Saturday 26 August 2017

लेकिन निजता का स्वरूप तो समाज को ही तय करना है

निजता (प्रायवेसी) संबंधी सर्वोच्च न्यायालय की 9 सदस्यीय संविधान पीठ द्वारा गत दिवस दिये गये फैसले को कुछ लोग इस तरह पेश कर रहे हों मानो इसकी वजह से कैद में बंद लोगों की रिहाई का रास्ता खुल गया हो। जिस सर्वोच्च न्यायालय ने अतीत में दो बार स्वयं होकर इसे नहीं माना था उसी ने इस बार ये कह दिया कि निजता भी अन्य मौलिक अधिकारों जैसी ही है। ये मामला आधार कार्ड में मांगी जाने वाली जानकारी को लेकर उठा था। यद्यपि अभी आधार कार्ड का भविष्य पांच सदस्यों वाली दूसरी पीठ के समक्ष विचाराधीन है किन्तु निजता को मौलिक अधिकार के तौर पर मान्यता मिलने के बाद अब आधार कार्ड के भविष्य पर भी अनिश्चितता के बादल फिलहाल मंडराने लगे हैं। यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में साफ तौर पर ये भी कह दिया कि निजता के मामले में भी तर्कपूर्ण प्रतिबंध लागू होते रहेंगे क्योंकि कोई भी मौलिक अधिकार असीमित नहीं हैं। इस स्पष्टीकरण के बाद उन लोगों की खुशी पर भी प्रश्नचिन्ह लगे गये हैं जो ये मानकर चलने लगे थे कि किसी प्रकार की निजी जानकारी सरकार द्वारा मांगी जाने पर वे अब उसे देने से इंकार कर सकते हैं। इस फैसले का तात्कालिक तथा दूरगामी असर क्या होगा ये तो उसके व्यवहार में आने के उपरांत ही स्पष्ट हो सकेगा किन्तु तमाम विरोधाभासों के बाद भी आधार कार्ड में प्रदत्त जानकारी ने कई विकृतियों पर विराम लगाया है। मसलन एक ही व्यक्ति के पास अनेक रसोई गैस कनेक्शन, राशन तथा पेन कार्ड जैसी अनियमितताएं रुक गईं जिससे सरकार द्वारा दी जा रही सब्सिडी की लूटपाट रुकी। आधार कार्ड की अनिवार्यता के कारण व्यक्ति अपनी पहचान छिपाने में सफल नहीं हो सकता जिससे कि अपराधों की रोकथाम में मदद मिल रही है। राशन कार्ड हेतु आधार की अनिवार्यता होते ही बड़ी संख्या में बोगस कार्ड बेकार हो गये। कुल मिलाकर आधार कार्ड में प्रदत्त जानकारियों से सरकार के पास देश के नागरिकों संबंधी जानकारी का पूरा रिकार्ड उपलब्ध होने लगा परन्तु इसी के साथ विवाद उठा निजी जानकारी (डाटा) बेचे जाने का। बैंक सहित अन्य संस्थानों में दी जाने वाली निजी जानकारी आवांछित लोगों तक जिस तरह पहुंच जाती है उस पर जो एतराज किया गया वह जायज है। किसी सरकारी या अर्ध सरकारी विभाग के साथ बांटी गई निजी बातें सार्वजनिक हो जाएं तथा ऐसे लोगों तक पहुंच जाएं जिनसे व्यक्ति का सीधा वास्ता न पड़ा हो तो वह आपत्तिजनक तो है ही, अपराध भी है। कई सरकारी कामकाज जिनमें पासपोर्ट भी शामिल हैं, निजी कंपनियां कर रही है जिसमें अधिकतम निजी जानकारी आवेदन के साथ देनी होती है। सूचना क्रांति के दौर में व्यक्तिगत जानकारी के आंकड़े भी बाजार के हत्थे चढ़ चुके हैं जिनकी वजह से  की निजता घटने के अलावा अनावश्यक असुविधाएं बढ़ चली हैं। उस दृष्टि से सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गत दिवस दिये गये फैसले को महज सैद्धांतिक व्याख्या के तौर पर देखा जाना सही रहेगा। संविधान पीठ ने ही जब कह दिया कि अन्य मौलिक अधिकारों की तरह निजता भी असीमित नहीं हो सकती तथा सरकार के पास उसमें तर्कपूर्ण हस्तक्षेप का अधिकार है तब ये मानकर खुश होना बचपना है कि निजी जानकारी देने के मामले में व्यक्ति पूरी तरह से अपनी मर्जी का मालिक बन जाएगा। देखनेे वाली बात ये जरूर होगी कि आधार कार्ड की वैधानिकता तथा अनिवार्यता पर सर्वोच्च न्यायालय की अन्य पीठ क्या व्यवस्था देगी? इस बारे में आश्चर्य की बात ये है कि जो भाजपा विपक्ष में रहते हुए आधार कार्ड को अनावश्यक एवं अवांछित मानकर उसका विरोध करती थी वही सरकार में आने के उपरांत आधार कार्ड को लाख दुखों की एक दवा के रूप में प्रचारित करने में जुटी है। इसी तरह जिस कांग्रेस ने इसे लागू करवाने के लिये सत्ता में रहते काफी पापड़ बेले वह कभी निजता तो कभी किसी और कारण से उसकी अनिवार्यता पर सवाल उठाने में आगे-आगे है। वैसे आधार कार्ड को लेकर की जा रही उम्मीदें न तो पूरी तरह सही हैं और न ही गलत। उसमें चाही गई निजी जानकारी कानूनी तौर पर सही है या नहीं ये भी निश्चित तौर पर कह पाना कठिन है क्योंकि भारत में आर्थिक, शैक्षणिक और सामाजिक विषमता इतनी ज्यादा है कि कोई भी व्यवस्था सभी लोगों पर एक समान लागू कर पाना बेहद कठिन हो जाता है। निजता संबंधी सर्वोच्च न्यायालय का नया फैसला महज कानूनी बहस तक सीमित बना रहेगा या इसका साधारण जन-जीवन पर भी असर पड़ेगा, ये फिलहाल कहना कठिन है क्योंकि संदर्भित निर्णय का गहन अध्ययन करने पर कई ऐसी बातें उजागर होंगी जिन पर अभी तक न ध्यान गया और न ही नजर पड़ी। सर्वोच्च न्यायालय ने निजता को मौलिक अधिकार की श्रेणी में रखकर कोई अनोखा काम नहीं किया सिवाय इसके कि वह पहले दो बार ऐसा करने से इंकार कर चुका है किन्तु तेजी से बदलते सामाजिक वातावरण में निजता की परिभाषा और सीमाएं क्या होंगी ये तय करना न्यायालय के लिये संभव नहीं होगा। ये निर्णय करना तो समाज का ही अधिकार है और कर्तव्य भी।

-रवींद्र वाजपेयी

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