बसपा अध्यक्ष मायावती की राजनीति किसी सिद्धांत या आदर्श की बजाय केवल एकपक्षीय लाभ और उपयोगितावाद की सोच पर आधरित है। उन्होंने कब, किससे और कितनी बार समझौते किये ये अच्छे-अच्छों को याद नहीं होगा। बीते लगभग डेढ़ साल से उप्र में अपनी घोर विरोधी समाजवादी पार्टी के साथ उनके महागठबंधन की चर्चा पूरे देश में रही। लोकसभा चुनाव के पूर्व ये माना जा रहा था कि उप्र में 2014 के परिणामों को दोहराने का भाजपा का सपना सपा-बसपा का गठजोड़ चूर-चूर कर देगा। बड़े-बड़े राजनीतिक पंडित भी ये मानकर चल रहे थे कि मायावती और अखिलेश का जातीय अंकगणित नरेंद्र मोदी के आक्रामक राष्ट्रवाद और अमित शाह की रणनीति पर भारी पड़ेगा। कतिपय सर्वेक्षण तो भाजपा को 80 में से बमुश्किल 25 सीटें मिलने की बात कहते सुने गए। इनसे उत्साहित होकर दोनों पार्टियां पुराने गिले शिकवे भूलकर साझा रैलियाँ करने लगीं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण मैनपुरी में देखने मिला जब मायावती ने मुलायम सिंह यादव को जिताने के लिए सपा के मंच से भाषण दिया । जवाब में मुलायम सिंह ने मायावती के आगमन का आभार माना तो अखिलेश की पत्नी डिम्पल ने मंच पर ही उनके चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लिया। लेकिन 23 मई की दोपहर आते तक सारे समीकरण उलट गए। भाजपा ने 62 सीटें जीतकर सपा-बसपा गठबंधन को कागजी शेर साबित कर दिया। हालाँकि मायावती को 10 सीटें मिल गयी जबकि 2014 में बसपा शून्य पर थी लेकिन सपा घटकर 5 पर आ गई। मुलायम के भतीजे और अखिलेश की पत्नी की पराजय ने सैफई कुनबे की प्रतिष्ठा को जबरदस्त आघात पहुंचाया। नतीजों के बाद से ही मायावती ने अपनी आदतानुसार सपा और अखिलेश को कोसना शुरू कर दिया। यादव मतों के बसपा की तरफ नहीं आने का आरोप लगाते हुए उन्होंने गठबंधन से तौबा कर ली और निकट भविष्य में होने वाले विधानसभा के उपचुनाव अकेले ही लडऩे की घोषणा भी कर दी। यहीं नहीं तो अखिलेश की नेतृत्व क्षमता पर भी खुले आम उँगलियाँ उठाई। हालाँकि अखिलेश या मुलायम सिंह ने बसपा या मायावती के विरुद्ध किसी भी तरह का तीखा बयान नहीं दिया। अखिलेश ने तो भविष्य में भी बसपा के साथ काम करते रहने की मंशा जताई। लेकिन गत दिवस मायावती ने सपा और मुलायम परिवार के प्रति अपने मन में भरा गुबार एक बार फिर निकालते हुए ताज कॉरीडोर मामले में मुलायम सिंह और भाजपा की सगामित्ती की बात भी कही। इसी के साथ उन्होंने पार्टी में उत्तराधिकार को लेकर चली आ रही अनिश्चितता खत्म कर दी। अपने भाई आंनद के साथ ही भतीजे आकाश को नेतृत्व के क्रमश: दूसरे और तीसरे क्रमांक पर स्थापित करने की घोषणा करते हुए बसपाइयों से साफ कह दिया कि जैसी बात वे उनकी मानते आये हैं वैसी ही इन दोनों की मानी जाए। पार्टी के महासचिव का दायित्व बरसों से संभाल रहे सतीश चन्द्र मिश्रा को उन्होंने अपना भरोसेमंद सहयोगी तो बताया लेकिन उन्हें जैसे थे की स्थिति से आगे नहीं बढने दिया। इस तरह बहुजन की बात करने वाली पार्टी भी परिजन में सिमटकर रह गयी। बसपा के संस्थापक और दलित आन्दोलन को राजनीतिक रूप देने वाले स्व. कांशीराम मूलत: पंजाब के थे। यद्यपि वे अविवाहित रहे लेकिन अपने परिवार के किसी सदस्य के बजाय उन्होंने मायावती को उत्तराधिकारी बनाकर अपनी ईमानदारी पेश की। संयोग से मायावती भी अविवाहित ही हैं। प्रारम्भ में तो उन्होंने स्वामीप्रसाद मौर्य जैसे नेताओं को अपने निकट रखकर महिमामंडित किया लेकिन ज्यों-ज्यों वे ताकतवर होती गईं त्यों-त्यों उनके भीतर तानाशाही की प्रवृत्ति जोर मारने लगी। बसपा और मायावती एक दूसरे के पर्याय बनकर रह गये। दलितों की नेत्री में अमीर बनने और उन जैसी जीवन शैली का शौक इस कदर सवार हुआ कि वे महारानी बन बैठीं। हीरे-जवाहरात और जमीन-जायजाद के प्रति उनका प्रेम चर्चा का विषय बनने लगा। आलोचना के जवाब में वे इसे दलित स्वाभिमान और उत्कर्ष का प्रतीक बताने लगीं। जोड़-तोड़ और अवसरवादी गठबन्धन के जरिये कई बार वे उप्र की मुख्यमंत्री भी बनीं लेकिन किसी न किसी कारणवश वह सरकार चल नहीं सकी। 2007 में उनका चरमोत्कर्ष आया जब उन्होंने बसपा को उप्र में स्पष्ट बहुमत दिलवाकर एक इतिहास रच दिया। उस चुनाव में सवर्णों का मत भी उन्हें मिला। सतीश चन्द्र मिश्र ने तिलक, तराजू और तलवार-इनको मारो जूते चार के नारे को हाथी नहीं गणेश है- ब्रह्मा, विष्णु,महेश है, में बदलकर बहुजन समाज पार्टी के दलित ठप्पे को काफी कुछ धो दिया। बतौर प्रशासक मायावती की छवि अच्छी बनी। उनके राज में कानून व्यवस्था की स्थिति भी संतोषजनक थी लेकिन भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण वे 2012 के विधानसभा चुनाव में सत्ता गँवा बैठीं और तभी से बसपा का जनधार सिकुडऩा शुरू हो गया। मायावती के साथ बरसों तक जुड़े नेता एक-एक कर साथ छोडऩे लगे। चुनावी टिकिटों की बिक्री ने बसपा की दलित पहिचान को भी नुकसान पहुंचाया। 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनाव में उप्र में बसपा का एक तरह से सफाया हो गया। ऐसा नहीं है कि दलित मतों का धु्रवीकरण बिखर गया हो लेकिन मायावती की स्वेच्छाचारिता, शक्की स्वभाव और दलितों में भी एक जाति विशेष के प्रति मोह के कारण अन्य दलित जातियों के मन में बसपा के प्रति अविश्वास पनपा जिसका नतीजा बीते पांच सालों में तीन बार उप्र की राजनीति में देखने मिला। गत दिवस अपने भाई और भतीजे को विधिवत बसपा में दूसरे और तीसरे स्थान पर बिठाकर उन्होंने ये साफ कर दिया कि वे दलितों की नहीं अपने परिवार की हितचिन्तक हैं। उनके भाई आनन्द की व्यवसायिक गतिविधियां भी चर्चा में रही हैं और अब तो भतीजा भी विदेश पढ़कर आ गया। ऐसा लगता है लगातार पराजय के बाद मायावती को लगने लगा कि वे बसपा में उत्तराधिकार को लेकर व्याप्त अनिश्चितता को खत्म कर दें लेकिन ऐसा करते हुए उन्होंने पार्टी के रहे-सहे आधार को भी हिला दिया। भारतीय राजनीति में परिवारवाद नई बात नहीं होने से इसे लेकर कोई चौंकता नहीं है लेकिन पिछड़ों और दलितों के नाम पर सियासत करने और समाजिक न्याय की माला जपने वाली पार्टियों और उनके नेताओं (मुलायम सिंह, लालू प्रसाद, रामविलास पासवान) का परिवार प्रेम देखकर दु:ख होता है। डा. लोहिया और डा अम्बेडकर की वैचारिक विरासत का जिस तरह से भद्दा मजाक या यूँ कहें कि अपमान उनके तथाकथित अनुयायियों ने किया उसके कारण ही पिछड़ी और दलित जातियों में नव सामन्तवाद का उदय हो गया। मायावती द्वारा अपने भाई और भतीजे को बसपा का भावी नेता बनाये जाने के बाद इस पार्टी में बिखराव की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता। बड़ी बात नहीं जो हश्र डा. अम्बेडकर द्वारा बनाई रिपब्लिकन पार्टी का हुआ वही आगे जाकर बसपा का भी हो जाए।
-रवीन्द्र वाजपेयी
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