Tuesday 25 June 2019

जब एक व्यक्ति की सत्ता बचाने लोकतंत्र को सूली पर चढ़ा दिया गया!

2019 के लोकसभा चुनाव के पहले एक - दो साल तक देश में अघोषित आपातकाल का भय पैदा करने का सुनियोजित अभियान चला। ये प्रचार भी किया जाता रहा कि अभिव्यक्ति का गला घोंट दिया गया , संवैधानिक संस्थाओं की आज़ादी खत्म हो रही है तथा देश तानाशाही की तरफ  बढ़ रहा है। धर्म निरपेक्षता को खतरे में बताने वालों ने भी जमकर चिल्ल्पों मचाई जिसमें कुछ टीवी चैनल भी अग्रणी थे। लेकिन इस समूचे अभियान में सबसे रोचक बात ये रही कि जिस कांग्रेस के राज में 44 साल पहले देश को आपातकाल में जकड़कर अभिव्यक्ति तो क्या जीने का मौलिक अधिकार तक छीन लिया गया वही इस प्रचार में अगुआ रही। उसके पीछे वे वामपंथी विचारक आ खड़े हुए जिन्हें आपातकाल किसी वैचारिक क्रांति का सूत्रपात लगता था। लेकिन बीती 23 मई को देश की जनता ने उस प्रचार अभियान की हवा वैसे ही निकाल दी जैसी 1977 में हुए लोकसभा चुनाव में इदिरा गांधी की सत्ता पलटकर निकाली थी। ये भी संयोग है कि उस चुनाव में भी अमेठी में कांग्रेस हारी और इस चुनाव में भी इतिहास दोहराया गया। 25 और 26 जून 1975 की दरम्यानी रात में जब पूरा देश नींद के आगोश में था तब तत्कालीन प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी ने देश पर आपातकाल थोप दिया और समूचे विपक्ष को जेल में ठूंस दिया। जयप्रकाश नारायण , अटलबिहारी वाजपेयी , लालकृष्ण आडवाणी , मधु लिमये , मधु दंडवते , कर्पूरी ठाकुर जैसे बड़े - बड़े नेताओं को देश के लिए संकट बताकर सलाखों के पीछे भेज दिया। अखबारों पर सेंसर लग गया। संसद का चुनाव एक वर्ष टालने जैसा अभूतपूर्व निर्णय किया गया। विपक्ष विहीन संसद इंदिरा जी की दरबारी बनकर रह गई। कांग्रेस के अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने इंदिरा ही भारत और भारत ही इंदिरा जैसा बयान देकर चाटुकारिता का नया कीर्तिमान स्थापित कर दिया। 19 महीने बाद जब इंदिरा जी को लगा कि विपक्ष पूरी तरह मरणासन्न है तब अचानक 1977 शुरू होते ही उन्होंने लोकसभा चुनाव का ऐलान करवा दिया। लेकिन अभिव्यक्ति की आजादी पर लगे प्रतिबन्ध के बावजूद जनता ने मौन क्रांति के जरिये इंदिरा जी को सत्ता से ही नहीं अपितु संसद तक से बाहर कर दिया। स्वाधीन हिन्दुस्तान के इतिहास का वह काला अध्याय आज की पीढी को नहीं पता क्योंकि दलगत राजनीति मीठा - मीठा गप और कड़वा- कड़वा थू पर आधारित है। हालाँकि बाद में आपातकाल के कुछ भुक्तभोगियों ने ही 1977 के जनादेश का जबर्दस्त अपमान किया जिससे कि देश फिर उन्हीं ताकतों के हाथ चला गया जो प्रजातंत्र के नाम पर परिवार की सत्ता के सिद्धांत के पक्षधर रहीं। बहरहाल उन ताकतों को बीते पांच वर्ष में दो बार पटकनी देकर देश ने साबित कर दिया कि लोकतंत्र की कीमत पर उसे कुछ भी स्वीकार नहीं है। 2019 का जनादेश भले ही नरेंद्र मोदी के नाम लिखा गया हो लेकिन सही अर्थों में उससे उस राजनीतिक संस्कृति से मुक्ति का रास्ता साफ़ हो गया जो देश को निजी स्वार्थों की आग में झोकने पर आमादा थी। ऐसी तमाम ताकतों के गठजोड़ को मतदाताओं ने पूरी तरह नकारते हुए अपात्काल लगाने वाली मानसिकता की जड़ों में ही मठा डाल दिया। उस दृष्टि से आज का दिन बड़े ही ऐतिहासिक महत्व का है। भारत के भविष्य की कर्णधार युवा पीढ़ी को आपातकाल के उस अंधकारपूर्ण दौर के बारे में बताये जाने की जरूरत है जिससे कि सत्ता से वंचित कुंठाग्रस्त तबका आपातकाल को लेकर भय का जो भूत खड़ा करने पर आमादा है उसकी सच्चाई सामने आये। दरअसल भारत के टुकड़े करने वाली मानसिकता पर किये जा रहे प्रहार से बौखलाये तथाकथित प्रगतिशील लोग अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते हुए निरंतर पराजय झेलने मजबूर हैं। ऐसे में उनके पास सिवाय मिथ्या प्रचार करने के और कोई रास्ता नहीं बच रहता। दुर्भाग्य से कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी भी अंध भाजपा विरोध में शहरी नक्सलियों की गैंग के चक्रव्यूह में फंसकर अपनी छवि और विश्वसनीयता पर खुद ही सवालिया निशान लगा लेती है। गत दिवस लोकसभा में उसके नेता अधीर रंजन चौधरी का बयान इसकी बानगी है। लोकसभा चुनाव के बाद आई आपातकाल की यह वर्षगांठ जनता को इस बात के लिए सचेत करती है उसकी उदासीनता लोकतंत्र के लिए कितनी भारी साबित हो सकती है। ये संतोष की बात है कि बीते दो लोकसभा चुनावों में देश की जनता ने जाति, प्रान्त , भाषा और धर्म से उपर उठकर राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देते हुए अपने मताधिकार का उपयोग किया। आपातकाल लगने के 44 साल बाद भी उस दिन की यादें भयाक्रांत कर देती हैं जब एक व्यक्ति की सत्ता बचाने के लिए लोकतंत्र को सूली पर चढ़ाने का पाप किया गया था।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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