Friday 11 August 2017

प्रणब जैसा सम्मान पाने से चूके हामिद


एक तरफ तो राज्यसभा में क्या पक्ष, क्या विपक्ष सभी उनकी शख्सियत एवं काबलियत के अभिनंदन पत्र पढ़ रहे थे, वहीं दूसरी तरफ उपराष्ट्रपति और सदन के सभापति के तौर पर अपने दस वर्षीय कार्यकाल के आखिरी दिन हामिद अंसारी ने राज्यसभा टीवी को दिये साक्षात्कार में मुस्लिमों के बीच असुरक्षा और घबराहट का भाव होने की बात कहकर एक विवाद को जन्म दे दिया। इसके बाद से सोशल मीडिया पर उनकी जो फजीहत हुई उसने उनकी विदाई के अवसर पर अपेक्षित सौजन्यता को कड़वाहट में बदल दिया। गनीमत है राज्यसभा के भीतर किसी सदस्य ने माहौल खराब नहीं किया और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी अपने चुटीले अंदाज में श्री अंसारी की शान में कसीदे पढ़े परन्तु नव निर्वाचित उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने कटाक्ष करते हुए कह ही दिया कि हमारे देश में अल्पसंख्यकों का उपयोग राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु होता है। वहीं शाहनवाज हुसैन ने भारत को मुस्लिमों के लिये सबसे सुरक्षित देश बताया। लेकिन सबसे तल्ख टिप्पणी शिवसेना के संजय राउत ने करते हुए ताना मारा कि यदि इतना ही दर्द था तो श्री अंसारी ने मुसलमानों की असुरक्षा के मुद्दे पर पद से त्यागपत्र क्यों नहीं दिया। सोशल मीडिया पर तो प्रति बेहद तीखी यहां तक कि असंसदीय भाषा का उपयोग भी देखने मिला। उल्लेखनीय है कि पेशे से राजनयिक रहे श्री अंसारी की पहिचान न तो राजनेता की रही और न ही धार्मिक हस्ती की। उन्हें अंतर्राष्टीय स्तर पर कूटनीतिक काम करने का लंबा अनुभव अवश्य रहा। बाद में वे अलीगढ़ मुस्लिम विवि के कुलपति तथा राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष भी रहे। जब 2007 में उन्हें उपराष्ट्रपति बनाया गया तब राष्ट्रीय स्तर पर उनके नाम और काम को पहिचान जरूर मिली लेकिन उस वक्त भी सहज प्रतिक्रिया यही थी कि कांग्रेस चूंकि एपीजे कलाम को राष्ट्रपति पद पर दोबारा नहीं चाहती थी अत: कोई मुस्लिम चेहरा सामने लाकर वह अपने को अल्पसंख्यकों का हितैषी साबित करने के लिये श्री अंसारी को ढूढ़ लाई। चूंकि वे उ.प्र. के थे अत: उसे लगा कि वहां वह अपनी खोई हुई सियासी जमीन दोबारा हासिल कर सकेगी। बतौर उपराष्ट्रपति उन्होंने लोकसभा टीवी की तरह राज्यसभा का भी अपना चैनल शुरू करवाया। संसदीय प्रतिनिधि मंडलों के अलावा अनेक राजनयिक मिशनों पर भी वे भारत के प्रतिनिधि बनकर गए तथा उच्च सदन के संचालन में भी काफी रूचि उन्होंने दिखाई। एक अनुभवी राजनयिक, बुद्धिजीवी एवं पीठासीन अधिकारी के रूप में उनकी स्वीकार्यकता बन गई थी। यद्यपि कई अवसरों पर उन्होंने सदन को गलत तरीके से स्थगित कर विपक्ष की आलोचना भी झेली किन्तु सबसे ज्यादा विवाद मचा जब गणतंत्र दिवस की परेड के अवसर पर राष्ट्रध्वज को सम्मान न देने का आरोप उन पर लगा। बावजूद इसके मोदी सरकार से उनका टकराव खुलकर नहीं हुआ। हॉलांकि असहिष्णुता के मामले में जरूर उनकी टिप्पणियों ने सत्तापक्ष के लिये असहज स्थिति उत्पन्न की लेकिन कुल मिलाकर विगत तीन साल में हामिद जी ठीक-ठाक ही चले। बीच-बीच में उनकी पत्नी ने जरूर कुछ ऐसी बातें सार्वजनिक तौर पर कहीं जिनसे लगा कि अंसारी साहब भाजपा को खुश करना चाह रहे हैं उनका ये सोचना रहा होगा कि अपनी कट्टर छवि  को बदलने के लिये शायद भाजपा कलाम साहब की तरह उन पर भी मेहरबान हो जाए परन्तु जल्द ही उन्हें लग गया कि ये मुमकिन नहीं। खासतौर पर उ.प्र. में भारी-भरकम बहुमत मिलने के बाद तो श्री मोदी के लिये किसी गैर भाजपाई को ढोने की मजबूरी पूरी तरह खत्म हो चुकी थी। फिर भी न तो सरकार, न ही संघ परिवार की तरफ से कभी कोई ऐसी बात कही गई जिसमें श्री अंसारी के विरोध या अपमान का भाव झलकता। गत दिवस वे राज्यसभा टीवी को दिये बयान में केवल धर्म-निरपेक्षता की तरफदारी करते तो वह सामान्य बात होती किन्तु उन्होंने मुसलमानों में असुरक्षा और घबराहट की भावना व्याप्त होने के अलावा घर वापसी पर सवाल उठाकर व्यर्थ का बवाल उत्पन्न कर दिया। यदि वे अपनी औपचारिक विदाई के वक्त इस तरह के मुद्दे न छेड़ते तब शायद उन्हें प्रणब मुखर्जी जितना न सही किन्तु अपेक्षित सम्मान तो मिल ही जाता लेकिन जाते-जाते उन्होंने दूध में नींबू निचोडऩे जैसी हरकत कर डाली जिसके कारण उन्हें चौतरफा आलोचना का शिकार होना पड़ गया। हमारे देश में अधिकतर उपराष्ट्रपति पदोन्नत होकर राष्ट्रपति भवन पहुंचे। गोपाल-स्वरूप पाठक, बीडी जत्ती और कृष्णकंात ही अपवाद रहे। दस वर्ष उपराष्ट्रपति रहने वाले सर्वपल्ली राधाकृष्णन के बाद हामिद अंसारी दूसरे व्यक्ति हैं लेकिन अब उनका भविष्य गुमनामी के अंधेरे में डूबना तय है। भले ही कोई उन्हें निष्पक्ष नहीं मानता परन्तु संवैधानिक पद पर बैठने के पहले किसी व्यक्ति की पृष्ठभूमि अथवा प्रतिबद्धता कुछ भी हो लेकिन पद पर आने के बाद वह इन सबसे ऊपर हो जाता है। यही वजह है कि हमारे देश में राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति पद से निवृत्त किसी भी व्यक्ति ने दोबारा दलगत राजनीति में कदम नहीं रखा। हामिद अंसारी हाल ही में राष्ट्रपति पद से मुक्त हुए प्रणब मुखर्जी से थोड़ा बहुत सीख लेते तब उन पर उंगलियां न उठतीं। प्रणब बाबू जीवन भर कट्टर कांग्रेसी रहे परन्तु राष्ट्रपति पद से हटते समय कांग्रेस के घोर विरोधी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उनके सम्मान में जो भाव व्यक्त किये वैसा न सही परन्तु उससे थोड़ा कम हामिद साहब भी हासिल कर सकते थे परन्तु जाते-जाते उन्होंने जो कह दिया वह न केवल अनावश्यक अपितु अनुपयुक्त भी था। जैसा श्री मोदी ने कहा निवृत्ति के उपरांत श्री अंसारी के पास अपने विचारों को व्यक्त करने की पूरी आजादी और समय होगा। अमूमन इस हैसियत के शख्स पुस्तकों के माध्यम से अपने संस्मरणों से दुनिया को रूबरू कराते हैं लेकिन कार्यकाल के आखिरी दिन उन्होंने जो किया उससे ये कहने को मजबूर होना पड़ रहा है कि इतने बड़े पद पर आसीन रहने के बाद भी वे बड़प्पन का परिचय नहीं दे पाये। खैर, आज वे पूरी तरह भूतपूर्व हो गये। उनकी बुद्धिमत्ता पर संदेह करना तो गलत होगा इसलिये ये माना जा सकता है कि अपनी अतृप्त महत्वाकांक्षा के कारण उत्पन्न कुंठा के वशीभूत वे अवसर के महत्व और गरिमा के विपरीत आचरण कर बैठे।
-रवींद्र वाजपेयी

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