Saturday 29 June 2019

जी-20 : ट्रम्प के दबाव में नहीं आये मोदी


अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने जी-20 देशों की बैठक के लिए जापान रवाना होने से पहले भारत विरोधी ट्वीट करते हुए लिखा कि मोदी सरकार द्वारा अमेरिकी वस्तुओं पर सीमा शुल्क बढ़ाये जाने के फैसले को वापिस लिया जाना चाहिए। कूटनीति में इसे बड़ा संकेत माना गया। ऐसा लगता है ओसाका में नरेंद्र मोदी से मिलने के पहले ट्रम्प उन पर मनोवैज्ञनिक दबाव बनाना चाह रहे थे। वैसे भी चीन के साथ आपसी व्यापार में बढ़ रहे तनाव से अमेरिका परेशान चल रहा है। चुनावी वर्ष में ट्रम्प के लिये अमेरिकी जनता को खुश रखना बेहद जरूरी है। पिछला चुनाव अमेरिका फस्र्ट की जिन नीतियों पर वे जीते उनको पूरी तरह अमल में नहीं ला सके । हालाँकि उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग के साथ बातचीत शुरू कर उन्होंने एक बड़ी कामयाबी हासिल की लेकिन अभी भी उसकी अकड़ पूरी तरह से खत्म नहीं हुई। दूसरी तरफ  अमेरिका में एक तरफ  तो बेरोजगारी बढ़ रही है वहीं दूसरी तरफ  चीन उसकी आर्थिक महाशक्ति के दावे को जिस तरह चुनौती दे रहा है वह भी ट्रम्प के लिए चिंता का कारण है। व्यापार शर्तों को लेकर चीन और अमेरिका के विवाद की वजह से भारत पर विपरीत प्रभाव पडऩे लगा जिससे बचने के लिए अमेरिकी वस्तुओं पर सीमा शुल्क में वृद्धि कर दी गई जो ट्रम्प को नागवार गुजर गुजर रही है। उसके पहले वे भारत को ईरान से कच्चा तेल नहीं खरीदने के लिए दबा चुके थे। इस कारण कूटनीतिक जगत में ये आशंका थी कि जी-20 सम्मलेन में ट्रम्प-मोदी मुलाकात तनावपूर्ण रहेगी। रूस से बड़े रक्षा सौदे करने की मोदी सरकार की नीति से भी ट्रम्प बहुत नाराज हैं। हालाँकि भारत सभी मामलों में अमेरिका को स्पष्ट तौर पर कह चुका था कि वह दबाव में नहीं आयेगा। लेकिन ट्रम्प भी जिद्दी स्वभाव के राजनेता माने जाते हैं इसलिए तनाव बढने की उम्मीदें जताई जा रही थीं। बहरहाल गत दिवस ओसाका में ट्रम्प और नरेंद्र मोदी के बीच सीधी बात भी हुई और जापान के प्रधानमन्त्री की मौजूदगी में भी। उसके बाद जो जानकारी आई उसके अनुसार श्री मोदी ने बजाय दबाव में आने के भारत का पक्ष जिस मजबूती से रखा वह बेहद महत्वपूर्ण है। रूस के साथ रक्षा सौदे, ईरान से कच्चे तेल की खरीदी और भारतीयों के लिए एच 1 वीज़ा में कटौती जैसे मुद्दे श्री मोदी ने बड़ी ही बेबाकी से रखते हुए ट्रम्प को जल्दबाजी में कोई निर्णय लेने और भारत विरोधी अवधारणा से बचने की नसीहत दे डाली। इस मुलाकात के बाद श्री मोदी ने सम्मलेन को संबोधित करते हुए भारत जैसे विकासशील देशों के प्रति विकसित देशों के नजरिये में अपेक्षित बदलाव पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए भारत की भूमिका का प्रभावशाली प्रदर्शन किया। कूटनीति में नेता की भाव भंगिमा और व्यक्तित्व का बड़ा प्रभाव पड़ता है। पहली बार प्रधानमन्त्री बनने के बाद श्री मोदी की कूटनीतिक क्षमता को लेकर संदेह करने वाले कम नहीं थे लेकिन उनके विदेशी दौरों को जो सफलता मिली उसने तमाम आशंकाओं को गलत साबित कर दिया। अब तो उनके पास बीते पांच साल का अनुभव है। दूसरी बार भारी बहुमत से सत्ता में लौटने के बाद श्री मोदी का आत्मविश्वास भी पूर्वापेक्षा और ज्यादा है। विश्व के सभी बड़े राजनेताओं से उनके रिश्ते बेहद अनौपचारिक और आत्मीयतापूर्ण हो चुके हैं। रूस, जापान, चीन के शासकों से श्री मोदी ने जिस तरह से नजदीकी बना रखी है उसी के कारण वे अमेरिका के साथ बातचीत में दबावमुक्त नजर आये। रही बात ट्रम्प की तो वे चुनावी साल में भारत को नाराज करने का जोखिम नहीं उठा सकते क्योंकि अमेरिका में रह रहे लाखों भारतवंशी केवल अप्रवासी नहीं अपितु एक ताकतवर वोट बैंक बन चुके हैं। अनेक नाम तो ऐसे हैं जो राष्ट्रपति चुनाव में आर्थिक सहायता भी करते हैं। इस वजह से ट्रम्प कहें कुछ भी लेकिन वे भारत के साथ टकराव से बचेंगे और यही बात श्री मोदी भांप चुके हैं। बहरहाल जी-20 देशों के सम्मलेन में भारत की भूमिका अब विश्व की बड़ी शक्तियों के समकक्ष होती जा रही है। विदेश नीति को लेकर प्रधानमंत्री कितने गम्भीर हैं इसका प्रमाण पिछली सरकार में उन्होंने सुषमा स्वराज को विदेश मंत्री बनाकर दिया। घरेलू राजनीति में अपनी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज करवा चुकी श्रीमती स्वाराज ने वैश्विक स्तर पर भी अपनी क्षमता का जो शानदार प्रदर्शन किया और बेहद तनाव भरे क्षणों में जिस धैर्य और साहस का परिचय दिया वह मोदी सरकार की सफलता का प्रमुख आधार बना। अस्वस्थतावश वे चुनाव नहीं लड़ीं तब श्री मोदी ने सबको चौंकाते हुए पूर्व विदेश सचिव एस. जयशंकर को विदेश मंत्री बना दिया जिन्हें भारतीय विदेश सेवा के सर्वश्रेष्ठ अधिकारियों में गिना जाता है। जी-20 सम्मेलन के पहले अमेरिका के विदेश मंत्री भारत सरकार का मन टटोलने नई दिल्ली आये थे। उन्हें श्री जयशंकर ने बिना लागलपेट के कह दिया कि भारत की विदेश नीति उसके राष्ट्रीय हितों के अनुकूल होगी। ऐसा लगता है उन्होंने अपने राष्ट्रपति को भारत के कड़े रुख से अवगत करवा दिया जिसके बाद ही जापान में श्री मोदी से मिलते समय राष्ट्रपति ट्रम्प काफी सहज नजर आये। हालाँकि उनके अस्थिर स्वभाव को देखते हुए बहुत ज्यादा सौजन्यता की उम्मीद नहीं की जा सकती लेकिन रूस के साथ किये गए बड़े रक्षा सौदे के बाद मोदी सरकार ने अमेरिका से भी उतनी ही बड़ी खरीदी का फैसला करते हुए रणनीतिक संतुलन बना दिया। विदेश नीति के मामले में श्री मोदी का अब तक का रिकार्ड शानदार रहा है। जी-20 सम्मेलन में विकसित देशों की उपस्थिति के बीच भारत को जो महत्व मिल रहा है उसके पीछे 2019 का जनादेश भी है जिसके कारण नरेंद्र मोदी विश्व के ताकतवर नेताओं की सूची में काफी उपर आ चुके हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 28 June 2019

राहुल के दु:ख में झलक रही चिंता

अपनी दादी स्व. इंदिरा गांधी की राजनीतिक विरासत के दावेदार बने राहुल गांधी के आभामंडल में जबर्दस्त कमी आई है। कांग्रेस अध्यक्ष सोचते थे कि लोकसभा चुनाव की करारी हार की जिम्मेदारी स्वरूप उनके पद से त्यागपत्र देने के पेशकश करते ही संगठन और सत्ता में बैठे कांग्रेस नेता भी अपनी नैतिक जिम्मेदारी के नाम पर स्तीफा भेज देंगे जिससे उनको अपनी मर्जी से पार्टी का नया ढांचा तैयार करने में आसानी होगी। लेकिन ऐसा नहीं होने पर उन्होंने इस पर दु:ख व्यक्त किया। बीते कई हफ्तों से श्री गांधी के स्तीफे को लेकर राजनीतिक नाटक चल रहा है। कांग्रेस का एक तबका उनसे बने रहने की अपील कर रहा है। लेकिन उसे व्यापक समर्थन नहीं मिलने से गांधी परिवार भौचक है। राहुल का ये कहना कि अगला अध्यक्ष उनके परिवार से नहीं होगा शुरुवात में अटपटा लगा क्योंकि पार्टी का एक वर्ग प्रियंका वाड्रा को आगे लाने के लिए अरसे से मुखर रहा है। लोकसभा चुनाव के समय जब उन्हें पार्टी महासचिव बनाकर पूर्वी उप्र की कमान सौंपी गई तब ये मान लिया गया कि अस्वस्थतावश सोनिया गांधी की सक्रियता में आई कमी के मद्देनजर उनके परिवार के ही एक सदस्य को उनकी जगह स्थापित करने का दांव चल दिया गया है। प्रियंका के शुरुवाती तेवर देखकर तो ऐसा लगा मानों वे उप्र में मोदी लहर को बेअसर करते हुए कांग्रेस को पुनर्जीवित कर इतिहास रच देंगी लेकिन नतीजों ने साबित कर दिया कि वह ब्रह्मास्त्र भी किसी काम नहीं आया। अब समस्या पार्टी को पूरे देश में दोबारा खड़ा करने की है। दर्जन भर से ज्यादा राज्यों में तो कांग्रेस की एक भी लोकसभा सीट नहीं है। हिन्दी पट्टी में तो उसका सफाया हुआ ही पूर्व और पश्चिमी भारत में भी वह औंधे मुंह गिरी। ऐसे में राहुल के बाद प्रियंका को अध्यक्ष बनाने से गांधी परिवार की रही-सही भी धुल जाती। इसीलिये परिवार से बाहर के अध्यक्ष की बात उछली। लेकिन प्रियंका को पीछे करने में उनके पति के विरूद्ध चल रहे मामलों का भी हाथ है। मोदी सरकार की वापिसी के बाद राबर्ट वाड्रा के विरुद्ध चल रही जांचों में और तेजी आएगी। यदि वे दोषी पाए गये तब कांग्रेस पार्टी के लिए चेहरा छिपाना मुश्किल होगा। सवाल ये उठता है कि आखिरकार कांग्रेस का नया अध्यक्ष बनाया किसे जाए क्योंकि भले ही राहुल के अनुसार उनके पारिवार का सदस्य पार्टी का मुखिया नहीं बने लेकिन वे और उनकी माता जी कभी नहीं चाहेंगीं कि पार्टी का नियंत्रण हाथ से निकल जाए। ऐसे में किसी आज्ञाकारी और वफादार को ही राहुल का उत्तराधिकारी बनाये जाने की रणनीति बनाई गई परंतु जैसी उम्मीद थी वैसा नहीं हुआ। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्षों के अलावा पार्टी शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों में से किसी ने भी उनकी तरह हार की जिम्मेदारी लेते हुए पद छोडऩे की पेशकश नहीं की। नई सरकार को कार्यभार संभाले हुए भी एक माह होने आ गया। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने यद्यपि दिसम्बर तक पद पर बने रहने की घोषणा कर दी लेकिन जगत प्रकाश नड्डा को कार्यकारी बनाकर अपना बोझ भी हल्का कर दिया। लेकिन कांग्रेस में अभी भी राहुल का स्तीफा एक पहेली बना हुआ है और उसे लेकर पार्टी के भीतर वैसा भूचाल नहीं आया जैसा उसकी परम्परा रही है। ऐसा लगता है श्री गांधी की नेतृत्व क्षमता को लेकर अब कांग्रेसजनों के मन में भी संदेह जन्म ले चुका है। उन्हें ये भी समझ में आ रहा है कि गांधी परिवार की चुनाव जिताऊ क्षमता खत्म हो चुकी है। नेहरु-गांधी की विरासत के प्रति पूरी तरह से समर्पित कांग्रेसियों की पीढ़ी भी धीरे-धीरे समाप्ति की ओर है और युवा पीढ़ी को सैद्धांतिक प्रतिबद्धता से ज्यादा अपने भविष्य की चिंता है। गत रात्रि अचानक कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य विवेक तन्खा ने राहुल गांधी को संगठन के पुनर्गठन के लिए खुला हाथ देने के नाम पर पार्टी के विधि एवं सूचना का अधिकार विभाग के अध्यक्ष पद से स्तीफा दे दिया। मप्र के मुख्यमंत्री ने भी जानकारी दी कि वे भी हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफे की पेशकश कर चुके हैं। उन्होंने ये तंज भी कसा कि शेष नेताओं का तो पता नहीं लेकिन वे राहुल की तरह जिम्मेद्दारी स्वीकार करने के पक्ष में है। लेकिन चौंकाने वाली बात ये है कि श्री तन्खा और श्री नाथ को नैतिकता का एहसास होने में इतना लम्बा समय क्यों लग गया? उल्लेखनीय है श्री तन्खा जबलपुर से लगातार दूसरी बार लोकसभा चुनाव हारे और वह भी चार लाख से भी ज्यादा से। कमलनाथ पर तो कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में ही परोक्ष रूप से छिंदवाडा में अपने पुत्र को जिताने के फेर में प्रदेश की बाकी सीटों की उपेक्षा करने का आरोप लगा। लेकिन उस समय उनकी अंतरात्मा नहीं जागी। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भी पुत्रमोह को लेकर निशाने पर आये। लेकिन जैसी राहुल ने उम्मीद की थी उस संख्या में त्यागपत्र नहीं आना कांग्रेस में गांधी परिवार के प्रति मोहभंग की स्थिति का संकेत है। श्री तन्खा ने जिस पद से त्यागपत्र दिया वह उतना महतवपूर्ण नहीं है जिसका प्रभाव पड़ता और कमलनाथ ने अभी तक न प्रदेश अध्यक्ष पद छोड़ा और न ही मुख्यमंत्री की गद्दी छोडऩे का इरादा जताया। इससे लगता है इन दोनों को उत्प्रेरक बनने हेतु कहा गया जिससे दूसरे नेता भी शर्म वश वैसा ही करें। श्री तन्खा ने तो लगे हाथ ये भी कहा कि वे पूरी तरह से श्री गांधी के साथ हैं। लेकिन ये बात समझ से परे है कि जब श्री गांधी को अध्यक्ष नहीं रहना और न ही उनके परिवार से कोई उनका उत्तराधिकारी बनेगा तब नई टीम गठित करने का दायित्व अगले अध्यक्ष पर क्यों नहीं छोड़ दिया जाता। लेकिन ऐसा होगा नहीं क्योंकि अध्यक्ष चाहे कोई भी बने लेकिन वह रहेगा गांधी परिवार का कृपापात्र। इसीलिये श्री तन्खा और श्री नाथ का बयान उनका अपना निर्णय नहीं होकर गांधी परिवार द्वारा अपने वर्चस्व को बचाने के लिए बनाई जा रही रणनीति का हिस्सा लगता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 25 June 2019

जब एक व्यक्ति की सत्ता बचाने लोकतंत्र को सूली पर चढ़ा दिया गया!

2019 के लोकसभा चुनाव के पहले एक - दो साल तक देश में अघोषित आपातकाल का भय पैदा करने का सुनियोजित अभियान चला। ये प्रचार भी किया जाता रहा कि अभिव्यक्ति का गला घोंट दिया गया , संवैधानिक संस्थाओं की आज़ादी खत्म हो रही है तथा देश तानाशाही की तरफ  बढ़ रहा है। धर्म निरपेक्षता को खतरे में बताने वालों ने भी जमकर चिल्ल्पों मचाई जिसमें कुछ टीवी चैनल भी अग्रणी थे। लेकिन इस समूचे अभियान में सबसे रोचक बात ये रही कि जिस कांग्रेस के राज में 44 साल पहले देश को आपातकाल में जकड़कर अभिव्यक्ति तो क्या जीने का मौलिक अधिकार तक छीन लिया गया वही इस प्रचार में अगुआ रही। उसके पीछे वे वामपंथी विचारक आ खड़े हुए जिन्हें आपातकाल किसी वैचारिक क्रांति का सूत्रपात लगता था। लेकिन बीती 23 मई को देश की जनता ने उस प्रचार अभियान की हवा वैसे ही निकाल दी जैसी 1977 में हुए लोकसभा चुनाव में इदिरा गांधी की सत्ता पलटकर निकाली थी। ये भी संयोग है कि उस चुनाव में भी अमेठी में कांग्रेस हारी और इस चुनाव में भी इतिहास दोहराया गया। 25 और 26 जून 1975 की दरम्यानी रात में जब पूरा देश नींद के आगोश में था तब तत्कालीन प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी ने देश पर आपातकाल थोप दिया और समूचे विपक्ष को जेल में ठूंस दिया। जयप्रकाश नारायण , अटलबिहारी वाजपेयी , लालकृष्ण आडवाणी , मधु लिमये , मधु दंडवते , कर्पूरी ठाकुर जैसे बड़े - बड़े नेताओं को देश के लिए संकट बताकर सलाखों के पीछे भेज दिया। अखबारों पर सेंसर लग गया। संसद का चुनाव एक वर्ष टालने जैसा अभूतपूर्व निर्णय किया गया। विपक्ष विहीन संसद इंदिरा जी की दरबारी बनकर रह गई। कांग्रेस के अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने इंदिरा ही भारत और भारत ही इंदिरा जैसा बयान देकर चाटुकारिता का नया कीर्तिमान स्थापित कर दिया। 19 महीने बाद जब इंदिरा जी को लगा कि विपक्ष पूरी तरह मरणासन्न है तब अचानक 1977 शुरू होते ही उन्होंने लोकसभा चुनाव का ऐलान करवा दिया। लेकिन अभिव्यक्ति की आजादी पर लगे प्रतिबन्ध के बावजूद जनता ने मौन क्रांति के जरिये इंदिरा जी को सत्ता से ही नहीं अपितु संसद तक से बाहर कर दिया। स्वाधीन हिन्दुस्तान के इतिहास का वह काला अध्याय आज की पीढी को नहीं पता क्योंकि दलगत राजनीति मीठा - मीठा गप और कड़वा- कड़वा थू पर आधारित है। हालाँकि बाद में आपातकाल के कुछ भुक्तभोगियों ने ही 1977 के जनादेश का जबर्दस्त अपमान किया जिससे कि देश फिर उन्हीं ताकतों के हाथ चला गया जो प्रजातंत्र के नाम पर परिवार की सत्ता के सिद्धांत के पक्षधर रहीं। बहरहाल उन ताकतों को बीते पांच वर्ष में दो बार पटकनी देकर देश ने साबित कर दिया कि लोकतंत्र की कीमत पर उसे कुछ भी स्वीकार नहीं है। 2019 का जनादेश भले ही नरेंद्र मोदी के नाम लिखा गया हो लेकिन सही अर्थों में उससे उस राजनीतिक संस्कृति से मुक्ति का रास्ता साफ़ हो गया जो देश को निजी स्वार्थों की आग में झोकने पर आमादा थी। ऐसी तमाम ताकतों के गठजोड़ को मतदाताओं ने पूरी तरह नकारते हुए अपात्काल लगाने वाली मानसिकता की जड़ों में ही मठा डाल दिया। उस दृष्टि से आज का दिन बड़े ही ऐतिहासिक महत्व का है। भारत के भविष्य की कर्णधार युवा पीढ़ी को आपातकाल के उस अंधकारपूर्ण दौर के बारे में बताये जाने की जरूरत है जिससे कि सत्ता से वंचित कुंठाग्रस्त तबका आपातकाल को लेकर भय का जो भूत खड़ा करने पर आमादा है उसकी सच्चाई सामने आये। दरअसल भारत के टुकड़े करने वाली मानसिकता पर किये जा रहे प्रहार से बौखलाये तथाकथित प्रगतिशील लोग अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते हुए निरंतर पराजय झेलने मजबूर हैं। ऐसे में उनके पास सिवाय मिथ्या प्रचार करने के और कोई रास्ता नहीं बच रहता। दुर्भाग्य से कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी भी अंध भाजपा विरोध में शहरी नक्सलियों की गैंग के चक्रव्यूह में फंसकर अपनी छवि और विश्वसनीयता पर खुद ही सवालिया निशान लगा लेती है। गत दिवस लोकसभा में उसके नेता अधीर रंजन चौधरी का बयान इसकी बानगी है। लोकसभा चुनाव के बाद आई आपातकाल की यह वर्षगांठ जनता को इस बात के लिए सचेत करती है उसकी उदासीनता लोकतंत्र के लिए कितनी भारी साबित हो सकती है। ये संतोष की बात है कि बीते दो लोकसभा चुनावों में देश की जनता ने जाति, प्रान्त , भाषा और धर्म से उपर उठकर राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देते हुए अपने मताधिकार का उपयोग किया। आपातकाल लगने के 44 साल बाद भी उस दिन की यादें भयाक्रांत कर देती हैं जब एक व्यक्ति की सत्ता बचाने के लिए लोकतंत्र को सूली पर चढ़ाने का पाप किया गया था।

-रवीन्द्र वाजपेयी

जल संरक्षण : केवल बुद्धिविलास तक सीमित न रहे

मानसून का इंतजार खत्म होने को है। मौसम विभाग के दावों के मुताबिक आधे देश में बरसाती बादल बरसने लगे हैं। इस साल निर्धारित तिथियों से तकरीबन 10 दिन विलम्ब से मेघ आगे बढ़ रहे हैं। यूँ तो मानसून की तारीखें आगे-पीछे होती रहती हैं लेकिन इस वर्ष गर्मी ने जो रौद्र रूप दिखाया उसकी वजह से देश का बहुत बड़ा हिस्सा हल़ाकान हो गया। तापमान ने पिछले सभी कीर्तिमान ध्वस्त कर दिए। लगातार पारे के 45 डिग्री और उससे भी उपर बने रहने से जनजीवन तो अस्त-व्यस्त और त्रस्त हुआ ही पशु-पक्षी भी परेशान हो उठे। तापमान का बढऩा केवल भारत की समस्या नहीं है लेकिन इस समस्या से जूझने के लिए जिस चिंतन और तदनुसार प्रयासों की जरूरत हुई उसके अभाव की वजह से ग्रीष्म ऋतु साल दर साल पीड़ादायक होती जा रही है। जल का संकट इसके पीछे बड़ा कारण है। देश के वे इलाके जहां कभी जल स्रोतों की भरमार रही वे भी पानी की कमी का सामना करने मजबूर हैं। विकास की नई-नई ऊंचाइयां छूने के दावों के बीच देश के दर्जनों शहरों में लोग बूँद-बूँद पानी के लिए तरसने मजबूर हों तब ये कहना ही पड़ता है कि कहीं न कहीं कुछ कमी रह गई जिससे कि सर्वोच्च प्राथमिकता वाले विषय की अनदेखी कर दी गई। इस बारे में सबसे दुखदायी बात ये है कि सरकार सहित समूचे समाज को इस स्थिति के लिए पूर्व में चेताया गया था लेकिन उस पर ध्यान नहीं दिया गया। बढ़ती आबादी और शहरों के बेतरतीब विकास ने समस्या को और विकराल बना दिया। कुएं, तालाब, बावली और यहाँ तक कि छोटी-छोटी सहायक नदियों का अस्तित्व धीरे-धीरे समाप्त होता चला गया। जो पानी श्रमसाध्य था वह तकनीक के विकास की वजह से सुलभ क्या हुआ उसकी अपराधिक बर्बादी जैसे हालात बन गये। भूजल स्तर में लगातार गिरावट ने समस्या को और भी गम्भीर बना दिया। ले देकर मानसून और हिमालय के ग्लेशियरों से निकली नदियाँ ही देश में जलापूर्ति का जरिया बच रहीं। लेकिन प्रकृति के स्वभाव में हो रहे परिवर्तन ने एक तरफ  जहां मानसूनी बरसात को अनिश्चित बना दिया वहीं दुनिया भर में बढ़ रहे तापमान ने हिमालय की पर्वतमालाओं पर जमी बर्फ  के अथाह भंडार में भी सेंध लगा दी। इन सबका संभावित परिणाम जल के गम्भीर संकट के तौर पर सामने आने लगा लेकिन उसके बाद भी न सरकार चेती और न समाज ने इस बारे में अपनी जिम्मेदारी का एहसास ही किया। मानसून में कुछ दिनों की देरी से पूरा देश परेशान होकर रह गया। प्रश्न ये है कि क्या बीते कुछ महीनों से भीषण गर्मी झेल रहे देश के करोड़ों लोगों के मन में जल संरक्षण की भावना जाग्रत होगी या ज्योंही बरसात हुई त्योंही सब कुछ बुलाकर फिर भेड़ चाल शुरू हो जायेगी। पानी के लिए लड़ रहे कार्यकर्ता राजेन्द्र सिंह ने तो जलाधिकार नामक एक नई सोच को जन्म दिया। दूसरी पारी की शुरुवात करते ही प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने ग्रामीण क्षेत्रों में हर घर तक नल से पानी पहुँचाने की महत्वाकांक्षी योजना को अपनी प्राथमिकताओं में शामिल कर लिया। श्री मोदी जिस काम को हाथ में लेते हैं उसे परिणाम तक पहुँचाने के लिए प्रयासरत हो जाते हैं। गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने सौराष्ट्र के सूखे इलाकों तक नर्मदा का पानी पहुँचाने का जो कारनामा किया वह उनकी प्रतिबद्धता का प्रमाण है। लेकिन देश भर के गांवों में घर-घर पानी पहुँचाने का लक्ष्य तब तक पूरा नहीं हो सकेगा जब तक जल के संरक्षण की समुचित सोच और उसके अनुरूप व्यवस्थाएं न हों। उस दृष्टि से जरूरी है कि एक तरफ  तो पानी की फिजूलखर्ची जैसी अय्याशी पर विराम लगे वहीं दूसरी तरफ  बचे हुए जल स्रोतों को मरने से बचाने पर ध्यान देते हुए बरसाती पानी के अधिकतम संरक्षण की कार्ययोजना पर तेजी से काम हो। नगरीय सीमाओं में वाटर हार्वेस्टिंग की व्यवस्था नये बन रहे मकानों के लिए अनिवार्य तो है लेकिन स्थानीय निकाय मकान बन जाने के बाद कभी ये देखने तक नहीं आते कि भवन स्वामी ने उसकी व्यवस्था की भी या नहीं? इसी के साथ पहले से बने घरों में भी वाटर हार्वेस्टिंग प्रणाली को अनिवार्य किया जाना चाहिए। शहरों में नाली से नाली तक सड़क बनाने के कारण कच्ची जगह कम होती जा रही हैं। घरों के बीचों-बीच बनने वाले कच्चे आँगन भी अतीत बनकर रह गये हैं। ऐसे में पानी के संरक्षण हेतु किये जाने वाले प्रयासों को बदली हुई परिस्थिति के अनुरूप ढालकर जल ही जीवन है को एक राष्ट्रीय सोच बनाने का अभियान बनाने की जरुरत है। अनेक समाज विज्ञानियों ने ये भविष्यवाणी की है कि अगला विश्व युद्ध पानी के लिए ही होगा। उत्तरी धु्रव से बड़े-बड़े हिमशैल जिस तेजी से समुद्र में उतरकर आ रहे हैं वह उक्त भविष्यवाणी में निहित आशंका को बल प्रदान करती है लेकिन विकसित देशों ने तो पर्यावरण और प्रकृति के संरक्षण के लिए चिंता और चिंतन करते हुए काम भी शुरू कर दिया जबकि हमारे देश में अभी तक ये केवल बुद्धिविलास का हिस्सा मात्र है। बेहतर हो नरेंद्र मोदी उन्हें मिले विराट जनादेश का इस दिशा में उपयोग करते हुए जल संरक्षण और संवर्धन को सर्वोच्च प्राथमिकता वाला विषय बनायें। वरना पानी के लिए विश्वयुद्ध जब होगा तब होगा लेकिन हमारे देश के भीतर जरुर इसके लिए खूनखराबा होने लगेगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी