी। जिसे सरकार द्वारा गठित एक समिति ने गलत माना, जिसके प्रमुख एक न्यायाधीश थे। निजी विद्यालयों की हठधर्मिता के कारण केजरीवाल सरकार ने बेहद आक्रामक कदम की घोषणा कर दी। इसके बाद अधिग्रहण से बचने के लिये या तो विद्यालय प्रबंधन बढ़ी हुई फीस लौटाने की व्यवस्था करेगा या फिर अदालत जाकर स्थगन आदेश ले आएगा लेकिन दिल्ली सरकार के इस निर्णय से निजी क्षेत्र की शिक्षा संस्थाओं द्वारा वसूली जा रही मनमानी फीस एवं शुल्कों को लेकर बहस फिर शुरू हो गई है। जिन नामी-गिरामी विद्यालयों के नाम सामने आए हैं उनमें से अनेक ने अपनी ब्रांड इमेज बनाकर पूरे देश में शाखाएं खोल ली हैं, जिन्हें एक तरह से किसी उत्पाद की तरह डीलरशिप भी कहा जा सकता है। अतीत में उच्च शिक्षा हेतु निजी शिक्षण संस्थानों में ली जानेवाली मोटी रकम को लेकर भी हल्ला मचा जिस पर सर्वोच्च न्यायालय तक को दखल देना पड़ा किन्तु महानगरों ही नहीं बी श्रेणी के शहरों में भी नर्सरी स्तर पर बच्चों के प्रवेश हेतु निजी शिक्षण संस्थाएं जो राशि वसूलती हैं वह आंखें फाड़ देने वाली है। फीस के अलावा भी तमाम तरीके जबरन वसूली के निकाल लिये गये हैं। दिल्ली के अलावा अन्य राज्य सरकारों ने भी इस दिशा में काफी प्रयास किये परन्तु शिक्षा जगत धीरे-धीरे राजनीतिक नेता, उद्योगपति-व्यावसायी वर्ग के शिकंजे में आता गया। कुछ पेशेवर किस्म के लोग भी शिक्षा का व्यापार करने में जुट गए। इस कारण से सरकार चाहकर भी कुछ नहीं कर पाती क्योंकि निजी शिक्षण संस्थाओं का संचालन बेहद संपन्न ताकतवर एवं प्रभावशाली लोगों के हाथ में रहता है। दिल्ली सरकार ने निजी विद्यालयों में प्रवेश की प्रणाली को पूरी तरह पारदर्शी बनाने की जो कोशिशें कीं वे भी अदालत की चौखट पर जाकर दम तोड़ बैठीं। वहीं म.प्र. सरीखे राज्य में निजी शालाओं की मनमानी वसूली को रोकने संबंधी कवायद कई वर्ष से रुकी पड़ी है। केजरीवाल सरकार ने बर्र के छत्ते को छेडऩे का जो दुस्साहस किया है वह सफल होगा या अदालत उसमें रोड़ा अटका देगी ये कह पाना कठिन है परन्तु इसे केवल दिल्ली का मुद्दा न मानते हुए पूरे देश के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। निजी शिक्षण संस्थाओं में अपने बच्चों का दाखिला करवाने हेतु अभिभावक क्यों लाललायित रहते हैं ये भी विचारणीय मुद्दा है और फिर शिक्षा की निजी दूकानें या शोरूम रातों-रात खड़े नहीं हो गए। न सिर्फ राज्य वरन् केन्द्र सरकार का भी ये फर्ज बनता है कि वह इस बारे में जमीनी सच्चाई के मद्देनजर विचार करे। एक समय था जब सरकारी और निजी विद्यालयों के बीच शिक्षा के स्तर के साथ ही अन्य सुविधाओं में भी समानता होती थी। हर शहर में एक न एक सरकारी विद्यालय ऐसा होता था जिसमें प्रवेश प्राप्त करने हेतु मारामारी मचा करती थी। उनमें दाखिला न मिलने पर निजी संस्थान का चयन किया जाता था। निजी विद्यालयों के शिक्षकों से लेकर भृत्य तक का वेतन तथा अन्य सुविधाएं भी सरकारी संस्थानों की अपेक्षा कम होने के बाद भी यदि सरकारी विद्यालय प्रतिस्पर्धा में नहीं टिक सके तो इसके लिये केवल निजी शिक्षण संस्थाओं के प्रबंधन को कठघरे में खड़ा कर देना जिम्मेदारी से मुंह मोडऩे जैसा है। केजरीवाल सरकार ने दिल्ली के सरकारी विद्यालयों की दशा सुधारने हेतु काफी काम किया जिसकी वजह से उनकी छवि तथा स्तर दोनों में सुधार हुआ, जिसका प्रमाण बेहतर परीक्षा परिणाम के रूप में दिखाई भी दिया किन्तु पूरे देश में ऐसी स्थिति नहीं है। सरकार केवल फीस नियंत्रण का चाबुक फटकार कर निजी शिक्षण संस्थानों की लूट नहीं रोक सकती। इसके लिये उसे उनके साथ स्वस्थ प्रतिस्पर्धा करनी पड़ेगी। बेहतर वेतन के बाद भी यदि सरकारी शाला गरीबी का एहसास कराती हो तब इसके लिये दोषी सरकार ही है। मुफ्त मध्यान्ह भोजन पर अरबों रुपए खर्च करने के बाद भी सरकारी विद्यालय विद्यार्थियों को आकर्षित नहीं कर पा रहे तब इसके सही कारण तलाशना जरूरी हो जाता है। एक मजदूर की चाहत भी होती है कि उसके बच्चे किसी अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में पढ़ सकें। दिल्ली सरकार के ताजा फैसले की नीयत पर संदेह किये बिना ये कहना गलत नहीं होगा कि 21वीं सदी के इस दौर में जब उदारीकरण और मुक्त अर्थव्यवस्था ने समाज की सोच को व्यावसायिकता के शिकंजे में जकड़ दिया है, तब निजी शिक्षण संस्थानों को सरकारी फरमानों के जरिये निर्देशित और नियंत्रित करने की सोच लम्बे समय तक कारगर नहीं रह सकती। इसी तरह की समस्या निजी अस्पतालों द्वारा की जाने वाली लूट को लेकर भी है जो सरकार की तमाम कोशिशों के बाद भी रुकने का नाम नहीं ले रही। शिक्षा और स्वास्थ्य सर्वोच्च प्राथमिकता वाले क्षेत्र हैं किन्तु इनके प्रति सबसे ज्यादा दुर्लक्ष्य किया गया है। केजरीवाल सरकार के निर्णय के पीछे राजनीतिक नफे की भावना कितनी है ये सोचे बिना इस बात पर बहस होनी चाहिये कि सरकारें केवल निजी क्षेत्र की मुनाफाखोरी रोककर ही वाहवाही क्यों लूटना चाहती हैं। देश भर के नामी गिरामी शिक्षण संस्थानों में से कितनों पर शिक्षा शास्त्रियों का नियंत्रण है ये भी विश्लेषण का विषय है। यही स्थिति चिकित्सा के क्षेत्र की भी है। शिक्षा संस्थानों की तरह बड़े अस्पताल भी औद्योगिक घरानों या व्यावसायिक समूहों के कब्जे में हैं जिनमें मानव सेवा कम, धन बटोरने का धंधा ज्यादा चलता है। समय आ गया है जब बजाय निजी क्षेत्र को कोसने के सरकार अपने संस्थानों की, चाहे वे शिक्षा के हों या चिकित्सा के, क्षमता और गुणवत्ता बढ़ाए। प्रधानमंत्री जिस कौशल विकास की बात पर जोर दे रहे हैं उसकी सबसे ज्यादा जरूरत खुद सरकार को ही है। 21वीं सदी में प्रतिस्पर्धा सबसे महत्वपूर्ण है। दूसरे की लकीर को काटने की बजाय उससे बड़ी लकीर खींचने वाला ही सफल माना जाता है। केजरीवाल सरकार का ताजा प्रयास भी तभी सफल होगा जब दिल्ली के तमाम सरकारी स्कूल गुणवत्ता के मानकों पर निजी विद्यालयों के बराबर से खड़े हो सकेंगे।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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