Wednesday 5 June 2019

पर्यावरण दिवस : जितनी आबादी उतने वृक्ष


इस वर्ष गर्मियों में तापमान जितना बढ़ा उसके बाद से ये सवाल हर समझदार भारतीय के मन में उठ रहा है कि क्या इस बारे में निर्लिप्त रहा जाये या फिर ऐसा कुछ किया जाए जिससे कि आने वाले समय में ग्लोबल वार्मिंग के प्रकोप से देश को बचाया जा सके। इस वर्ष मानसून में विलंब के चलते चिंता के बादल मंडराने लगे हैं। पूरे देश से जो खबरें मिल रही हैं उनके मुताबिक तापमान कई दशकों के कीर्तिमान को तोडऩे पर आमादा है। इसका कारण केवल और केवल पर्यावरण के प्रति बरती गई अनदेखी और प्रकृति के साथ किये गए अत्याचार ही हैं लेकिन इसके पीछे मनुष्यों, के मन में घर कर चुकी विकास की वासना भी है। अधो संरचना के नाम पर हो रहे कार्यों की आवश्यकता से कोई इंकार नहीं कर सकता किन्तु यदि उसके लिए वृक्षों का कत्लेआम और जल स्रोतों के अस्तित्व को खतरे में डालने जैसा अपराध किया जाए तो फिर उसे अपने हाथों अपनी मौत लिखना कहा जा सकता है। भारत सदृश देश में जहां प्रकृति और पर्यावरण के साथ समन्वय बनाकर चलने के संस्कार घुटी में पिला दिए जाते थे वहां निरंतर बढ़ती गर्मी सोचने के लिए बाध्य कर रही है। हमारे देश की भौगोलिक संरचना विविधताओं से भरी है। यही वजह है कि विभिन्न हिस्सों का प्राकृतिक माहौल भी अलग-अलग है। लेकिन जब आधुनिक विज्ञान विकसित नहीं हुआ था तब भी जल, जंगल और जमीन को लेकर हमारे ऋषि-मुनि, मनीषी से लेकर आम जन तक बेहद सतर्क और समर्पित था। लेकिन ज्यों-ज्यों शिक्षा का प्रसार होता गया त्यों-त्यों विकास का पश्चिमी मॉडल भी लोग अपनाते चले गए। एक सुनियोजित षडय़ंत्र के चलते भारतीय ज्ञान परंपरा के प्रत्येक पहलू को पिछड़ेपन का प्रतीक बता दिया गया। उसी का दुष्परिणाम आज सामने है। ये बात पूरी तरह से हास्यास्पद है कि जिन देशों ने प्रकृति और पर्यावरण के साथ अमानवीय व्यवहार करने के लिए हमें बाध्य किया आज वही उसकी रक्षा का उपदेश बांटते फिर रहे हैं। लेकिन उसमें भी कई असमानता है। विकसित, विकासशील और अविकसित देशों के लिए अलग-अलग मापदंड इसका प्रमाण हैं। ऐसे में ये जरूरी लगता है कि भारत उधार में मिल रहे ज्ञान से परहेज करते हुए अपनी परंपरा और अनुभवों के आधार पर अपना रास्ता स्वयं चुने। आज के दिन चिंता से उबरकर इस बात पर चिंतन होना चाहिए कि जो नुकसान हो चुका उसे आगे होने से कैसे रोका जाए और जो रास्ता समझ आता है वह कोई नया नहीं है। बेहतर हो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी पहली पारी में शुरू किए गए राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन को और विस्तार देते हुए राष्ट्रीय वृक्षारोपण मिशन शुरू करवायें और जिस तरह खुद श्री मोदी ने झाड़ू उठाई उसी तरह उन्हें वृक्षारोपण की मुहिम भी अपने नेतृत्व में शुरू करनी चाहिए। ये कहना गलत नहीं होगा कि नेतृत्व के प्रति जैसा विश्वास पं नेहरू, इंदिरा गांधी, अटल जी के दौर में था वह सब श्री मोदी में समाहित हो गया है। नेता जब लोकप्रियता के शिखर पर हो तब वह जनता को रचनात्मक और विध्वंसात्मक दोनों दिशाओं में मोडऩे में कामयाब हो सकता है। संयोगवश दो सप्ताह पूर्व ही प्रधानमंत्री ने चुनावी समर में ऐतिहासिक विजय हासिल कर जबर्दस्त बहुमत हासिल किया है। ये भी सुखद संयोग है कि देश के बड़े भूभाग में मोदी है तो मुमकिन है नारे का जादू लोगों के सिर पर चढ़कर बोल रहा है। इस माहौल का फायदा उठाकर प्रधानमंत्री जितनी जनसंख्या उतने वृक्ष का आह्वान करें तो बड़ी बात नहीं उनका दूसरा कार्यकाल पूरा होते तक देश पर्यावरण संरक्षण में भी विश्व का नेतृत्व करने की स्थिति में आ जायेगा। परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने गत दिवस ही प्रतिदिन 40 किलोमीटर सड़क बनाने के साथ ही 125 करोड़ वृक्ष लगाने की जो बात कही उसे लागू करने का सही वक्त यही है। नरेंद्र मोदी युवा पीढ़ी के मन में ये भरोसा जगाने में कामयाब हो गए हैं कि मजबूत इरादे और नेकनीयती से असम्भव भी सम्भव हो सकता है। शुरू-शुरू में स्वच्छता मिशन का भी खूब मजाक उड़ाया गया था। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने यहां तक कहा कि जिन बेरोजगारों के हाथों को काम दिया जाना था उन्हें मोदी जी ने झाड़ू पकड़ा दी। लेकिन छोटे-छोटे बच्चों तक में स्वच्छता के प्रति जो लगन पैदा हुई उसके बाद ये उम्मीद करना बेमानी नहीं होगा कि आबादी के बराबर वृक्षारोपण और उनका संरक्षण करने के आह्वान को राष्ट्रव्यापी समर्थन मिलेगा और विपक्ष भी इसका समर्थन करने बाध्य होगा। सबसे बड़ी बात ये है कि स्वच्छता और पर्यावरण संरक्षण का चोली दामन का साथ है। नरेंद्र मोदी को इतिहास ने जो अवसर दिया है वे उसे अमरत्व प्रदान कर सकते हैं। उनके पास श्री गडकरी जैसे सपनों को साकार करने में सक्षम सहयोगी है। इस संयोग का लाभ लेकर पर्यावरण संरक्षण को राष्ट्रीय संस्कार के तौर पर पुनस्र्थापित करना सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का सबसे सकारात्मक उदाहरण हो सकता है। वृक्षारोपण कार्यक्रम को सफल बनाने के लिये जो भी जरूरी हो किया जाए वरना आर्थिक मोर्चे पर हासिल की जा रही सारी उपलब्धियां अर्थहीन होकर रह जाएंगी। विज्ञान के बलबूते भारत ने मंगल और चंद्रमा पर उतरने की क्षमता तो हासिल कर ली किन्तु उससे भी बड़ी जरूरत है इस देश की धरती को इंसानों के रहने लायक बनाये रखने की है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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