Monday 14 August 2017

इंसानी जिंदगी से खिलवाड़ बंद हो

अस्पताल में भरती अनेक मरीज भी बीमारी के लाइलाज होने पर मौत के मुंह में समा जाते हैं लेकिन ऑक्सीजन की कमी के कारण यदि एक-दो नहीं 48 मरीज मात्र 48 घंटों में जान से हाथ धो बैठें तो इसे महज साधारण लापरवाही कहकर नजरदाज नहीं किया जा सकता। पिछले दिनों मप्र के इंदौर नगर में प्रतिष्ठित सरकारी एमवाय अस्पताल में भी ऑक्सीजन की आपूर्ति रूक जाने की वजह से कई मौतें हो गई थीं। सरकारी शैली में जांच शुरू तो हो गई किन्तु वह किसी अंजाम तक पहुंची या नहीं ये कोई नहीं जानता। और शायद जान भी न पायेगा क्योंकि जांच का काम कछुए से भी धीमी गति से चलता है। इस घटना की दर्दनाक यादें धूमिल पड़तीं इसके पहले ही कल उप्र के गोरखपुर मेडीकल कॉलेज में भी इंदौर हादसे की पुनरावृत्ति हो गई। 48 घंटों के भीतर 30 बच्चे एवं 18 अन्य मरीजों की मौत भी शायद बड़ी खबर न बनी होती किन्तु मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का गृह नगर होने के कारण वह राष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित हो गई। प्रारंभिक तौर पर यही पता चला है कि अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी हो गई थी। इसका कारण आपूर्तिकर्ता का भुगतान नहीं होना माना गया किन्तु अस्पताल प्रबंधन के मुताबिक बड़ी संख्या में हुई मौतें बीमारी के कारण ही हुईं। बच्चों के वार्ड में आठ-दस रोज ही मृत्यु के शिकार होते हैं, ये भी सफाई दी गई। वैसे बरसात का मौसम संक्रामक बीमारियों के लिये जाना जाता है। गरीबों की बस्तियों में गंदगी होना भी इनका कारण बनता है। दूषित पानी से भी इस मौसम में तरह-तरह के रोग फैलते हैं। कुछ अभागे अस्पताल तक भी नहीं पहुंच पाते किन्तु एक मेडीकल कॉलेज के अस्पताल में यदि ऑक्सीजन की कमी दर्जनों जिंदगियों को निगल जाए, ये आज के युग में गले नहीं उतरता। इस दर्दनाक हादसे के लिये सीधे-सीेधे योगी सरकार को कसूरवार ठहराना जल्दबाजी होगी। यद्यपि दो दिन पहले ही मुख्यमंत्री ने उक्त अस्पताल का निरीक्षण किया था। लेकिन जैसा कि हमारे देश का चलन है ये माना जाता है कि वीआईपी क्षेत्रों में सारी व्यवस्थाएं चाक-चौबंद होती हैं। उस दृष्टि से योगी आदित्यनाथ के अपने शहर के मेडीकल कॉलेज में लखनऊ सरीखी व्यवस्थाएं और सुविधाएं उपलब्ध होंगी ये अपेक्षा गलत नहीं है किन्तु ये सोच सही नहीं है। जिंदगी अनमोल है, फिर चाहे गरीब की हो या संपन्न व्यक्ति की। इसी तरह स्वास्थ्य सुविधाएं भी चाहे मुख्यमंत्री के शहर की हों या फिर किसी छोटे शहर की, उनमें न्यूनतम समानता तो होनी ही चाहिए। गोरखपुर के उक्त मेडीकल कॉलेज में ऑक्सीजन की कमी प्रथम दृष्ट्या सामने आ गई है। आपूर्तिकर्ता के साथ अस्पताल प्रबंधन की खींचातानी भी छिपी नहीं रही सकी। यदि  मान भी लिया जाए कि 48 लोगों की जान बीमारी के कारण ही गई तब भी ये गंभीर बात है जिसके लिये अब तक बताये गये कारण सही नहीं लगते। जैसा कि पूर्व में कहा गया कि मुख्यमंत्री का शहर होने के कारण 48 मौतों पर शोर मचे किन्तु छोटे-छोटे शहर में सरकारी अस्पतालों में होने वाली बदइंतजामी के चलते फुटकर-फुटकर लोग मरते रहें, ये न्यायोचित नहीं है। सरकारी चिकित्सालय चाहे उ.प्र. के हों या अन्य किसी राज्य के डॉक्टरों और दवाईयों की कमी से जूझ रहे हैं। चिकित्सकों के मन में घटता सेवाभाव एवं सरकारी तंत्र में छाये भ्रष्टाचार ने सरकारी चिकित्सा सेवाओं को  भी बीमार कर दिया है। पेथालॉजी जांच तथा एक्स-रे सरीखी मामूली सुविधाएं तक सरकारी अस्पतालों में दुर्लभ हैं। रही बात निजी अस्पतालों की तो वे विशुद्ध रूप से व्यवसायिक हो चुके हैं। 21 वीं सदी का भारत भले ही अपनी प्रगति पर इतरा रहा हो तथा विकास दर बढऩे के नित नये दावे होते हों परन्तु प्राथमिक चिकित्सा हर नागरिक को उपलब्ध कराने का काम तक 70 वर्षों में पूरा नहीं हो सका जो कि राष्ट्रीय शर्म का विषय होना चाहिए। गोरखपुर में गत दिवस जो हुआ वह हर तरह से निंदनीय है। 48 मौतें यदि ऑक्सीजन की कमी की बजाय बीमारी के कारण हुईं तब भी ये कम चिंताजनक नहीं है। यदि चिकित्सकों को लग रहा था कि उन मरीजों का इलाज करने में वे असमर्थ हो रहे थे तब उन्हें लखनऊ या बनारस भेजा जा सकता था। एक विधायक, सांसद या उन सरीखे वीआईपी के लिये आनन-फानन में एयर एंबुलेंस आ जाती है लेकिन साधारण जनता को साधारण एंबुलेंस और गरीब को शव वाहन तक नसीब नहीं होता। गोरखपुर की घटना की ईमानदारी से जांच होनी चाहिए। महज दिखावटी तौर पर दो चार को निलंबित कर बाद में लीपापोती करने के कर्मकांड से हटकर कुछ ऐसा करना चाहिए जिससे इंसानी जिंदगी इस तरह सस्ते में खत्म होने से बचाई जा सकें।

-रवींद्र वाजपेयी

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